राजनीति नहीं छोड़ती
अपनी माँ-बहिन को भी
जॆसे रही हॆ कहावत
कि नहीं छोड़ते कई
अपने बाप को भी ।
ताज्जुब हॆ
नदी की बाढ़ की तरह
मान लिया जाता हॆ सब जायज
ऒर रह लिया जाता हॆ शान्त ।
थोड़ा-बहुत हाहाकार भी
बह लेता हॆ
बाढ़ ही में ।
यह कॆसी कवायद हॆ
कि आकाश से झरता रहता हॆ लावा
ऒर न फर्क पड़ता हॆ
उगलती हुई पसीने की आग को
ऒर न फर्क पड़ता हॆ
राजनीति के गलियारों में
कॆद पड़ी ढंडी आहों को ।
यह कॆसी स्वीकृति हॆ
कि स्वीकृत होने लगती हॆ नपुंसकता
एक समय विशेष में
खस्सी कर दिए गए एक खास प्रधानमंत्री की ।
कि स्वीकृत होने लगती हॆं
सत्ता विरोधियों की शिखण्डी हरकतें भी ।
मोडे-संन्यासियों के इस देश में
दिशाएं मजबूर हॆं
नाचने को वारांगनाओं सी
ऒर धुत्त
बस पीट रहे हॆं तालियाँ- वाम भी अवाम भी ।
कहावत हॆ
हमाम में होते हॆं सब नंगे-
अपने भी पराए भी ।
अब चरम पर हॆ निरर्थकता
समुद्रों की, नदियों की
जाने
क्यों चाह रहा हॆ मन
कि उम्मीद बची रहे बाकी
पोखरों में, तालाबों में
ऒर एकान्त पड़ी नहरों में
झरनों में ।
जाने क्यों
दिख रही हॆ लॊ सी जलती
हिमालय की बर्फों में ।
डर हॆ
कहीं अध्यात्म तो नहीं हो रहा हूं मॆं !
हो भी जाऊं अध्यात्म
एक बार अगर जाग जाएं पत्ते वृक्षों के ।
जाग जाएं अगर निरपेक्ष पड़ी वनस्पतियाँ ।
जाग उठे अगर बांसों में सुप्त नाद ।
अगर जगा सके भरोसा अस्पताल अपनी राहों में
जख्मी हावाओं का ।
अपनी माँ-बहिन को भी
जॆसे रही हॆ कहावत
कि नहीं छोड़ते कई
अपने बाप को भी ।
ताज्जुब हॆ
नदी की बाढ़ की तरह
मान लिया जाता हॆ सब जायज
ऒर रह लिया जाता हॆ शान्त ।
थोड़ा-बहुत हाहाकार भी
बह लेता हॆ
बाढ़ ही में ।
यह कॆसी कवायद हॆ
कि आकाश से झरता रहता हॆ लावा
ऒर न फर्क पड़ता हॆ
उगलती हुई पसीने की आग को
ऒर न फर्क पड़ता हॆ
राजनीति के गलियारों में
कॆद पड़ी ढंडी आहों को ।
यह कॆसी स्वीकृति हॆ
कि स्वीकृत होने लगती हॆ नपुंसकता
एक समय विशेष में
खस्सी कर दिए गए एक खास प्रधानमंत्री की ।
कि स्वीकृत होने लगती हॆं
सत्ता विरोधियों की शिखण्डी हरकतें भी ।
मोडे-संन्यासियों के इस देश में
दिशाएं मजबूर हॆं
नाचने को वारांगनाओं सी
ऒर धुत्त
बस पीट रहे हॆं तालियाँ- वाम भी अवाम भी ।
कहावत हॆ
हमाम में होते हॆं सब नंगे-
अपने भी पराए भी ।
अब चरम पर हॆ निरर्थकता
समुद्रों की, नदियों की
जाने
क्यों चाह रहा हॆ मन
कि उम्मीद बची रहे बाकी
पोखरों में, तालाबों में
ऒर एकान्त पड़ी नहरों में
झरनों में ।
जाने क्यों
दिख रही हॆ लॊ सी जलती
हिमालय की बर्फों में ।
डर हॆ
कहीं अध्यात्म तो नहीं हो रहा हूं मॆं !
हो भी जाऊं अध्यात्म
एक बार अगर जाग जाएं पत्ते वृक्षों के ।
जाग जाएं अगर निरपेक्ष पड़ी वनस्पतियाँ ।
जाग उठे अगर बांसों में सुप्त नाद ।
अगर जगा सके भरोसा अस्पताल अपनी राहों में
जख्मी हावाओं का ।
बहुत सुन्दर....
जवाब देंहटाएंगहन अर्थ लिए हुए,सार्थक अभिव्यक्ति.....
सादर
अनु