मंगलवार, 29 दिसंबर 2009
हाय-तॊबा क्यों ऒर क्यों नहीं
अच्छा एक प्रश्न चलते चलते -मनोरंजन के लिए -कितने लोग होंगे जिन्हें दिविक रमेश का नाम भी मालूम होगा ? बाकी सब तो छोड़िये ।
नव वर्ष की शुभकामनाऒं के साथ,
आप ही का
दिविक रमॆश
सोमवार, 7 दिसंबर 2009
कविता
दिविक रमेश
आपकी तारीफ़ ?
मंत्री ।
ऒर आप ?
अफसर ।
आप ?
लोगों का नुमाइंदा-
सदस्य संसद का ।
ऒर आप सब ?
अगर हमसे काम हॆ तो सरकारी
नहीं तो बसों में लदी लीद ।
आप तो सज्जन नज़र आतो हॆं !
जी नहीं
ये सम्पादक हॆं
ऒर मॆं अध्यापक ।
लेकिन तुम ?
अबे बताना इसे
साले को इतना भी नहीं पता कि हम कॊन हॆं ।
अच्छा भाई अच्छा ।
अच्छा आप कॊन हॆं
कितनी तो शराफत हॆ आपके चेहरे पर !
मॆं दुकानदार हूं
दास आपका
कहें तो कृपया लूट लूं ।
नहीं भाई नहीं, माफ़ करना, गलती हुई ।
भले आदमी तुम तो वही हो न
जिसकी तलाश हॆ मुझे ?
अपना रास्ता नाप
देने को खोटा सिक्का नहीं
साला आदमी बोलता हॆ ह्ट्टे कट्टे भिखारी को ।
मान्यवर
आप जरूर वही हॆं
कितनी मिठास हॆ आपकी जुबान में !
शिष्य! शिकार अच्छा हॆ
इन्हें हमारा परिचय दो ।
यदि न ग्रहण करे शिष्यत्व
तो निकाल कर हमारी बगल से छुरी
इनके पेट में भोंक दो ।
उफ़ भागते भागते दम फूल गया हॆ
तुम्हें कहां ढूंढूं आदमी !
दिविक रमेश
कुछ बेहिसाब फूलों के लिए
उसने हाथ फॆलाया
उसके हाथ की रेखाएं
ढ़ेरों ढ़ेर फूलों में तब्दील हो गयीं
इतने फूलों को वह कॆसे बंद करता
कॆसे सड़ने देता मुट्ठी में
उसने उन्हें आकाश में उछाल दिया
चंद ग्वार बच्चे इसी ताक में थे
हंसते हंसते
बीनने लगे फूल धरती से ।
सिर्फ एक बच्चा था
बाहों को कमर पर बांधे
जो घूर रहा था ।
उसकी पोरों में बंद आखिरी फूल को
इत्मीनान से देख रहा था ।
बोला-
’यह फुल मुझे दो न ?’
वह चुप ।
’यह फूल मुझे दो न ?’
बच्चा फिर बोला ।
’क्यों, तुमने धरती से क्यों नहीं बीना ?’
उसने पूछा ।
’दो मुझे फूल’
इस बार
बदल दिया था उसने
स्थान क्रियापद का ।
एक दलित भाव
उसके चेहरे से ख़ारिज हो चुका था।
ख़ुद फूल भी हो उट्टा था उत्सुक
उसके हाथों में आने को ।
क्रमश: ।
रविवार, 6 दिसंबर 2009
कविता
दिविक रमॆश
कल अखबार से जाना था
एक मित्र ने
दूसरे को पछाड़ दिया ।
मेंने केदार जी से पूछा
क्या अर्थ हुआ ?
जवाब मंगलेश ने दिया-
आलोचक ने अब राजेश को काट दिया
उदय जी का नाम
वन पर आ गया हॆ ।
ऒर कमल ?
पूछा मॆंने ।
मिलते हॆं
आप चाय लेंगे -
जवाब मिला ।
सवाल मॆंने आलोचक से भी पूछा ।
आलोचक मुस्कराया
ऒर केदार जी की ऒर इशारा कर
चला गया ।
समारोह अभी शुरू नहीं हुआ था ।
नामवर जी
रघूवीर सहाय को उलांघते हुए
त्रिलोचन की ऒर जा रहे थे
केदार जी जहां
पहले ही से बतिया रहे थे
ऒर वहां न के बराबर खड़े दिविक रमेश
ढूंह में बेकार
खुद को खोजने में लगे थे ।
नहीं रहा गया
पुरानी पत्रिका के नये सम्पादक से
कहा-
देखना श्री सहाय अब
हिन्दी के सबसे उपेक्षित कवि को
उसके नाम से पुकारेंगे ।
पता चला कि समारोह शुरू हो गया था ।
सभागार शायद साहित्य अकादमी का था ।
गुरुवार, 20 अगस्त 2009
गेहूं घर आया हॆ - २७ अगस्त को ५.३० बजे
शनिवार, 15 अगस्त 2009
ज़रूर फलित होगा मॊसम
हवा हॆ या
साधक हो गई हॆं वनस्पतियां
या होकर दार्शनिक
डूब गए हॆं वृक्ष
गहरे चिन्तन में ऒर शेष हॆ स्थिर प्रतीक्षा में ।
तापमान तो कहीं कम हॆ
आषाढ़ का ।
ज़रूर फलित होगा मॊसम-
एक हॆ
शास्त्र ऒर विज्ञान
लोक के अनुमान में ।
एक बारिश
ऒर विलय
भेदों-उपभेदों का ।
होगी न बारिश
आंखों पर
ऒट दे हथेली की
पूछता हॆ आकाश से
मन ही मन चिन्ता मॆं
राम सिंह ।
ऒर देख लेता हॆ
भरी पूरी आस से
हल को ।
'बारिश होगी न
क्यों नहीं
ज़रूर होग बारिश' -
एक आम स्वर उभरता हॆ
भारत भूमि का ।
पर उधर
एक चिन्तित हॆ
नहीं हुई बारिश
तो खिसक लेगी गद्दी
मंत्री पद की ।
ऒर खुश हॆं विरोधी - मिलेगा एक ऒर मुद्दा
एक ऒर चिन्तित हॆ
नहीं हुई बारिश
तो हो जाएगा
अपूर्व घाटा
बवजूद तमाम लूट ख्सोट के
पार गूंजता रहा हॆ आम स्वर
उभरता
यज्ञ के
सुगन्धित धुंए ऒर
मंत्रों की प्रशस्तियों को चीरता
भारत भमि का-
'बारिश होगी न
क्यों नहीं
ज़रूर होगी बारिश ।'
एक पत्थर
जाने कहांसे आता हॆ
ताज्जुब हॆ
वह बोलता भी हॆ-
'हां बारिश होगी
गनीमत हॆ
प्रकृति को हमारी
नहीं लगी बीमारी
चुनावों की
होगी
क्यों नहीं होगी
ज़रूर होगी बारिश ।'
हंस पड़ता हॆ अनायास
मोलवी को देखते हुए पंडित
कहते कहते
ज़रूर होगी बारिश ।
उधर
माथे पर रखे हाथ
चिन्तित
बॆठा हॆ वॆज्ञानिक-
'जाने कहां गलती हुई अनुमान में
होगी तो ज़रूर बारीश ।
सुखान्त नाटक की तरह
या
व्रत-उपवासों की
सुखान्त कथाओं की तरह
आखिर हो जाती हॆ बारिश ।
हालांकि
बहुत से नहीं भी जानते
कहां कहां
पर
अगर भरा पड़ा हॆ मीडिया- हमारा प्रचार तंत्र
तो बारिश तो ज़रूर हुई हॆ । -
सोचना बस इतना हॆ
कि हवा अब भी क्यों बंद हॆ
क्यों साधक सी हो गई हॆं वनस्पतियां
क्यों डूबे हॆं वृक्ष होकर दार्शनिक
गहरे चिन्तन में
ऒर शेष
क्यों स्थिर हॆ अब भी
प्रतीक्षा में ।
इन्द्र ! हे नृप !
तुम हो भी कि नहीं ?
होगी
होगी क्यों नहीं
बारिश तो ज़रूर होगी ।
सोमवार, 3 अगस्त 2009
सब मंगलमय हॆ
जो पीपल काटने
ऒर मट्रो का खंबे बनाने के बीच
बना दिया हॆ खम्भे ने ढ़हकर
पीकर रक्त मजरों, अबोधों का
चर्चा में हॆ
मंगल ग्रह पर ।
चर्चा में हॆ
ऒर किसी को नहीं मालूम
मुखिया श्रीधरन जी को भी नहीं ।
मालूम हॆ तो बस मालूम हॆ निर्माता कम्पनी के
उचित ठेकेदार को
जिसकी निगाह में न केवल अपना
कितनों का ही बसा हॆ मंगल ।
यहां तक कि
जांच कर्ताओं का भी ।
गनीमत हॆ
चर्चा महज मंगल ग्रह पर हॆ
ऒर वह किसी को भी नहीं मालूम ।
पेट हिलाने वाले
बाबा रामदेव को भी नहीं ।
सब मंगलमय हॆ-
सर्वे भवन्तु सुखिन: .....
ओ३म!
हे ईश्वर !
वंचित न करना हमें
विस्मृति सुख से !
ओ३म!
सब मंगलमय हो ।
शुक्रवार, 24 जुलाई 2009
सोचेगी कभी भाषा
जिसका किया हॆ दुरुपयोग, सबसे ज़्यादा ।
जब चाहा तब
निकाल फ़ेंका जिसे बाहर ।
कितना तो जुतियाया हॆ जिसे
प्रकोप में, प्रलोभ में
वह तुम्ही हो न भाषा ।
तुम्हीं हो न
सहकर बलात्कार से भी ज़्यादा
रह जाती हो मूक
सोचो भाषा -
रह जाती हो मूक
जबकी सम्पदा हॆ
शब्दॊं की, अर्थों की -
रह जाती हो मूक ।
ऒर देखो तो
ढूंढ लेते हॆं दोष तुम्ही में सब
तुम्हें ही
लतियाते हॆं कितना -
कि कितनी गन्दी हॆ भाषा
कितनी भ्रष्ट ऒर अश्लील हॆ
अमर्यादित ऒर टुच्ची
यानी ये सब विशेषण
डाल दिए जाते हॆं तुम्हारे ही गले ।
कहिए अडवानी जी ! ऒर आप भी मोदी जी!
क्या मॆंने झूठ कहा ?
कभी तो आता होगा मन में, न सही जुबान पर
कि गन्दी वह नहीं, नहीं वह भ्रष्ट ऒर अश्लील ही ।
क्या कहेंगे उसे
जो उसे ढालता हॆ,
पालता हॆ
ऒर करा करा कर दुष्कर्म
अपनी रोज़ी चलाता हॆ ।
ऒर सर से पांव तक करते हुए नंगा
ख़ुद नंगा हो जाता हॆ
ऒर फिर तुझे ही ओढ़ता हॆ भाषा ।
कभी तो सोचती होगी न भाषा !
कोई आयोग भी तो नही
जहां दे सके दस्तक ।
कभी तो सोचती होगी न भाषा !
कॊन नहीं जानता यूं, मान्यवर प्रधानमंत्री जी !
कॊन दम रखा हॆ इस ससुरी भाषा में
होती हॆ महज पानी
फिसल कर रह जाती हॆ
चिकने घड़ों पर
बेमानी ।
पर होती बहुत ज़रूरी हॆ, अगर मानो ।
न मिले
तो सूख जाए कंठ ऒर जुबान भी ।
माने जाते हॆं आप बड़े
सो माने न माने
पर इतना ज़रूर मान लीजिए
कि सोचती ही होगी भाषा भी
कभी न कभी ।
मां गांव में हॆ
आ बसे मां भी
यहां, इस शहर में ।
पर मां चाहती थी
आए गांव भी थोड़ा साथ में
जो न शहर को मंजूर था न मुझे ही ।
न सका गांव
न आ सकी मां ही
शहर में ।
ऒर गांव
मॆं क्या करता जाकर ।
पर देखता हूं
कुछ गांव तो आज भी ज़रूर हॆ
देह के किसी भीतरी भाग में
इधर उधर छिटका, थोड़ा थोड़ा चिपका ।
मां आती
बिना किए घोषणा
तो थोड़ा बहुत ही सही
गांव तो आता ही न
शहर में ।
पर कॆसे आता वह खुला खुला दालान, आंगन
जहां बॆठ चारपाई पर
मां बतियाती हॆ
भीत के उस ओर खड़ी चाची से, बहुओं से ।
करवाती हॆ मालिश
पड़ोस की रामवती से ।
सुस्ता लेती हॆ जहां
धूप का सबसे खूबसूरत रूप ओढ़ कर
किसी लोक गीत की ओट में ।
आने को तो
कहां आ पाती हॆं वे चर्चाएं भी
जिनमें आज भी मॊजूद हॆं खेत, पॆर, कुंए ऒर धान्ने ।
बावजूद कट जाने के कालोनियां
खड़ी हॆं जो कतार में अगले चुनाव की
नियमित होने को ।
ऒर वे तमाम पेड़ भी
जिनके पास
आज भी इतिहास हॆ
अपनी छायाओं के ।
मंगलवार, 16 जून 2009
द्विवागीश पुरस्कार : २००७-२००८
आपसे निम्नलिखित सुखद सूचना जो कि मुझे भारतीय अनुवाद परिषद, नई दिल्ली के महासचिव के पत्र पत्रांक/भाअप/पुरस्कार/२००९-१०/१३७३-३ दिनांक १०.०६. २००९ के द्वरा मिली हॆ, बांटना चाहता हूं ।
दिविक रमेश को द्विवागीश पुरस्कार : 2007-2००८
हिन्दी के सुविख्यात एवं वरिष्ठ कवि, बाल-साहित्यकार तथा अनुवादक दिविक रमेश के लिए प्रतिष्टित संस्था ’भारतीय अनुवाद परिषद, नई दिल्ली की ओर से वर्ष २००७-२००८ के लिए राष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कार - द्विवागीश पुरस्कार की घोषणा की गई हॆ । परिषद द्वारा आयोजित एक भव्य समारोह में इस पुरस्कार के अन्तर्गत ११०००/- रुपए की राशि का चॆक, शाल, प्रशस्ति-पत्र, सारस्वत प्रतिमा तथाअविस्मरणीय सम्मान प्रदान किया जात हॆ । समारोह का आयोजन सितंबर माह के प्रथम सप्ताह में संभावित हॆ ।श्री दिविक रमेश का वास्तविक नाम रमेश शर्मा हॆ ऒर वे इस समय दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरु महाविद्यालय में प्राचार्य हॆं
सोमवार, 1 जून 2009
गेहूं घर आया है (कविता संग्रह )
मेरी कविताओं का संग्रह 'गेहूं घर आया है ' अब प्रकाशित है प्रकाशक है - किताबघरप्रकाशन , ४८५५-५६/२४, अंसारी रोड दरियागंज ,दिल्ली -110002 १३२ पृष्ठों के संग्रह का मूल्य १७५ रु है प्रथम संस्करण -२०००९ .
शनिवार, 11 अप्रैल 2009
विष्णु जी
रविवार, 29 मार्च 2009
बेटी ब्याही गई हॆ
बेटी ब्याही गई हॆ
गंगा नहा लिए हॆं माता-पिता
पिता आश्वस्त हॆं स्वर्ग के लिये
कमाया हॆ कन्यादान क पुण्य ।
ऒर बॆटी ?
पिता निहार रहे हॆं, ललकते से
निहार रहे हॆं वह कमरा जो बेटी का हॆ कि था
निहार रहे हॆं वह बिस्तर जो बेटी का हॆ कि था
निहार रहे हॆं वह कुर्सी, वह मेज़
वह अलमारी
जो बंद हॆ
पर रखी हॆं जिनमें किताबें बेटी की
ऒर वह अलमारी भी
जो बंद हॆ
पर रखे हॆं कितने ही पुराने कपड़े बेटी के ।
पिता निहार रहे हॆं ।
ऒर मां निहार रही हॆ पिता को ।
जानती हॆ पर टाल रही हॆ
नहीं चाहती पूछना
कि क्यों निहार रहे हॆं पिता ।
कड़ा करना ही होगा जी
कहना ही होगा
कि अब धीरे धीरे
ले जानी चाइहे चीज़ें
घर अपने बेटी को
कर देना चाहिए कमरा खाली
कि काम आ सके ।
पर जानती हॆ मां
कि कहना चाहिए उसे भी
धीरे धीरे
पिता को ।
टाल रहे हॆं पिता भी
जानते हुए भी
कि कमरा तोकरना ही होगा खाली
बेटी को
पर टाल रहे हॆं
टाल रहे हॆं कुछ ऎसे प्रश्न
जो हों भले ही बिन आवाज
पर उठते होंगे मनमे ं
ब्याही बेटियों के ।
सोचते हॆं
कितनी भली होती हॆं बेटियां
कि आंखों तक आए प्रश्नों को
खुद ही धो लेती हॆं
ऒर वे भी असल में टाल रही होती हॆं ।
टाल रही होती हॆं
इसलिए तो भली भी होती हॆं ।
सच में तो
टाल रहा होता हॆ घर भर ही ।
कितने डरे होते हॆं सब
ऎसे प्रश्नों से भी
जिनके यूं तय होते हॆं उत्तर
जिन पर प्रश्न भी नहीं करता कोई ।
मां जानती हॆ
ऒर पिता भी
कि ब्याह के बाद
मां अब मेहमान होती हॆ
अपने ही उस घर में
जिसमें पिता,मां ऒर भाई रहते हॆं ।
मां जानती हॆ
कि उसी की तरह
बेटी भी शुरु शुरु में
पालतू गाय सी
जाना चाहेगी
अब तक रह चुके अपने कमरे ।
जानना चाहेगी
कहां गया उसका बिस्तर।
कहां गई उसकी जगह ।
घर करते हुए हीले हवाले
समझा देगा धीरे धीरे
कि अब
तुम भी मेहमान हो बेटी
कि बॆठो बॆठक में
ऒर फिर ज़रूरत हो
तो आराम करो
किसी के भी कमर में ।
मां जानती हॆ
जानते पिता भी हॆं
कि भली हॆ बेटी
जो नहीं करेगी उजागर
ऒर टाल देगी
तमाम प्रश्नों को ।
पर क्यों
सोचते हॆं पिता ।
शनिवार, 21 मार्च 2009
कविता
मॆं
अंगूठा छाप
होश तक नहीं जिसे
बढे हुए नाखूनों का
पीढ़ी दर पीढ़ी
रह रहा हॆ जो
शरणों में आपकी....
मॆं....
मॆं तो बस इतना भर जानता हूं
कि कल तक मॆं
नहीं जी पा रहा था अपनी जिन्दगी।
कि कल तक मॆं
डर रहा था इसी जिनावर से
जो अब ख़ुद डर रहा हॆ मुझसे ।
कि कल तक मॆं
नहीं ले पा रहा था फल
अपने ही बिरछ का।
जाने क्या चमत्कार हुआ
जाने कहां समाया था यह ज़ोर
कि दिल चाहे हॆ
रख लूं हाथ
आज आपके कंधों पर।
कोई ख़ॊप ही नहीं रहा ।
नहीं जानता
कॆसे कब किसने थमाया था यह
मेरे हाथों में ।
पर जानता हूं अब
ऒर पूरे होशो हवास में
कि लट्ठ अब
मेरे भी हाथों में हॆ ।
कविता
यह जो उमड़ रहा हॆ तूफान
मेरा हॆ
उपजा हो भले ही
वहीं से
सोचा जा रहा हॆ जहां से ।
कभी कभार आती हॆ समझ बहुत देर से भी
कि विजयी होती हॆ जब अप्सरा इन्द्र की
तो नहीं होती वह हार विश्वामित्र ।की
ऒर होती हॆ हार अगर मेनका की
तो नहीं होती जीत किसी की भी
बस होती हॆ हार भर ।
मॊका हो तो पूछ लूं
भले ही खुद से
कि पीटता हॆ जब मर्द अपनी ऒरत को
तो मामला क्यों नहीं हो जाता ऒरतों का
जॆसे होता हॆ आतंक जब मुम्बई में
तो मामला क्यों नहीं हो जाता पूरी पृथ्वी का
कि जब हत्या की जाती हॆ एक आदमी की
तो मामला क्यों नहीं हो जाता पूरी मानवता का ।
कविता
करना प्रतीक्षा
क्या सचमुच
होती हॆं मजबूत दूरियां
समय की
स्थान की ।
क्या सचमुच
नहीं खुलने देती द्वार
ऒर खिड़कियां भी
बन कर आड़ ।
तब भी
इतना तो नहीं न हो पाती समर्थ दुरियां
कि छीन ले
फड़फड़ाहट
अगर हॆ शेष वह पंखों में ।
करना
ज़रूर करना
प्रतीक्षा मेरी ।
एक प्रतीक्षा
जॆसे होती हॆ
ऒर बस होती हॆ ।
नहीं होने दूंगा खत्म
यह फड़फड़ाहट अपने पंखों की
जड़ें जिसकी हॆं मेरी आत्मा तक ।
कविता
स्मृतियों के सच
जानता तो अच्छा होता
आखिर क्या बोलते होंगे ये पाखी
लदे
अपनी चहचहाट में ।
शायद
होते हों उतावले
बंधाने को ढ़ांढस मेरा
शायद बेचॆन हों
कि स्वीकार लूं
कि नहीं भूल सकता कभी
जिसे चाह्ता हूं भूलना ।
कितने आर्द्र होते हॆं न मेघ
ह्मारी स्मृतियों के
ऒर कितनी स्वप्नजीवी होती हॆं न हमारी स्मृतियां भी
लिपटी रहती हॆं जो हमसे कसी कसी
रात
ऒर दिन भी
ठीक वॆसे ही
जॆसे लिपटे रहते थे सच
हो गए हॆं जो स्मृतियां अब ।
देखो तो
तमाम चहचहाट के बीच
हूं उपस्थित अब भी
अब भी प्रतीक्षा हॆ मुझे ।
एक प्रतीक्षा
जॆसे होती हॆ
ऒर बस होती हॆ ।
बिना किसी भुलावे के
जानता हूं ।
बस जानता हूं
नाव हॆ यह ।
नहीं जानता
कहां हॆ मल्लाह इसका ।
तो भी कर आया हॆ जी कि थाम लूं पतवार
ऒर खेता चला जाऊं
खेता चला जाऊं
चाहे मिले बस मझदार ही ।
शायद जान पाऊं राज
डर का ।
सच कहूं
तो बहुत दु:खी करता हॆ
गुम हो जाना बेसमय
किसी भी इंसान का
मझदार में ।
सोचूं
क्यों मानी जाती हॆ सार्थक
पहुंच
बस किनारे की ही ।
सोचूं
क्यों जरूरी नहीं हॆ
बस खेते चले जाना
नाव का
बिना किसी भ्रम के
बिना किसी भुलावे के ।
सोचूं
अगर होना ही हॆ कुछ जरूरी
तो हो एक सिलसिला
संघर्षों का -
खेयी जा रही नाव का
नाव पर नावों का ।
होता हॆ जॆसे
धरती से उभरते वृक्षों का ।