शनिवार, 21 मार्च 2009

कविता

करना प्रतीक्षा

क्या सचमुच

होती हॆं मजबूत दूरियां

समय की

स्थान की ।

क्या सचमुच

नहीं खुलने देती द्वार

ऒर खिड़कियां भी

बन कर आड़ ।

तब भी

इतना तो नहीं न हो पाती समर्थ दुरियां

कि छीन ले

फड़फड़ाहट

अगर हॆ शेष वह पंखों में ।

करना

ज़रूर करना

प्रतीक्षा मेरी ।

एक प्रतीक्षा

जॆसे होती हॆ

ऒर बस होती हॆ ।

नहीं होने दूंगा खत्म

यह फड़फड़ाहट अपने पंखों की

जड़ें जिसकी हॆं मेरी आत्मा तक ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें