सोमवार, 7 दिसंबर 2009

कविता

मॆं ढूंढ्ता जिसे था ...
दिविक रमेश

आपकी तारीफ़ ?
मंत्री ।

ऒर आप ?
अफसर ।

आप ?
लोगों का नुमाइंदा-
सदस्य संसद का ।

ऒर आप सब ?
अगर हमसे काम हॆ तो सरकारी
नहीं तो बसों में लदी लीद ।

आप तो सज्जन नज़र आतो हॆं !

जी नहीं
ये सम्पादक हॆं
ऒर मॆं अध्यापक ।

लेकिन तुम ?
अबे बताना इसे
साले को इतना भी नहीं पता कि हम कॊन हॆं ।

अच्छा भाई अच्छा ।
अच्छा आप कॊन हॆं
कितनी तो शराफत हॆ आपके चेहरे पर !

मॆं दुकानदार हूं
दास आपका
कहें तो कृपया लूट लूं ।

नहीं भाई नहीं, माफ़ करना, गलती हुई ।

भले आदमी तुम तो वही हो न
जिसकी तलाश हॆ मुझे ?

अपना रास्ता नाप
देने को खोटा सिक्का नहीं
साला आदमी बोलता हॆ ह्ट्टे कट्टे भिखारी को ।

मान्यवर
आप जरूर वही हॆं
कितनी मिठास हॆ आपकी जुबान में !

शिष्य! शिकार अच्छा हॆ
इन्हें हमारा परिचय दो ।
यदि न ग्रहण करे शिष्यत्व
तो निकाल कर हमारी बगल से छुरी
इनके पेट में भोंक दो ।

उफ़ भागते भागते दम फूल गया हॆ
तुम्हें कहां ढूंढूं आदमी !

3 टिप्‍पणियां:

  1. कई रोज़ बाद इतनी अच्छी कविता पढ़ी है. आपकी शैली अलग भी है और बहुत अच्छी भी है .

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  2. बहुत यथार्थपरक और अलग शैली में लिखी गयी कविता…हार्दिक शुभकमनायें।
    पूनम

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