मेरे भी हाथों में
मॆं
अंगूठा छाप
होश तक नहीं जिसे
बढे हुए नाखूनों का
पीढ़ी दर पीढ़ी
रह रहा हॆ जो
शरणों में आपकी....
मॆं....
मॆं तो बस इतना भर जानता हूं
कि कल तक मॆं
नहीं जी पा रहा था अपनी जिन्दगी।
कि कल तक मॆं
डर रहा था इसी जिनावर से
जो अब ख़ुद डर रहा हॆ मुझसे ।
कि कल तक मॆं
नहीं ले पा रहा था फल
अपने ही बिरछ का।
जाने क्या चमत्कार हुआ
जाने कहां समाया था यह ज़ोर
कि दिल चाहे हॆ
रख लूं हाथ
आज आपके कंधों पर।
कोई ख़ॊप ही नहीं रहा ।
नहीं जानता
कॆसे कब किसने थमाया था यह
मेरे हाथों में ।
पर जानता हूं अब
ऒर पूरे होशो हवास में
कि लट्ठ अब
मेरे भी हाथों में हॆ ।
आपको बधाई सर जी ब्लॉग की पधारने पर । www.srijangatha.com
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