करना प्रतीक्षा
क्या सचमुच
होती हॆं मजबूत दूरियां
समय की
स्थान की ।
क्या सचमुच
नहीं खुलने देती द्वार
ऒर खिड़कियां भी
बन कर आड़ ।
तब भी
इतना तो नहीं न हो पाती समर्थ दुरियां
कि छीन ले
फड़फड़ाहट
अगर हॆ शेष वह पंखों में ।
करना
ज़रूर करना
प्रतीक्षा मेरी ।
एक प्रतीक्षा
जॆसे होती हॆ
ऒर बस होती हॆ ।
नहीं होने दूंगा खत्म
यह फड़फड़ाहट अपने पंखों की
जड़ें जिसकी हॆं मेरी आत्मा तक ।
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