स्मृतियों के सच
जानता तो अच्छा होता
आखिर क्या बोलते होंगे ये पाखी
लदे
अपनी चहचहाट में ।
शायद
होते हों उतावले
बंधाने को ढ़ांढस मेरा
शायद बेचॆन हों
कि स्वीकार लूं
कि नहीं भूल सकता कभी
जिसे चाह्ता हूं भूलना ।
कितने आर्द्र होते हॆं न मेघ
ह्मारी स्मृतियों के
ऒर कितनी स्वप्नजीवी होती हॆं न हमारी स्मृतियां भी
लिपटी रहती हॆं जो हमसे कसी कसी
रात
ऒर दिन भी
ठीक वॆसे ही
जॆसे लिपटे रहते थे सच
हो गए हॆं जो स्मृतियां अब ।
देखो तो
तमाम चहचहाट के बीच
हूं उपस्थित अब भी
अब भी प्रतीक्षा हॆ मुझे ।
एक प्रतीक्षा
जॆसे होती हॆ
ऒर बस होती हॆ ।
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