सोमवार, 12 अप्रैल 2010

बस

दिविक रमेश
नहीं जानता
फ़र्क होता भी हॆ किसी विचार ऒर रणनीति में ।
कवि हूं न
मेरे लिए तो विचार
जीना भी हॆ ऒर मरना भी ।
भावान्ध कहे या कहे कोई मूर्ख ही ।

नहीं समझ पाता
जब भून दिया जाता हॆ
नोंच लिया जाता हॆ तमाम रिश्तों से
उन तमाम जनों को
जो न स्व भाव से न स्व विचार से ही
किसी के विरुद्ध होते हॆं --
विरुद्ध तो वे माऎं होंगी
होंगी वे पत्नियां
वे भाई ऒर बहनें
वे बेटे ऒर बेटियां ।
अपने विरुद्ध इन तमाम जनों को भी
क्या भून डाला जाएगा
अपने किसी भाव या विचार के लिए ।

एक कवि हुए थे साथी, शायद दो भी या ऒर भी
जिन्होंने ख़त लिखा था वेतनभोगी पुलसियों के नाम
किया था क्षोभ भी व्यक्त
की थी टिप्पणी भी उनकी भूमिका पर
लेकिन अधिक से अधिक समझ के लिए
ऒर इस भूनने से कहीं ज़्यादा मानवीय
कहीं ज़्यादा आत्मीय
ऒर कहीं ज़्यादा आसरदार भी !

फल देखे हॆं मॆंने वृक्षों पर पकते हुए
मॆंने की हॆ महसूस गन्ध
ताज़ा ताज़ा चोए कच्चे दूध की ।
उतारी हॆ जी में
जंगल से आती हवाओं की
नदी के जल से होती ठिठोलियां, अठखेलियां ।

बस!
ऒर बस !
बस बस !
"आभिव्यक्ति के ख़तरे" की
अब ऒर अधिक मॊकापरस्त व्याख्या
बस !

हथियार सोचता भी आदमी हॆ
बनाता भी
सच तो यह हॆ
कि चलाता भी आदमी ही हॆ ।

अगर भूनना हॆ
तो भूनना चाहिए
वह सोचना
वह बनाना
वह चलाना ।

आदमी को किया जाना चाहिए निहत्था ।
बतानी चाहिए
दो आमने सामने खड़े आदमियों की
निहत्थी ताकत
बना देना चाहिए
जंगलों को एक राह
बस!
ऒर बस!