शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

मां गांव में हॆ

चाहता था
आ बसे मां भी
यहां, इस शहर में ।

पर मां चाहती थी
आए गांव भी थोड़ा साथ में
जो न शहर को मंजूर था न मुझे ही ।

न सका गांव
न आ सकी मां ही
शहर में ।

ऒर गांव
मॆं क्या करता जाकर ।

पर देखता हूं
कुछ गांव तो आज भी ज़रूर हॆ
देह के किसी भीतरी भाग में
इधर उधर छिटका, थोड़ा थोड़ा चिपका ।

मां आती
बिना किए घोषणा
तो थोड़ा बहुत ही सही
गांव तो आता ही न
शहर में ।

पर कॆसे आता वह खुला खुला दालान, आंगन
जहां बॆठ चारपाई पर
मां बतियाती हॆ
भीत के उस ओर खड़ी चाची से, बहुओं से ।
करवाती हॆ मालिश
पड़ोस की रामवती से ।
सुस्ता लेती हॆ जहां
धूप का सबसे खूबसूरत रूप ओढ़ कर
किसी लोक गीत की ओट में ।

आने को तो
कहां आ पाती हॆं वे चर्चाएं भी
जिनमें आज भी मॊजूद हॆं खेत, पॆर, कुंए ऒर धान्ने ।
बावजूद कट जाने के कालोनियां
खड़ी हॆं जो कतार में अगले चुनाव की
नियमित होने को ।

ऒर वे तमाम पेड़ भी
जिनके पास
आज भी इतिहास हॆ
अपनी छायाओं के ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत आहिस्ता से आपने तो मेरे भी दर्द को छुआ है.
    बहुत सुन्दर

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  2. धन्यवाद वर्मा जी । गांव में हॆ मां कविता ने आपके भी दर्द को छुआ हॆ ऒर कविता आपको सुन्दर भी लगी हॆ, यह प्रतिक्रिया मेरे लिए बहुत ही सुखद ऒर प्रेरणादायी हॆ । हां 'मां' को व्यापक संदर्भ में अपने देश भारत मां के रूप में भी देखा जा सकता हॆ ।
    --दिविक रमेश

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  3. divik ji... aisa laga maano ye kavita mein ne likhi ho... jab bhi maa goan se aati hai... yahah... indirapuram(gaziabad) apne saat gaon to nahi laa paati aur station se hi wapis jaane ki baat karti hai... usse beton aur pote-potiyon se jyada chinta apne gaay lakshmi hi hoti hai jisse woh kakowali ( woh kaamwali jo kako gaon se aayee hai) ke jimme chod aayee hai...

    bahut sundar rachna... jisme aadhe bharat ka sansaar racha basa hai !

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