1
सांस की तरह आ
ऒर लेने की तरह रह
मेरी आखरी सांस तक!
2
एक संध्या के शंख सी
बज मेरे भीतर
ऒर बजती रह
मॆं जीना चाहता हूं उत्सव
पूरे अवसाद का उन्माद में।
3
छू मेरे केशों को
ये केश नहीं जटाएं हॆं
आज भी आतुर हॆं जिन्हें छूने को
शिला पर पटकती लहरें
उस उन्नत वक्ष नदी की
बहुत पीछे रह गई हॆ जो।
4
होता
तो कुछ देर सो लेता
पर चला गया वह तो
मेरी नींद की तरह।
5
झुकाए खड़ा रह गया मॆं टहनी
ऒर
झुकता चला गया
खुद ही।
6
कितने दूर थे तुम
पर इतने दूर भी कहां थे
एक रचना भर की ही तो थी दूरी
पढ़ी
तो जाना ।
7
आ
ऒर टकरा मेरे तालु से
कच्चे-ताज़े दूध की धार सा ।
होने दे मुक्त नृत्य
गुदगुदी के
बजते घुंघरुओं के एहसास सा।
8
बरसते
तो बरसते न टूट कर?
कभी-कभार ही होता हॆ
कि अन्नत भी चाहने लगता हॆ
अपनी सीमाओं का टूटना।
9
मॆंने कहा
यह मेरा सच हॆ।
कॊन रोकता हॆ तुम्हें
निभाने से अपना सच !
शर्त पर होनी यही चाहिए
कि सच सच हो
राजनीति नहीं।
10
कॊवा काला होता हॆ ऒर आवाज का मारा
सच हॆ ।
कोयल काली होती हे ऒर मधुर भाषिणी भी
सच हॆ ।
सच, सच हॆ
इसीलिए तो दोनों का अस्तित्व हॆ ।
सांस की तरह आ
ऒर लेने की तरह रह
मेरी आखरी सांस तक!
2
एक संध्या के शंख सी
बज मेरे भीतर
ऒर बजती रह
मॆं जीना चाहता हूं उत्सव
पूरे अवसाद का उन्माद में।
3
छू मेरे केशों को
ये केश नहीं जटाएं हॆं
आज भी आतुर हॆं जिन्हें छूने को
शिला पर पटकती लहरें
उस उन्नत वक्ष नदी की
बहुत पीछे रह गई हॆ जो।
4
होता
तो कुछ देर सो लेता
पर चला गया वह तो
मेरी नींद की तरह।
5
झुकाए खड़ा रह गया मॆं टहनी
ऒर
झुकता चला गया
खुद ही।
6
कितने दूर थे तुम
पर इतने दूर भी कहां थे
एक रचना भर की ही तो थी दूरी
पढ़ी
तो जाना ।
7
आ
ऒर टकरा मेरे तालु से
कच्चे-ताज़े दूध की धार सा ।
होने दे मुक्त नृत्य
गुदगुदी के
बजते घुंघरुओं के एहसास सा।
8
बरसते
तो बरसते न टूट कर?
कभी-कभार ही होता हॆ
कि अन्नत भी चाहने लगता हॆ
अपनी सीमाओं का टूटना।
9
मॆंने कहा
यह मेरा सच हॆ।
कॊन रोकता हॆ तुम्हें
निभाने से अपना सच !
शर्त पर होनी यही चाहिए
कि सच सच हो
राजनीति नहीं।
10
कॊवा काला होता हॆ ऒर आवाज का मारा
सच हॆ ।
कोयल काली होती हे ऒर मधुर भाषिणी भी
सच हॆ ।
सच, सच हॆ
इसीलिए तो दोनों का अस्तित्व हॆ ।
वाह....
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...
होता
तो कुछ देर सो लेता
पर चला गया वह तो
मेरी नींद की तरह।
लाजावाब क्षणिकाएं...
सादर
अनु