मंगलवार, 23 मार्च 2010

सड़क से संसद तक

वह गिर गया था
सम्भल कर !
ऒर गिरा भी रहा
हथेलियां मल कर !

वह मुस्कुराया था आंखे भींच कर !
वह कराहा था
ढूंढ़ते हुए अपनी चोट को, दर्द को
जाने कहां थी, कहां था
जो ।

भीड़ में
अपवाद की तरह मॊजूद राजगुरू चीखा
हटो! हटो!
आने दो हवा!
कॆसे गिरा !
ज़रूर गिराया होगा किसी ने-
उफ आयी हॆं कितनी चोटें ।

बोली भीड़ -- कहां? कहां?

खिंच गए राजगुरू तनते हुए
कोई चुनाओ तो था नहीं
कि विनम्र होते । बोले --
देखते नहीं दर्द
कराह भले मानस की!
चुप !
कहां, कहां!
उठाओ
ज़रा हाथ लगाओ
ऒर इन्हें सड़क से मेरी गाड़ी में लिटाओ!
मुझे इलाज कराना हॆ इनका
ऒर फिर संसद जाना हॆ ।

कहां? कहां?
मुंह बनाया रजगुरू ने
धर्मगुरू की मुद्रा में
ऒर कहा--
आओ! उठाओ!

उसी आदमी के पक्ष में
हाथ जोड़े
कर रहा था विनती राजगुरू
अगले चुनाओ में --
इन्हें जिताओ
जिताओ !
सड़क के आदमी को संसद पहुंचाओ !

लोग भूल चुके थे ।