पूछ लूं
यह जो उमड़ रहा हॆ तूफान
मेरा हॆ
उपजा हो भले ही
वहीं से
सोचा जा रहा हॆ जहां से ।
कभी कभार आती हॆ समझ बहुत देर से भी
कि विजयी होती हॆ जब अप्सरा इन्द्र की
तो नहीं होती वह हार विश्वामित्र ।की
ऒर होती हॆ हार अगर मेनका की
तो नहीं होती जीत किसी की भी
बस होती हॆ हार भर ।
मॊका हो तो पूछ लूं
भले ही खुद से
कि पीटता हॆ जब मर्द अपनी ऒरत को
तो मामला क्यों नहीं हो जाता ऒरतों का
जॆसे होता हॆ आतंक जब मुम्बई में
तो मामला क्यों नहीं हो जाता पूरी पृथ्वी का
कि जब हत्या की जाती हॆ एक आदमी की
तो मामला क्यों नहीं हो जाता पूरी मानवता का ।
आदरणीय दिविक जी ,
जवाब देंहटाएंआज आपकी कई कवितायेँ पढने को मिलीं ..बहुत अच्छा लगा .सभी कवितायेँ समसामयिक एवं सशक्त हैं .बस पोस्टिंग में शायद कोई दिक्कत होने से कई जगह मात्राओं की गलतियाँ रह गयी हैं .
वैसे सबसे आधिक प्रभावशाली मुझे ये पंक्तियाँ लगीं.....
मॊका हो तो पूछ लूं
भले ही खुद से
कि पीटता हॆ जब मर्द अपनी ऒरत को
तो मामला क्यों नहीं हो जाता ऒरतों का
जॆसे होता हॆ आतंक जब मुम्बई में
तो मामला क्यों नहीं हो जाता पूरी पृथ्वी का
कि जब हत्या की जाती हॆ एक आदमी की
तो मामला क्यों नहीं हो जाता पूरी मानवता का ।
एक सलाह भी थी मेरी की एक दिन में एक या दो से ज्यादा कवितायेँ पोस्ट न करें ..क्यों की अधिक कवितायेँ हो जाने पर पाठक सब के बारे में अपने विचार ,टिप्पणी नहीं दे पता .
शुभकामनाओं के साथ .
हेमंत कुमार
धन्यवाद हेमन्त जी ।
जवाब देंहटाएंदिविक रमेश