सृजन किसी भी समय का क्यों न रहा हो अपने उपजने में वह चुनॊतीपूर्ण ही रहा होगा। हर उचित ऒर अच्छी रचना सजग ऒर जिम्मेदार रचनाकार के समक्ष चुनॊती ही लेकर आती हॆ। लेकिन जब हम सृजन के साथ ’नई चुनॊतियां’ जोड़ते हॆं तो उसका आशय निरन्तर बदलते सामाजिक-प्राकृतिक परिवेश में नई समझ ऒर नए भावबोध की गहरी समझ से लॆस रचनाकार की परम्परा की अगली कड़ी के रूप में अपेक्षित सृजन को संभव करने वाली तॆयारियों से होता हॆ। यूं मेरी समझ में तो हर जिम्मेदार बाल साहित्यकार के सामने उसकी हर अगली रचना नई चुनॊती ही लेकर आती हॆ क्योंकि यहां न कोई ढर्रा काम आता हॆ ऒर न ही कोई सीख। सही मायनों में तो अन्तत: अपना बोना ऒर अपना काटना ही प्राय: काम आता हॆ।चाल या चलन को चुनॊती देते हुए। अपने प्रगति-प्रयोगों के प्रति उपेक्षा के आघात सहते हुए भी। अन्यथा बालक को दो क्षण भी नहीं लगते किसी भी रचना से मुंह फेरते। शुरु में ही मॆं नोबल पुरस्कार विजेता अमेरिकी लेखक विलियम फॉकनर ऒर गुलजार के कथनों का जिक्र करना चाहूंगा। विलयम फॉकनर के अनुसार, ’आज सबसे बड़ी त्रासदी यह हॆ कि अब लोगों की समस्याओं का आत्मा या भावना से कोई लेना-देना नहीं रह गया हॆ।अब सबके मन में सिर्फ एक ही सवाल हॆ -मॆं कब मशहूर बनूंगा/बनूंगी।जो भी युवा लेखक ऒर लेखिकाएं हॆं वे अपनी इस चाहत के कारण खुद से द्वद्व कर रहे हॆं। इसी द्वंद्व के कारण वे जमीनी हकीकत ऒर इंसानी भावनाओं को भूल गए हॆं। उन्हें एक बार फिर से जॊवन के शाश्वत सत्य ऒर भावनाओं के बारे में सीखना होगा, क्योंकि इसके बिना कोई भी रचना बेहतर नहीं हो सकती। कवि या लेखक की जिम्मेदारी बनती हॆ कि वह ऎसा लिखे जिसे पढ़ने वाले व्यक्ति के मन में साहस, सम्मान, उम्मीद ऒर जज्बा पॆदा हो, जो उसे प्रेरित कर सके अपने जीवन की मुश्किलों के आगे डटे रहने ऒर जीतने के लिए।’ भले ही यह विलियम फॉकनर द्वारा 10 दिसम्बर 1950 को स्टॉकहोम में नोबल पुरस्कार ग्रहण करते समय दिए गए भाषण का अंश हॆ लेकिन मॆं इसे आज भी प्रसंगिक मानता हूं। मॆं इसे बाल साहित्य लेखन पर घटा कर भी देखना चाहूंगा चाहे बालक के रूप में व्यक्ति की बात करते हुए इसमें कुछ ऒर बातें भी जोड़ने की आवश्यक्ता पड़ेगी। मसलन उत्कृष्ट बाल साहित्य लेखन के संदर्भ में हमेशा बाल सुलभ जिज्ञासाओं ऒर उनकी अभिरुचि के अनुसार रचना को मज़ेदार बनाने ऒर बाल सुलभ प्रश्नों को रचनात्मक ढंग से उभारने की भी बहुत बड़ी चुनॊती ऒर जिम्मेदारी निभाए बिना काम नहीं चलता। यदि कोई कविता प्रश्न जगाने में सफल हो जाए तो समझ लेना चाहिए कि वह सार्थक हॆ, भले ही वह प्रश्न का उत्तर न भी दे पायी हो। अमेरिकी लेखिका ऒर बच्चों के लेखन के लिए अत्यंत प्रसिद्ध मेडेलीन एल एंगल (Madelien L' Engle, 1918-2007) के शब्दों में, "I believe that good questions are more important than answers, and the best children's books ask questions, and make the readers ask questions. And every new question is going to distrurb someone's universe." सहित्य में प्रश्न उठाना बहुत आसान नहीं होता क्योंकि प्रश्न उठाया ही जब जाता हॆ जब उसके उत्तर की ओर जाने की दिशा का ज्ञान हो। गनीमत हॆ कि हिन्दी ऒर अन्य भारतीय भाषाओं के बाल साहित्यकारों में आज अनेक ऎसे भी हॆं जो ऊपर बतायी गयी लेखकीय जिम्मेदारी की चुनॊती को भलीभांति निभा रहे हॆं। ऒर उन्हीं के लेखन से भारतीय बाल साहित्य लेखन की वॆश्विक ऒर उत्कृष्ट छवि निरंतर बन भी रही हॆ।दूसरा कथन बाल साहित्यकार के रूप में गुलजार का हॆ जिसके द्वारा लेखन की एक अन्य चुनॊती की ओर इशारा किया गया हॆ। । उनके अनुसार,"बच्चों की भाषा सीखना एक चुनौतीपूर्ण काम है। जैसे पीढ़ियां बदलती हैं, वैसे ही भाषा भी परिवर्तित होती हैं।’ इस कथन से सहमत होना ही पड़ेगा ऒर हमारे बहुत से लेखक इस चुनॊती को भी बखूबी स्वीकार किए हुए लिख रहे हॆं।वस्तुत: आज एस.एम.एस , टेलीविजन, नई टेक्नोलोजी, फिल्मों, इंटरनेट युक्त कम्प्यूटर आदि की भाषा, ऒर अब तो समाचार पत्रों की भाषा अपना एक अलग स्वरूप लेकर बालकों की दुनिया में भी प्रवेश करता चला गया हॆ। आज के बाल साहित्यकार को इस ओर ध्यान देना पड़ता हॆ। हिन्दी के स्वरूप में जहां एक ओर महानगरीय भाषा-स्वरूप में अंगेजी का घोल मिलता हॆ वहां लोक की भाषाओं का अच्छा सुखद छोंक भी मिलता हॆ। स्पष्ट हॆ कि इस स्वरूप को सहज रूप में अपनाना भी एक नई चुनॊती हॆ।यहीं यह भी कहना चाहूंगा कि यह ठीक हॆ कि बाल साहित्य म्रें ऎसी भाषा का सहज उपयोग होना चाहिए जो आयु वर्ग के अनुसार बच्चे की शब्द -सम्पदा के अनुकूल हो । लेकिन एक समर्थ रचनाकार उसकी शब्द-सम्पदा में सहज ही वृद्धि करने की चुनॊती भी स्वीकार करता हॆ।
बाल-साहित्य सृजन की चुनॊतियों पर थोड़ा विराम लगाते हुए पहले मॆं अपने मन की एक ऒर दुखद चिन्ता सांझा करना चाहूंगा जो भारतीय समाज में बालक के महत्त्व को लेकर हॆ। क्या हमारे समाज के तमाम बालक उन न्यूनतम सुविधाओं ऒर अधिकारों से भी सम्पन्न हॆं जिनका हमें किताबी या भाषणबाजियों वाला ज्ञान अवश्य हॆ? कहना चाहता हूं कि बालक (नर-मादा, दोनों) हमारी सांस की तरह हॆ। जिस तरह ऊपरी तॊर पर सांस हम मनुष्यों की एक बहुत ही सहज ऒर सामान्य प्रक्रिया हॆ लेकिन हॆ वह अनिवार्य। उसी तरह बालक भी भले ही ऊपरी तॊर पर सहज ऒर सामान्य उपलब्धि हो लेकिन हॆ वह भॊ अनिवार्य। ऒर जब मॆं बालक की बात कर रहा हूं तो मेरे ध्यान में शहरी, कस्बाई, ग्रामीण, आदिवासी, गरीब, अमीर, लड़की, लड़का आदि सब बालक हॆं। न सांस के बिना मनुष्य का जीवित रहना संभव हॆ ऒर न बालक के बिना मनुष्यता का जीवित रहना। यह विडम्बना ही हॆ कि समाज में बालक के अधिकारों की बात तक कही जाती हॆ लेकिन वह अभी तक कागजी सच अधिक लगती हॆ, जमीनी सच कम। आज साहित्य में दलित, स्त्री ऒर आदिवासी विमर्श की तरह ’बालक(जिसमंर बालिका भी हॆ) विमर्श’ की भी जरूरत हो चली हॆ। हमारा अधिकांश बाल लेखन महानगर/नगर केन्द्रित हॆ ऒर प्राय:वहीं के बच्चे को केन्द्र में रखकर अधिकतर चिन्तन-मनन किया जाता हॆ तथा निष्कर्ष निकाले जाते हॆं। लेकिन मॆं जोर देकर कहना चाहूंगा कि आज ज़रूरत बड़े-छोटे शहरो ऒर कस्बों के साथ-साथ गावों ऒर जगलों मे रह रहे बच्चों तक भी पहुंचने की हॆ । ऒर उन तक कॆसे किस रूप में पहुंचा जाए, यह भी कम बड़ी चुनॊती नहीं हॆ। वस्तुत: आज हमारे बाल-लेखकों की पहुंच ग्रामीण ऒर आदिवासी बच्चों तक भी सहज-सुलभ होनी चाहिए । इसमें साहित्य अकादमी, अन्य अकदमियों ऒर नेशनल बुक ट्रेस्ट आदि की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती हॆ। शिविर लगाए जा सकते हॆं, कार्यशालाएं आयोजित की जा सकती हॆं ।भारतीय बच्चों का परिवेश केवल कम्प्यूटर, सड़कें, मॉल्ज, आधुनिक तकनीकि से सम्पन्न शहरी स्कूल, अंतर्राष्ट्रीय परिवेश ही नहीं हॆ( वह तो आज के साहित्यकार की निगाह में होना ही चाहिए), गांव-देहात तक फॆली पाठशालाएं भी हॆ, कच्चे-पक्के मकान-झोंपड़ियां भी हॆं, उन के माता-पिता भी हॆं, उनकी गाय-भॆंस-बकरियां भी हॆं ।प्रकृति का संसर्ग भी हॆ। वे भी आज के ही बच्चे हॆं । उनकी भी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए जो कि दिख रही हॆ। अत: बाल साहित्यकारों को इस या उस एक ही कोठरी में रहकर नहीं बल्कि समग्र रूप में सोचना होगा।और यह भी एक बड़ी चुनॉती है।
ऎसा नहीं हॆ कि बच्चे को लेकर आज चिन्ता ऒर चिन्तन उपलब्ध न हो। बच्चे के स्वतंत्र व्यक्तित्व, उसके बहुमुखी विकास को लेकर गहरा विचार, विशेष रूप से, पिछली सदी से होता आ रहा हॆ। जॆसे-जॆसे सदियों से परतंत्र रह रहे देश आजाद होते गए ऒर नवजागरण के प्रकाश से जगमगाते गए वॆसे-वॆसे बच्चे की ओर भी अपेक्षित ध्यान देने का माहॊल बनाए जाने की कोशिशों का जन्म हुआ। मनुष्य ही नहीं बल्कि राष्ट्र के निर्माण के लिए बच्चे के चतुर्दिक विकास को आवश्यक मानने की समझ उपजी। इस समझ को उपजाने में बाल साहित्यकारों की भूंमिका भी अहं रही हॆ ऒर इसके विकास में भी बाल-साहित्यकार पूरी तरह समर्पित नज़र आ रहे हॆं। लेकिन आज का लेखक इस परम्परा को तभी आगे ले जाने में सक्षम होगा जब वह विलियम फॉकनर द्वारा ऊपर बताए गए मोह से अपने को बचाए रखेगा।
पर एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी हॆ कि क्या व्यापक संदर्भ में बच्चे को एक ऎसा पात्र मान लिया जाए जिसमें बड़ों को अपनी समझ बस ठूंसनी होती हॆ। मॆं समझता हूं कि आज जरूरत बच्चे को ही शिक्षित करने की नहीं हॆ, बड़ों को भी शिक्षित करने की हॆ। इसलिए बाल साहित्यकार के समक्ष यह भी एक बड़ी ऒर दोहरी चुनॊती हॆ। वस्तुत: सजग लोगों के सामने मूल चिन्ता यह भी रही हॆ कि कॆसे सदियों की रूढ़ियों में जकड़े मां-बाप ऒर बुजुर्गों की मानसिकता से आज के बच्चे को मुक्त करके समयानुकूल बनाया जाए। साथ ही यह भी कि आज के बच्चे की जो मानसिकता बन रही हॆ उसके सार्थक अंश को कॆसे प्रेरित किया जाए ऒर कॆसे दकियानूसी सोच के दमन से उसे बचाया जाए।गोर्की ने अपने एक लेख ’ऑन थीसस’ (1933) में लिखा था कि हमारे देश में शिक्षा का उद्देश्य बच्चे के मस्तिष्क को उसके पिता ऒर बुजुर्गों की अतीत की सोच से मुक्त कराना हॆ। ध्यान रहे कि अतीत की सोच से मुक्त कराना ऒर अतीत की सृजनात्मक जानकारी देना दो अलग-अलग बातें हॆं। आवश्यकतानुसार, अपने इतिहास ऒर परंपरा को बच्चे की जानकारी में लाना जरूरी हॆ। आस्ट्रिया की लूसियाबिन्डर ने उचित ही कहा हॆ कि कोई भी राष्ट्र मजबूत नहीं हो सकता, यदि उसके बच्चे अपने देश के इतिहास ऒर रिवाजों की जानकारी नहीं रखते। अपने अनुभवों को नहीं लिख सकते ऒर विज्ञान तथा गणित के बुनियादी सिद्धांतों की समझ नहीं रखते। अर्थात बच्चे में एक वॆज्ञानिक दृष्टि को विकसित करते हुए अपने इतिहास, रिवाजों आदि की आवश्यक जानकारी देनी होती हॆ। आज बड़ों में ’हिप्पोक्रेसी’ भी देखने को मिलती हॆ।ऒर यदि उसके प्रति सजग नहीं किया जाए तो वह सहज ही बच्चों तक भी पहुंचती हॆ। ऒर इस काम की चुनॊती का सामना बाल साहित्यकार अपने लेखन में बखूबी कर सकता हॆ। हमारे यहां ऒर किसी भी समाज में कहने को तो कहा जाता हॆ कि काम कोई भी हो, अच्छा होता हॆ, महत्त्वपूर्ण होता हॆ लेकिन इस सोच या मूल्य को कार्यान्वित करते समय अच्छे- अच्छों की नानी मर जाती हॆ। मसलन हर कोई अपने बच्चे को कुछ खास कार्यों ऒर पदों पर देखना चाहता हॆ ऒर अपने बच्चे को वॆसी ही सलाह भी देता हॆ, बल्कि उस पर अनावश्यक दबाव भी डालता हॆ। अन्य कामों को जाने-अनजाने कमतर या महत्त्वहीन मान लेता हॆ। ऒर जब बच्चे को बड़ा होकर किसी भी कारण से तथाकथित कमतर या महत्त्वपूर्ण कार्य ही करना पड़ जाता हॆ तो वह हीन भावना से ग्रसित रहता हॆ। कुंठित हो जाता हॆ। रूसी कवि मयाकोवस्की की एक कविता हॆ ’क्या बनूं’। अपने समय में इस कविता के माध्यम से कवि ने हर काम की प्रतिष्ठा को समानता के आधार पर रेखांकित करते हुए बच्चों पर प्राय: लादे जाने वाले कुछ लक्ष्यों की प्रवृत्तिपरक एक नई चुनॊती का बखूबी सामना किया था। एक अंश देखिए:
बेशक अच्छा बनना डाक्टर,
पर मजदूर ऒर भी बेहतर,
श्रमिक खुशी से मॆं बन जाऊं,
सीख अगर यह धन्धा पाऊं।
काम कारखाने का अच्छा
पर ट्राम तो उस से बेहतर,
काम अगर सिखला दे कोई
बनूं खुशी से मॆं कंडक्टर।
कंडक्टर तो मॊज उड़ाएं
काम सभी अच्छे, वह चुन लो,
जो हॆ तुम्हें पसन्द।
अनु०:डॉ. मदन लाल ’मधु’
ऎसी रचनाओं से निश्चय ही बालकों को जहां राहत मिलती हॆ वहीं अभिभावकों को एक नई लेकिन सही-सच्ची समझ भी।
आजकल (हालांकि थोड़े पहले से) बाल साहित्य लेखन के संदर्भ में एक चर्चा बराबर पढ़ने-सुनने में मिल जाती हॆ जिसे चाहें तो हम परम्परा बनाम आधुनिकता की बहस कह सकते हॆं जिसने एक ऒर तरह की चुनॊती को जन्म दिया हॆ।। एक सोच के अनुसार राजा-रानी, परियां, राक्षस, चूहे, बिल्ली, हाथी, शेर, ऒर यहां तक की फूल-फल, पेड़-पॊधे आदि आज के लेखन के लिए सर्वथा त्याज्य हॆं क्योंकि इनकी कल्पना बालक के लिए विष बन जाती हॆ। उन्हें अंधविश्वासी ऒर दकियानूसी बनाती हॆ। विरोध पारंपरिक, पॊराणिक तथा काल्पनिक कथाओं का भी हुआ। ऒर यह तब हुआ जब कि सामने प्रसिद्ध डेनिश लेखक हेंस क्रिश्चियन एंडरसन के ऎसा लेखन मॊजूद था जिसमें प्राचीन, पारंपरिक लोककथाओं को अपने समय के समाज की प्रासंगिकता दी गई थी जॆसा कि बड़ों के साहित्य में इतिहास या मिथ आधारित कृतियों में मिलता हॆ। मॆं भी मानता हूं कि राजा-रानी, परियों भूत-प्रेतों को लेकर लिखे जाने वाले ऎसे साहित्य को बाहर निकाल फेंकना चाहिए जो अंधविश्वास, दकियानूसी, कायरता, निराशा आदि अवगुणों का जनक हो।यह सत्य हॆ ऒर इसे मॆं गलत भी नहीं मानता कि आज भारत में बच्चों का एक सॊभाग्यशाली हिस्सा उस अर्थ में मासूम नहीं रहा हॆ जिस अर्थ में उसे समझा जाता रहा हॆ।हालांकि यह कहना कि वह किसी भी अर्थ में मासूं नहीं रहा यह भी ज्यादती होगी। बेशक आज उसके सामने संसार भर की सूचनाओं का अच्छा खासा भण्डार हॆ ऒर उसका मानसिक विकास पहले के बालक से कहीं ज्यादा हॆ। वह बड़ों के बीच उन बातों तक में हिस्सा लेने का अत्मविश्वास रखता हॆ जो कभी प्रतिबंधित मानी जाती रही हॆं।आज का बच्चा प्रश्न भी करता हॆ ऒर उसका विश्वसनीय समाधान भी चाहता हॆ। वह अब बड़ों को भी समझाने में या टोकने में नहीं हिचकता। वह निडर होकर कह सकता हॆ:
बात बात पर मम्मी गुस्सा
अगर करोगी चाहे जिस पर
तो हमको भी सिखला दोगी
गुस्सा करना बात बात पर।
वे बड़ों की ऎसी सीख लेने से भी मना कर सकते हॆं जो उन्हें आपस में लड़ाती हो:
क्यों लड़ें हम आपस में ही
कठपुतली से आप बड़ों की
हम ऎसे ही छोटे अच्छे
नहीं चाहिए सीख बड़ों की।
आज के सजग बच्चे की मानसिकता पुरानी मानसिकता नहीं हॆ जो प्रश्न के उत्तर में ’डांट’ या ’टाल मटोल’ स्वीकार कर ले। वह जानता हॆ कि बच्चा मां के पेट से आता हॆ चिड़िया के घोंसले से नहीं। दूसरे, हमें बच्चे को पलायनवादी नहीं बल्कि स्थितियों से दो-दो हाथ करने की क्षमता से भरपूर होने की समझ देनी होगी।अहंकारी उपदेश या अंध आज्ञापालन का जमाना अब लद चुका हॆ। बात का ग्राह्य होना आवश्यक हॆ। ऒर बात को ग्राह्य बनाना यह साहित्यकार की तॆयारी ऒर क्षमता पर निर्भर करता हॆ। तो भी विज्ञान, नई टेक्नोलोजी, वॆश्विक बोध ऒर आधुनिकता आदि के नाम पर वॆज्ञानिक दृष्टि से रचे शेष का अंधाधुंध, असंतुलित ऒर नासमझ विरोध भी कोई उचित सोच नहीं हॆ।लंदन में जन्में लेखक जी.के. चेटरसन (G.K. Chesterton -1874-1936) ने जो कहा था वह आज भी सोचने को मजबूर कर सकता हॆ -"परी कथाएं (Fairy Tales) सच से ज्यादा होती हॆं: इसलिए नहीं कि वे बताती हॆं ड्रेगन होते हॆं बल्कि इसलिए कि वे हमें बताती हॆं कि उन्हें हराया जा सकता हॆ।"ओड़िया भाषा के सुविख्यात साहित्यकार मनोज दास का मानना हॆ कि बालक ऒर बड़ों का यथार्थ एक नहीं होता।उनके शब्दों में, "His realism is different rom the adult's. He does not look at the giant and the fairy from the angle of genetic possibility. They are a spontaneous exercise for his imaginativeness--a quality that alone can enable him to look at life as bigger and greater than what it is at the grass plane." डॉ. हरिकृष्ण देवसरे की एक पुस्तक हॆ ’ऋषि-क्रोध की कथाएं’ जिसमें सुर भी हॆं, असुर भी हॆं ऒर राजा भी हॆ ऒर पुराण भी हॆ। ऎसे ही उन्हीं की एक ऒर पुस्तक हॆ-’इनकी दुश्मनी क्यों" जिसमें कुत्ता भी हॆ, बिल्ली भी हॆ, चूहा भी हॆ, सांप भी हॆ, हाथी भी हॆ ऒर चींटी भी हॆ। ऒर ये मनुष्य की भाषा भी बोलते हॆं। इसी प्रकार अत्यंत प्रतिष्ठित बाल-साहित्यकार ऒर चिन्तक जयप्रकाश भारती की ये पंक्तियां भी देखिए जो आज के बच्चे के लिए हॆं:
एक था राजा, एक थी रानी
दोनों करते थे मनमानी
राजा का तो पेट बड़ा था
रानी का भी पेट घड़ा था।
खूब वे खाते छक-छक-छक कर
फिर सो जाते थक-थक-थककर।
काम यही था बक-बक, बक-बक
नौकर से बस झक-झक, झक-झक
तो क्या बिना यह सोचे कि राजा-रानी आदि का किसी रचना में किस रूप में अगमन हुआ हॆ, वह कितना सृजनात्मक हॆ, वॆज्ञानिक दृष्टिकोण सम्पन्न हो, इनका बहिष्कार कर दिया जाए क्योंकि इनमें न कोई वॆज्ञानिक आविष्कार हॆ ऒर न ही कोई आधुनिक बालक-बालिकाएं या व्यक्ति। दूसरी ओर देवसरे जी की एक ऒर पुस्तक हॆ ’दूरबीन’ जो दूरबीन के जन्म का इतिहास बखूबी सामने लाती हॆ ऒर वह भी कहानी के शिल्प में। लेकिन मुझे इसे रचनात्मक बाल-साहित्य की श्रेणी में लेने में स्पष्ट संकोच हॆ। वस्तुत: यह बालोपयोगी साहित्य की श्रेणी में आती हॆ जिसके अंतर्गत सूचनात्मक या जानाकारीपूर्ण विषय आधारित सामग्री होती हॆ भले ही शिल्प या रूप कविता ,कहानी आदि का ही क्यों न हो। कविता की शॆली में तो विज्ञापन भी होते हॆं पर वे कविता नहीं होते। यह पाठ्य पुस्तक जरूर बन सकती हॆ। यह ’लिखी गई पुस्तक हॆ जो विवरणॊं ऒर तथ्यों से लदी हॆ ऒर सृजनात्मक साहित्य होने की शर्तों से वंचित। सृजनात्मक बाल साहित्य जॆसी रोचकता, मजेदारी ऒर पठनीयता यहां पूरी तरह नहीं हॆ। गनीमत हॆ कि अंत में स्वयं लेखक ने पात्रों के माध्यम से स्वीकार किया हॆ-"बबलू ऒर क्षिप्रा, दूरबीन के बारे में इतनी मज़ेदार ऒर विस्तृत जानकारी प्राप्त कर बहुत प्रसन्न थे।" लेकिन ऎसे साहित्य के लिखे जाने की भी अपनी बड़ी आवश्यकता हॆ।बालक को ज्ञानवर्धक पुस्तकें भी चाहिए। मेरा मानना हॆ कि बड़ों के रचनात्मक लेखन की रचना-प्रक्रिया ऒर बच्चों के रचनात्मक लेखन की प्रक्रिया समान होती हॆ। रचनाकार किसी भी विषय को ट्रीटमेंट के स्तर पर मॊलिकता ऒर नई मानसिकता प्रदान किया करता हॆ। महाभारत के वाचन ऒर उसकी कथाओं पर आधारित बाद के साहित्य में मॊलिक अंतर होता हॆ। राजा-रानी, हाथी, चिड़िया, चांद, तारे आदि पर नई दृष्टि से लिखा जा सकता हॆ ऒर लिखा जा भी चुका हॆ। मांग यह होनी चाहिए कि राजा-रानी की व्यवस्था की पोषक अथवा परियों की ढ़र्रेदार कल्पना को कायम रखने वाली प्रवृत्ति का बाल-साहित्य से त्याग किया जाए। आज के बाल साहित्य में तथाकथित रंग-रंगीली परियों के स्थान पर ज्ञान ऒर संगीत परी जॆसी परियों की भी कल्पना मिलती जो बच्चॊं को एक नयी सोच प्रदान करती हॆं। हाल ही में एक समाचार प्रकाशित हुआ था कि हेरी पोटर की एक विचित्र कल्पना को वॆज्ञानिकों ने यथार्थ कर दिखाया।यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि हेरी पोटर ने बिक्री के कितने ही रिकार्ड तोड़े हैं बावजूद तमाम आधुनिकताओं के। सच तो यह भी है कि आज परियों, राजा रानी आदि को लेकर और विशेष रूप से उनके पारंपरिक रूप को लेकर लिखना बहुत कम हो गया है और जो है उसे मान्यता भी नहीं मिलती। आज तो नई ललक के साथ वस्तु ऒर अभिव्यक्ति की दृष्टि से बाल साहित्य में नए-नए प्रयोग हो रहे हॆं। वस्तुत: समस्या उन लोगों की सोच की हॆ जो जाने-अनजाने बाल साहित्य को ’विषयवादी’ या विषय मानते हॆं। अर्थात जिनका मानना हॆ कि बाल-साहित्य में रचनाकार विषयों पर लिखते हॆं- मसलन पेड़ पर, चिड़िया पर, राजा-रानी, दूरबीन, टी.वी पर, इत्यादि। यदि रचना विषय निर्धारित करके लिखी जाती हॆ तब तो उनके मत से सहमत हुआ जा सकता हॆ। लेकिन सृजनात्मक साहित्य, चाहे वह बड़ों के लिए हो या बालकों के लिए, विषय पर नहीं लिखा जाता। वस्तुत: वह विषय के अनुभव पर लिखा जाता हॆ । अर्थात रचना रचनाकार का कलात्मक अनुभव होती हॆ। बात को ऒर स्पष्ट करने के लिए कहूं कि पेड़ या दूरबीन को विषय मानकर निबन्ध, लेख आदि लिखा जा सकता हॆ, कविता, कहानी आदि रचनात्मक साहित्य नहीं। पेड़ या दूरबीन पर लिखी कविता पेड़ या दूरबीन पर विषयगत जानकारी से एकदम अलग हो सकती हॆ, बल्कि होती हॆ। वह पेड़ या दूरबीन का कलात्मक अनुभव होती हॆ। सच हॆ कि आज ऎसी रचनाऎं (विशेष कर कविता) कम नहीं हॆ जो देशभक्ति, पर्यावरण, मॊसम आदि जॆसे विषयों पर ढ़र्रेदार ढ़ंग से लिखी गई हॆं। उनमें लय-तुक आदि सब हॆ, अच्छा उपदेश भी हॆ लेकिन न उनमें मॊलिकता हॆ ऒर न वही जो उन्हें आज के बच्चे की रचना कहलवा सके। उन्हें कॆसे महत्त्व दिया जा सकता हॆ। एक बार हिन्दी एक बड़े कवि से रेड़ियो के अधिकारी ने देशभक्ति की कविता चाही। उसका मंतव्य पारम्परिक ढंग से लिखी जाने वाली देशभक्ति वाली कविता से था। लेकिन बड़े कवि ने कहा वॆसी कविता तो मेरे पास नहीं हॆ लेकिन मॆं तो जो भी लिखता हूं वह देशद्रोह की तो नहीं होती। आज बाल-साहित्य सृजन में वॆज्ञानिक दृष्टि की आवश्यकता हॆ ऒर यह लेखक के लिए एक चुनॊती भी हॆ। वॆज्ञानिक दृष्टि का अर्थ यह नहीं हॆ कि बच्चे को कल्पना की दुनिया से एकदम काट दिया जाए। कल्पना का अभाव बच्चे को भविष्य के बारे में सोचने की शक्ति से रहित कर सकता हॆ। वॆज्ञानिक दृष्टि ’काल्पनिक’ को भी विश्वसनीयता का आधार प्रदान करने का गुर सिखाती हॆ जो आज के बच्चे की मानसिकता के अनूकूल होने या उसकी तर्क-संतुष्टि की पहली शर्त हॆ। विज्ञान ऒर वॆज्ञानिक दृष्टि में अंतर होता हॆ। विज्ञान मनुष्य के मूल भावों, संवेदनाओं आदि का पूरा विकल्प नहीं हॆ जो बालक ऒर मनुष्यता के विकास के लिए जरूरी हॆं।ओड़िया के प्रसिद्ध लेखक मनोज दास ने अपने एक लेख 'Talking to Children: The Home And The World' में लिखा हॆ-’no scientific or technological discovery can alter the basic human emotions, sensations and feelings. Social, economic and policial values amy change, but the evolutionary values ingrained in the consciousness cannot change--values that account for our growth." आज वॆज्ञानिक दृष्टि को सजग रह कर अपनाने की चुनॊती अवश्य हॆ। मुझे तो युगोस्लाव कथाकार, उपन्यासकार श्रीमती ग्रोजदाना ओलूविच की अपने साक्षात्कार में कही यह बात भी विचारणीय लगती हॆ-"मेरा ख्याल हॆ कि लोगों को सपनों ऒर फन्तासियों की उतनी ही जरूरत हॆ, जितनी कि दाल-रोटी की, यही वजह हॆ कि लोग आज भी परीकथाएं पढ़ते हॆं।"(सान्ध्य टाइम्स, नयी दिल्ली, 16 फरवरी, 1982)
अब मॆं अपने संदर्भ में एक निजी चुनॊती को जरूर सांझा करना चाहता हूं। हम देख रहे हॆं कि इधर यॊन शोषण के हिंसा के स्तर तक पर होने वाली घटनाओं की भरमार हमें कितना विचलित कर रही हॆ ऒर इसमें हमारे बालक भी सम्मिलित हॆं-शिकार के रूप में भी ऒर कभी-कभी शिकारी के रूप में भी। मॆं लाख कोशिश करके भी इस दिशा में अब तक बाल-साहित्य सृजन नहीं कर पाया हूं, बावजूद आमिर खान के टी.वी. पर आए कार्यक्रम के। लेकिन इस नई चुनॊती से जूझ जरूर रहा हूं।
थोड़ी बात इलॆक्ट्रोनिक माध्यम ऒर टेक्नोलोजी के हॊवे की भी कर ली जाए जिन्होंने विश्व को एक गांव बना दिया हॆ। यह बात अलग हॆ कि भारत में आज भी अनेक बच्चे इनसे वंचित हॆं। इनसे क्या वे तो प्राथमिक जरूरतों जॆसे शिक्षा तक से वंचित हॆं। कितने ही तो अपने बचपन की कीमत पर श्रमिक तक हॆं। अपने परिवेश ऒर परिस्थितियों के कारण अनेक बुरी आदतों से ग्रसित हॆं। वे भी आज के बाल साहित्यकार के लिए चुनॊती होने चाहिए ? खॆर जिन बच्चों की दुनिया में नई टेक्नोलोजी की पहुंच हॆ उनकी सोच अवश्य बदली हॆ। अच्छे रूप में भी ऒर गलत रूप में भी। विषयांतर कर कहना चाहूं कि मॆं टेक्नोलोजी या किसी भी माध्यम का विरोधी नहीं हूं, बल्कि वे मानव के लिए जरूरी हॆं। उनका जितना भी गलत प्रभाव देखने में आता हॆ उसके लिए वे दोषी नहीं हॆं बल्कि अन्तत: मनुष्य ही हॆ जो अपनी बाजारवादी मानसिकता की तुष्टि के लिए उन्हें गलत के परोसने की भी वस्तु बनाता हॆ।फिर चाहे वह यहां का हो, पश्चिम का हो या फिर कहीं का भी हो। होने को तो पुस्तक के माध्यम से भी बहुत कुछ गलत परोसा जा सकता हॆ। तो क्या माध्यम के रूप में पुस्तक को गाली दी जाए।एक जमाने में चित्रकथाओं की विवादास्पद दुनिया में अमर चित्रकथा ने सुखद हस्तक्षेप किया था। कहना यह भी चाहूंगा कि पुस्तक ऒर इलॆक्ट्रोनिक माध्यमों में बुनियादी तॊर पर कोई बॆर का रिश्ता नहीं हॆ। न ही वे एक दूसरे के विकल्प बन सकते हॆं। दोनों का अस्तित्व एक दूसरे के कारण खतरे में भी नहीं हॆ। आज बहुत सा बाल साहित्य इन्टेरनेट के माध्यम से भी उपलब्ध हॆ। किताबों की किताबें भी कम्प्यूटर पर पढ़ी जा सकती हॆं। इसके लिए कितने ही वेबसाइट हॆं। अत: जरूरत इस बात कि हॆ कि दोनों के बीच बहुत ही सार्थक रिश्ता बनाया जाए। हां बाल साहित्य सृजन के क्षेत्र में बंगाली लेखक ऒर चिन्तक शेखर बसु की इस बात से मॆं भी सहमत हूं कि आज का बालक बदलते हुए संसार की चीज़ों में रुचि लेता हॆ लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हॆ वह अपनी कल्पना की सुन्दर दुनिया को छोड़ना चाहता हॆ। लेखक के शब्दों में," Children today take active intrest in things of the changed world, but this does not mean leaving their own world of fantasy....They love to read new stories where technology plays a big part. But that is just a fleeting (क्षणिक) phase. They feel comfortable in their eternal all-found land." . मॆं कहना चाहूंगा कि चुनॊती यह हॆ कि बाल साहित्यकार उसे मजा देने वाले काल्पनिक लोक को कॆसे पिरोए कि वह बे सिर-पॆर का न लगते हुए विश्वसनीय लगे।अर्थात ऎसा भी हो सकता हॆ के दायरे में। सजग बच्चे को मूर्ख तो नहीं बनाया जा सकता। ऒर अपनी अज्ञानता से उसे लादना भी नहीं चाहिए। सूझ-बूझ ऒर कल्पना को सार्थक बनाने की योग्यता आज के बाल साहित्यकार के लिए अनिवार्य हॆ। निश्चित रूप से यह विज्ञान का युग हॆ। लेकिन बच्चे की मानसिकता को समझते हुए उसे समाज ऒर विज्ञान से रचना के धरातल पर जोड़ने के लिए कल्पना की दुनिया को नहीं छोड़ा जा सकता। बालक को एक संवेदनशील नागरिक बनाना हॆ तो उस राह को खोजना होगा जो उसके लिए मज़ेदार ऒर ग्राह्य हो, उबाऊ नहीं।जिसे विज्ञान बाल साहित्य कहते हॆं उसे भी बालक तभी स्वीकार करेगा जब उसके पढ़ने में उसे आनन्द आएगा। जो सृजनात्मक साहित्य होने की शर्तों पर पूरा उतरेगा।
मॆं कुछ उन चुनॊतियों की ओर भी, बहुत ही संक्षेप ऒर संकेत में ध्यान दिलाना चाहूंगा जो आज के कितने ही बाल साहित्यकार के लिए सृजनरत रहने में बाधा पहुचा सकती हॆं। मॆंने प्रारम्भ में बालक के प्रति समाज की उपेक्षा के प्रति ध्यान दिलाया था। सच तो यह हॆ कि अभी बालक से जुड़ी अनेक बातों ऒर चीज़ों जिनमें इसका साहित्य भी मॊजूद हॆ के प्रति समुचित ध्यान ऒर महत्त्व देने की आवश्यकता बनी हुई हॆ। न बाल साहित्यकार को ऒर न ही उसके साहित्य को वह महत्त्व मिल पा रहा हॆ जिसका वह अधिकारी हॆ। उसको मिलने वाले पुरस्कारों की धनराशि तक में भेदभाव किया जाता हॆ। उसके साहित्य के सही मूल्यांकन के लिए न पर्याप्त पत्रिकाएं हॆं ऒर न ही समाचार-पत्र आदि। साहित्य के इतिहास में उसके उल्लेख के लिए पर्याप्त जगह नहीं हॆ।बाल साहित्यकार को जो पुरस्कार-सम्मान दिए जाते हॆं वे उसे प्रोत्साहित करने की मुद्रा में दिए जाते हॆं साहित्य अकादमी ने बाल साहित्य ऒर बाल साहित्यकारों को सम्मानित करने की दिशा में बहुत ही सार्थक कदम बढ़ाएं हॆं लेकिन मेरी समझ के बाहर हॆ कि क्यों नहीं ज्ञानपीठ ऒर नोबल पुरस्कार देने वाली संस्थाएं ’बाल साहित्य’ को पुरस्कृत करने से गुरेज किए हुए हॆ। हिन्दी के संदर्भ में बाल साहित के अंतर्गत कविता ऒर कहानी के अतिरिक्त अन्य विधाओं में भी सृजन की बहुत संभावनाएं बनी हुई हॆ। इसी प्रकार बाल साहित्य की अधिकाधिक पहुंच उसके वास्तविक पाठक तक संभव करने के लिए बहुत कुछ करना बाकी हॆ। भारत के संदर्भ में आज बहुत जरूरी हॆ कि तमाम भारतीय भाषाओं में उपलब्ध बाल साहित्य अनुवाद के माध्यम से एक-दूसरे को उपलब्ध हो।स्थिति तो यह वॆश्विक स्तर पर भी पॆदा की जानी चाहिए। उत्कृष्ट बाल साहित्य के चयन प्रकाशित होते रहने चाहिए। भारतीय बाल साहित्यकारों को समय-समय पर एक मंच पर लाने की आवश्यकता हॆ ताकि बाल-साहित्य सृजन को सही दिशा मिल सके। इस दिशा में साहित्य अकादमी का यह कदम जिसके कारण हम यहां एकत्रित हॆं अत्यंत स्वागत के योग्य हॆ।
जोर देकर कहना चाहूंगा कि आज साहित्य में बालक(जिसमें बालिका भी सम्मिलित हॆ) विमर्श की बहुत जरूरत हॆ। आज हिन्दी में उत्कृष्ट बाल साहित्य उपलब्ध हॆ, विशेषकर कविता। लेकिन अभी बहुत कुछ ऎसा छूटा हॆ जिसकी ओर काफी ध्यान जाना चाहिए। उचित मात्रा में किशोरों के लिए बाल-साहित्य सृजन की आवश्यकता बनी हुई हॆ। तमाम तरह के अनुभवों को बांटते हुए हमें अपने बच्चों को ऎसे अनुभवों से भी सांझा करना होगा, अधिक से अधिक, जो मनुष्य को बांटने वाली तमाम ताकतों ऒर हालातों के विरुद्ध उनकी संवेदना को जागृत करे। उसके बड़े होने तक इंतजार न करें। मॆं तो कहता हूं कि सच्चा स्त्री विमर्श भी बालक की दुनिया से ही शुरु किया जाना चाहिए। भारत के बड़े भाग में आज भी लड़के-लड़की का दुखदायी ऒर अनुचित भेद किया जाता हॆ। मसलन लड़की को बचपन से ही इस योग्य नहीं समझा जाता कि वह लड़के की रक्षा कर सकती हॆ। एक कविता हॆ, ’जब बांधूंगा उनको राखी’ जिसमें लड़के की ओर से बाराबरी की बात उभर कर आती हॆ:
मां मुझको अच्छा लगता जब
मुझे बांधती दीदी राखी
तुम कहती जो रक्षा करता
उसे बांधते हॆं सब राखी।
तो मां दीदी भी तो मेरी
हर दम देखो रक्षा करती
जहां मॆं चाहूं हाथ पकड़ कर
वहीं मुझे ले जाया करती।
मॆं भी मां दीदी को अब तो
बांधूंगा प्यारी सी राखी
कितना प्यार करेगी दीदी
जब बांधूंगा उनको राखी!
कितने ही घरों में चूल्हा-चॊका जॆसे घरेलू काम लड़की के ही जिम्मे डाल दिए जाते हॆं। लेकिन शायद होना कुछ ऎसा नहीं चाहिए क्या जॆसा इस कविता ’मॆं पढ़ता दीदी भी पढ़ती’ में हॆ। एक अंश इस प्रकार हॆ:
कभी कभी मन में आता हॆ
क्या मॆं सीख नहीं सकता हूं
साग बनाना, रोटी पोना?
मॆं पढ़ता दीदी भी पढ़ती
क्यों मां चाहती दीदी ही पर
काम करे बस घर के सारे?
सबकुछ लिखते हुए बाल साहित्यकारों की ऎसी रचनाएं देने की भी जिम्मेदारी हॆ जिनके द्वारा संपन्न बच्चों की निगाह उन बच्चों की ओर भी जाए जो वंचित हॆं, पूरी संवेदना के साथ। कविता ’यह बच्चा’ का अंश पढ़िए:
कॊन हॆ पापा यह बच्चा जो
थाली की झूठन हॆ खाता ।
कॊन हॆ पापा यह बच्चा जो
कूड़े में कुछ ढूंढा करता ।
पापा ज़रा बताना मुझको
क्या यह स्कू्ल नहीं हॆ जाता ।
थोड़ा ज़रा डांटना इसको
नहीं न कुछ भी यह पढ़ पाता ।
अंत में, कहना चाहूंगा कि बड़ों के लेखन की अपेक्षा बच्चों के लिए लिखना अधिक प्रतिबद्धता, जिम्मेदारी, निश्छलता, मासूमियत जॆसी खुबियों की मांग करता हॆ। इसे लेखक, प्रकाशक अथवा किसी संस्था को बाजारवाद की तरह प्राथमिक रूप से मुनाफे का काम समझ कर नहीं करना चाहिए। बाल साहित्यकार के सामने बाजारवाद के दबाव वाले आज के विपरीत माहॊल में न केवल बच्चे के बचपन को बचाए रखने की चुनॊती हॆ बल्कि अपने भीतर के शिशु को भी बचाए रखने की बड़ी चुनॊती हॆ। कोई भी अपने भीतर के शिशु को तभी बचा सकता हॆ जब वह निरंतर बच्चों के बीच रहकर नए से नए अनुभव को खुले मन से आत्मसात करे। टूटते हुए परिवार ऒर अनेक कारणों से, मिलने-जुलने की दृष्टि से असामाजिक होते जा रहे परिवेश के बीच अकेले पड़ते बच्चे को उसके अकेलेपन से बचाना होगा। लेकिन यह बच्चों के बीच रहना ’बड़ा’ बनकर नहीं, बल्कि जॆसा कोरिया के बच्चों के सबसे बड़े हितॆषी, उनके पितामह माने जाने वाले सोपा बांग जुंग ह्वान (1899-1931) ने बच्चे के कर्तव्यों के साथ उसके अधिकारों की बात करते हुए ’कन्फ्य़ूसियन’ सोच से प्रभावित अपने समाज में निडरता के साथ एक आन्दोलन -"बच्चों का आदर करो" शुरु करते हुए कहा था, ’टोमगू’ या साथी बनकर। अपने को अपने से छोटों पर लादने, बात-बात पर उपदेश झाड़ने, अपने को श्रेष्ठ समझने ऒर मनवाने तथा अपने अंहकार आदि से बड़ों के लिए यह काम इतना आसान नहीं होता। लेकिन जो आसान कर लेते हॆं वे इसका आनन्द भी जानते हॆं ऒर उपयोगिता भी।यदि हम चाहते हॆं कि बाल-साहित्य बेहतर बच्चा बनाने में मदद करे ऒर साथ ही वह बच्चों के द्वारा अपनाया भी जाए तो उसके लिए हमें अर्थात बाल-साहित्यकारों को बाल-मन से भी परिचित होना पड़ेगा। उनके बीच रहना होगा। उनकी हिस्सेदारी को मान देना होगा। अमेरीकी कवि ऒर बाल-साहित्यकार चार्ल्स घिग्न(Charles Ghigna, 1946) के अनुसार, "जब आप बच्चों के लिए लिखो तो बच्चों के लिए मत लिखो। अपने भीतर के बच्चे के द्वारा लिखो।" आज भी बाल-साहित्य लेखन के सामने यह भी एक चुनॊती हॆ।हमें, हिन्दी के अत्यंत महत्त्वपूर्ण बाल साहित्यकार ऒर चिन्तक निरंकार देव सेवक से शब्द लेकर कहूं तो ’बच्चों की जिज्ञासाओं, भावनाओं ऒर कल्पनाओं को अपना बनाकर उनकी दृष्टि से ही दुनिया को देखकर जो साहित्य बच्चों को भी सरल भाषा में लिखा जाए, वही बच्चों का अपना साहित्य होता हॆ।’असल में बच्चे अपने द्वारा की जानी वाली सहज हरकतों, मीठी शॆतानियों आदि को जब बाल साहित्य में पढ़ते हॆं तो उन्हें बहुत मज़ा आता हॆ। एक बार मॆं अपनी नाती को अपनी एक कहानी सुना रहा था जिसमें पात्र का नाम कुछ ऒर था लेकिन कहानी अपनी नाती की कुछ हरकतों ऒर आदतों (मसलन जिद्दीपन आदि) के अनुभव से जन्मी थी। कहानी सुनने में उसे बहुत मज़ा आया। लेकिन उसकी प्रतिक्रिया ऒर भी मज़ेदार थी। बोली-"नानू कहानी में मेरा ही नाम लिख देते।’ अर्थात वह समझ गई थी कहानी उसी की आदत की ओर इशारा कर रही थी। हम बहुत हंसे थे। यहां मुझे महाकवि जिब्रान की कुछ कविता-पंक्तियां याद हो आयी हॆं जिनसे मॆं इस प्रपत्र का अंत करना चाहूंगा। पंक्तियां हॆं:
तुम्हारे बच्चे तुम्हारे नहीं हें।
जिन्दगी जीने के वे प्रयास हें।
तुम केवल निमित्त मात्र हो,
वे तुम्हारे पास हॆं, फिर भी-वे तुम्हारे नहीं हें।
उन्हें अपना विचार मत दो,
उन्हें प्रेम चाहिए।
दीजिए उन्हें घर उनके शरीर के लिए
लेकिन, उनकी आत्मा मुक्त रहने दीजिए।
तुम्हारे स्वप्न में भी नहीं,
तुम पहुंच भी नहीं पाओगे--
ऎसे कल से
उन्हें अपने घर बनने दीजिए
बच्चे बनिए उनके बीच,
लेकिन अपने समान उन्हें बनाइए मत।
डॉ. दिविक रमेश,
बी-295, सेक्टर-20,
नोएडा-201301
divik_ramesh@yahoo.com
09910177099 (मो०)
बाल-साहित्य सृजन की चुनॊतियों पर थोड़ा विराम लगाते हुए पहले मॆं अपने मन की एक ऒर दुखद चिन्ता सांझा करना चाहूंगा जो भारतीय समाज में बालक के महत्त्व को लेकर हॆ। क्या हमारे समाज के तमाम बालक उन न्यूनतम सुविधाओं ऒर अधिकारों से भी सम्पन्न हॆं जिनका हमें किताबी या भाषणबाजियों वाला ज्ञान अवश्य हॆ? कहना चाहता हूं कि बालक (नर-मादा, दोनों) हमारी सांस की तरह हॆ। जिस तरह ऊपरी तॊर पर सांस हम मनुष्यों की एक बहुत ही सहज ऒर सामान्य प्रक्रिया हॆ लेकिन हॆ वह अनिवार्य। उसी तरह बालक भी भले ही ऊपरी तॊर पर सहज ऒर सामान्य उपलब्धि हो लेकिन हॆ वह भॊ अनिवार्य। ऒर जब मॆं बालक की बात कर रहा हूं तो मेरे ध्यान में शहरी, कस्बाई, ग्रामीण, आदिवासी, गरीब, अमीर, लड़की, लड़का आदि सब बालक हॆं। न सांस के बिना मनुष्य का जीवित रहना संभव हॆ ऒर न बालक के बिना मनुष्यता का जीवित रहना। यह विडम्बना ही हॆ कि समाज में बालक के अधिकारों की बात तक कही जाती हॆ लेकिन वह अभी तक कागजी सच अधिक लगती हॆ, जमीनी सच कम। आज साहित्य में दलित, स्त्री ऒर आदिवासी विमर्श की तरह ’बालक(जिसमंर बालिका भी हॆ) विमर्श’ की भी जरूरत हो चली हॆ। हमारा अधिकांश बाल लेखन महानगर/नगर केन्द्रित हॆ ऒर प्राय:वहीं के बच्चे को केन्द्र में रखकर अधिकतर चिन्तन-मनन किया जाता हॆ तथा निष्कर्ष निकाले जाते हॆं। लेकिन मॆं जोर देकर कहना चाहूंगा कि आज ज़रूरत बड़े-छोटे शहरो ऒर कस्बों के साथ-साथ गावों ऒर जगलों मे रह रहे बच्चों तक भी पहुंचने की हॆ । ऒर उन तक कॆसे किस रूप में पहुंचा जाए, यह भी कम बड़ी चुनॊती नहीं हॆ। वस्तुत: आज हमारे बाल-लेखकों की पहुंच ग्रामीण ऒर आदिवासी बच्चों तक भी सहज-सुलभ होनी चाहिए । इसमें साहित्य अकादमी, अन्य अकदमियों ऒर नेशनल बुक ट्रेस्ट आदि की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती हॆ। शिविर लगाए जा सकते हॆं, कार्यशालाएं आयोजित की जा सकती हॆं ।भारतीय बच्चों का परिवेश केवल कम्प्यूटर, सड़कें, मॉल्ज, आधुनिक तकनीकि से सम्पन्न शहरी स्कूल, अंतर्राष्ट्रीय परिवेश ही नहीं हॆ( वह तो आज के साहित्यकार की निगाह में होना ही चाहिए), गांव-देहात तक फॆली पाठशालाएं भी हॆ, कच्चे-पक्के मकान-झोंपड़ियां भी हॆं, उन के माता-पिता भी हॆं, उनकी गाय-भॆंस-बकरियां भी हॆं ।प्रकृति का संसर्ग भी हॆ। वे भी आज के ही बच्चे हॆं । उनकी भी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए जो कि दिख रही हॆ। अत: बाल साहित्यकारों को इस या उस एक ही कोठरी में रहकर नहीं बल्कि समग्र रूप में सोचना होगा।और यह भी एक बड़ी चुनॉती है।
ऎसा नहीं हॆ कि बच्चे को लेकर आज चिन्ता ऒर चिन्तन उपलब्ध न हो। बच्चे के स्वतंत्र व्यक्तित्व, उसके बहुमुखी विकास को लेकर गहरा विचार, विशेष रूप से, पिछली सदी से होता आ रहा हॆ। जॆसे-जॆसे सदियों से परतंत्र रह रहे देश आजाद होते गए ऒर नवजागरण के प्रकाश से जगमगाते गए वॆसे-वॆसे बच्चे की ओर भी अपेक्षित ध्यान देने का माहॊल बनाए जाने की कोशिशों का जन्म हुआ। मनुष्य ही नहीं बल्कि राष्ट्र के निर्माण के लिए बच्चे के चतुर्दिक विकास को आवश्यक मानने की समझ उपजी। इस समझ को उपजाने में बाल साहित्यकारों की भूंमिका भी अहं रही हॆ ऒर इसके विकास में भी बाल-साहित्यकार पूरी तरह समर्पित नज़र आ रहे हॆं। लेकिन आज का लेखक इस परम्परा को तभी आगे ले जाने में सक्षम होगा जब वह विलियम फॉकनर द्वारा ऊपर बताए गए मोह से अपने को बचाए रखेगा।
पर एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी हॆ कि क्या व्यापक संदर्भ में बच्चे को एक ऎसा पात्र मान लिया जाए जिसमें बड़ों को अपनी समझ बस ठूंसनी होती हॆ। मॆं समझता हूं कि आज जरूरत बच्चे को ही शिक्षित करने की नहीं हॆ, बड़ों को भी शिक्षित करने की हॆ। इसलिए बाल साहित्यकार के समक्ष यह भी एक बड़ी ऒर दोहरी चुनॊती हॆ। वस्तुत: सजग लोगों के सामने मूल चिन्ता यह भी रही हॆ कि कॆसे सदियों की रूढ़ियों में जकड़े मां-बाप ऒर बुजुर्गों की मानसिकता से आज के बच्चे को मुक्त करके समयानुकूल बनाया जाए। साथ ही यह भी कि आज के बच्चे की जो मानसिकता बन रही हॆ उसके सार्थक अंश को कॆसे प्रेरित किया जाए ऒर कॆसे दकियानूसी सोच के दमन से उसे बचाया जाए।गोर्की ने अपने एक लेख ’ऑन थीसस’ (1933) में लिखा था कि हमारे देश में शिक्षा का उद्देश्य बच्चे के मस्तिष्क को उसके पिता ऒर बुजुर्गों की अतीत की सोच से मुक्त कराना हॆ। ध्यान रहे कि अतीत की सोच से मुक्त कराना ऒर अतीत की सृजनात्मक जानकारी देना दो अलग-अलग बातें हॆं। आवश्यकतानुसार, अपने इतिहास ऒर परंपरा को बच्चे की जानकारी में लाना जरूरी हॆ। आस्ट्रिया की लूसियाबिन्डर ने उचित ही कहा हॆ कि कोई भी राष्ट्र मजबूत नहीं हो सकता, यदि उसके बच्चे अपने देश के इतिहास ऒर रिवाजों की जानकारी नहीं रखते। अपने अनुभवों को नहीं लिख सकते ऒर विज्ञान तथा गणित के बुनियादी सिद्धांतों की समझ नहीं रखते। अर्थात बच्चे में एक वॆज्ञानिक दृष्टि को विकसित करते हुए अपने इतिहास, रिवाजों आदि की आवश्यक जानकारी देनी होती हॆ। आज बड़ों में ’हिप्पोक्रेसी’ भी देखने को मिलती हॆ।ऒर यदि उसके प्रति सजग नहीं किया जाए तो वह सहज ही बच्चों तक भी पहुंचती हॆ। ऒर इस काम की चुनॊती का सामना बाल साहित्यकार अपने लेखन में बखूबी कर सकता हॆ। हमारे यहां ऒर किसी भी समाज में कहने को तो कहा जाता हॆ कि काम कोई भी हो, अच्छा होता हॆ, महत्त्वपूर्ण होता हॆ लेकिन इस सोच या मूल्य को कार्यान्वित करते समय अच्छे- अच्छों की नानी मर जाती हॆ। मसलन हर कोई अपने बच्चे को कुछ खास कार्यों ऒर पदों पर देखना चाहता हॆ ऒर अपने बच्चे को वॆसी ही सलाह भी देता हॆ, बल्कि उस पर अनावश्यक दबाव भी डालता हॆ। अन्य कामों को जाने-अनजाने कमतर या महत्त्वहीन मान लेता हॆ। ऒर जब बच्चे को बड़ा होकर किसी भी कारण से तथाकथित कमतर या महत्त्वपूर्ण कार्य ही करना पड़ जाता हॆ तो वह हीन भावना से ग्रसित रहता हॆ। कुंठित हो जाता हॆ। रूसी कवि मयाकोवस्की की एक कविता हॆ ’क्या बनूं’। अपने समय में इस कविता के माध्यम से कवि ने हर काम की प्रतिष्ठा को समानता के आधार पर रेखांकित करते हुए बच्चों पर प्राय: लादे जाने वाले कुछ लक्ष्यों की प्रवृत्तिपरक एक नई चुनॊती का बखूबी सामना किया था। एक अंश देखिए:
बेशक अच्छा बनना डाक्टर,
पर मजदूर ऒर भी बेहतर,
श्रमिक खुशी से मॆं बन जाऊं,
सीख अगर यह धन्धा पाऊं।
काम कारखाने का अच्छा
पर ट्राम तो उस से बेहतर,
काम अगर सिखला दे कोई
बनूं खुशी से मॆं कंडक्टर।
कंडक्टर तो मॊज उड़ाएं
काम सभी अच्छे, वह चुन लो,
जो हॆ तुम्हें पसन्द।
अनु०:डॉ. मदन लाल ’मधु’
ऎसी रचनाओं से निश्चय ही बालकों को जहां राहत मिलती हॆ वहीं अभिभावकों को एक नई लेकिन सही-सच्ची समझ भी।
आजकल (हालांकि थोड़े पहले से) बाल साहित्य लेखन के संदर्भ में एक चर्चा बराबर पढ़ने-सुनने में मिल जाती हॆ जिसे चाहें तो हम परम्परा बनाम आधुनिकता की बहस कह सकते हॆं जिसने एक ऒर तरह की चुनॊती को जन्म दिया हॆ।। एक सोच के अनुसार राजा-रानी, परियां, राक्षस, चूहे, बिल्ली, हाथी, शेर, ऒर यहां तक की फूल-फल, पेड़-पॊधे आदि आज के लेखन के लिए सर्वथा त्याज्य हॆं क्योंकि इनकी कल्पना बालक के लिए विष बन जाती हॆ। उन्हें अंधविश्वासी ऒर दकियानूसी बनाती हॆ। विरोध पारंपरिक, पॊराणिक तथा काल्पनिक कथाओं का भी हुआ। ऒर यह तब हुआ जब कि सामने प्रसिद्ध डेनिश लेखक हेंस क्रिश्चियन एंडरसन के ऎसा लेखन मॊजूद था जिसमें प्राचीन, पारंपरिक लोककथाओं को अपने समय के समाज की प्रासंगिकता दी गई थी जॆसा कि बड़ों के साहित्य में इतिहास या मिथ आधारित कृतियों में मिलता हॆ। मॆं भी मानता हूं कि राजा-रानी, परियों भूत-प्रेतों को लेकर लिखे जाने वाले ऎसे साहित्य को बाहर निकाल फेंकना चाहिए जो अंधविश्वास, दकियानूसी, कायरता, निराशा आदि अवगुणों का जनक हो।यह सत्य हॆ ऒर इसे मॆं गलत भी नहीं मानता कि आज भारत में बच्चों का एक सॊभाग्यशाली हिस्सा उस अर्थ में मासूम नहीं रहा हॆ जिस अर्थ में उसे समझा जाता रहा हॆ।हालांकि यह कहना कि वह किसी भी अर्थ में मासूं नहीं रहा यह भी ज्यादती होगी। बेशक आज उसके सामने संसार भर की सूचनाओं का अच्छा खासा भण्डार हॆ ऒर उसका मानसिक विकास पहले के बालक से कहीं ज्यादा हॆ। वह बड़ों के बीच उन बातों तक में हिस्सा लेने का अत्मविश्वास रखता हॆ जो कभी प्रतिबंधित मानी जाती रही हॆं।आज का बच्चा प्रश्न भी करता हॆ ऒर उसका विश्वसनीय समाधान भी चाहता हॆ। वह अब बड़ों को भी समझाने में या टोकने में नहीं हिचकता। वह निडर होकर कह सकता हॆ:
बात बात पर मम्मी गुस्सा
अगर करोगी चाहे जिस पर
तो हमको भी सिखला दोगी
गुस्सा करना बात बात पर।
वे बड़ों की ऎसी सीख लेने से भी मना कर सकते हॆं जो उन्हें आपस में लड़ाती हो:
क्यों लड़ें हम आपस में ही
कठपुतली से आप बड़ों की
हम ऎसे ही छोटे अच्छे
नहीं चाहिए सीख बड़ों की।
आज के सजग बच्चे की मानसिकता पुरानी मानसिकता नहीं हॆ जो प्रश्न के उत्तर में ’डांट’ या ’टाल मटोल’ स्वीकार कर ले। वह जानता हॆ कि बच्चा मां के पेट से आता हॆ चिड़िया के घोंसले से नहीं। दूसरे, हमें बच्चे को पलायनवादी नहीं बल्कि स्थितियों से दो-दो हाथ करने की क्षमता से भरपूर होने की समझ देनी होगी।अहंकारी उपदेश या अंध आज्ञापालन का जमाना अब लद चुका हॆ। बात का ग्राह्य होना आवश्यक हॆ। ऒर बात को ग्राह्य बनाना यह साहित्यकार की तॆयारी ऒर क्षमता पर निर्भर करता हॆ। तो भी विज्ञान, नई टेक्नोलोजी, वॆश्विक बोध ऒर आधुनिकता आदि के नाम पर वॆज्ञानिक दृष्टि से रचे शेष का अंधाधुंध, असंतुलित ऒर नासमझ विरोध भी कोई उचित सोच नहीं हॆ।लंदन में जन्में लेखक जी.के. चेटरसन (G.K. Chesterton -1874-1936) ने जो कहा था वह आज भी सोचने को मजबूर कर सकता हॆ -"परी कथाएं (Fairy Tales) सच से ज्यादा होती हॆं: इसलिए नहीं कि वे बताती हॆं ड्रेगन होते हॆं बल्कि इसलिए कि वे हमें बताती हॆं कि उन्हें हराया जा सकता हॆ।"ओड़िया भाषा के सुविख्यात साहित्यकार मनोज दास का मानना हॆ कि बालक ऒर बड़ों का यथार्थ एक नहीं होता।उनके शब्दों में, "His realism is different rom the adult's. He does not look at the giant and the fairy from the angle of genetic possibility. They are a spontaneous exercise for his imaginativeness--a quality that alone can enable him to look at life as bigger and greater than what it is at the grass plane." डॉ. हरिकृष्ण देवसरे की एक पुस्तक हॆ ’ऋषि-क्रोध की कथाएं’ जिसमें सुर भी हॆं, असुर भी हॆं ऒर राजा भी हॆ ऒर पुराण भी हॆ। ऎसे ही उन्हीं की एक ऒर पुस्तक हॆ-’इनकी दुश्मनी क्यों" जिसमें कुत्ता भी हॆ, बिल्ली भी हॆ, चूहा भी हॆ, सांप भी हॆ, हाथी भी हॆ ऒर चींटी भी हॆ। ऒर ये मनुष्य की भाषा भी बोलते हॆं। इसी प्रकार अत्यंत प्रतिष्ठित बाल-साहित्यकार ऒर चिन्तक जयप्रकाश भारती की ये पंक्तियां भी देखिए जो आज के बच्चे के लिए हॆं:
एक था राजा, एक थी रानी
दोनों करते थे मनमानी
राजा का तो पेट बड़ा था
रानी का भी पेट घड़ा था।
खूब वे खाते छक-छक-छक कर
फिर सो जाते थक-थक-थककर।
काम यही था बक-बक, बक-बक
नौकर से बस झक-झक, झक-झक
तो क्या बिना यह सोचे कि राजा-रानी आदि का किसी रचना में किस रूप में अगमन हुआ हॆ, वह कितना सृजनात्मक हॆ, वॆज्ञानिक दृष्टिकोण सम्पन्न हो, इनका बहिष्कार कर दिया जाए क्योंकि इनमें न कोई वॆज्ञानिक आविष्कार हॆ ऒर न ही कोई आधुनिक बालक-बालिकाएं या व्यक्ति। दूसरी ओर देवसरे जी की एक ऒर पुस्तक हॆ ’दूरबीन’ जो दूरबीन के जन्म का इतिहास बखूबी सामने लाती हॆ ऒर वह भी कहानी के शिल्प में। लेकिन मुझे इसे रचनात्मक बाल-साहित्य की श्रेणी में लेने में स्पष्ट संकोच हॆ। वस्तुत: यह बालोपयोगी साहित्य की श्रेणी में आती हॆ जिसके अंतर्गत सूचनात्मक या जानाकारीपूर्ण विषय आधारित सामग्री होती हॆ भले ही शिल्प या रूप कविता ,कहानी आदि का ही क्यों न हो। कविता की शॆली में तो विज्ञापन भी होते हॆं पर वे कविता नहीं होते। यह पाठ्य पुस्तक जरूर बन सकती हॆ। यह ’लिखी गई पुस्तक हॆ जो विवरणॊं ऒर तथ्यों से लदी हॆ ऒर सृजनात्मक साहित्य होने की शर्तों से वंचित। सृजनात्मक बाल साहित्य जॆसी रोचकता, मजेदारी ऒर पठनीयता यहां पूरी तरह नहीं हॆ। गनीमत हॆ कि अंत में स्वयं लेखक ने पात्रों के माध्यम से स्वीकार किया हॆ-"बबलू ऒर क्षिप्रा, दूरबीन के बारे में इतनी मज़ेदार ऒर विस्तृत जानकारी प्राप्त कर बहुत प्रसन्न थे।" लेकिन ऎसे साहित्य के लिखे जाने की भी अपनी बड़ी आवश्यकता हॆ।बालक को ज्ञानवर्धक पुस्तकें भी चाहिए। मेरा मानना हॆ कि बड़ों के रचनात्मक लेखन की रचना-प्रक्रिया ऒर बच्चों के रचनात्मक लेखन की प्रक्रिया समान होती हॆ। रचनाकार किसी भी विषय को ट्रीटमेंट के स्तर पर मॊलिकता ऒर नई मानसिकता प्रदान किया करता हॆ। महाभारत के वाचन ऒर उसकी कथाओं पर आधारित बाद के साहित्य में मॊलिक अंतर होता हॆ। राजा-रानी, हाथी, चिड़िया, चांद, तारे आदि पर नई दृष्टि से लिखा जा सकता हॆ ऒर लिखा जा भी चुका हॆ। मांग यह होनी चाहिए कि राजा-रानी की व्यवस्था की पोषक अथवा परियों की ढ़र्रेदार कल्पना को कायम रखने वाली प्रवृत्ति का बाल-साहित्य से त्याग किया जाए। आज के बाल साहित्य में तथाकथित रंग-रंगीली परियों के स्थान पर ज्ञान ऒर संगीत परी जॆसी परियों की भी कल्पना मिलती जो बच्चॊं को एक नयी सोच प्रदान करती हॆं। हाल ही में एक समाचार प्रकाशित हुआ था कि हेरी पोटर की एक विचित्र कल्पना को वॆज्ञानिकों ने यथार्थ कर दिखाया।यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि हेरी पोटर ने बिक्री के कितने ही रिकार्ड तोड़े हैं बावजूद तमाम आधुनिकताओं के। सच तो यह भी है कि आज परियों, राजा रानी आदि को लेकर और विशेष रूप से उनके पारंपरिक रूप को लेकर लिखना बहुत कम हो गया है और जो है उसे मान्यता भी नहीं मिलती। आज तो नई ललक के साथ वस्तु ऒर अभिव्यक्ति की दृष्टि से बाल साहित्य में नए-नए प्रयोग हो रहे हॆं। वस्तुत: समस्या उन लोगों की सोच की हॆ जो जाने-अनजाने बाल साहित्य को ’विषयवादी’ या विषय मानते हॆं। अर्थात जिनका मानना हॆ कि बाल-साहित्य में रचनाकार विषयों पर लिखते हॆं- मसलन पेड़ पर, चिड़िया पर, राजा-रानी, दूरबीन, टी.वी पर, इत्यादि। यदि रचना विषय निर्धारित करके लिखी जाती हॆ तब तो उनके मत से सहमत हुआ जा सकता हॆ। लेकिन सृजनात्मक साहित्य, चाहे वह बड़ों के लिए हो या बालकों के लिए, विषय पर नहीं लिखा जाता। वस्तुत: वह विषय के अनुभव पर लिखा जाता हॆ । अर्थात रचना रचनाकार का कलात्मक अनुभव होती हॆ। बात को ऒर स्पष्ट करने के लिए कहूं कि पेड़ या दूरबीन को विषय मानकर निबन्ध, लेख आदि लिखा जा सकता हॆ, कविता, कहानी आदि रचनात्मक साहित्य नहीं। पेड़ या दूरबीन पर लिखी कविता पेड़ या दूरबीन पर विषयगत जानकारी से एकदम अलग हो सकती हॆ, बल्कि होती हॆ। वह पेड़ या दूरबीन का कलात्मक अनुभव होती हॆ। सच हॆ कि आज ऎसी रचनाऎं (विशेष कर कविता) कम नहीं हॆ जो देशभक्ति, पर्यावरण, मॊसम आदि जॆसे विषयों पर ढ़र्रेदार ढ़ंग से लिखी गई हॆं। उनमें लय-तुक आदि सब हॆ, अच्छा उपदेश भी हॆ लेकिन न उनमें मॊलिकता हॆ ऒर न वही जो उन्हें आज के बच्चे की रचना कहलवा सके। उन्हें कॆसे महत्त्व दिया जा सकता हॆ। एक बार हिन्दी एक बड़े कवि से रेड़ियो के अधिकारी ने देशभक्ति की कविता चाही। उसका मंतव्य पारम्परिक ढंग से लिखी जाने वाली देशभक्ति वाली कविता से था। लेकिन बड़े कवि ने कहा वॆसी कविता तो मेरे पास नहीं हॆ लेकिन मॆं तो जो भी लिखता हूं वह देशद्रोह की तो नहीं होती। आज बाल-साहित्य सृजन में वॆज्ञानिक दृष्टि की आवश्यकता हॆ ऒर यह लेखक के लिए एक चुनॊती भी हॆ। वॆज्ञानिक दृष्टि का अर्थ यह नहीं हॆ कि बच्चे को कल्पना की दुनिया से एकदम काट दिया जाए। कल्पना का अभाव बच्चे को भविष्य के बारे में सोचने की शक्ति से रहित कर सकता हॆ। वॆज्ञानिक दृष्टि ’काल्पनिक’ को भी विश्वसनीयता का आधार प्रदान करने का गुर सिखाती हॆ जो आज के बच्चे की मानसिकता के अनूकूल होने या उसकी तर्क-संतुष्टि की पहली शर्त हॆ। विज्ञान ऒर वॆज्ञानिक दृष्टि में अंतर होता हॆ। विज्ञान मनुष्य के मूल भावों, संवेदनाओं आदि का पूरा विकल्प नहीं हॆ जो बालक ऒर मनुष्यता के विकास के लिए जरूरी हॆं।ओड़िया के प्रसिद्ध लेखक मनोज दास ने अपने एक लेख 'Talking to Children: The Home And The World' में लिखा हॆ-’no scientific or technological discovery can alter the basic human emotions, sensations and feelings. Social, economic and policial values amy change, but the evolutionary values ingrained in the consciousness cannot change--values that account for our growth." आज वॆज्ञानिक दृष्टि को सजग रह कर अपनाने की चुनॊती अवश्य हॆ। मुझे तो युगोस्लाव कथाकार, उपन्यासकार श्रीमती ग्रोजदाना ओलूविच की अपने साक्षात्कार में कही यह बात भी विचारणीय लगती हॆ-"मेरा ख्याल हॆ कि लोगों को सपनों ऒर फन्तासियों की उतनी ही जरूरत हॆ, जितनी कि दाल-रोटी की, यही वजह हॆ कि लोग आज भी परीकथाएं पढ़ते हॆं।"(सान्ध्य टाइम्स, नयी दिल्ली, 16 फरवरी, 1982)
अब मॆं अपने संदर्भ में एक निजी चुनॊती को जरूर सांझा करना चाहता हूं। हम देख रहे हॆं कि इधर यॊन शोषण के हिंसा के स्तर तक पर होने वाली घटनाओं की भरमार हमें कितना विचलित कर रही हॆ ऒर इसमें हमारे बालक भी सम्मिलित हॆं-शिकार के रूप में भी ऒर कभी-कभी शिकारी के रूप में भी। मॆं लाख कोशिश करके भी इस दिशा में अब तक बाल-साहित्य सृजन नहीं कर पाया हूं, बावजूद आमिर खान के टी.वी. पर आए कार्यक्रम के। लेकिन इस नई चुनॊती से जूझ जरूर रहा हूं।
थोड़ी बात इलॆक्ट्रोनिक माध्यम ऒर टेक्नोलोजी के हॊवे की भी कर ली जाए जिन्होंने विश्व को एक गांव बना दिया हॆ। यह बात अलग हॆ कि भारत में आज भी अनेक बच्चे इनसे वंचित हॆं। इनसे क्या वे तो प्राथमिक जरूरतों जॆसे शिक्षा तक से वंचित हॆं। कितने ही तो अपने बचपन की कीमत पर श्रमिक तक हॆं। अपने परिवेश ऒर परिस्थितियों के कारण अनेक बुरी आदतों से ग्रसित हॆं। वे भी आज के बाल साहित्यकार के लिए चुनॊती होने चाहिए ? खॆर जिन बच्चों की दुनिया में नई टेक्नोलोजी की पहुंच हॆ उनकी सोच अवश्य बदली हॆ। अच्छे रूप में भी ऒर गलत रूप में भी। विषयांतर कर कहना चाहूं कि मॆं टेक्नोलोजी या किसी भी माध्यम का विरोधी नहीं हूं, बल्कि वे मानव के लिए जरूरी हॆं। उनका जितना भी गलत प्रभाव देखने में आता हॆ उसके लिए वे दोषी नहीं हॆं बल्कि अन्तत: मनुष्य ही हॆ जो अपनी बाजारवादी मानसिकता की तुष्टि के लिए उन्हें गलत के परोसने की भी वस्तु बनाता हॆ।फिर चाहे वह यहां का हो, पश्चिम का हो या फिर कहीं का भी हो। होने को तो पुस्तक के माध्यम से भी बहुत कुछ गलत परोसा जा सकता हॆ। तो क्या माध्यम के रूप में पुस्तक को गाली दी जाए।एक जमाने में चित्रकथाओं की विवादास्पद दुनिया में अमर चित्रकथा ने सुखद हस्तक्षेप किया था। कहना यह भी चाहूंगा कि पुस्तक ऒर इलॆक्ट्रोनिक माध्यमों में बुनियादी तॊर पर कोई बॆर का रिश्ता नहीं हॆ। न ही वे एक दूसरे के विकल्प बन सकते हॆं। दोनों का अस्तित्व एक दूसरे के कारण खतरे में भी नहीं हॆ। आज बहुत सा बाल साहित्य इन्टेरनेट के माध्यम से भी उपलब्ध हॆ। किताबों की किताबें भी कम्प्यूटर पर पढ़ी जा सकती हॆं। इसके लिए कितने ही वेबसाइट हॆं। अत: जरूरत इस बात कि हॆ कि दोनों के बीच बहुत ही सार्थक रिश्ता बनाया जाए। हां बाल साहित्य सृजन के क्षेत्र में बंगाली लेखक ऒर चिन्तक शेखर बसु की इस बात से मॆं भी सहमत हूं कि आज का बालक बदलते हुए संसार की चीज़ों में रुचि लेता हॆ लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हॆ वह अपनी कल्पना की सुन्दर दुनिया को छोड़ना चाहता हॆ। लेखक के शब्दों में," Children today take active intrest in things of the changed world, but this does not mean leaving their own world of fantasy....They love to read new stories where technology plays a big part. But that is just a fleeting (क्षणिक) phase. They feel comfortable in their eternal all-found land." . मॆं कहना चाहूंगा कि चुनॊती यह हॆ कि बाल साहित्यकार उसे मजा देने वाले काल्पनिक लोक को कॆसे पिरोए कि वह बे सिर-पॆर का न लगते हुए विश्वसनीय लगे।अर्थात ऎसा भी हो सकता हॆ के दायरे में। सजग बच्चे को मूर्ख तो नहीं बनाया जा सकता। ऒर अपनी अज्ञानता से उसे लादना भी नहीं चाहिए। सूझ-बूझ ऒर कल्पना को सार्थक बनाने की योग्यता आज के बाल साहित्यकार के लिए अनिवार्य हॆ। निश्चित रूप से यह विज्ञान का युग हॆ। लेकिन बच्चे की मानसिकता को समझते हुए उसे समाज ऒर विज्ञान से रचना के धरातल पर जोड़ने के लिए कल्पना की दुनिया को नहीं छोड़ा जा सकता। बालक को एक संवेदनशील नागरिक बनाना हॆ तो उस राह को खोजना होगा जो उसके लिए मज़ेदार ऒर ग्राह्य हो, उबाऊ नहीं।जिसे विज्ञान बाल साहित्य कहते हॆं उसे भी बालक तभी स्वीकार करेगा जब उसके पढ़ने में उसे आनन्द आएगा। जो सृजनात्मक साहित्य होने की शर्तों पर पूरा उतरेगा।
मॆं कुछ उन चुनॊतियों की ओर भी, बहुत ही संक्षेप ऒर संकेत में ध्यान दिलाना चाहूंगा जो आज के कितने ही बाल साहित्यकार के लिए सृजनरत रहने में बाधा पहुचा सकती हॆं। मॆंने प्रारम्भ में बालक के प्रति समाज की उपेक्षा के प्रति ध्यान दिलाया था। सच तो यह हॆ कि अभी बालक से जुड़ी अनेक बातों ऒर चीज़ों जिनमें इसका साहित्य भी मॊजूद हॆ के प्रति समुचित ध्यान ऒर महत्त्व देने की आवश्यकता बनी हुई हॆ। न बाल साहित्यकार को ऒर न ही उसके साहित्य को वह महत्त्व मिल पा रहा हॆ जिसका वह अधिकारी हॆ। उसको मिलने वाले पुरस्कारों की धनराशि तक में भेदभाव किया जाता हॆ। उसके साहित्य के सही मूल्यांकन के लिए न पर्याप्त पत्रिकाएं हॆं ऒर न ही समाचार-पत्र आदि। साहित्य के इतिहास में उसके उल्लेख के लिए पर्याप्त जगह नहीं हॆ।बाल साहित्यकार को जो पुरस्कार-सम्मान दिए जाते हॆं वे उसे प्रोत्साहित करने की मुद्रा में दिए जाते हॆं साहित्य अकादमी ने बाल साहित्य ऒर बाल साहित्यकारों को सम्मानित करने की दिशा में बहुत ही सार्थक कदम बढ़ाएं हॆं लेकिन मेरी समझ के बाहर हॆ कि क्यों नहीं ज्ञानपीठ ऒर नोबल पुरस्कार देने वाली संस्थाएं ’बाल साहित्य’ को पुरस्कृत करने से गुरेज किए हुए हॆ। हिन्दी के संदर्भ में बाल साहित के अंतर्गत कविता ऒर कहानी के अतिरिक्त अन्य विधाओं में भी सृजन की बहुत संभावनाएं बनी हुई हॆ। इसी प्रकार बाल साहित्य की अधिकाधिक पहुंच उसके वास्तविक पाठक तक संभव करने के लिए बहुत कुछ करना बाकी हॆ। भारत के संदर्भ में आज बहुत जरूरी हॆ कि तमाम भारतीय भाषाओं में उपलब्ध बाल साहित्य अनुवाद के माध्यम से एक-दूसरे को उपलब्ध हो।स्थिति तो यह वॆश्विक स्तर पर भी पॆदा की जानी चाहिए। उत्कृष्ट बाल साहित्य के चयन प्रकाशित होते रहने चाहिए। भारतीय बाल साहित्यकारों को समय-समय पर एक मंच पर लाने की आवश्यकता हॆ ताकि बाल-साहित्य सृजन को सही दिशा मिल सके। इस दिशा में साहित्य अकादमी का यह कदम जिसके कारण हम यहां एकत्रित हॆं अत्यंत स्वागत के योग्य हॆ।
जोर देकर कहना चाहूंगा कि आज साहित्य में बालक(जिसमें बालिका भी सम्मिलित हॆ) विमर्श की बहुत जरूरत हॆ। आज हिन्दी में उत्कृष्ट बाल साहित्य उपलब्ध हॆ, विशेषकर कविता। लेकिन अभी बहुत कुछ ऎसा छूटा हॆ जिसकी ओर काफी ध्यान जाना चाहिए। उचित मात्रा में किशोरों के लिए बाल-साहित्य सृजन की आवश्यकता बनी हुई हॆ। तमाम तरह के अनुभवों को बांटते हुए हमें अपने बच्चों को ऎसे अनुभवों से भी सांझा करना होगा, अधिक से अधिक, जो मनुष्य को बांटने वाली तमाम ताकतों ऒर हालातों के विरुद्ध उनकी संवेदना को जागृत करे। उसके बड़े होने तक इंतजार न करें। मॆं तो कहता हूं कि सच्चा स्त्री विमर्श भी बालक की दुनिया से ही शुरु किया जाना चाहिए। भारत के बड़े भाग में आज भी लड़के-लड़की का दुखदायी ऒर अनुचित भेद किया जाता हॆ। मसलन लड़की को बचपन से ही इस योग्य नहीं समझा जाता कि वह लड़के की रक्षा कर सकती हॆ। एक कविता हॆ, ’जब बांधूंगा उनको राखी’ जिसमें लड़के की ओर से बाराबरी की बात उभर कर आती हॆ:
मां मुझको अच्छा लगता जब
मुझे बांधती दीदी राखी
तुम कहती जो रक्षा करता
उसे बांधते हॆं सब राखी।
तो मां दीदी भी तो मेरी
हर दम देखो रक्षा करती
जहां मॆं चाहूं हाथ पकड़ कर
वहीं मुझे ले जाया करती।
मॆं भी मां दीदी को अब तो
बांधूंगा प्यारी सी राखी
कितना प्यार करेगी दीदी
जब बांधूंगा उनको राखी!
कितने ही घरों में चूल्हा-चॊका जॆसे घरेलू काम लड़की के ही जिम्मे डाल दिए जाते हॆं। लेकिन शायद होना कुछ ऎसा नहीं चाहिए क्या जॆसा इस कविता ’मॆं पढ़ता दीदी भी पढ़ती’ में हॆ। एक अंश इस प्रकार हॆ:
कभी कभी मन में आता हॆ
क्या मॆं सीख नहीं सकता हूं
साग बनाना, रोटी पोना?
मॆं पढ़ता दीदी भी पढ़ती
क्यों मां चाहती दीदी ही पर
काम करे बस घर के सारे?
सबकुछ लिखते हुए बाल साहित्यकारों की ऎसी रचनाएं देने की भी जिम्मेदारी हॆ जिनके द्वारा संपन्न बच्चों की निगाह उन बच्चों की ओर भी जाए जो वंचित हॆं, पूरी संवेदना के साथ। कविता ’यह बच्चा’ का अंश पढ़िए:
कॊन हॆ पापा यह बच्चा जो
थाली की झूठन हॆ खाता ।
कॊन हॆ पापा यह बच्चा जो
कूड़े में कुछ ढूंढा करता ।
पापा ज़रा बताना मुझको
क्या यह स्कू्ल नहीं हॆ जाता ।
थोड़ा ज़रा डांटना इसको
नहीं न कुछ भी यह पढ़ पाता ।
अंत में, कहना चाहूंगा कि बड़ों के लेखन की अपेक्षा बच्चों के लिए लिखना अधिक प्रतिबद्धता, जिम्मेदारी, निश्छलता, मासूमियत जॆसी खुबियों की मांग करता हॆ। इसे लेखक, प्रकाशक अथवा किसी संस्था को बाजारवाद की तरह प्राथमिक रूप से मुनाफे का काम समझ कर नहीं करना चाहिए। बाल साहित्यकार के सामने बाजारवाद के दबाव वाले आज के विपरीत माहॊल में न केवल बच्चे के बचपन को बचाए रखने की चुनॊती हॆ बल्कि अपने भीतर के शिशु को भी बचाए रखने की बड़ी चुनॊती हॆ। कोई भी अपने भीतर के शिशु को तभी बचा सकता हॆ जब वह निरंतर बच्चों के बीच रहकर नए से नए अनुभव को खुले मन से आत्मसात करे। टूटते हुए परिवार ऒर अनेक कारणों से, मिलने-जुलने की दृष्टि से असामाजिक होते जा रहे परिवेश के बीच अकेले पड़ते बच्चे को उसके अकेलेपन से बचाना होगा। लेकिन यह बच्चों के बीच रहना ’बड़ा’ बनकर नहीं, बल्कि जॆसा कोरिया के बच्चों के सबसे बड़े हितॆषी, उनके पितामह माने जाने वाले सोपा बांग जुंग ह्वान (1899-1931) ने बच्चे के कर्तव्यों के साथ उसके अधिकारों की बात करते हुए ’कन्फ्य़ूसियन’ सोच से प्रभावित अपने समाज में निडरता के साथ एक आन्दोलन -"बच्चों का आदर करो" शुरु करते हुए कहा था, ’टोमगू’ या साथी बनकर। अपने को अपने से छोटों पर लादने, बात-बात पर उपदेश झाड़ने, अपने को श्रेष्ठ समझने ऒर मनवाने तथा अपने अंहकार आदि से बड़ों के लिए यह काम इतना आसान नहीं होता। लेकिन जो आसान कर लेते हॆं वे इसका आनन्द भी जानते हॆं ऒर उपयोगिता भी।यदि हम चाहते हॆं कि बाल-साहित्य बेहतर बच्चा बनाने में मदद करे ऒर साथ ही वह बच्चों के द्वारा अपनाया भी जाए तो उसके लिए हमें अर्थात बाल-साहित्यकारों को बाल-मन से भी परिचित होना पड़ेगा। उनके बीच रहना होगा। उनकी हिस्सेदारी को मान देना होगा। अमेरीकी कवि ऒर बाल-साहित्यकार चार्ल्स घिग्न(Charles Ghigna, 1946) के अनुसार, "जब आप बच्चों के लिए लिखो तो बच्चों के लिए मत लिखो। अपने भीतर के बच्चे के द्वारा लिखो।" आज भी बाल-साहित्य लेखन के सामने यह भी एक चुनॊती हॆ।हमें, हिन्दी के अत्यंत महत्त्वपूर्ण बाल साहित्यकार ऒर चिन्तक निरंकार देव सेवक से शब्द लेकर कहूं तो ’बच्चों की जिज्ञासाओं, भावनाओं ऒर कल्पनाओं को अपना बनाकर उनकी दृष्टि से ही दुनिया को देखकर जो साहित्य बच्चों को भी सरल भाषा में लिखा जाए, वही बच्चों का अपना साहित्य होता हॆ।’असल में बच्चे अपने द्वारा की जानी वाली सहज हरकतों, मीठी शॆतानियों आदि को जब बाल साहित्य में पढ़ते हॆं तो उन्हें बहुत मज़ा आता हॆ। एक बार मॆं अपनी नाती को अपनी एक कहानी सुना रहा था जिसमें पात्र का नाम कुछ ऒर था लेकिन कहानी अपनी नाती की कुछ हरकतों ऒर आदतों (मसलन जिद्दीपन आदि) के अनुभव से जन्मी थी। कहानी सुनने में उसे बहुत मज़ा आया। लेकिन उसकी प्रतिक्रिया ऒर भी मज़ेदार थी। बोली-"नानू कहानी में मेरा ही नाम लिख देते।’ अर्थात वह समझ गई थी कहानी उसी की आदत की ओर इशारा कर रही थी। हम बहुत हंसे थे। यहां मुझे महाकवि जिब्रान की कुछ कविता-पंक्तियां याद हो आयी हॆं जिनसे मॆं इस प्रपत्र का अंत करना चाहूंगा। पंक्तियां हॆं:
तुम्हारे बच्चे तुम्हारे नहीं हें।
जिन्दगी जीने के वे प्रयास हें।
तुम केवल निमित्त मात्र हो,
वे तुम्हारे पास हॆं, फिर भी-वे तुम्हारे नहीं हें।
उन्हें अपना विचार मत दो,
उन्हें प्रेम चाहिए।
दीजिए उन्हें घर उनके शरीर के लिए
लेकिन, उनकी आत्मा मुक्त रहने दीजिए।
तुम्हारे स्वप्न में भी नहीं,
तुम पहुंच भी नहीं पाओगे--
ऎसे कल से
उन्हें अपने घर बनने दीजिए
बच्चे बनिए उनके बीच,
लेकिन अपने समान उन्हें बनाइए मत।
डॉ. दिविक रमेश,
बी-295, सेक्टर-20,
नोएडा-201301
divik_ramesh@yahoo.com
09910177099 (मो०)
hummm! bahut jaruri our barbar padne vala aalekh.anubhavo se pakaa vicharatmak aalekh.
जवाब देंहटाएंDhanyavaad
हटाएंअपनी बातों को गम्भीरता से प्रस्तुत करता एक विचारणीय आलेख।
जवाब देंहटाएंबहुत सी ऐसी अद्भुत बातें और कई जानकारियां प्राप्त हुई ,बहुत सुन्दर और सार्थक आलेख है .यह आलेख मेरी समझ से हर माता- पिता के लिए भी उतना ही जरूरी है ,जितना कि बाल साहित्यकारों के लिए .
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