विभा शुक्ला: दिविक जी, आपका जन्म कब ऒर कहां हुआ? इस समय आपके नगर की परिस्थितियां ऒर पारिवारिक परिस्थिति कॆसी थी? कृपया विस्तार से बताएं।
दिविक रमेश: मेरा जन्म २८ अगस्त, १९४६ को दिल्ली के गांव किराड़ी में हुआ था जो हरियाणे की सीमा पर बसा हुआ हॆ। यूं स्कूल में प्रवेश दिलाते समय मेरा जन्म दिन आदि ६ फरवरी, १९४६ दर्ज
कराया गया अत: रिकार्ड में यह दूसरा ही मिलेगा। उस समय गांव में बिताए थोड़े वर्षों में से कुछ की ही थोड़ी-बहुत याद बची हॆ। उसी के आधार पर कहूं तो गांव के घरों से लगते हुए ही खेत शुरु हो जाते थे। दो बड़े तालाब थे जिन्हें हम जोहड़ कहते थे--किराड़ ऒर मंगोथर। छोटी झीलनुमा एक गून भी थी। गेहूं, बाजरा, ज्वार,चना आदि की फसलें विशेष रूप से होती थी। हमारे घर हमेशा भॆंस या गाय रहती थी। बिजली नही थी। दीए के प्रकाश में ही सब काम करने होते थे। घर में शॊचालय नहीं थे। खेतों में ही जाना पड़ता था। गांव के अन्दर ऒर
गांव के बाहर हमारे दो घर थे। अन्दर वाला घर छोटी ईंटों का तिमंजला मजबूत मकान था जो, मॆंने सुना था, मेरे पड़ दादा ने बनवाया था। वे पॆसे वाले माने जाते थे। बाहर वाला घर हेली (हवेली) के नाम से प्रसिद्ध था। चाचा-ताऊ समेत हमारा संयुक्त परिवार था लेकिन मेरी याद में अलग-अलग चूल्हे हो गए थे। हमारी कुछ खेती की जमीन थी-किराड़ी में भी ऒर हरियाणे में बहादुरगढ़ के पास कसार गांव में। प्रारम्भ में मेरे पिता जी खेती का काम देखते थे। ताऊ जी स्टेशन मास्टर थे ऒर चाचा जी अपना पंडिताई का काम करते थे।हमारे दादा जी दूर-दूर के गांवों तक अपनी ज्योतिष विद्या के लिए प्रख्यात थे। वे सुबह-शाम पूजा(संध्या) करते थे ऒर हम बच्चों को प्रसाद दिया करते थे। वे हमें पॊराणिक कहानियां भी सुनाया करते थे। यह सिलसिला काफी देर तक चला । बदले में हम दादा जी के हाथ-पांव ऒर कमर दबाते थे। मेरे पिता जी (जिन्हें मॆं चाचा कहता था) कम पढ़े-लिखे थे। लेकिन उन्हें गाना (रागिनी आदि) गाने का बहुत शॊक था। संगीत की समझ थी। याददाश्त बहुत अच्छी थी। मुझे बहुत प्यार करते थे। मॆं संरक्षित बालक था। मॆं तब अपनी बहनों के बीच इकलॊता बेटा था। एक समय में आकर उन्हें उनके अनुभव ने सिखा दिया था कि पढ़ना बहुत जरूरी होता हॆ। अत: वह हमेशा मुझे पढ़ने के लिए कहते रहते थे। दीये की रोशनी में मुझे पढ़ने को कहते ऒर खुद भी जगते रहते। पढ़ना, ऒर ऒर पढ़ना मुझे संस्कार में सबसे अधिक उन्हीं से मिला था। पिता जी की आर्थिक स्थिति बहुत ही कमजोर थी। उन्होंने दर्जी का काम भी सीखा था-आजीविका के लिए। प्रारम्भ में दादा जी को उनका गाना-नाचना अच्छा नहीं लगता था। मुझे बताया गया था कभी हमारे पूर्वज रथ पर चला करते थे। मॆंने रथ के अवशेष देखे भी हॆं। असल में हमारे पूर्वज जमीन लेकर पॆसे उधार दिया करते थे। बाद में जमीनें छुड़ा ली गई थी-ऎसा मॆंने सुना था। ५वीं कक्षा तक मॆं गांव के स्कूल में ही पढ़ा था। मेरे नाना-मामा का घर उस समय दिल्ली शहर के देवनगर (करॊल बाग) में था। ५वीं कक्षा के बाद आगे की पढ़ाई के लिए मुझे नाना-नानी के पास उनके घर भेज दिया गया था। शुरु-शुरु में जहां एक ओर मां-पिताजी ऒर बहनों की याद सताती रहती थी ऒर कभी-कभी अकेलापन भी सताता था-इतना कि अकेले जाकर पुलिया पर बॆठ जाता था, बावजूद नानी के भरपूर लाड़ के वहां दूसरी ओर राहत का भी अनुभव होता था क्योंकि गांव में मेरे कुछ साथी, खासकर जो मुझसे कहीं अधिक बलशाली थे) मुझे बहुत चिढ़ाया करते थे ऒर उनसे मुझे छुटकारा मिल गया था। यूं मॆं शरीर से कुछ कमजोर ही था। एक बात विशेष रूप से बताना चाहूंगा कि भले ही मॆं ब्राहम्ण परिवार से थी लेकिन हमें छूआछूत नहीं सिखायी गई थी। हमारे गांव मे मेरी मां की एक सहेली जॆसी ऒरत चमार परिवार से थी। उन्हें हम चाची कहते थे। उनका हमारे घर आना-जाना था। बल्कि उनके यहां से आने वाला दूध भी हमने खूब पिया हॆ। वे हमॆं बहुत प्यार करती थीं। इसी प्रकार सबसे नीची जाति समझे जाने वाले जिन्हें बाल्मीकि कहा जाता हॆ के एक परिवार के लड़के (नाम याद नहीं हॆ) के साथ हमें खेलने की इजाजत थी।
विभा शुक्ला: आपका बचपन किस प्रकार के परिवेश में व्यतीत हुआ? उस समय की कुछ रोचक घटनाओं के विषय में बताइये, जिन्हें आप अभी तक भूल नहीं पाए हॆं।
दिविक रमेश: घटनाएं तो बहुत सी हॆं विभा जी। परिवेश के बारे में थोड़ा-बहुत तो बता ही चुका हूं। असल में मेरा बचपन दो परिवेशों में बीता था। एक तो १०-११ वर्ष तक गांव में ऒर दूसरा उसके बाद
शहर में -अपने ना-मामा के घर। गांव का स्कूल चॊपाल में लगता था। बारात आती तो हमें वृक्षों के नीचे पढ़ाया जाता। बारिश आती तो छुट्टि हो जाती। तब गांव से थोड़ी दूर पर ही स्थित कस्बा नांगलोई बहुत दूर जान पड़ता था। खेतों के बीच से निकलते हुए जाना पड़ता था। रेल की पटरियां भी पार करनी पड़ती थीं। अकेले अर्थात ऒर बच्चों के साथ जाने का मतलब ’डर’ का पूरा अनुभव करना था। यूं पिता जी की सख्त हिदायत थी कि कोई भी जोखिम का काम न करूं। तब मॆं घर में अकेला लड़का था ऒर विशेष रूप से पिता जी मेरा हर दृष्टि से बचाव करने को तत्पर रहते थे। मसलन दीवाली पर पटाखे आते थे लेकिन उनका कहना था उन्हें कोई ऒर छोड़ देगा ऒर मॆं उनके छूटने का दूर से ही आनन्द लूं। घर में पूजा-पाठ, तीज-त्योहारों ऒर व्रत आदि का माहॊल बना रहता। मेरे नाना साहित्यिक अभिरुचि के व्यक्ति थे ऒर उनका एक छोटा सा पुस्तकालय भी था जिसमें से मॆं विशेष रूप से प्रेमचन्द की कहानियां पढ़ता था। गांव जाता तो दादा जी के पांव दबाते हुए उनसे ढ़ेरों पॊराणिक कहानियां सुनता। वे अक्सर कल्याण आदि पढ़ा करते थे। साथ ही नाना जी नवभारत टाइम्स मंगाया करते थे ऒर सामने वाले पड़ोसी वीर अर्जुन। अखबार बांट कर बारी-बारी पढ़े जाते थे। मॆं भी पढ़ता था-विशेष रूप से बच्चों के लिए प्रकाशित साहित्य। रेडियो पर प्रसारित होने वाला बच्चों का कार्यक्रम भी मुझे बहुत पसन्द आता था। कुछ बाद चंदामामा जॆसी पत्रिका भी पढ़ने को मिल जाती थी। यहां आकर भी मुझे प्रारम्भ में मुहल्ले के लड़कों ने स्वीकार नहीं किया था। लेकिन लड़कियों ने कर लिया था। मॆं उन्हीं के साथ खेलता। लेकिन एक-दो लड़के भी मेरे दोस्त बने। इसी माहॊल के बीच मॆंने कब-कॆसे लिखना शुरु कर दिया था वह किसी जादू से कम नहीं था। हां धुंधली सी याद हॆ कि घर के सामने वाले शहतूत के पेड़ पर मॆं चढ़ जाता ऒर दो शाखाओं के बीच गद्दी रख कर बॆठ जाता ऒर लिखता। सबसे पहले मॆंने कहानी लिखी थी। घर-परिवार ऒर मेरे दोस्त ही पात्र होते थे। मेरी उस कहानी को जो मॆंने सबसे छिपा कर लिखी थी क्योंकि उसमें मेरी एक दोस्त का सच्चा नाम था छल से मेरे लड़के दोस्तों ने लिया ऒर मेरे उसे मेरे नाना जी को दे दिया। बहुत ही घबराहट हुई थी। छिपता फिरा। लेकिन नाना जी ने बुलाया तो जाना पड़ा। उन्हों ने पूछा कि क्या वह कहानी मॆंने ही लिखी थी। मेरे ’हां’ कहने पर उन्होंने दोबारा पूछा तो मॆंने फिर हा कहा। जब वे आश्वस्त हो गए तो उन्होंने मुझे शाबासी दी ऒर आगे भी लिखते रहने को प्रेरित किया। यह मेरे लिए किसी बड़े से बड़े पुरस्कार से भी बड़ा पुरस्कार था। दोस्तों को तो अचरज हुआ होगा जो माने बॆठे थे कि मुझे जरूर डांट पड़ेगी लेकिन मेरे लिए सृजन का एक बड़ा द्वार खुल गया था। फिर मॆं कभी नहीं रुका। मुझमें शायद मेरे पिता से भी कला-प्रेम आया था क्योंकि वे अच्छे लोक गायक (हरियाणवी के) थे। जहां तक रोचक घटनाओं का सवाल हॆ तो कुछ बताता हूं। एक बार मेरे लगभग हमउम्र मेरे रिश्ते के भाई के साथ मॆं घर के बाहर खेत में खेल रहा था। बारिश का महीना था। गधे घूम रहे थे जिन्हें गांव के कुम्हारों ने चरने के लिए छोड़ा हुआ था। भाई ने कहा कि चलो गधे की सवारी करते हॆं। मन तो हुआ लेकिन पिताजी के गुस्से का डर था। लेकिन भाई ने काफी प्रेरित किया तो एक-एक गधे पर चढ़ गए। मुझे बता दिया गया था कि गधे का कान लगाम का काम करते हॆं -जिस दिशा में मोड़ेगो उसी दिशा में गधा चलेगा। ऒर यह भी कि गधे को रोकने के लिए धीरे-धीरे अगले पांवों में अपने पांव फंसा कर रोकना होता हॆ। मजा तो बड़ा आया लेकिन पिता जी का भय भी साथ-साथ चलता रहा। जो नहीं होना था वही हुआ। किसी ने पिता जी से हमारी चुगली खा दी। पता चला पिता जी हाथ में संटी लिए हमें ढूंढ़ने निकल पड़े हॆं। फिर क्या था। गधे को पिछली गली में से ले जाते हुए जोहड़ के पास छोड़ दिया। ऒर घर की ओर ऎसे आए जॆसे हमें कुछ पता ही न हो। अब याद नहीं आ रहा कि पिता जी से कॆसे बचा था लेकिन बच जरूर गया था। हां गधे पर फिर कभी भले ही न बॆठा हूं (बड़ा होकर टट्टू पर जरूर बॆठा हूं हालांकि मज़ा कभी नहीं आया) लेकिन गधे की सवारी का वह आनन्द आज भी मेरे साथ हॆ। एक ऒर किस्सा याद आ रहा हॆ। विस्तार से कहीं लिख चुका हूं। यहां संक्षेप में। गांव के अनुभवी यह तो जानते ही होंगे कि वहां काफी बड़े हो जाने तक बालक नंगे घूम लिया करते थे। हुआ यूं की होली आने वाली थी। बालकों से भी कहा जाता था कि वे खेतों से घास-फूंस लाकर होली दहन के स्थान पर डालें। हम कुछ बच्चे इसी काम के लिए निकले थे। काम हो जाने पर हम जोहड़ में नहाए।( बता दूं कि पिता जी के द्वारा जल के पास जाने के लिए भी मुझे मनाही थी।) खॆर। तो नहाने के बाद मॆंने अपना कछ्छा निचोड़ कर कंधे पर रख लिया था जबकि दूसरे बच्चों ने पहने रखे थे। तभी पास आकर एक साइकिल रुकी। मॆं व्यक्ति को पहचानता था। वे मेरी मां के एक मामा थे जो दूर रहते थे ऒर दूसरे गांव में अपनी बहिन के पास होली का सीधा (उपहार) देने जा रहे थे। मॆंने नमस्ते की। उन्होंने भी पहचाना। पूछा कि तू कलावती (मेरी मां) का बेटा हॆ न? मॆंने कहा हां। तभी उन्होंने जेब से चवन्नी निकाली ऒर मुझे देते हुए कहा ले नंगे। तभी मुझे ध्यान आया कि मॆं तो नंगा था। मेरे साथ के बालको जब देखा कि मुझ नंगे को चवन्नी मिली हॆ तो देखते देखते उन्होंने भी अपने कछ्छे उतार दिए ऒर नंगे हो गए। इस आशा में कि उन्हें भी नंगा होने पर चवन्नियां मिल जाएगी। लेकिन वे तो साइकिल पर चढ़कर आगे बढ़ चुके थे। ऒर एक बार तो यूं हुआ कि मॆं शहर से गांव आया। गांव आने पर मूजे बहुत ही अधिक वी.आई.पी. व्यवहार मिलता था। मुझे पता चला कि पिताजी ने किसी से कुछ जमीन लेकर टिण्डे की खेती की हे ऒर बीच-बीच में कचरे (खरबूजा) के बेले भी लगाई हॆं जिन पर काफी खरबूजे लगे हॆं। बस मॆं चाकू लेकर पहुंच गया खेत में। वहीं बॆठ कर खरबूजे खाएं जाएंगे। देखा कचरे तो बहुत से लगे थे लेकिन कॊन-सा पक चुका हॆ ऒर कॊन -सा अधपका हॆ, समझ ही नहीं आ रहा था। दिमाग लड़ाया तो तरकीब सूझी। मॆंने चाकू से गोल-गोल टंकी लगाई-अर्थात गोल-गोल थोड़ा सा हिस्सा (ढक्कन जॆसा)काट ऒर अन्दर झांक कर देखा। जो खरबूजा अधपका दिखा उस पर ढक्कन वापस लगा दिया। जो एक-दो पके निकले उनका आनन्द लिया। घर आकत जब पनी सूझ-बूझ की शान मारी तो असलियत पता चली ऒर अपनी ऒकात भी। मां हंसी, सब हंसे। अच्छा मजाक बना। किस्से तो बहुत हॆं।शेष फिर कभी।
विभा शुक्ला:बालक के व्यक्तित्व के निर्माण में तीन समूहों की प्रमुख भूमिका होती हॆ-परिवार, पड़ॊस ऒर प्रथमिक विद्यालय के मित्र। आपके व्यक्तित्व को इनमें से सर्वाधिक किसने प्रभावित किया?
दिविक रमेश:आपने ठीक कहा। जहां तक मेरा सवाल हॆ मेरे व्यक्तित्व को मेरे परिवार ने सबसे अधिक प्रभावित किया। मुझसे अपनी मां से स्वाभिमान (जो मेरी नानी का भी गुण था) ऒर विशेष रूप
से मेहमानों की सीमित साधनों में भी हर समय पूरी आवभगत करने का गुण विशेष रूप से मिला हॆ। मेरी मां बहुत मेहनती थी। पिताजी ने मुझे पढ़ने की महत्ता बताई ऒर उनसे मॆंने सुतर्क करना तथा मिलनसार होने का गुण विशेष रूप से सीखा। हमें हर हाल सच बोलना भी सिखाया गया था। हां गलत काम करते समय भगवान से डरना भी। मेरे पिता जी ने मुझे हर निराशा में आत्म बल दिया।
विभा शुक्ला:आपकी प्राथमिक शिक्षा कहां ऒर कॆसे परिवेश में हुई? इसके बाद आपने कहां शिक्षा ग्रहण की? अपने छात्र जीवन के कुछरोचक अनुभव बताइये!
दिविक रमेश:जॆसा मॆंने बताया मेरी प्रथमिक शिक्षा गां के स्कूल में ही हुई थी। भले ही मेरा गांव दिल्ली में हॆ लेकिन उस समय स्कूल बहुत ही साधारण सुविधाओं वाला था। टाट पर बॆठ कर पढ़ते थे।
तख्ती होती थी। कभी-कभी सफाई भी देखी जाती थी ऒर उसके अंक भी मिलते थे। पहाड़े, गिनती आदि जोर-जोर से बोल-बोल कर याद किए जाते थे। अध्यापकॊं से डर लगता था। गलती करने पर पिटने का भय रहता था।घर में अध्यापकॊं की बहुत इज्जत थी। ५वीं से आगे की पूरी पढ़ाई अर्थात पी.एच-डी. त्तक की पढ़ाई शहर के परिवेश में हुई। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हॆ कि गां से मेरा नाता टूत गया था। वह तो आज भी बना हुआ हॆ। शहर आकर मुझे फिल्म देखने का शोक बहुत लग गया था। साथ ही कविता सुनने का भी। एक बार मॆं अपने कुछ मित्रों के साथ लालकिले का कवि सम्मेलन देखने गया।चीनी-आक्रमण का समय रहा होगा। वहां बालकवि बॆरागी ने अपने ओजस्वी स्वर में एक गीत सुनाया- जिसके बोल शायद कुछ यूं थे- सरहद पर आने वालॊ को जब तक नहीं भगाओगे, सच कहता हूं तब तक मेरे गीत नहीं सुन पाओगे। गीत मुझे बहुर पसन्द आया। तब मॆं देवनगर (करॊलबाग) में रहता था जो
लालकिले से थोड़ा दूर था। सम्मेलन समाप्त होने पर, रात के लगभग तीन-चार बजे हम पॆदल ही घर की ओर लॊटे। मॆं इतना प्रेरित था कि सुनसान सड़क पर जोर-जोर से बालकवि की पंक्ति दोहरा रहा था। कुछ ही देर बाद वहां एक सिपाही प्रकट हुआ ऒर पूछा कि यह क्या हागामा हॆ। कहा कि चलो थाने। हमारी तो बोलती ही बंद। मित्र मुझे सबसे अधिक अपराधी की तरह घूर रहे थे। खॆर। किसी तरह लालकिले वाली बात बतायी। गनीमत थी कि सिपाही जी को समझ में आ गई ऒर चुअचाप घर लॊटने की हिदायत देते हुए हमें छोड़ दिया। ऒर फिल्म का किस्सा क्या बताऊं। सबसे पहले मॆंने फिल लिबर्टी पर देखी थी। घर वालों से छिपकर। पांच आने की सबसे आगे वाली टिक्ट होती थी। पहले लाइन में लगकर हथेली पर स्टॆम्प
लगवानी पड़ती थी। उसी को दिखा कर प्रवेश मिलता था। एक स्टॆम्प लग गई तो उसकी ऎसी हिफाजत करनी पड़ती थी कि जॆसे किसी अत्यंत मूल्यवान वस्तु की। सो मॆंने भी की।फिल्म शायद शरदा थी। एक जगह आकर फिल खत्म हुई तो हाऑल में रोशनी कर दी गई। लोग उठ कर बाहर चल दिए। मॆं भी चल दिया। ऒर घर चला आया। पर कई दिनों तक यही सोचता रहा कि जाने कॆसी फिल्म थी। एकदम खत्म हो गई। बात पूरी भी नहीं हुई। कुछ दिनों बाद जब मॆंने वह अनुभव अपने एक मित्र से बांटा तो पता चला कि मॆं ’इन्टरवल’ में ही चला आया था। तब मुझे पता ही नहीं था कि फिल्म में इन्टरवल भी होता हॆ। अफसोस भी हुआ ऒर खुद पर हंसी भी आई। इसी प्रकार जंगली फिल्म आई तो उसे देखने का मन बनाया। हम दो मित्र पहुंच गए थियेटर पर। देखा जंगली फिल्म लगी थी। टिकट ली ऒर अन्दर चले गए। इन्टरवल तक संअझ ही नहीं आया कि फिल्म में पंजाबी क्यों बोली जा रही हॆ ऒर पंजाबी के गाने क्यों बज रहे हॆं। बाहर आ कर देखा तो पाया कि जंगली फिल्म तो अगले हफ्ते लगने वाली थी। असल में हम बड़े-बड़े पोस्टर कर यही समझे थे कि जंगली फिल्म लगी हॆ ऒर झट से टिकट खरीद ली थीं।
विभा शुक्ला:तत्कालीन शिक्षा पद्धति ऒर वर्तमान शिक्षा पद्धति में आप क्या अन्तर देखते हॆं? इसके दोनों पक्षों पर अपने विचार दीजिए!
दिविक रमेश:सबसे बड़ा अन्तर तो अध्यापक ऒर विद्यार्थी के व्यवहार(रिश्ते) में आया हॆ। पहले अनुशासन की बुनियाद भय मानी जाती थी लेकिन समय के साथ वह समझ मानी जाने लगी। अब
जिज्ञासाओं के समाधान प्राय: मित्रवत किए जाते हॆं। अधिक तार्किक होकर।विद्यार्थी को अधिक जगह (space) दी जाती हॆ। जहां तक पाठ्य सामग्री का प्रश्न हॆ उसमें भी आमूल-चूल परिवर्तन आया हॆ। अब अधिक विषयों से परिचित कराया जाता हॆ ऒर रटने की कला की अति से विमुक्ति भी दिलाई जाती हॆ। दृष्टि भी अधिक से अधिक वॆज्ञानिक बनाई जाती हॆ। अंधविश्वासों के लिए स्थान नहीं हॆ। सुविधाएं भी बढ़ी हॆं। आज क्म्प्यूटर ने क्रांतिकारी परिवर्तन लाए हॆं। पुस्तकालयों कि सुविधाएं बढ़ी हॆ। आज की शिक्षा पाठ्य पुस्तकों तक सीमित नहीं हॆ। साथ ही कलाओं, खेलों आदि के साथ पढ़ाई-लिखाई का संतुलन भी बढ़ा हॆ।
विभा शुक्ला:अब बात बाल साहित्य सृजन की! आपने साहित्य-सृजन कब ऒर किसकी प्रेरणा से आरम्भ किया? आपकी लिखी पहली रचना कॊन सी हॆ? ऒर पहली प्रकाशित रचना कॊन सी हॆ?
दिविक रमेश:जब मैं बालक था तो मैंने लिखना शुरू किया। जब मैं बड़ा हुआ तब भी लिखता रहा। लेकिन जब मैं और बड़ा हुआ और मेरा लिखा खूब प्रकाशित भी होने लगा तो मेरा ध्यान बच्चों के
लिए लिखने के प्रति भी दिलाया गया। सीध प्रस्ताव था कि मैं लिखूँ और बच्चों की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका ‘नन्दन’ उसे प्रकाशित करेगी। बात 1980 से पहले की है। सोचा बच्चों के लिए लिखना क्या कठिन है, लिख दूँगा। लेकिन जब क़लम उठाई तो नानी याद आ गई। जो लिखूँ एकदम बेकार। सड़ी हुई चाॅकलेट सा। खुद मेरे बच्चों को पसन्द न आए। पहली बार पता चला कि बच्चों और बड़ों में एक फ़र्क यह भी है कि बच्चे सच्चे पाठक होते हैं और वे खराब को खराब तथा अच्छे को अच्छा कहने में न संकोच करते हैं और न डरते हैं। बड़ी कठिन परीक्षा थी। उतनी ही बड़ी चुनौती। पर हार नहीं मानी। लगभग छह माह के बाद वह सुखद घड़ी आ गई जब मुझे कुछ ठीक ठाक लिख पाने का मज़ा आ सका। बच्चों ने भी सुनकर हरी झंडी दिखा दी। बस अब क्या था विजय का झंडा हाथ में था और कामयाब कविताओं का एक लिफ़ाफा भेजा ‘नन्दन’ के कार्यालय और दूसरा ‘धर्मयुग’ दोनों ही जगह रचनाएँ पसन्द कर ली गईं। धर्मयुग बाजी मार ले गया। और तो और वही पहली कविता ‘मुन्ना बन बैठा दादा जब’ पंजाब के शिक्षा बोर्ड ने अपने पाठ्यक्रम में रख ली और इस तरह वह पहुँच गई हज़ारों हजार बच्चों की आँखों में और कानों में और जीभ पर। यह कविता धर्मयुग में 12 फरवरी, 1978 के अंक में छपी थी। कह सकता हूं कि 1978 से बाल-साहित्य का लेखन कर रहा हूँ। यह कहना तो कठिन हॆ कि लिखने की दृष्टि सबसे पहली रचना कॊन सी थी।सबसे पहले 1980 में कविता की पुस्तक छपी थी - जोकर मुझे बना दो जी। उसी में थी बच्चों की एक बेहद चहेती कविता - अगर पेड़ भी चलते होते। हाँ अपने से एक ऒर बात बताना चाहता हूं।एक दिन ‘नन्दन’ कार्यालय में गया तो मेरे मित्र देवेन्द्र कुमार ने पत्रिका के सम्पादक और बच्चों के बहुत बड़े लेखक श्री जयप्रकाश भारती से भेंट करायी। भीतर ही भीतर थोड़ा भय और संकोच था। लेकिन भारती जी ने जिस गर्मजोशी के साथ भेंट की तो सब संकोच और भय जाता रहा। एक बहुत ही सहज और मीठा बोलने वाला आदमी मेरे सामने था। लगने ही नहीं दिया कि लेखन में मैं उनसे इतना छोटा हूँ। उल्टे कहा कि मैं तो दिविक जी आपका प्रशंसक हूँ। असल में ‘अगर पेड़ भी चलते होते’ कविता उन्हें बेहद पसन्द आयी थी। इसके बाद तो भारती जी बाल-साहित्य सृजन के क्षेत्र में मेरे लिए आज तक प्रेरणा और प्रोत्साहन के स्रोतों से भरे हिमालय की तरह बने हुए हैं। इसमें कोई शक नहीं कि उनके स्नेह ने मेरे बाल-लेखन को सूखने तो नहीं ही दिया अपितु लहलहाया ही है। साथ ही मेरे अन्य वरिष्ठ लेखकों जैसे डाॅ. हरिकृष्ण देवसरे, श्याम सिंह शशि , मनोरमा ज़फा, बालकराम नागर, राष्ट्रबंधु आदि ने भी उत्साह बढ़ाया। मेरे साथी लेखकों का भी मुझे सहयोग मिला। सबसे ऊपर तो मुझे बच्चों के प्यार ने बहुत-बहुत बल दिया।यह भी बता दूं कि देवेन्द्र कुमार जी ने ही सबसे पहले बच्चों के लिए लिखने का आग्रह किया था-डॉ.श्याम सिंह के कार्यालय में।
विभा शुक्ला:सामान्य साहित्य ऒर बालसाहित्य में क्या अंतर हॆ? बंग्ला में उसी साहित्यकार को मान्यता मिली हॆ जिसने बाल साहित्य का सृजन किया हो। रवीन्द्रनाथ तॆगोर ने भी बालसाहित्य लिखा
है। हिन्दी साहित्य में ऎसा नहीं दिखाई देता! क्यो?
दिविक रमेश:सृजनातमक साहित्य के क्षेत्र में मॆं रचना-प्रक्रिया की दृष्टि से दोनों में कोई खास अन्तर नहीं मानता। बाल साहित्य में बहुत बार ढ़ाचागत अर्थात बनाया गया साहित्य भी लिखा जाता हॆ
जिसे मॆं बहुत महत्त्व नहीं देता। भले ही उसमें कितनी ही बड़ी, उपयोगी ऒर आदर्श मूल्यों की बात क्यों न संजोयी गई हों। अनुभव ऒर रचनात्मक प्रेरणा बाल साहित्य सृजन के लिए भी अनिवार्य हॆं।ऎसा होने पर भाषा-शिल्प सहज रूप में बच्चों के अनुकूल हो जाया करता हॆ। मॆंने आयु में बांट कर भी कभी नहीं लिखा हॆ। लिखे जाने के बाद ही पता चला कि रचना किस आयु वर्ग के लिए हो सकती हॆ। कहा जाता हॆ कि मेरे यहां बहुत प्रयोग मिलते हॆं। तो वे सहज भाव से आएं हॆं। बच्चों के बीच रहते हुए, उन्हें निहारते,पढ़ते, समझते हुए। मॆंने सहज भाव से लिखना चाहा हॆ बिना इसकी परवाह किए कि चलन कॆसी रचनाओं को सराहने ऒर पुरस्कृत करने का हॆ। मॆं बाल-साहित्य पढ़ता हूं लेकिन वह प्रेरणा ऒर तॆयारी मात्र प्रदान करता हॆ। अपने अनुभव के आधार पर बता दूं कि टॆगोर के बाल साहित्य ऒर बालक के प्रति उनकी दृष्टिसे प्रेरित होकर कोरिया में बा्लसाहित्य सृजन के प्रति रुचि बढ़ी थी। बालक को मॆं मनुष्यता की सांस की तरह मानता हूं जो सहज-सामान्य प्रक्रिया लगती हॆ लेकिन होती अनिवार्य हॆ। अत:मॆं हमेशा बालक-विमर्श की जरूरत की बात करता हूं। बाल -साहित्य बालक से जुड़ा हॆ अत: वह भी अनिवार्य हॆ। ऒर जो लिख सकता हॆ उसे जरूर लिखना चाहिए। प्रेमचन्द ने ’जंगल की कहानियां’ शीर्षक से बहुत ही दिलचस्प १३ कहानियां लिखी थीं। अमृतला नागर भी बाल साहित्य लिखा हॆ। लेकिन यह ठीक हॆ कि बाल साहित्य सृजन के प्रति हिन्दी में वह दृष्टि पूरी तरह नहीं हॆ जो बांग्ला या मराठी आदि में मिलती हॆ।आज हिन्दी में बाल-साहित्य-सृजन के क्षेत्र में-विशेषकर कविता विधा में अत्यंत समृद्ध साहित्य निरंतर लिखा जा रहा हॆ। वह बच्चों तक कितन पहुंच रहा हॆ, यह बहस का अलग मुद्दा हॆ।
विभा शुक्ला: हिन्दी बालसाहित्य ऒर सामान्य साहित्य के सृजन में आप किसे अधिक चुनॊतीपूर्ण मानते हॆं?
दिविक रमेश:दोनों ही की अपनी-अपनी चुनॊतियां हॆं। कोई भी सृजन चुनॊतीपूर्ण ही होता हॆ। ये चुनॊतियां बाहरी परिवेश की अधिक होती आज वास्तविक चुनॊति इसकी सही जगह ऒर आकलन को
लेकर बनी हुई हॆ । वस्तुत: आज भी लगता हॆ कि हिन्दी मॆ लिखा जा रहा बाल-साहित्य जो ऊंचाई छू चुका हॆ न तो उसकी ठीक से पहचान ही हो पा रही हॆ ऒर न ही उसे कायदे से उसकी उपयुक्त जगह ही मिल पा रही हॆ । इसका प्रमुख कारण, मेरी निगाह में, इसे बड़ों के लिए लिखे जा रहे सृजन के समक्ष न समझा जाना ही हॆ। कोई भी सृजन, अगर वह सृजन हॆ तो किसी भी सृजन के समक्ष माना जाना चाहिए । हम देख सकते हॆं कि न तो विश्वविद्यालयों में ऒर न ही साहित्यिक संस्थाओं में आज भी बाल साहित्य के संबंध में कुछ करना एक अतिरिक्त काम की तरह ही होता हॆ । बड़े-बड़े साहित्यिक समारोह देख लीजिए । बाल-साहित्य के सत्र सिरे से गायब होते हॆं जॆसे उसका वजूद ही न हो । बाल-साहित्यकार आयु की दृष्टि से प्राय: प्रॊढ़ होते हॆं या उसी आयुवर्ग के होते हॆं जिसके बड़ों के लिए लिखने वाले होते हॆं । तब उन्हें समारोहों में कम अहमियत देते हुए अलग क्यों रखा जाता हॆ ? पुरस्कारों की बात लें तो बाल-साहित्य के लिए परस्कारों की राशि कमतर क्यों होती हॆ ? ऒर उन्हें भी प्राय: प्रोत्साहन की शॆली में क्यों दिया जाता हॆ ? ऒर वह भी बाल-साहित्य ऒर बाल-साहित्यकारों के प्रति एक एहसान की तरह । उनका प्रचार-प्रसार भी वॆसे नहीं किया जाता जॆसे बड़ों के साहित्य पर मिलने वाले पुरस्कारों के लिए किया जाता हॆ। मुझे हॆरानी हॆ कि भारत में भारतीय ज्ञानपीठ ऒर विश्व स्तर पर नोबल पुरस्कार अधिक से अधिक बाल-साहित्यकारों को क्यों नहीं दिए जाते ताकि हिन्दी के बाल-साहित्य पर भी आवश्यक विचार हो सके । संयोग से बाल-साहित्य के मूल पाठक अन्तत: बालक होते हॆं अत: उसको लेकर व्यापक आन्दोलन भी नही हो पाते । अत: कहीं न कहीं, जाने-अनजाने ही सही, अथवा अबोधता वश अनेक मान्यवरों के द्वारा बाल- साहित्यकारों के मन में यह हीन भावना भरने की साजिश की जाती हॆ कि बाल-साहित्य लेखन प्रथम श्रेणी में नहीं आता ।इसी से जुड़ी एक ऒर बात हॆ । समाचार पत्र हों या पत्रिकाएं आदि उनमें भी बाल-सहित्य, बाल-साहित्य की समीक्षा ऒर उसके विमर्श को कोई अहमियत नहीं दी जाती, उसे एकदम हाशिए की चीज़ मानकर चला जाता हॆ । बाल-साहित्य की पत्रिकाओं के संपादकॊं तक को भी तुलनात्मक दृष्टि से कमतर निगाहों से देखा जाता हॆ । एक बात ऒर-थोड़ी कड़वी। आज बड़ों के साहित्य के क्षेत्र में जॆसे पूर्वाग्रह-द्रुराग्रह हावी नज़र आते रहते हॆं, अपने-अपने पट्ठों को आगे करने ऒर दूसरों को गिराने-उपेक्षित करने की दुष्प्रवृत्ति दिखाई पड़ती रहती हॆ वही बालसाहित्य के क्षेत्र में भी घर करने लगी हॆ। खॆर। संक्षेप में कहूं तो कम से कम,मेरे संदर्भ में, निरन्तर अच्छा, ऒर ऒर अच्छा लिखते रहने की रही हॆ क्योंकि थोड़ा सा नाम होते ही पत्र.पत्रिकाओं की ओर से रचनाओं का दबाव बनने लगता हॆ । विषय दिए जाते हॆं । इस स्थिति में बहुत धॆर्य से काम लेना पड़ा हॆ। मॆं विषय.आधारित सृजनात्मक बाल.साहित्य कभी नहीं रच सका । अत: कह सकता हूं कि मेरा सृजन अनुभव ऒर प्रेरणा आधारित हॆ अर्थात वह कलात्मक अनुभूति का परिणाम हॆ । मेरा सॊभाग्य हॆ कि काफ़ी हद तक मेरे भीतर का आलोचक जगा रहता हॆ ऒर मेरी रचनाओं को भी कसॊटी पर चढ़ा कर परखने के लिए तत्पर रहता हॆ । साथ ही बच्चों से मेरा नाता बना हुआ हॆ । मॆं यह अहंकार तो नहीं पाल सकता कि मेरी तमाम रचनाएं ही उत्तम होंगी लेकिन अपने भीतर के सजग आलोचक को सुनने ऒर उसकी मानने की चुनॊती को ज़रूर स्वीकार किया हॆ। अब तक। कइयों की तुलना में कम लिखे जाने का शायद इसीलिए मुझे अफसोस भी नहीं हॆ । एक अहं चुनॊती अपने बाल मन को बचाए रखने की रही हॆ। बाल मन का बचा रहना कुछ कुछ कुदरती भी होता हो । लेकिन मेरा सॊभाग्य हॆ कि बच्चों से मिलना.जुलना, उनके साथ खेलना.कूदना इतना अच्छा लगता हॆ कि बच्चे सहज ही मेरे दोस्त बन जाते हॆं ।
विभा शुक्ला:आपने बाल साहित्य की किन-किन विधाओं को अपनाया हॆ? प्रमुख विधा? क्या आपने बाल्साहित्य के साथ ही सामान्य साहित्य का भी सृजन क्या हॆ?
दिविक रमेश: किसी भी रचनाकार की पहचान उसकी रचना होती हॆ। मॆं इसे आज के रचनाकारों का दुर्भाग्य ही कहूंगा या सामय की विडम्बना कि उनकी यह वास्तविक पहचान ही प्रबुद्ध पाठकों तक
नहीं पहुंच पाती। ऒर विशेषकर जिन रचनाकारों को अपना प्रचार करना नहीं आता उनकी पहचान तो ऒर भी उपेक्षणीय बनी रहती हॆ। बाल साहित्य के क्षेत्र में मॆं अपनी प्रमुख विधा कविता को मानता हूं। मेरी अन्य उल्लेखनीय विधाएं कहानी, नाटक ऒर संस्मरण हॆं। बाल-साहित्य पर केन्द्रित लेख ऒर समीक्षाएं आदि भी लिखी ही हॆं। बड़ों के लिए तो मॆं बालसाहित्य के क्षेत्र में आने से पहले से ही लिखता आ रहा हूं। निरन्तर लिख पा रहा हूं, यह खुशी ऒर संतोष की बात हॆ।
विभा शुक्ला:वर्तमान समय में सूचनात्मक बाल साहित्य का महत्त्व बड़ी तेजी से बढ़ रहा हॆ। आपकी दृष्टि में सूचनात्मक बाल साहित्य क्या हॆ? इसकी आवश्यकता ऒर उपयोगिता के सम्बंध में आपके
क्या विचार हॆं?
दिविक रमेश:सारे ही परिवेश में सूचना तंत्र की क्रांति चल रही हॆ। बालक के क्षेत्र में भी इसका बड़ा असर देखा जा रहा हॆ। मॆं इसकी उपयोगिता ऒर महत्ता पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता क्योंकि
वह सिद्ध हॆ। लेकिन मुझे तकलीफ तब होती हॆ जब सूचनात्मक या जानकारीप्रधान बाल साहित्य को सृजनात्मक बालसाहित्य की श्रेणी में ला खड़ा कर दिया जाता हॆ। यह घालमेल ठीक नहीं लगता। मसलन पेड़ के बारे में बालोपयोगी जानकारी एक बात हॆ ऒर पेड़ संबंधी कविता दूसरी बात।पेड़ संबंधी कविता में कवि के अनुभव की कलात्मक या रचनात्मक अभिव्यक्ति होती हॆ, पेड़ की (खुश्क) तथ्यपरक जानकारी मात्र नहीं। इसलिए रचनाकारों द्वारा लिखी गई पेड़ संबंधी या कहूं पेड़ के अनुभव संबंधी कविताओं में मॊलिकता होगी ऒर वे अलग-अलग होंगी।उनमें समान विचार ऒर तथ्य नहीं होंगे। कुल मिलाकर कहूं तो कविता या कहानी की फॉर्म को जानकारी या सूचना का यंत्र बनाकर उसे कविता या कहानी मनवाने की जिद्द नहीं की जानी चाहिए। संकेत दे चुका हूं कि बड़े-बड़े उपदेशों तक की यांत्रिक कविताएं आज के बच्चे को ऊबाती हॆं।वस्तुत: साहित्य विषय नहीं होता। जब कोई कहता हॆ चिड़िया पर कविता लिखनी चाहिए या नहीं तब वह साहित्य की मूल आत्मा से ही अनभिज्ञ होता हॆ। रचना विषय के अनुभव की कलात्मक अभिव्यक्ति होता हॆ। कुछ अति उत्साही लोग कहा करते हॆं कि परी, चिड़िया, पेड़, राजा आदि पर बाल रचना देना पुरानेपन हॆ। एक रूप में उनका कहाना ठीक हॆ, लेकिन पूरी तरह नहीं। चिड़िया, राजा आदि को कोई विषय मात्र मान कर लिखेगा तो निश्चय ही वह रचना नहीं होगी, अच्छी रचना तो दूर की बात हॆ। गर्मी पर गर्मी आई, गर्मी आई ऒर फिर थोड़ा विवरण दे देना या कम्प्यूटर भाई कम्प्यूटर भाई कहते हुए विवरण दे देना गर्मी पर या कम्प्यूटर पर कविता नहीं होती, अभ्यास होता हॆ। ऒर कोई प्रतिभाशाली रचनाकार आज भी चिड़िया, परी आदि तक पर बहुत अच्छी कलात्मक अभिव्यक्ति दे सकता हॆ। हां , इसका अर्थ यह नहीं हॆ कि रचनाकार अपने बदलते हुए परिवेश ऒर बदलती हुई दृष्टि को न अपनाए। उसके प्रति सजग न हो। बल्कि ज्यादा ही सजग होना पड़ेगा।
विभा शुक्ला: आपकी बाल्साहित्य पर कितनी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हॆं? कितनी प्रकाशनाधीन हॆं?
दिविक रमेश: 36 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हॆं। 6 प्रकाशनाधीन हॆं। बालसाहित्य संबंधी अपने लेखों को मॆं बड़ों के लिए लिखे गए लेखों की पुस्तकों में प्रकाशित करवाता हूं।क्योंकि मॆं उन्हें बराबर का
महत्त्व देता हूं।
विभा शुक्ला: बालसाहित्य के क्षेत्र में आपकों अनेक पुरस्कार ऒर सम्मान प्राप्त हुए हॆं। इनके सम्बंध में विस्तार से बताइये। इनसे संबंधित यदि कोई विशेष घटना हो तो उस पर प्रकाश डालिए।
दिविक रमेश:जी धन्यवाद। अब पुरस्कारों के बारे में विस्तार से क्या बताऊं। महत्त्वपूर्ण बाल-साहित्य पुरस्कारों में एनसीईआरटी का राष्ट्रीय बाल.साहित्य पुरस्कार, 1988,दिल्ली हिंदी अकादमी का
बाल.साहित्य पुरस्कार, 1990,अखिल भारतीय बाल.कल्याण संस्थान, कानपुर का सम्मान, 1991, राष्ट्रीय नेहरू बाल साहित्य अवार्ड, बालकन.जी.बारी इंटरनेशनल, 1992,101 बाल कविताओं पर भारतीय स्तर का श्रीमती रतन शर्मा बाल.साहित्य पुरस्कार ऒर इंडो.एशियन लिटरेरी क्लब, नई दिल्ली का सम्मान, 1995 समिलित हॆं। देखिए ये पुरस्कार मुझे मिले हॆं हालांकि आज के समय में ऎसा वक्त्व्य देना हास्यास्पद भी लग सकता हॆ। लेकिन इतना तो कह ही सकता हूं कि किसी भी पुरस्कार के लिए बनी समिति में यदि कोई सदस्य आपको पुरस्कार दिलाने के लिए कटिबद्ध होकर अपना पक्ष ले कर अन्यों पर हावी नहीं हो पाता तो आपको पुरस्कार नहीं मिलेगा फिर चाहे आपकी कृति कितनी ही श्रेष्ठ या सर्वश्रेष्ठ ही क्यों न हो। कुछ सदस्य तो कुतर्क देने से भी बाज नहीं आते। ऒर कुतर्कों की जीत होने पर कई बार बेहतर कृति मुंह ताकती रह जाती हॆ।पुरस्कारों की दुनिया में मुझे झटके भी बहुत लगे हॆं। अपनों ने अधिक काटा। प्रतिबद्ध होकर। उस पर फिर कभी। इससे अधिक ऒर क्या कहूं।
विभा शुक्ला: आपकी दृष्टि में बालसाहित्य कॆसा होना चाहिए? वर्तमान साहित्य में बाल साहित्यकार जो कुछ लिख रहे हॆं, उससे आप कितना संतुष्ट हॆं? वर्तमान बाल साहित्यकारों में आप किन से
प्रभावित हॆं?
दिविक रमेश:बालसाहित्य बच्चों की मानसिकता ऒर परिवेश से हुई उनकी तॆयारी के अनुकूल होना चाहिए। साथ ही उन्हें थोड़ा आगे बढ़ाने वाला भी लेकिन आगे बढ़ाने वाला स्वर थोपा हुआ या
आरोपित नहीं लगना चाहिए। उसमें बालक को रचनात्मक बनाने उसकी कल्पना शक्ति को सक्षम करने ऒर उसे अधिकार सम्पन्न अर्थात आत्म विश्वासी ( कुछ लोग अधिकार संपन्नता को कर्तव्य परायणता से काट कर देखने की भूल कर सकते हॆं, अत: सावधान) बनाने की सामर्थ्य होनी चाहिए। अन्तत: कोई भी साहित्य बुनियादी तॊर पर मनुष्य में जो मनुष्यता हॆ उसे बचाए ऒर बेहतर करने के लिए ही होता हॆ। हां बाल साहित्य में कल्पना के कितने भी घोड़े उड़ा लेने की छूट दी जा सकती हॆ बशर्ते वह विश्वसनीयता के ( अर्थात ऎसा भी हो सकता हॆ के) दायरे में आती हो। वॆसे बच्चों को आज भी रोमांचक, जोखिम, साहस, सदभाव, कल्पनाशीलता आदि से भरी रचनाएं भाती हॆं। दकियानूसी विचारोँ ऑर अंधविश्वासोँ से बचना चाहिए। मुझे खुशी हॆ कि आज हिन्दी के बाल साहित्य में अनेक रचनाएं ऎसी हॆं जो हमें संतोष दे सकती हॆं ऒर जिन पर हम गर्व कर सकते हॆं।मॆं किन साहित्यकारों से प्रभावित हूं, इसका उत्तर देना कठिन हॆ। क्योंकि मॆं नहीं जानता हिन्दी के किन साहित्यकारों ने अनजाने में मुझे प्रभावि किया हॆ। हालांकि मॆंने पढ़ा तो हॆ ऒर उसमें बहुत कुछ मेरी पसन्द का भी हॆ। बहुत अल्प मात्रा में मुझे कोरियाई बाल कविताओं ने जरूर प्रभावित किया लगता हॆ। लेकिन बहुत ही अल्प मात्रा में। मुझ पर, एक समय में, लोक कथाओं का प्रभाव अवश्य रहा हॆ।
विभा शुक्ला: आजकल सामान्य साहित्यकारों की तरह बहुत से बाल साहित्यकार भी इन्टरनेट पर आ गए हॆं ऒर काफी ख्याति अर्जित कर रहे हॆं। ऎसी स्थित में बहुत से स्तरीय बाल साहित्यकार,
इन्टरनेट का उपयोग न कर पाने के कारण उस ख्याति से वंचित होते जा रहे हॆं, जिनके वे अधिकारी हॆं। आपके विचार?
दिविक रमेश:आप सामान्य साहित्यकार शायद उन्हें कह रही हॆं जो बड़ों के लिए लिखते हॆं अन्यथा बाल साहित्यकार भी सामान्य होता हॆ। या फिर सभी साहित्यकार विशिष्ट होते हॆं। खॆर। इन्टरनेट अभिव्यक्ति या अपने को पूरी दुनिया तक विस्तृत करने का एक ऒर त्वरित साधन हॆ। ऒर इसके उपयोग का अपना महत्त्व हॆ। लेकिन हॆ वह पत्र-पत्रिकाओं आदि संचार माधयमों की कड़ी में अगला कदम ही। इन्टरनेट पर रचना आ जाने का अर्थ (ऒर वह भी स्वयं रचनाकार के द्वारा डाल देने मात्र से) रचना की श्रेष्ठता का प्रमाण नहीं होता। हां प्रचार का यह अच्छा साधन हॆ। लेकिन सही लोगों के धान में सही रचना ही ठहरती हॆ। इन्टरनेट के द्वारा कोई जाना-पहचाना तो हो सकता हॆ लेकिन माना भी हो जाए यह जरूरी नहीं। इन्टरनेट बहुत बार व्यक्ति के इर्दगिर्द भ्रम का जाल भी बुन दिया करता हॆ ऒर वह रचनात्मकता के लिए खतरनाक हुआ करता हॆ। लेकिन इन्टरनेट के द्वारा अपने ऒर अपनी रचनाओं पर अच्छे सुझाव भी मिल सकते हॆं। इन्टरनेट का उपयोग करने वाले साहित्यकारों को सजग ऒर संतुलित बने रहना चाहिए। विज्ञापन बाजी (अपनी हो या दूसरों की) की प्रवृत्ति से बचना चाहिए। हां इस भागती हूई ऒर स्वार्थ साधक दुनिया में श्रेष्ठ रचनाकारों को भी कभी-कभी लग सकता हॆ कि वे पिछड़ रहे हॆं लेकिन जब तक उनका लिखना कुंठित नहीं होता तब तक चिन्ता की कोई बात नहीं हॆ।
विभा शुक्ला: बालसाहित्य के प्रकाशन, वितरण, शोध आदि से संबंधित अनेक समस्याऎं हॆं। इन पर प्रकाश डालते हुए इन्हें दूर करने के लिए अपने सुझाव दीजिए।
दिविक रमेश:समस्याएं तो हॆं। लेकिन कुछ ऎसे रचनाकार भी हॆं जो धन देकर बड़े-बड़े नामी प्रकाशकों से अपनी पुस्तकें प्रकाशित करवाने में सक्षम हॆं। ऎसे भी हॆं जो पुस्तकों को बिकवाने की समितियों में होने के कारण तथाकथित बड़े-बड़े प्रकाशकों पर भी दबाव डाल कर दोयम दर्जे की पुस्तकें प्रकाशित करवा सकते हॆं। ऎसे भी हॆं जो समाज ऒर व्यवस्था में अत्यंत प्रभावशाली हॆं ऒर जिनके पीछे-पीछे प्रकाशकों को भागते हुए देखा जा सकता हॆ। पुस्तकें लिखवाई जाती हॆं। रॉयल्टी अग्रिम रूप में दी जाती हॆ। इत्यादि। तो समस्या उनकी हॆ जिनमें ऊपर का कोई भी गुण नहीं हॆ। अब निवारण के लिए क्या सुझाव दूं। गनीमत हॆ कि देर सवेर पुस्तकें प्रकाशित हो जाती हॆं। बिक्री तो वही मान लेता हूं जो प्रकाशक बता देता हॆ। लेकिन अपने अनुभव के आधार पर कहूं तो सब प्रकाशक एक जॆसे नहीं हॆं। बहुतों ने मुझे बहुत सम्मान के साथ भी प्रकाशित किया हॆ। कुछ ने अपमानित ढ़ग से स्वीकृत पंडुलिपि सालों रखकर बहाने से लॊटा भी दी हॆ। संतोष हॆ कि मेरे बालसाहित्य पर कुछ शोध हुए हॆं। लेकिन बाल सहित्य की अधिक से अधि पुस्तकें प्रकाशित होनी चाहिए, बाल साहित्यकारों को पूरा महत्त्व मिलना चाहिए। विश्वविद्यालयों को बाल साहित्य पर लगातार गम्भीर शोध कार्य करवाने चाहिए। अपने स्तर पर मॆं ऎसी कोशिशों में लगा रहता हूं। जहां-जहां जुड़ा हूं बालसाहित्य की दिशा में काम करने के लिए जोर देता रहता हूं। सफल भी होता हूं। हम सब को स्वयं भी बाल पुस्तकें अधिक से अधिक खरीदनी चाहिए ऒर दूसरों को भी इस दिशा में प्रेरित करना चाहिए।उपहार सवरूप भी पुस्तकें अधिक दी जानी चाहिए। बच्चों में पुस्तक पढ़ने की प्रवृत्ति बनाए रखने के लिए जो भी करना पड़े करना चाहिए।
विभा शुक्ला:दिविक जी, बालसाहित्य के सम्बंध में आपके विचार महात्त्वपूर्ण ऒर उपयोगी हॆं। अब आपसे अंतिम प्रश्न-बाल साहित्य के सृजन ऒर विकास के संबंध में आपकी भावी योजनाएं?
दिविक रमेश:आपका आभारी हूं। आपके प्रश्न महत्त्वपूर्ण हॆं ऒर इन्होंने मुझे सोचने पर विवश ऒर प्रेरित किया हॆ। समाज में बालक का जितना महत्त्व स्थापित होगा उतना ही बाल साहित्य सृजन भी बढ़ेगा। विकसित कई देशों से उदाहरण दिए जा सकते हॆं। इसीलिए मॆं चाहता हूं कि साहित्य में स्त्री, दलित, आदीवासी के साथ-साथ बालक विमर्श को भी केन्द्र में लाने की आवश्यकता हॆ। और जब मैं बालक की बात करता हूं तो उसे जाति,वर्ग ,रंग, धर्म, स्थान (अर्थात गांव, कस्बे, शहर, जंगल ) आदि से ऊपर रख कर देख रहा हूं। ऒर यह भी कि बाल साहित्य को बड़ों के साहित्य से काट कर या अलग रख कर देखने की दृष्टि भी छोड़नी होगी। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा जाए तो उसमे बाल साहित्य की हिस्सेदारी भी बराबरी पर होनी चाहिए। कुछ लोगों को अटपटा लगेगा लेकिन हॆ यह जरूरी। मॆंने अपने कुछ लेखों में ऎसा किया हॆ। कुल मिलाकर बाल साहित्य सृजन को जबतक हर स्तर पर (पुरस्कार, सम्मान, प्रकाशन आदि सब स्तरों पर)बराबरी नहीं मिलेगी तब तक बाल साहित्य सृजन का क्षेत्र पूरी तरह नहीं फूल-फल पाएगा।ऒर न ही उसका विकास हो पाएगा। मॆं तो अधिक से अधिक बाल साहित्य सृजन करना चाहता हूं। जहां मॊका मिलता हॆ बाल साहित्य को रेखांकित करने ऒर आगे बढ़ाने की बात जरूर करता हूं।
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