मुझे एक लम्बे समय तक शमशेर के सम्पर्क में रहने का सुअवसर मिला हॆ । । बहुतेरों की तरह उनसे निकटता का दावा भी कर सकता हूं । मॆं उनके घर पर गया हूं ऒर वे भी मेरे घर पर आए हॆं । दिल्ली विश्वविद्यालय के उनके कार्यालय में ऒर बाहर हुई सभाओं आदि में भी उनसे मुलाकात करने के मुझे सुअवसर मिले हॆं । शमशेर जी स्रे मेरा पहला वास्ता 70 के दशक में ही पड़ा था ।बहुत ही प्रभावशाली ढ़ंग से । मॆं दिल्ली की एक कॉलोनी लाजपतनगर में रहता था । शमशेर जी भी वहीं रह रहे थे । यह बात मुझे कुछ बाद में पता चली थी । आकाशवाणी ने मावलंकार हॉल में, भारी संख्या में उपस्थित श्रोताओं के समक्ष कवि-गोष्ठी का आयोजन किया था । युवा कवियों में मॆं भी एक था । कवियों ऒर कविताओं का चयन एक समिति ने किया था जिसमें कवि शमशेर भी एक सदस्य थे । यह बात मुझे आयोजन के समाप्त होने पर पता चली थी । शमशेर जी से तब तक मेरा परिचय भी नहीं था । मंच पर ही पहली मुलाकात में पता चला था कि वे भई लाजपत नगर में ही रहते हॆं । उनके चश्में में से प्रॊढ़ता का गाम्भीर्य पूरी तरह झलक रहा था । बोले-’तुम्हारी कविताएं एक साथ पढ़ना चाहूंगा । अच्छा लगा लेकिन बात आई-गई हो गयी । उन दिनों मॆं कवि भारतभूषण के सम्पर्क में भी था । एक संदर्भ में भारत जी से शमशेर की बात का ज़िक्र हुआ तो वे तपाक से बोले कि शमशेर आज के बड़े कवि हॆं । उन्होंने कविताओं की पांडुलिपि उन्हें तुरन्त दे देने की सलाह दी ।मॆंने वॆसा ही किया । यूं उनसे मिलते रहने का सिलसिला चल निकला । बहुत ही गम्भीरता से लेकिन सहानुभूति के साथ वे मेरी कविताओं को देखते रहे. सुझाव देते रहे ऒर कुछ कविताओं को स्वीकृत-अस्वीकत करते रहे ।साहित्य ऒर दुनिया से जुड़ी कितनी ही बातें होती रहीं । बाद में मॉडल टाउन चले गए तो भी मिलना-जुलना होता रहा । उनके माध्यम से अंग्रेजी ऒर उर्दू के क्लासिकी साहित्य से रू-ब-रू होता रहा । मॆंने उनकी सोच ऒर उनके व्यक्तित्व में बहुत गहरे तालमेल का अनुभव किया था । वे मृदु भाषी थे लेकिन अपने सिद्धान्तों के लिए अडिग थे -जिद्द की हद तक । वे किसी के प्रशंसक हो सकते थे लेकिन उसकी कमियों को न बाताएं ऎसा सभव नहीं था । लेकिन परनिन्दा से वे सतर्क होकर भी बचते थे । उन्होंने एक बार बताया था कि किसी बात को लेकर जब उन्होंने ठान लिया था कि धर्मयुग के सम्पादक धर्मवीर भारती को रचना नहीं भेजेगें तो फिर रचना नहीं ही भेजी । हालांकि वे उनके नाटक अंधायुग के प्रशंसक थे । अज्ञेय से अच्छे संबंध होने के बावजूद उनकी समझ सम्बंधी चूक को उजागर किया । सबूत के लिए आलोचना के जनवरी 1952 अंक के पृ० 72 को देखा जा सकता हॆ । शमशेर जी का कहना था - "यह बात नहीं कि श्री स०ही० वात्स्यायन अपनी पीढ़ी की सभी अच्छी प्रतिभाओं को समझ सके हों । केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन की प्रतिभाएं विषय-वस्तु के अलावा टेकनीक की दृष्टि से भी कम महत्त्व की नहीं हॆं; एक ऒर महत्त्वपूर्ण कवि त्रिलोचन शास्त्री हॆं । ये नाम मॆंने इसलिए गिनाए ताकि दो बातों की तरफ ध्यान जाए; एक यह कि जिसे प्रयोगवादी कविता कहा जाता हॆ उसका बड़ा हिस्सा प्रगतिशिल कवियों की देन हॆ । दोयम यह कि ’प्रतीक’ या उपरोक्त कविता-संग्रहो (तारसप्तक, दूसरा सप्तक ) के बाहर जो नए काव्य-शिल्पी हॆं उनको लिए बिना प्रयोगशिल साहित्य की बहस अधूरी रहेगी ।’ स्पष्ट हॆ कि उनकी प्राथमिकता कविता के सही मूल्यांकन की थी । उन्हें साहित्य-नियामकों से संबधों की चिन्ता नहीं थी । वस्तुत: त्रिलोचन समेत अपने साथी कवियों में, मूलत: समाजचेता होते हुए भी, अपनी निजी ठसक के न केवल पूरे हिमायती थे बल्कि पूरे प्रयोगकर्ता भी थे । शमशेरियत का यह एक अहं आयाम हॆ जो उनके सृजन ऒर व्यक्तित्व को खासमखास बानाता हॆ । । उनकी ठसक की एक बानगी 1961 में पहली बार प्रकाशित अनके कविता संग्रह ’कुछ ऒर कविताएं’ के इस कथन में भी मिलती हॆ -’फ़ॆसन किन विषयों पर लिखने का हॆ, कॊन सी शॆली ’चल रही हॆ’, किस ’वाद’ का युग आ गया हॆ या चला गया हॆ --मॆंने कभी इसकी परवा नहीं की । जिस विषय पर जिस ढ़ंग से लिखना मुझे रुचा, मन जिस रूप में भी रमा, भावनाओं ने उसे अपना लिया; अभिव्यक्ति अपनी ओर से सच्ची हो, यही मात्र मेरी कोशिश रही- उसके रास्ते में किसी भी बाहरी आग्रह का आरोप या अवरोध मॆंने सहन नहीं किया ।’ ऒर स्वयं 1978 में प्रकाशित मेरे पहले संग्रह ’रास्ते के बीच’, जिसके लिए कविताओं का चयन भी उन्होंने ही किया था, की भूमिका में उन्होंने लिखा था -’उनका जो तेवर हॆ वह ईमानदार ऒर सच्चा हॆ ऒर कविता में जान इसी से आती हॆ । .....मुझे इस संग्रह में नयी पीढ़ी के मन ऒर मस्तिष्क की एक झांकी मिली जो सच्ची हॆ ऒर अर्थपूर्ण ।’ ’कुछ ऒर कविताएं’ में ही उनके इस लिखे की ओर भी ध्यान दिलाना चाहूंगा -"कवि का कर्म अपनी भावनाओं में, अपनी प्रेरणाओं में, अपने आंतरिक संस्कारों में, समाज -सत्य के मर्म को ढालना-उसमें अपने को पाना हॆ. ऒर उस पाने को अपनी पूरी कलात्मक क्षमता से पूरी सच्चाई के साथ व्यक्त करना हॆ, जहां तक वह कर सकता हो ।" मेरी निगाह में, ऒर ज़रूरी नहीं कि आप उससे सहमत हों ही हों, कवि-चिन्तक शमशेर पूर्णत्व के सच्चे अन्वेषी ऒर साधक पुरुष थे । असल में शमशेर के बारे में बात करना एक ऎसे कवि-रचनाकार-चिन्तक के बारे में बात करना हॆ जो मुक्कमल या पूर्णत्व का हिमायती हॆ । इसीलिए उनके यहां, खासकर अपने संदर्भ में, शायद, कदाचित आदि संदेह सूचक शब्द बराबर इस्तेमाल में आए हॆं । एक ऒर दिलचस्प अनुभव हुआ जो उपर्युक्त का तसल्लीबख़्श उदाहरण माना जा सकता हॆ । एक बार दोपहर उनके घर पहुंचा तो मुझ से ज़्यादा उन्हें मेरे भोजन की चिन्ता हुई । घर पर अकेले ही थे । मेरे ना नुकर करने के बावजूद वे रसॊई में गए ऒर थाली में चावल ऒर टिण्डे की सब्जी ले आए । बहुत ही आत्मीय ऒर स्नेहिल भाव से अपनी चिर परिचित शॆली में खाने का आग्रह किया । दाल-चावल तो खूब सुना था ऒर खाया भी लेकिन चावल-टिण्डा ! मेरे लिए किसी अजूबे से कम न था चावल-टिण्डे का वह मेल । खॆर, चेहरे पर वह भाव आने नहीं दिया । शमशेर तपाक से फिर रसोई में गए ऒर दूध ले आए । चावल-टिण्डे में दूध डालते हुए बोले- अब मिलाकर खाओ, बहुत स्वादिष्ट लगेगा । मॆं पूर्णत्व के अन्वेषी ऒर साधक की ऒर विभोर होकर देखने ही वाला था कि मानो अपने तईं किसी अधूरेपन को पाटने के लिए फिर रसोई की ओर मुखातिब हुए । अब कॊनसा गज़ब ढहने वाला था नहीं जानता था पर एहसास ज़रूर हो रहा था कि ढहने वाला हॆ । मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था । मॆं भी विचित्र ऒर मेरा साहिब भी विचित्र ! इसबार उनके हाथ में गुड़ था ऒर आँखों में ’पा लिया, पा लिया ’ वाले आइंस्टीन की सी चमक थी । आते ही चावल-टिण्डे-दूध को गुड़ समर्पित कर दिया । मॆं भी पूरा ऒर मेरा साहिब भी पूरा । शमशेर सचमुच पूर्णत्व के पुजारी थे ।
कवि-चिन्तक शमशेर की प्रासंगिकता खुद शमशेर की समझ ऒर पहचान में भी हॆ । खासकर अनेक प्रकार से प्रदूषित ऒर तकलीफ़ देते साहित्यिक परिवेश में । शमशेर जी को पढ़ते-जानते कुछ ऎसे तथ्य हाथ आए जो अपने समय की कविता ऒर कविता-परिवेश पर सशक्त ऒर निभीर्क टिप्पणियां हॆं । बल्कि आगे के समय पर भी । बहुत ही मॊलिक ऒर शायद पहली बार । उन्हें जानना कदाचित दिलचस्प ही होगा । नामवर जी के अनुसार अज्ञेय द्वारा संपादित तारसप्तक की पहली समीक्षा शमशेर जी ने ही की थी ऒर वह भी उसके प्रकाशन (1943) के तीन वर्ष बाद 1946 में जो नया साहित्य में ’सात आधुनिक हिन्दी कवी’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी । अपनी परख ऒर सोच में शमशेर कितने वस्तुपरक, कितने दृढ़ ऒर साफ़ थे इसका सबूत उक्त समीक्षा को माना जा सकता हॆ । आरम्भ में ही उन्होंने लिखा हॆ-"प्रयोग ही तारसप्त्क का नारा हॆ । इस दिशा में ’तार सप्तक’ की क्या विशेषता हॆ ? एकदम स्पष्ट कहा जाय तो कोई खास नहीं । कारण इसके दो हॆं । एक तो यह कि मॊलिक रूप से ’तारसप्तक’ के प्रयोग अन्यत्र कई ऒर कवियों के, इसके काफ़ी पहले के संग्रहों में मिल जायँगे: प्रथमत: निराला में ही - न केवल तारसप्तक के लगभग सभी प्रयोग बल्कि उससे भी ऒर कहीं अधिक, कहीं अधिक,...। दूसरा कारण जो तारसप्तक के प्रयोगों को न्यून करता हॆ, यह कि वे बहुत कम सफल हुए हॆं, यहां सिवाय अज्ञेय ऒर रामविलास के ।’ मुक्तिबोध के सम्बन्ध में उन्होंने वहीं पर लिखा था -"गजानन मुक्तिबोध की अभिव्यक्ति उनके कला प्रकारों के अनुरूप सूक्ष्म ऒर पुष्ट नहीं हॆ । शमशेर अपनी निजता, अपने विवेक, अपनी विनम्रता का संरक्षण करते हुए साफ़गोई के धनी थे । एक हद तक अपना सबकुछ दाव पर लगा देने वाले निर्भीक ।
कवि चिन्तक शमशेर की एक ऒर महत्त्वपूर्ण पहल का जायजा लीजिए । "फूल नहीं, रंग बोलते हॆं’ केदारनाथ अग्रवाल जी का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कविता सग्रह हॆ जो अक्टूबर, 1965 में प्रकाशित हुआ था । । यह वही संग्रह हॆ जिसमें उनकी वह कालजयी कविता भी हॆ जिसका प्रकृति-चित्रण बहुत ही प्रसिद्ध हॆ ऒर जिसका शीर्षक ’चन्द्र गहना से लॊटती बार हॆ’ । कविता की कुछ पंक्तियां निम्न प्रकार से हॆं:
देख आया चन्द्र गहना ।
देखता हँ दृश्य अब मॆं
मेड़ पर इस खेत की बॆठा अकेला ।
एक बीत के बराबर
यह हरा ठिगना चना,
बाँधे मुरॆठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सज कर खड़ा हॆ ।
पास ही मिल कर उगी हॆ
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की हॆ लचीली,
नीले फूले फूल को सिल पर चढ़ा कर
कह रही हॆ, जो छुए यह
दूँ हृदय का दान उसको ।
विडम्बना देखिए इस संग्रह अर्थात ’फूल नहीं, रंग बोलते हॆं ’ की समीक्षा के प्ररम्भ में ही शमशेर बहादुर सिंह को लिखना पड़ा था -"पॊने दो साल हो गए केदार के प्रतिनिधि संकलन ’फूल नहीं रंग बोलते हॆं’ को निकले ऒर सुनता हँ अभी तक उसकी कोई रिव्यू कहीं नहीं निकली, न कोई चर्चा कहीं हुई । .....केदार सन ’३० से भी पहले से लिख रहे हॆं ।"
इस कवि की एक अन्य मजबूत पक्षधरता से वाकिफ़ होना भी शायद उचित ही रहेगा । यह हॆ अनुचित या अन्याय का पुरज़ोर विरोध करना ऒर उसे बर्दाश्त न करना ।फिर ज़ोखिम भी क्यों न उठाना पड़े । हादसा ’चुका भी नहीं हूं मॆं’ को लेकर हॆ । पूरा विवरण मेरे ही द्वारा संपादित दिशाबोध के पहले अंक (जून 1978) में हॆ जिसे उन्होंने पूरे आग्रह से प्रकाशित कराया था । । यहां कुछ अंश देना ही काफ़ी रहेगा :
"चुका भी हूं नहीं मॆं" का जो (तथाकथित) "दूसरा संस्करण" राधाकृष्ण प्रकाशन ने छापा हॆ, उसे लेखक की यानी मेरी मान्यता प्राप्त नहीं हॆ । कारण, वह संस्करण बिना मुझसे पूछे, मेरी मर्जी के खिलाफ, चुपचाप छाप लिया गया हॆ--"
"राधाकृष्ण प्रकाशन ने जो दूसरा संस्करण निकाला हॆ, उसमें, पहले संस्करण की सारी की सारी अशुद्धियां ज्यों ख त्यों मॊजूद हॆं । अत: मेरी कविता के गम्भीर पाठकों के लिए अब प्रामाणिक ऒर शुद्ध वही संस्करण हॆ जो राजकमल प्रकाशन की ओर से प्रकाशित होने जा रहा हॆ ।"
"अगस्त, 77 में राधाकृष्ण प्रकाशन मेरे संग्रह की "बची हुई प्रतियां" मुझे वापिस करना चाहते थे । यह जानकर फ़ॊरन मॆंने राजकमल प्रकाशन से दूसरे संस्करण के लिये बात तय कर ली । मॆम उन ’बची हुई प्रतियों’ को वापस पाने की प्रतीक्षा ही करता रहा । वे वापस नहीं आयीं; बल्कि सपष हऎ, कि बिक गयीं । " "प्रकाशक की सहसा ’नीति-परिवर्तन’ का कारण समझना कठिन नहीं हॆ ।मेरी कविता की पुस्तक पहले धीर-धीरे बिक रही होगी, लाभांश उसमें बहुत कम होगा । मगर जब वही पुस्तक मध्य साहित्य परिषद ऒर साहित्य अकादमी की ओर से पुरस्कृत हो गयी तो उसकी मांग ऒर प्रतिष्ठा यकायक बढ़ गयी । अब क्या ज़रूरत बची हुई "प्रतियां वापिस" करने की !! " हिन्दी का एक ’प्रतिष्ठित’ ’ माना जाने वाला प्रकाशक अपने लेखक को कितना अवहेलनीय, उपेक्षणीय ऒर कितना महत्त्वहीन समझता हॆ -अमल में- यह ऒरों की तरह मेरे लिए भी. आँख खोलने वाला ताज़ा अनुभव हॆ ।"
कवि शमशेर को लेकर अनेक बातें कहीं गई हॆं । मसलन वे प्रयत्नसाध्य कवि थे , उनके बिम्ब खण्डित हॆं कि उनके यहां मार्क्सवाद ऒर रूमानियत का अन्तर्विरोध हॆ कि उनकी कविता दुरूह हॆ । आदि आदि । शमशेर के संदर्भ में प्रयत्नसाध्य शब्द बहुत फिट नहीं बॆठता । अन्यों के संदर्भ में जो प्रयत्नसाध्य पवित्रता हो सकती हॆ वह उनके अपने संदर्भ में सहज ही थी । मंदिर में मंदिर की पवित्रता की सी पवित्रता के साथ ही प्रवेश करना उचित होता हॆ । शमशेर कि कविता असल में पाठक से भी उचित तॆयारी की अपेक्षा रखती हॆ । मुक्तिबोध ऒर शमशेर की कविता को अपेक्षाकृत कठिन माना गया हॆ पर हम जानते हॆं कि उनकी कविताओं का आस्वादन भी लिया गया हॆ ऒर आकलन भी हुआ हॆ । यूं शमशेर जी ने ’चुका भी नहीं हूं मॆ’ ’ कविता संग्रह के आभार-ज्ञापन में लिखा हॆ -" अपनी काव्यकृतियां मुझे दरअसल सामाजिक दृष्टि से कुछ बहुत मूल्यवान नहीं लगतीं । उनकी वास्तविक सामाजिक उपयोगिता मेरे लिए एक प्रश्न-चिन्ह-सा ही रही हॆ, कितनी ही धुंधली सही ।’मेरी समझ में अपनी सोच ऒर कविता दोनों में मूलत: शमशेर एक हॆ । ’कुछ ऒर कविताए ’ से उनके शब्द लेकर बात समझी जा सकती हॆ -" इसका मतलब यह नहीं कि हम अपने दायित्व से ग़ाफ़िल हों, कोशिश न करें समाज में नयी चेतना फूंकने की-अगर कविता के माध्यम से ही ऎसा करने की हमें प्रेरणा मिलती हॆ। मगर ऎसी’ ’चेतना’ रखना ऒर उसे ’फूंकना’- अभिमंत्रित शक्ति की तरह समाज के प्राणॊं में उसे भरना...इसका अर्थ क्या हॆ, यह ध्यान में रखना आवश्यक होगा । मामूली सामर्थ्य का काम नहीं । बेशक ऎसी चीज़ों के सद्य: प्रकाशन, ऒर प्रचार पर मेरा प्रबल आग्रह हॆ । आवश्यक नहीं कि हर दशा में ऎसी उपादेय चीज़ें सच्ची कविता ही मानी जायँ ।’ उन्हीं के अनुसार-’एक दॊर था, जब मॆं ऎसी चीज़ें लिखने के लिए अधिक उत्सुक था......। पर अपेक्षित स्तर मुझे सदा अपने कवि-व्यक्तित्व की पहुंच से बहुत ऊंचा ऒर असम्भव-सा महसूस होता ।.....कविता में सामाजिक अनूभूति काव्य-पक्ष के अन्तर्गत ही महत्त्वपूर्ण हो सकती हॆ । शमशेर की पॉलिटिक्स एक ईमानदार ऒर सच्चे व्यक्ति की पॉलाटिक्स हॆ । वह वॆसी पॉलिटिक्स नहीं हॆ जॆसी वह आज अपने अर्थों में समझी जाती हॆ । वे कम्युनिस्ट पार्टी के बहुत ही समर्पित कार्यकर्ता थे लेकिन उनका मोहभंग भी हुआ था । रामविलास जी ने उनके कवि की पॉलिटिक्स को कुछ यं समझा हॆ -उनकी उलझनों का एक कारण यह हॆ कि वे अपने रीति-वादी-रुमानी सॊन्दर्यबोध से अपने मार्क्सवादी विवेक की संगति नहीं बिठा पाए । दूसरा कारण यह हॆ कि जब वह रीतिवाद ऒर रुमानियत से हटकर, मानव-करुणा में गहरे डूब कर कविता लिखते हॆं, तब शायद समझते हॆं कि वह कविता मार्क्सवाद के अनुरूप हुई नहीं । इस लेख में भुवनेश्वर वाली कविता इसीलिए पूरी की पूरी मॆंने उद्धृत की हॆ । यह एक अनुपम आधुनिक कविता हॆ, आत्म-सम्मोहन से बाहर, नव्य रहस्यवाद से बचती हुई, दूसरे की ज़िन्दगी को सहानुभूति से चित्रित करने में एक चमत्कार ।’ रामविलास जी ने अपने लेख ’शमशेर बहादुर सिंह का आत्म-संघर्ष ऒर उनकी कविता’ ’ में, इस संदर्भ में यह मत भी दिया हॆ -"उस दुनिया में यथार्थ जगत का गर्द-गुबार कम हॆ, कॆन्टोनमेन्ट की तरह वह शहर की गन्दी बस्तियों से काफी दूर हॆ ..।" तो भी मॆं समझता हूं कि कवि जिन कविताओं का खुद ही पटाक्षेप करना चाहता हॆ क्या ज़रूरी हॆ कि उन्हें ही उंगली दिखाई जाए ।वस्तुत: शमशेर की कविता सॊन्दर्यबोध धर्मी हॆं । नारी हो या प्रेम, शमशेर की कविता में वह सॊन्दर्यपरक कलात्मक अभिव्यक्ति ही होती हॆ । शमशेर के यहां विषय नहीं अनूभूति ऒर उसमें भी कलात्मक अनूभूति का महत्त्व हॆ । उनकी कविता को मात्र काव्य-कॊशल कह कर खारिज़ नहीं किया जा सकता । कलात्मक क्षमता हासिल करने में उनकी पूरी आस्था हॆ । उनके अनुसार सच्चा कवि रूप-प्रकार को ग्रहण करते हुए अनुभूति के स्पंदन के समक्ष उसे मोम बना देता हॆ ।वे बारीक कातते हॆं । वे रीझ सकते हॆं लेकिन पीछे ही नहीं पड़ जाते । कविता को शमशेर बहुत निज़ी चीज़ मानते हॆं। उनके शब्दों में-"जितनी ही अधिक वह उसकी अपनी चीज़ हॆ , उतनी ही कालान्तर में वह ऒरों की भी हो सकती हॆ ।- अगर वह सच्ची हॆ, कला-पक्ष ऒर भाव-पक्ष दोनों ओर से ।"(कुछ ऒर कविताएं ) । शमशेर के यहां कृत्रिमता के लिए जगह नहीं हॆ । न ही रूढ़िवादिता अथवा चलन के लिए । बयानबाजी या नारेबाजी भी उनकी चाय का प्याला नहीं हॆ ।यहीं वे सबसे अलग हॆं ऒर अपने से पूर्व की कविता से भी भिन्न । प्रासंगिकता मुझे एक आन्दोलनवादी शब्द प्रतीत होने लगा हॆ । सवाल हॆ किस के लिए प्रासंगिक या उन्हीं या आप के लिए ही प्रासंगिक क्यों ? आप या वे शमशेर की कविता के लिए प्रासंगिक क्यों नहीं ? ’अज्ञेय से’ ’ कविता में शमशेर कॊ कुछ पंक्तियां हॆं--
जो नहीं हॆ
जॆसे के ’सुरुचि’
उसका ग़म क्या ?
वह नहीं हॆ ।
xxxxxxx
जो हॆ
उसे ही क्यों न सँजोना ?
उसी के क्यों न होना ?--
जो कि हॆ ।
कवि ऒर कविता की सच्ची स्वायत्ता (ऒर ऎंठ भी) भी शमसेर की प्रासंगिकता का एक बड़ा प्रस्थान बिन्दु हॆ ।
नि:सन्देह शमशेर उस अर्थ में जनकवि नहीं ही हॆं जिस अर्थ में नागार्जुन हॆं । त्रिलोचन भी हिन्दी के जनकवि नहीं हॆं, थोड़े बहुत अवधी के हों तो हों ।मॆं समझता हूं कि शायद नागार्जुन भी अपनी श्रेष्ठ या उत्कृष्ट कविताओं के कारण जनकवि नहीं हॆं बल्कि तात्कालिक रूप से प्रतिक्रिया स्वरूप लिखी आशुनुमा कविताओं के कारण जनकवि अधिक माने जाते हॆं । उन्हें जनकवि सिद्ध करते हुए ऎसी ही कविताओं के उदाहरण ज़्यादा देने पड़ते हॆं । आज हिन्दी में कितने ही मंचीय कवि बिना उत्कृष्ट कुछ लिखे भी लोकप्रियता के शिखर पर हॆं इसलिए अपनी तरह से वे भी अच्छी अच्छी बातें कहने वाले जनकवि हुए । त्रिलोचन जी कहा करते थे कि ऒरों मे खप जाने वाली कविताएं तात्कालिक रूप से लोकप्रियता की तालियां तो बजवा सकती हॆं लेकिन बहुत दूर तक चलने में वे असमर्थ ही रह जाया करती हॆं । पाब्लो नेरूदा ऒर फ़ॆज अहमद फ़ॆज की कितनी ही कविताएं मानों टूट कर लिखी गयी हॆं । शमशेर भी टूट कर लिखते थे यानि पूर तरह डूबकर । अपना आपा मेंटकर -बिना अपनापन खोए । शमशेर की कविता मनुष्य को प्रामाणिकता के साथ उसके होने के सबसे उत्तम रूप से रू-ब-रू करने का अवसर देती हॆ क्या यह कवि की प्रतिबद्धता का मूल्य नहीं हॆ । उनकी किसी भी कविता को उठा कर पढ़ लिया जाए, मसलन लॊट आ, ओ धार । देखिए इसी की ये पंक्तियां:
लॊट आ, ओ फूल की पंखड़ी
फिर
फूल में लग जा ।
क्या इस कविता के कितने ही प्रतिबद्ध अर्थ भी नहीं नकाले जा सकते ?
ऒर अंत में यह भी कि शमशेर ने अपनी ही भाषा-शॆली अर्जित की थी । वह अपने पहले ही पाठ में अभिभूत करने की क्षमता रखती हॆ भले ही कभी-कभी उलझा भी देती हो । बिम्बधर्मिता ऒर चित्रकारी उनकी भाषा को चार चार चाँद लागा देती हॆं । शब्दों का रखरखाव अर्थ -छवियों का आनन्ददायी रचाव करता हॆ । मेरी एक कविता हॆ-शमशेर की कविता, उसी को उद्धृत करते हुए अपनी बात खत्म करना चाहूंगा -
छुइये
मगर हॊले
कि यह कविता
शमशेर की हॆ ।
ऒर यह जो
एक-आध पाँखुरी
बिखरी
सी
पड़ी
हॆ
न ?
इसे भी
न हिलाना ।
बहुत मुमकिन हॆ
किसी मूड में
शमशेर ने ही
इसे ऎसा रक्खा हो ।
दर असल
शरीर में जॆसे
हर चीज़ अपनी जगह हॆ
शमशेर की कविता हॆ ।
देखो
शब्द समझ
कहीं पाँव न रख देना
अभी गीली हॆ
जॆसे आंगन
माँ ने माटी से
अभी-अभी लीपा हॆ
शमशेर की कविता हॆ ।
शनिवार, 2 अप्रैल 2011
सोमवार, 7 मार्च 2011
२१वीं सदी का बाल-साहित्य : विभिन्न भाषाओं से अनुवाद के विशिष्ट संदर्भ में
अनुवाद की बात करना प्राय: तब जायज माना जाता हॆ जब मूल महत्त्वपूर्ण ऒर समृद्ध हो । भारतीय भाषाओं की बात करें तो नि:संदेह बंगला ऒर मराठी जॆसी भाषाओं के समृद्ध ऒर मह्त्त्वपूर्ण बाल-साहित्य की भांति आज हिन्दी का बाल-साहित्य भी मह्त्त्वपूर्ण ऒर समृद्ध हे । इस नाते यदि हिन्दी-बाल-साहित्य के संदर्भ में भी अनुवाद की दृष्टि से विचार किया जाए तो तर्कयुक्त ही कहा जाएगा । लेकिन बहुभाषी भारत के संदर्भ में तो मेरे विचार से सभी भाषाओं के बाल-साहित्य के एक दूसरे की भाषा में अनुवाद की आवश्यकता हे । बावजूद इसके कि कई भाषाएं ऎसी भी हॆं जिनसे या जिनमें हिन्दी बाल-साहित्य का अनुवाद करना कोई आसान काम नहीं हॆ । मसलन र. शॊरिराजन के अनुसार शब्द, वाक्य-रचना, व्याकरण आदि की भिन्न्ता के कारण अनुवाद की दृष्टि से हिन्दी ऒर तमिल में आदान-प्रदान सरल नहीं हॆ । यह मत उन्होंने बहुत पहले मधुमती (१९६७) के बाल विशेषांक में प्रकट किया था । आज कमोबेश सभी भारतीय भाषाओं में बाल-साहित्य की भी प्रकाशित सामग्री उपलब्ध हॆ । यदि हम चाहते हॆं कि हमारे देश की एक बड़ी अनिवार्य जरूरत की तहत भावनात्मक एकता के स्वरूप की महत्तवपूर्ण जानकारी ऒर उसके सच्चे संस्कार हमारे बच्चों में सहज ऒर पुख्ता ढ़ंग से घर कर लें तो नि:संदेह यह कार्य बाल-साहित्य के आदान-प्रदान से ही संभव हो सकता हॆ । आज न बड़ों के ऒर न ही बालकों के दायरे संकुचित रह गए हॆं, ऎसी स्थिति अपेक्षित भी नहीं हॆ । हम वॆश्विक होने की होड़ में हॆं । सूचनाओं ऒर जानकारियों को भण्डार हमारे सामने खुला पड़ा हॆ । मूल्यों की कोई एक परिभाषा नहीं रह गई हॆ । बिना सोचे-समझे अपनी-अपनी परिभाषाओं से चिपके रहना कोई अच्छी राह नहीं मानी जाती । हालांकि मूल्यविहीनता का मूल्य किसी को स्वीकार नहीं हॆ -बच्चों की दुनिया में तो एकदम नहीं । लेकिन मूल्यों का आरोपण या उनका उपदेशीकरण भी आज बच्चों तक को ग्राह्य नहीं हॆ । अत: बाल-साहित्य सृजन, आज के साहित्यकार के लिए एक बड़ी चुनॊती भी हॆ । अत: बालक के एक बड़े ऒर व्यापक परिवेश की सोच के बिना किसी भी भाषा का बाल-साहित्य सम्पूर्ण नहीं माना जाएगा । ऒर इतने बड़े देश में, इतनी भाषाओं के बच्चों के संदर्भ में यह कार्य अनुवाद के माध्यम से बखूबी संभव हो सकता हॆ । अनुवाद हर भाषा को अपने-अपने क्षितिज व्यापक करने का अवसर प्रदान करता हॆ । आदान-प्रदान हर हाल भारतीय ऒर वॆश्विक बाल-साहित्य के विकास में मदद करता हॆ । अगले पड़ावों के रूप में भारतीय बाल-साहित्य ऒर वॆश्विक बाल-साहित्य की प्रतिष्ठापना की जा सकती हॆ । हम विश्व के बाल-साहित्य के परिदृष्य में दृढ़ पांव जमा सकते हॆं । ऒर ऎसा करके हम मानवीयता से भरपूर वॆश्विक बालक ऒर उसके साहित्य को प्राप्त कर सकते हॆं । स्पष्ट हॆ कि यही वह राह हॆ जो हमें मानव ऒर विश्व को बचाए रखने में कारगर ढंग से मदद कर सकती हॆ । इस संदर्भ में मॆं अपनी पहले ही से बनी एक राय ज़रूर बांटना चाहूंगा कि विश्व तक जल्दी से जल्दी पहुंचने के लिए हिन्दी को अन्य भारतीय भाषाओं का द्वार बनाना ज़्यादा व्यावहारिक होगा । अर्थात सभी भारतीय भाषाओं के बाल-साहित्य का यदि हिदी में अनुवाद उपलब्ध कराने की व्यवस्था कर ली जाए तो विदेशी भाषाओं के संदर्भ में केवल एक भारतीय भाषा ’हिन्दी’ के माध्यम से उन भाषाओं में अनुवाद के माध्यम से पहुंचना बहुत सरल तो होगा ही, प्रमाणिक भी होगा क्योंकि हमारे देश का एक एक हिस्सा सांस्कृतिक दृष्टि से तो एक हॆ ही । सच तो यह हॆ कि जब तक स्रोत ऒर लक्ष्य भाषाओं में सीधे-सीधे अनुवाद करने वालों का अभाव हे तब तक किन्हीं भी दो भारतीय भाषाओं में भी बाल-साहित्य की सच्ची पहुंच के लिए ’हिन्दी’ का माध्यम सबसे ज़्यादा उपयुक्त होगा न कि अंग्रेजी का । कम से कम 21 वीं सदी में तो हमें इस तथ्य को स्वीकार कर ही लेना चाहिए । आज इस बात की भी खासी ज़रूरत हॆ कि हिन्दी ऒर भारतीय भाषाओं के बाल साहित्य को दोयम दर्जे का मानने वाले से सीधी टक्कर ली जाए । जयप्रकाश भारती जॆसे साहित्यकार इस दिशा में आदर्श कहे जाएंगे ।
यहां मॆं बाल-साहित्य की पहचान से संबद्ध पहले ही से बना अपना यह मत भी बता दूं कि बाल-साहित्य के अन्तर्गत मॆं केवल रचनात्मक बाल-साहित्य अर्थात कालात्मक अनुभूति जन्य बाल-साहित्य को ही स्वीकार करता हूं न कि अध्ययन, शोध, जानकारी अथवा तथ्यजन्य बालोपयोगी बाल-साहित्य को । ऒर जिसे मॆं बाल-साहित्य के अन्तर्गत मान रहा हूं उसी के अनुवाद का मसला कठिन ऒर चुनॊतिपूण होता हॆ । यही वह साहित्य होता हॆ जिसके अनुवाद का मतलब एक भाषा के शब्दों को दूसरी भाषा के शब्दों में रख देना मात्र नहीं होता । यहां आत्मा का अर्थात संस्कृति, पाठ आदि सब का अनुवाद करना होता हॆ । ऒर यह भी कि अनुवाद के माध्यम से एक भाषा मे लिखी रचना अन्य भाषा में पहुंचकर भी रचना ही लगनी चाहिए । अर्थात दूसरी भाषा की प्रकृति के एकदम अनुकूल - अनूदित कविता पहले कविता होनी चाहिए । यह अनुवादक की दोनों भाषाओं पर अधिकार मात्र से संभव नहीं होता बल्कि भाषाओं से जुड़े जीवन ऒर संस्कृति आदि के गहरे अनुभवात्मक ज्ञान से अधिक संभव होता हॆ । अनुवाद को लेकर विद्वानों में जो शब्दश: अथवा कलात्मक या मुक्त अनुवाद की बहस हॆ, उसके संदर्भ में मेरा निवेदन तो यही हॆ कि जहाँ तक रचनात्मक बाल-साहित्य के अनुवाद की बात हॆ, संतुलन करते हुए कलात्मक या मुक्त अनुवाद की राह पकड़नी चाहिए । पीताम्बार पबिल्शिंग कम्पनी प्रा० लि० द्वारा प्रकाशित स्लोवाकिया की लोक-कथाओं के रस में पगी दिलचस्प कहानियों के अनुवाद की पुस्तक मॆत्री का पुल के सम्पादकीय में जयप्रकाश भारती का कहना हॆ -"डॉ. शारदा यादव ने कथाओं का ऎसा अनुवाद किया हॆ कि अनुवाद नहीं लगता ।" 2008 में साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ऒर प्रीति पंत द्वारा अनूदित "उरुगुवाई बाल कहानियां" पढ़ते समय मुझे भारती जी द्वारा बताए गए गुण के भरपूर दर्शन हुए । उदाहरण के लिए मॆं एक कहानी गंजा तोता का ज़िक्र कर सकता हूं । तोते का नाम हॆ -पेद्रीतो । अनुवाद देखिए - "पेद्रीतो उन बच्चों के साथ खूब समय बिताता था । वे उससे इतना कुछ कहते थे कि वह भी उनकी तरह बोलना भी सीख गया । वह कहता, "मिट्ठू राम राम अहा मीठी मिर्ची ! पेद्रीतो का प्याला!" वह ऒर भई बहुत कुछ कहता था, जो कि बताया नहीं जा सकता हॆ, क्योंकि तोते भी बच्चों की ही तरह बुरी बातें आसानी से सीख जाते हॆं । " स्पष्ट हॆ कि यहां अनुवाद करते समय अनुवादिका ने ध्यान रखा हॆ कि हिन्दी में अनूदित इन कहानियों के पाठक अधिकतर हिन्दी के जानकार भारतवासी होंगे । अत: राम राम आदि वाली सुखद ऒर ज़रूरी छूट ले ली हॆ ऒर कृत्रिम भाषा-परिवेश से अनुवाद को बचा लिया हॆ ।
21 वीं सदी को ध्यान में रख कर कहा जाए तो भारत की सहवर्ती भाषाओं में बाल-साहित्य के आदान-प्रदान की स्थिति बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं हॆ । साहित्य अकादमी, नेशनल बुक ट्रस्ट, चिलड्रन बुक ट्रस्ट जॆसी समर्पित ऒर सक्षम संस्थाओं के बावजूद । कहने को अनेक भारतीय भाषाओं में अनूदित रचनाएं मिल जाएंगी लेकिन संख्या की दृष्टि से अनुवाद बहुत ही कम कृतियों के हॆं । विदेशॊ बाल-साहित्य के अनुवाद भी भारतीय भाषाओं में प्रकाशित हॆं पर वे भी संख्या की दृष्टि से आशाप्रद नहीं हॆं । विधाओं की दृष्टि से देखा जाए तो ज़्यादातर अनुवाद गद्य विधाओं में रची रचनाओं के हुए हॆं, ऒर उनमें भी अधिकतर ज़ोर लोककथाओं पर रहा हॆ । इतिहास पर नज़र मारी जाए तो पाएंगे कि "हिन्दी बाल-कहानियों का उदय भारतेन्दु युग से माना जाता है। इस काल की अधिकांश कहानियाँ अनूदित हैं। इसके लिए वे संस्कृत की कहानियों के लिए आभारी हैं। सर्वप्रथम शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने कुछ मौलिक कहानियाँ लिखीं, इनमें ‘राजा भोज का सपना’ ‘बच्चों का इनाम’ तथा ‘लड़कों की कहानी’ का उल्लेख किया जा सकता है। आगे चलकर रामायण-महाभारत आदि पर आधारित अनेक कहानियाँ द्विवेदी युग में लिखी गईं। किन्तु हिन्दी बाल कहानी अपने स्वर्णिम अभ्युदय के लिए प्रेमचन्द्र जी की ऋणी है। उनकी अनेक कहानियों में बाल-मन का प्रथम निवेश हुआ और उसकी ज्वलंत झाँकी अनेक कहानियों में मिलती है। बालमन के अनुरूप उनकी बहुत सी कहानियाँ जो कि बड़ों के लिए ही थीं, बच्चों ने उल्लास के साथ हृदयंगम की।" (हिन्दी की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ, उषा यादव एवं राजकिशोर सिंह, आत्माराम एण्ड सन्स, 2001 ) | विडम्बना ही हॆ कि कविताओं या कविता-पुस्तकों के अनुवाद अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलते हॆं । रमेश कॊशिक ने रूसी बाल कविताओं के अच्छे अनुवाद किए हॆं । दिविक रमेश द्वारा चयनित ऒर अनूदित ऒर नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित कोरियाई कविताओं की पुस्तक ’कोरियाई बाल कविताएं’(2001) बच्चों में बहुत ही लोकप्रिय सिद्ध हुई हॆ । महेश नेवाणी ने सिंधी के साथ हिन्दी में बाल कविताओं के हिन्दी अनुवाद पुस्तक रूप में प्रकाशित किए हॆं ।पुस्तक का नाम -बधी एकता हॆ जो पहली बार 2005 में प्रकाशित हुई थी । लोकिन पुस्तक खास स्कूली बच्चों के लिए हॆ । ’दो शब्द’ में महेश नेवाणी की चिन्ता विचारणीय हॆ -"सिंधी जाति के लोगों पर से मेरा विश्वास डोल गया हॆ। सिंधी भाषा में कविता करूं या नहीं इस पर फिर एक बार गॊर करना पड़ेगा ।" एक बात यहां अवश्य कहना चाहूंगा कि अनुवाद करने से पहले रचानाओं का चयन बहुत सावधानी के साथ किया जाना चाहिए । तब अनु्वाद बहुत प्रभाव छोड़ता हॆ ।कठिनाई यह भी हॆ कि अनुवाद को भी दोयम दर्जे का मानने वालों की कमी नहीं हॆ । डॉ. श्याम सिंह शशि कि यह चिन्ता जायज ही हॆ कि "विदेशी भाषाओं के बालसाहित्य-लेखकों में चार्ल्स डिकिंस, मोपांसा, टॉलस्टाय, अरकदे, श़ैदार का कुछ बालसाहित्य हिंदी में अनूदित हुआ है किंतु तमिल, तेलुगु, कन्नड, मलयालम आदि भारतीय भाषाओं के कई बाल उपन्यास का अनुवाद शायद ही हिंदी में हुआ हो। कैसी विडंबना है ? वास्तव में अनुवाद को भी दोयम दर्जे का लेखन माना जाता रहा है, जिसकी चर्चा हिंदी साहित्य के इतिहासों में प्रायः नगण्य है। बांग्ला से हिंदी में कथा साहित्य का जितना अनुवाद हुआ है - उसकी अपेक्षा एक-तिहाई भी शायद हिंदी से बांग्ला में नहीं हुआ।" फिर भी ऎसा तो कहा ही जा सकता कि 21वीं सदी के एक दशक में अनुवाद के क्षेत्र में भले ही आशा के अनुरूप या पहले की तुलना में संख्या की दृष्टि से थोड़ी कमी नज़र आती हो लेकिन गुणवत्ता की दष्टि से कोई कमी नहीं हॆ । साहित्य अकादमी को ही लें । साहित्य अकादेमी के प्रकाशन कार्यक्रम की नई योजनाओं में से एक योजना है-विभिन्न भाषाओं में बाल पुस्तकों का प्रकाशन। भारतीय भाषाओं में बाल कृतियों के अनुवादों के प्रकाशन से इस योजना का शुभारंभ किया गया। आकर्षक चित्रों के साथ ये कृतियाँ अकादेमी द्वारा सन् 1990 से प्रकाशित की जा रही हैं। 16 भारतीय भाषाओं की बाल कृतियों के 100 से अधिक अनुवाद तथा साथ ही गारो, बोडो, हमान खासी, काकबरोक और राभा भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित किए जा चुके हैं।
अनुवाद बहुत बार ऎतिहासिक भूमिका निभा दिया करता हॆ । यह बात कोरिया के बच्चों के पितामह माने जाने वाले सो पा बांग जुंग हवा के हवाले से अच्छी तरह से समझी जा सकती हॆ । सो पा स्वयं बहुत अच्छे बाल-साहित्यकार थे ऒर सथ ही 1923 में उन्होंने बच्चों के लिए पत्रिका भी निकाली ।1923 से 5 मई को बाल-दिवस के रूप में स्थापित भी किया ताकि बच्चों में स्वतंत्रता ऒर राष्ट्र का गॊरव घर कर सके । उस समय कोरिया जापान के अधीन था । उन्होंने ऒर एक अन्य बहुत बड़े कोरियाई बाल-साहित्यकार (कवि) यून सॉक जुंग ने नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टॆगॊर की बच्चे ऒर बचपन पर केन्द्रित बाल-कविताओं की पस्तक ’द क्रीसेंट मून’ का अनुवाद किया था । टॆगॊर की पुस्तक 1913 में प्रकाशित हुई थी ऒर स्वयं टॆगॊर ने अपनी रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया था । खॆर । यह वह समय था जब कोरिया में पारम्परिक रूप से बच्चों के साहित्य के प्रति कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था । इस पुस्तक का अनुवाद न केवल उत्तम कोटि की बाल-कविता का परिचायक माना गया बल्कि कोरियाई बाल-साहित्य के क्षेत्र में नयी शॆली की स्थापना के अवसर के रूप में भी स्वीकार किया गया । स्पष्ट हॆ कि बाल-साहित्य के क्षेत्र में भी,किसी भी दृष्टि से, अनुवाद की भूमिका कम नहीं होती ।
यदि बालक सृष्टि की सबसे मूल्यवान रचना हॆ तो बाल-साहित्य का महत्व भी कम नहीं हॆ । ऒर भारत के संदर्भ में भारतीय ऒर विश्व के संदर्भ में वॆश्विक बालक ऒर बालक की कल्पना बिना अनुवाद के करना आज लगभग असंभव हॆ । इसीलिए भारत में बच्चों की एक अलग केन्द्रीय अकादमी आज की बड़ी जरूरत हॆ जिसकी एक महत्तवपूर्ण गतिविधि अनुवाद कर्म होना चाहिए । विस्तार से फिर कभी । आज हिन्दी में बहुत अच्छा लिखा जाने के बावजूद ऒर अच्छा लिखे जाने ऒर उसके समय पर प्रकाशन की प्रेरणादयी स्थितियां बनाए बिना न बालक का ऒर न ही मानव का ही हित होने वाला हॆ । जो संस्थाएं अपने सीमित साधनों के द्वारा इस दिशा में कुछ काम कर रही हॆं उन्हॆं बढ़ावा मिलना चाहिए । फिर उतना ही ध्यान अनुवाद पर देना होगा ।यूं हिन्दी में बाल साहित्य की बिक्री, यदि प्रकाशकों की माने तो उत्साहवर्द्धक हॆ -"वाणी प्रकाशन के प्रेमकिरण जी ने बताया कि उपन्यास, कहानी संग्रह के अलावा बाल साहित्य से जुड़ी पुस्तकों की अच्छी बिक्री है। साहित्य अकादमी के स्टाल पर विभिन्न भाषाओं की अनूदित बाल साहित्य व लोक कथाएं संबंधी पुस्तकों की काफी बिक्री है। राजकमल प्रकाशन के दिनेश आधार पाण्डेय ने बताया कि अल्बर्ट आइंस्टाइन की जीवनी, रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि, गुणाकर मुले की अक्षर कथा व तारों भरा आकाश समेत अन्य प्रसिद्ध कहानियों की किताबों की अच्छी बिक्री है।"(पटना, पुस्तक मेला ) । हॆरी पोटर(जे.के. राउलिंग) को ही लें ।भारत तथा विश्व की चौंसठ भाषाओं में उसके अनुवाद छप चुके हैं। करोड़ों बाल पाठकों ने उन्हें पढ़ा है।वस्तुत: भारतीय बालसाहित्य ऒर हिन्दी में बाल साहित्य का भविष्य उज्ज्वल हॆ । हां उसे हॆरी पॉटर की तरह प्रमोट करना भी आना चाहिए । यहीं पर थोड़ा विषयांतर करते हुए मॆं इस संतुलित दृष्टि का भी समर्थन करना चाहूंगा -"हम बालसाहित्य के लेखकों से कहना चाहेंगे कि वे इक्कीसवीं सदी के बालक को ध्यान में रखते हुए उत्तर कंप्यूटरी युग तक की कल्पना करेंगे तो भारतीय बालसाहित्य विश्व स्तर पर समसामयिक रूप ले सकेगा। हाँ, उसे रामायण, महाभारत तथा भारत के स्वर्णिम इतिहास का ज्ञान कराना भी आवश्यक है। हिंदी बालसाहित्य के लेखकों में प्रायः बहस होती रही है कि उन्हें परी कथाएँ लिखनी चाहिए या विज्ञान कथाएँ ? हमारा मानना है कि बचपन को कल्पना लोक में विचरने के लिए परी कथाएँ भी चाहिए किंतु भूत-प्रेत या अंधविश्वास का मनोरंजन बाल मन से खिलवाड़ होगा।"
खॆर चलते चलते मॆं इस सदी की हिन्दी में अनूदित कुछ पुस्तकों की ऒर ध्यान दिलाना चाहूंगा, वे हॆं -सुकुमार राय की चुनिन्दा कहानियां (अनुवादक : अमर गोस्वामी, साहित्य अकादमी ,2002), जापान की कथाएं (साहित्य अकादमी, 2001 ), जादुई बांसुरी ऒर अन्य कोरियाई कथाएं ( अनुवादक: दिविक रमेश नेशनल बुक ट्रस्ट, 2009), कोरियाई लोक कथाएं (अनुवादक: दिविक रमेश पीताम्बर पब्लिशिंग कम्पनी, 2000) । एक प्रकाशन हॆ -तूलिका । इसने इसी सदी में द्विभाषी अर्थात अंग्रजी ऒर हिन्दी में अनेक पुस्तकें प्रकाशित की हॆं । असल में यह पुस्तक-श्रृंखला हॆ । प्रकाशक के अनुसार इन पुस्तकों से बच्चों की शब्द-कल्पना-शक्ति बढ़ेगी- द्विभाषी पुस्तकों की यह श्रृंखला, कहानी सुनाने के माहौल में तस्वीरों की मदद से बच्चों की शब्द अनुमान शक्ति और शब्द भंडार बढ़ाने में मदद करती है। । कहा गया हॆ-"This series of bilingual books encourages children to ‘imagine words’ and build vocabulary with the aid of pictures in a storytelling setting. By providing words in two languages simultaneously, the books create a platform for children to build their own narratives. This helps them use words creatively, and remember them." एक खबर के अनुसार -" बच्चों के लिए काम करनेवाली गैरसरकारी और गैरव्यावसायिक संस्था ‘कथा’ ने बच्चों के लिए हिंदी भाषा में तीन पुस्तकें तैयार की हैं। तीनों पुस्तकें अन्य भाषाओं से हिंदी में अनूदित हैं। अनुवाद में हिंदी की आत्मा कितनी उतर पाई है या फिर कथाओं के तार स्थानीयता और बाल सुलभ भावनाओं के साथ कितना जुड़ पाते हैं? शायद ये अलग मुद्दे होकर भी वैश्विक युग में ज्यादा मायने नहीं रखते, लेकिन बच्चे पुस्तक को देखने के बाद उसे हाथ में लेते हैं, उसके पृष्ठों पलटते हैं और पुस्तकों के चित्रों में रम जाते हैं। इन पुस्तकों की यही ताकत है और बच्चों की पुस्तकों में यह ताकत होनी भी चाहिए। बच्चे चित्रों के जरिए शब्दों की पहचान कर लेते हैं और पृष्ठों को पलटते जाते हैं। पुस्तकों के निर्माण में संसाधनों की सुलभता का स्पष्ट दर्शन होता है, साथ ही उस सुरुचि का भी, जिसके बगैर इस दर्जे का काम कर पाना असंभव है। लेकिन इसके साथ ही पुस्तकों की कीमतें भी अधिक हैं। ‘सूई की नोक पर था एक’ गीता धर्मराजन द्वारा रचित अंग्रेजी भाषा की पुस्तक ‘ऑन द टिप ऑफ ए पिन वाज’ को विवेक नित्यानंद और मोयना मजुमदार ने हिंदी में रूपांतरित किया है। इसी तरह बियाट्रिस आलेमान्या द्वारा फ्रेंच भाषा में लिखी पुस्तक ‘ए लॉयन इन पेरिस’ को हिंदी में अनुदित किया है मोयना मजुमदार ने। इस पुस्तक की कथा पेरिस के प्रसिद्ध दोंफेर-रोशेरो चौराहे पर स्थापित शेर से प्रेरित है। यह पुस्तक अनोखी है। कथा की तीसरी पुस्तक है ‘उल्टा पुल्टा’। जर्मन भाषा की लेखिका ऑत्ये दाम्म की बच्चों के लिए लिखी गई पुस्तक 'फ्लिडोलिन’ का हिंदी अनुवाद है। अनुवाद मोयना मजुमदार ने किया है। यह कहानी चमगादड़ों के माध्यम से बच्चों में कुतूहल और सूझ-बूझ पैदा करती है। बहरहाल, इस सुरुचिपूर्ण कार्य के लिए ‘कथा’ और उसके साथ जुड़े लोग साधुवाद के पात्र हैं।" किताबघर प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, आलेख प्रकाशन ऒर आत्माराम एण्ड संस जॆसी अनेक महत्तवपूर्ण संस्थाएं हॆं जिनका बाल साहित्य में भी अच्छा खासा हस्तक्षेप हॆ । आशा की जा सकती हॆ कि ये अनुवाद के क्षेत्र में भी, खासकर बाल कविता के अनुवाद के क्षेत्र में अधिक से अधिक कृतियां लाएंगी । अंत में किताब्घर द्वारा प्रकाशित "बाल मनोवॆज्ञानिक लघुकाथाएं"(सं० रामेश्वर काम्बोज ’हिमांशु ) से एक पंजाबी लघुकथा का आनन्द लीजिए जिसका हिन्दी में शीर्षक हॆ -बदला ऒर इसके लेखक-अनुवादक डॉ श्यामसुंदर दीप्ति हॆं :
’देख ! तू हर बात पर जिद मत किया कर। जो काम करने का होता है, वह तू करती नहीं।’ उमा ने रचना को झिड़कते हुए कहा।’ ’करती तो हूँ सारा काम। सब्जी बनाने के लिए टमाटर नहीं ला के दिए थे ! आपके साथ कपड़े भी तो धुलवाये थे।’ रचना ने मम्मी को दलील दी।”यही काम तो नहीं करने होते। पढ़ भी लिया कर।’ उमा को और गुस्सा आ गया।’
’कर तो लिया स्कूल का काम।’ रचना ने अपना स्पष्टीकरण दिया।
’अच्छा ! ज्यादा बातें मत कर और एक तरफ़ होकर बैठ।’ रचना सिलाई-मशीन के कपड़े को पकड़ने लगी। उमा को गुस्सा आ गया और उसने थप्पड़ जमा दिया।
’अब अगर जो हाथ आ जाता मशीन में !’
रचना रोने लगी।
’अब रोना आ गया, चुप कर, नहीं तो और लगेगी एक। अच्छी बातें नहीं सीखनी, कोई कहना नहीं मानना।’
थोड़ी देर में दरवाजा खटका। उमा ने रचना से कहा, ’अच्छा ! जाकर देख, कौन है बाहर?’
पहले तो वह बैठी रही और गुस्से से मम्मी की तरफ़ देखती रही, पर फिर दुबारा कहने पर उठी और दरवाजा खोला। रचना के पापा का कोई दोस्त था।
रचना दरवाजा खोलकर लौट आई।
“कौन था ?’ रमा ने पूछा।
’अंकल थे।’ रचना ने रूखा-सा जवाब दिया और साथ ही बोली, ’मैंने अंकल को नमस्ते भी नहीं की।’
०
ऒर कोरियाई बाल कविताएं के सुविख्यात कवि यून सॉक जूंग की एक बाल कविता भी :
दुनिया का मानचित्र
घर का काम मिला हॆ मुझको
नक्शे में दुनिया दिखलाऊं
रात बॆठ कर मेहनत की पर
रहा अधूरा क्या बतलाऊं
देश न हो जो तेरा मेरा
राष्ट्र न हो जो मेरा तेरा
हो बस दुनिया देश बड़ा सा
तब होगा आसान बनाना
नक्शे में दुनिया बतलाना
(प्यारी सी दुनिया दिखलाना ) ।
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divik_ramesh@yahoo.com
यहां मॆं बाल-साहित्य की पहचान से संबद्ध पहले ही से बना अपना यह मत भी बता दूं कि बाल-साहित्य के अन्तर्गत मॆं केवल रचनात्मक बाल-साहित्य अर्थात कालात्मक अनुभूति जन्य बाल-साहित्य को ही स्वीकार करता हूं न कि अध्ययन, शोध, जानकारी अथवा तथ्यजन्य बालोपयोगी बाल-साहित्य को । ऒर जिसे मॆं बाल-साहित्य के अन्तर्गत मान रहा हूं उसी के अनुवाद का मसला कठिन ऒर चुनॊतिपूण होता हॆ । यही वह साहित्य होता हॆ जिसके अनुवाद का मतलब एक भाषा के शब्दों को दूसरी भाषा के शब्दों में रख देना मात्र नहीं होता । यहां आत्मा का अर्थात संस्कृति, पाठ आदि सब का अनुवाद करना होता हॆ । ऒर यह भी कि अनुवाद के माध्यम से एक भाषा मे लिखी रचना अन्य भाषा में पहुंचकर भी रचना ही लगनी चाहिए । अर्थात दूसरी भाषा की प्रकृति के एकदम अनुकूल - अनूदित कविता पहले कविता होनी चाहिए । यह अनुवादक की दोनों भाषाओं पर अधिकार मात्र से संभव नहीं होता बल्कि भाषाओं से जुड़े जीवन ऒर संस्कृति आदि के गहरे अनुभवात्मक ज्ञान से अधिक संभव होता हॆ । अनुवाद को लेकर विद्वानों में जो शब्दश: अथवा कलात्मक या मुक्त अनुवाद की बहस हॆ, उसके संदर्भ में मेरा निवेदन तो यही हॆ कि जहाँ तक रचनात्मक बाल-साहित्य के अनुवाद की बात हॆ, संतुलन करते हुए कलात्मक या मुक्त अनुवाद की राह पकड़नी चाहिए । पीताम्बार पबिल्शिंग कम्पनी प्रा० लि० द्वारा प्रकाशित स्लोवाकिया की लोक-कथाओं के रस में पगी दिलचस्प कहानियों के अनुवाद की पुस्तक मॆत्री का पुल के सम्पादकीय में जयप्रकाश भारती का कहना हॆ -"डॉ. शारदा यादव ने कथाओं का ऎसा अनुवाद किया हॆ कि अनुवाद नहीं लगता ।" 2008 में साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ऒर प्रीति पंत द्वारा अनूदित "उरुगुवाई बाल कहानियां" पढ़ते समय मुझे भारती जी द्वारा बताए गए गुण के भरपूर दर्शन हुए । उदाहरण के लिए मॆं एक कहानी गंजा तोता का ज़िक्र कर सकता हूं । तोते का नाम हॆ -पेद्रीतो । अनुवाद देखिए - "पेद्रीतो उन बच्चों के साथ खूब समय बिताता था । वे उससे इतना कुछ कहते थे कि वह भी उनकी तरह बोलना भी सीख गया । वह कहता, "मिट्ठू राम राम अहा मीठी मिर्ची ! पेद्रीतो का प्याला!" वह ऒर भई बहुत कुछ कहता था, जो कि बताया नहीं जा सकता हॆ, क्योंकि तोते भी बच्चों की ही तरह बुरी बातें आसानी से सीख जाते हॆं । " स्पष्ट हॆ कि यहां अनुवाद करते समय अनुवादिका ने ध्यान रखा हॆ कि हिन्दी में अनूदित इन कहानियों के पाठक अधिकतर हिन्दी के जानकार भारतवासी होंगे । अत: राम राम आदि वाली सुखद ऒर ज़रूरी छूट ले ली हॆ ऒर कृत्रिम भाषा-परिवेश से अनुवाद को बचा लिया हॆ ।
21 वीं सदी को ध्यान में रख कर कहा जाए तो भारत की सहवर्ती भाषाओं में बाल-साहित्य के आदान-प्रदान की स्थिति बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं हॆ । साहित्य अकादमी, नेशनल बुक ट्रस्ट, चिलड्रन बुक ट्रस्ट जॆसी समर्पित ऒर सक्षम संस्थाओं के बावजूद । कहने को अनेक भारतीय भाषाओं में अनूदित रचनाएं मिल जाएंगी लेकिन संख्या की दृष्टि से अनुवाद बहुत ही कम कृतियों के हॆं । विदेशॊ बाल-साहित्य के अनुवाद भी भारतीय भाषाओं में प्रकाशित हॆं पर वे भी संख्या की दृष्टि से आशाप्रद नहीं हॆं । विधाओं की दृष्टि से देखा जाए तो ज़्यादातर अनुवाद गद्य विधाओं में रची रचनाओं के हुए हॆं, ऒर उनमें भी अधिकतर ज़ोर लोककथाओं पर रहा हॆ । इतिहास पर नज़र मारी जाए तो पाएंगे कि "हिन्दी बाल-कहानियों का उदय भारतेन्दु युग से माना जाता है। इस काल की अधिकांश कहानियाँ अनूदित हैं। इसके लिए वे संस्कृत की कहानियों के लिए आभारी हैं। सर्वप्रथम शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने कुछ मौलिक कहानियाँ लिखीं, इनमें ‘राजा भोज का सपना’ ‘बच्चों का इनाम’ तथा ‘लड़कों की कहानी’ का उल्लेख किया जा सकता है। आगे चलकर रामायण-महाभारत आदि पर आधारित अनेक कहानियाँ द्विवेदी युग में लिखी गईं। किन्तु हिन्दी बाल कहानी अपने स्वर्णिम अभ्युदय के लिए प्रेमचन्द्र जी की ऋणी है। उनकी अनेक कहानियों में बाल-मन का प्रथम निवेश हुआ और उसकी ज्वलंत झाँकी अनेक कहानियों में मिलती है। बालमन के अनुरूप उनकी बहुत सी कहानियाँ जो कि बड़ों के लिए ही थीं, बच्चों ने उल्लास के साथ हृदयंगम की।" (हिन्दी की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ, उषा यादव एवं राजकिशोर सिंह, आत्माराम एण्ड सन्स, 2001 ) | विडम्बना ही हॆ कि कविताओं या कविता-पुस्तकों के अनुवाद अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलते हॆं । रमेश कॊशिक ने रूसी बाल कविताओं के अच्छे अनुवाद किए हॆं । दिविक रमेश द्वारा चयनित ऒर अनूदित ऒर नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित कोरियाई कविताओं की पुस्तक ’कोरियाई बाल कविताएं’(2001) बच्चों में बहुत ही लोकप्रिय सिद्ध हुई हॆ । महेश नेवाणी ने सिंधी के साथ हिन्दी में बाल कविताओं के हिन्दी अनुवाद पुस्तक रूप में प्रकाशित किए हॆं ।पुस्तक का नाम -बधी एकता हॆ जो पहली बार 2005 में प्रकाशित हुई थी । लोकिन पुस्तक खास स्कूली बच्चों के लिए हॆ । ’दो शब्द’ में महेश नेवाणी की चिन्ता विचारणीय हॆ -"सिंधी जाति के लोगों पर से मेरा विश्वास डोल गया हॆ। सिंधी भाषा में कविता करूं या नहीं इस पर फिर एक बार गॊर करना पड़ेगा ।" एक बात यहां अवश्य कहना चाहूंगा कि अनुवाद करने से पहले रचानाओं का चयन बहुत सावधानी के साथ किया जाना चाहिए । तब अनु्वाद बहुत प्रभाव छोड़ता हॆ ।कठिनाई यह भी हॆ कि अनुवाद को भी दोयम दर्जे का मानने वालों की कमी नहीं हॆ । डॉ. श्याम सिंह शशि कि यह चिन्ता जायज ही हॆ कि "विदेशी भाषाओं के बालसाहित्य-लेखकों में चार्ल्स डिकिंस, मोपांसा, टॉलस्टाय, अरकदे, श़ैदार का कुछ बालसाहित्य हिंदी में अनूदित हुआ है किंतु तमिल, तेलुगु, कन्नड, मलयालम आदि भारतीय भाषाओं के कई बाल उपन्यास का अनुवाद शायद ही हिंदी में हुआ हो। कैसी विडंबना है ? वास्तव में अनुवाद को भी दोयम दर्जे का लेखन माना जाता रहा है, जिसकी चर्चा हिंदी साहित्य के इतिहासों में प्रायः नगण्य है। बांग्ला से हिंदी में कथा साहित्य का जितना अनुवाद हुआ है - उसकी अपेक्षा एक-तिहाई भी शायद हिंदी से बांग्ला में नहीं हुआ।" फिर भी ऎसा तो कहा ही जा सकता कि 21वीं सदी के एक दशक में अनुवाद के क्षेत्र में भले ही आशा के अनुरूप या पहले की तुलना में संख्या की दृष्टि से थोड़ी कमी नज़र आती हो लेकिन गुणवत्ता की दष्टि से कोई कमी नहीं हॆ । साहित्य अकादमी को ही लें । साहित्य अकादेमी के प्रकाशन कार्यक्रम की नई योजनाओं में से एक योजना है-विभिन्न भाषाओं में बाल पुस्तकों का प्रकाशन। भारतीय भाषाओं में बाल कृतियों के अनुवादों के प्रकाशन से इस योजना का शुभारंभ किया गया। आकर्षक चित्रों के साथ ये कृतियाँ अकादेमी द्वारा सन् 1990 से प्रकाशित की जा रही हैं। 16 भारतीय भाषाओं की बाल कृतियों के 100 से अधिक अनुवाद तथा साथ ही गारो, बोडो, हमान खासी, काकबरोक और राभा भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित किए जा चुके हैं।
अनुवाद बहुत बार ऎतिहासिक भूमिका निभा दिया करता हॆ । यह बात कोरिया के बच्चों के पितामह माने जाने वाले सो पा बांग जुंग हवा के हवाले से अच्छी तरह से समझी जा सकती हॆ । सो पा स्वयं बहुत अच्छे बाल-साहित्यकार थे ऒर सथ ही 1923 में उन्होंने बच्चों के लिए पत्रिका भी निकाली ।1923 से 5 मई को बाल-दिवस के रूप में स्थापित भी किया ताकि बच्चों में स्वतंत्रता ऒर राष्ट्र का गॊरव घर कर सके । उस समय कोरिया जापान के अधीन था । उन्होंने ऒर एक अन्य बहुत बड़े कोरियाई बाल-साहित्यकार (कवि) यून सॉक जुंग ने नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टॆगॊर की बच्चे ऒर बचपन पर केन्द्रित बाल-कविताओं की पस्तक ’द क्रीसेंट मून’ का अनुवाद किया था । टॆगॊर की पुस्तक 1913 में प्रकाशित हुई थी ऒर स्वयं टॆगॊर ने अपनी रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया था । खॆर । यह वह समय था जब कोरिया में पारम्परिक रूप से बच्चों के साहित्य के प्रति कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था । इस पुस्तक का अनुवाद न केवल उत्तम कोटि की बाल-कविता का परिचायक माना गया बल्कि कोरियाई बाल-साहित्य के क्षेत्र में नयी शॆली की स्थापना के अवसर के रूप में भी स्वीकार किया गया । स्पष्ट हॆ कि बाल-साहित्य के क्षेत्र में भी,किसी भी दृष्टि से, अनुवाद की भूमिका कम नहीं होती ।
यदि बालक सृष्टि की सबसे मूल्यवान रचना हॆ तो बाल-साहित्य का महत्व भी कम नहीं हॆ । ऒर भारत के संदर्भ में भारतीय ऒर विश्व के संदर्भ में वॆश्विक बालक ऒर बालक की कल्पना बिना अनुवाद के करना आज लगभग असंभव हॆ । इसीलिए भारत में बच्चों की एक अलग केन्द्रीय अकादमी आज की बड़ी जरूरत हॆ जिसकी एक महत्तवपूर्ण गतिविधि अनुवाद कर्म होना चाहिए । विस्तार से फिर कभी । आज हिन्दी में बहुत अच्छा लिखा जाने के बावजूद ऒर अच्छा लिखे जाने ऒर उसके समय पर प्रकाशन की प्रेरणादयी स्थितियां बनाए बिना न बालक का ऒर न ही मानव का ही हित होने वाला हॆ । जो संस्थाएं अपने सीमित साधनों के द्वारा इस दिशा में कुछ काम कर रही हॆं उन्हॆं बढ़ावा मिलना चाहिए । फिर उतना ही ध्यान अनुवाद पर देना होगा ।यूं हिन्दी में बाल साहित्य की बिक्री, यदि प्रकाशकों की माने तो उत्साहवर्द्धक हॆ -"वाणी प्रकाशन के प्रेमकिरण जी ने बताया कि उपन्यास, कहानी संग्रह के अलावा बाल साहित्य से जुड़ी पुस्तकों की अच्छी बिक्री है। साहित्य अकादमी के स्टाल पर विभिन्न भाषाओं की अनूदित बाल साहित्य व लोक कथाएं संबंधी पुस्तकों की काफी बिक्री है। राजकमल प्रकाशन के दिनेश आधार पाण्डेय ने बताया कि अल्बर्ट आइंस्टाइन की जीवनी, रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि, गुणाकर मुले की अक्षर कथा व तारों भरा आकाश समेत अन्य प्रसिद्ध कहानियों की किताबों की अच्छी बिक्री है।"(पटना, पुस्तक मेला ) । हॆरी पोटर(जे.के. राउलिंग) को ही लें ।भारत तथा विश्व की चौंसठ भाषाओं में उसके अनुवाद छप चुके हैं। करोड़ों बाल पाठकों ने उन्हें पढ़ा है।वस्तुत: भारतीय बालसाहित्य ऒर हिन्दी में बाल साहित्य का भविष्य उज्ज्वल हॆ । हां उसे हॆरी पॉटर की तरह प्रमोट करना भी आना चाहिए । यहीं पर थोड़ा विषयांतर करते हुए मॆं इस संतुलित दृष्टि का भी समर्थन करना चाहूंगा -"हम बालसाहित्य के लेखकों से कहना चाहेंगे कि वे इक्कीसवीं सदी के बालक को ध्यान में रखते हुए उत्तर कंप्यूटरी युग तक की कल्पना करेंगे तो भारतीय बालसाहित्य विश्व स्तर पर समसामयिक रूप ले सकेगा। हाँ, उसे रामायण, महाभारत तथा भारत के स्वर्णिम इतिहास का ज्ञान कराना भी आवश्यक है। हिंदी बालसाहित्य के लेखकों में प्रायः बहस होती रही है कि उन्हें परी कथाएँ लिखनी चाहिए या विज्ञान कथाएँ ? हमारा मानना है कि बचपन को कल्पना लोक में विचरने के लिए परी कथाएँ भी चाहिए किंतु भूत-प्रेत या अंधविश्वास का मनोरंजन बाल मन से खिलवाड़ होगा।"
खॆर चलते चलते मॆं इस सदी की हिन्दी में अनूदित कुछ पुस्तकों की ऒर ध्यान दिलाना चाहूंगा, वे हॆं -सुकुमार राय की चुनिन्दा कहानियां (अनुवादक : अमर गोस्वामी, साहित्य अकादमी ,2002), जापान की कथाएं (साहित्य अकादमी, 2001 ), जादुई बांसुरी ऒर अन्य कोरियाई कथाएं ( अनुवादक: दिविक रमेश नेशनल बुक ट्रस्ट, 2009), कोरियाई लोक कथाएं (अनुवादक: दिविक रमेश पीताम्बर पब्लिशिंग कम्पनी, 2000) । एक प्रकाशन हॆ -तूलिका । इसने इसी सदी में द्विभाषी अर्थात अंग्रजी ऒर हिन्दी में अनेक पुस्तकें प्रकाशित की हॆं । असल में यह पुस्तक-श्रृंखला हॆ । प्रकाशक के अनुसार इन पुस्तकों से बच्चों की शब्द-कल्पना-शक्ति बढ़ेगी- द्विभाषी पुस्तकों की यह श्रृंखला, कहानी सुनाने के माहौल में तस्वीरों की मदद से बच्चों की शब्द अनुमान शक्ति और शब्द भंडार बढ़ाने में मदद करती है। । कहा गया हॆ-"This series of bilingual books encourages children to ‘imagine words’ and build vocabulary with the aid of pictures in a storytelling setting. By providing words in two languages simultaneously, the books create a platform for children to build their own narratives. This helps them use words creatively, and remember them." एक खबर के अनुसार -" बच्चों के लिए काम करनेवाली गैरसरकारी और गैरव्यावसायिक संस्था ‘कथा’ ने बच्चों के लिए हिंदी भाषा में तीन पुस्तकें तैयार की हैं। तीनों पुस्तकें अन्य भाषाओं से हिंदी में अनूदित हैं। अनुवाद में हिंदी की आत्मा कितनी उतर पाई है या फिर कथाओं के तार स्थानीयता और बाल सुलभ भावनाओं के साथ कितना जुड़ पाते हैं? शायद ये अलग मुद्दे होकर भी वैश्विक युग में ज्यादा मायने नहीं रखते, लेकिन बच्चे पुस्तक को देखने के बाद उसे हाथ में लेते हैं, उसके पृष्ठों पलटते हैं और पुस्तकों के चित्रों में रम जाते हैं। इन पुस्तकों की यही ताकत है और बच्चों की पुस्तकों में यह ताकत होनी भी चाहिए। बच्चे चित्रों के जरिए शब्दों की पहचान कर लेते हैं और पृष्ठों को पलटते जाते हैं। पुस्तकों के निर्माण में संसाधनों की सुलभता का स्पष्ट दर्शन होता है, साथ ही उस सुरुचि का भी, जिसके बगैर इस दर्जे का काम कर पाना असंभव है। लेकिन इसके साथ ही पुस्तकों की कीमतें भी अधिक हैं। ‘सूई की नोक पर था एक’ गीता धर्मराजन द्वारा रचित अंग्रेजी भाषा की पुस्तक ‘ऑन द टिप ऑफ ए पिन वाज’ को विवेक नित्यानंद और मोयना मजुमदार ने हिंदी में रूपांतरित किया है। इसी तरह बियाट्रिस आलेमान्या द्वारा फ्रेंच भाषा में लिखी पुस्तक ‘ए लॉयन इन पेरिस’ को हिंदी में अनुदित किया है मोयना मजुमदार ने। इस पुस्तक की कथा पेरिस के प्रसिद्ध दोंफेर-रोशेरो चौराहे पर स्थापित शेर से प्रेरित है। यह पुस्तक अनोखी है। कथा की तीसरी पुस्तक है ‘उल्टा पुल्टा’। जर्मन भाषा की लेखिका ऑत्ये दाम्म की बच्चों के लिए लिखी गई पुस्तक 'फ्लिडोलिन’ का हिंदी अनुवाद है। अनुवाद मोयना मजुमदार ने किया है। यह कहानी चमगादड़ों के माध्यम से बच्चों में कुतूहल और सूझ-बूझ पैदा करती है। बहरहाल, इस सुरुचिपूर्ण कार्य के लिए ‘कथा’ और उसके साथ जुड़े लोग साधुवाद के पात्र हैं।" किताबघर प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, आलेख प्रकाशन ऒर आत्माराम एण्ड संस जॆसी अनेक महत्तवपूर्ण संस्थाएं हॆं जिनका बाल साहित्य में भी अच्छा खासा हस्तक्षेप हॆ । आशा की जा सकती हॆ कि ये अनुवाद के क्षेत्र में भी, खासकर बाल कविता के अनुवाद के क्षेत्र में अधिक से अधिक कृतियां लाएंगी । अंत में किताब्घर द्वारा प्रकाशित "बाल मनोवॆज्ञानिक लघुकाथाएं"(सं० रामेश्वर काम्बोज ’हिमांशु ) से एक पंजाबी लघुकथा का आनन्द लीजिए जिसका हिन्दी में शीर्षक हॆ -बदला ऒर इसके लेखक-अनुवादक डॉ श्यामसुंदर दीप्ति हॆं :
’देख ! तू हर बात पर जिद मत किया कर। जो काम करने का होता है, वह तू करती नहीं।’ उमा ने रचना को झिड़कते हुए कहा।’ ’करती तो हूँ सारा काम। सब्जी बनाने के लिए टमाटर नहीं ला के दिए थे ! आपके साथ कपड़े भी तो धुलवाये थे।’ रचना ने मम्मी को दलील दी।”यही काम तो नहीं करने होते। पढ़ भी लिया कर।’ उमा को और गुस्सा आ गया।’
’कर तो लिया स्कूल का काम।’ रचना ने अपना स्पष्टीकरण दिया।
’अच्छा ! ज्यादा बातें मत कर और एक तरफ़ होकर बैठ।’ रचना सिलाई-मशीन के कपड़े को पकड़ने लगी। उमा को गुस्सा आ गया और उसने थप्पड़ जमा दिया।
’अब अगर जो हाथ आ जाता मशीन में !’
रचना रोने लगी।
’अब रोना आ गया, चुप कर, नहीं तो और लगेगी एक। अच्छी बातें नहीं सीखनी, कोई कहना नहीं मानना।’
थोड़ी देर में दरवाजा खटका। उमा ने रचना से कहा, ’अच्छा ! जाकर देख, कौन है बाहर?’
पहले तो वह बैठी रही और गुस्से से मम्मी की तरफ़ देखती रही, पर फिर दुबारा कहने पर उठी और दरवाजा खोला। रचना के पापा का कोई दोस्त था।
रचना दरवाजा खोलकर लौट आई।
“कौन था ?’ रमा ने पूछा।
’अंकल थे।’ रचना ने रूखा-सा जवाब दिया और साथ ही बोली, ’मैंने अंकल को नमस्ते भी नहीं की।’
०
ऒर कोरियाई बाल कविताएं के सुविख्यात कवि यून सॉक जूंग की एक बाल कविता भी :
दुनिया का मानचित्र
घर का काम मिला हॆ मुझको
नक्शे में दुनिया दिखलाऊं
रात बॆठ कर मेहनत की पर
रहा अधूरा क्या बतलाऊं
देश न हो जो तेरा मेरा
राष्ट्र न हो जो मेरा तेरा
हो बस दुनिया देश बड़ा सा
तब होगा आसान बनाना
नक्शे में दुनिया बतलाना
(प्यारी सी दुनिया दिखलाना ) ।
बी-295, सेक्टर-20,
नोएडा-201301
मो० 09910177099
divik_ramesh@yahoo.com
सोमवार, 19 जुलाई 2010
प्यारे दोस्त रमेश के लिए
दिविक रमेश या फ़िर रमेश शर्मा
कोई फ़र्क नहीं पड़ता हॆ
जिस भी नाम से मॆंने पुकारा
एक दोस्त को ही सदा करीब पाया ।
आपने नहीं देखा इस शख्स को
बहुत करीब से
जाना भी नहीं इस पहचाने चेहेरे को
पर देखा ऒर महसूसा तो होगा
क्षितिज की गोद में बॆठे मासूम
शीतल अरुणिमा बिखेरते
तपती दोपहरी में आग बने
पर्वतों के शिखरों को लांघते
ऒर फिर क्षितिज पर पश्चिम के
मंद-मंद सुरमई अंधेरे के बीच
थकान को विश्रान्ति का गीत सुनाते
सूर्य को ।
आपने, नहीं देखा इस शख्स को ।
प्रेम जनमेजय
सोमवार २८ अगस्त, २००६
( यह कविता प्रेम ने मेरे साठवें जन्म दिन पर भेंट की थी । मेरी वास्तविक जन्मतिथि २८ अगस्त हॆ जबकि प्रमाण-पत्रों में ६ फरवरी लिखाई गई हॆ । मित्र की इस मीठी सॊगात को आपसे बांटते हुए मुझे हर्ष हॆ ।)
कोई फ़र्क नहीं पड़ता हॆ
जिस भी नाम से मॆंने पुकारा
एक दोस्त को ही सदा करीब पाया ।
आपने नहीं देखा इस शख्स को
बहुत करीब से
जाना भी नहीं इस पहचाने चेहेरे को
पर देखा ऒर महसूसा तो होगा
क्षितिज की गोद में बॆठे मासूम
शीतल अरुणिमा बिखेरते
तपती दोपहरी में आग बने
पर्वतों के शिखरों को लांघते
ऒर फिर क्षितिज पर पश्चिम के
मंद-मंद सुरमई अंधेरे के बीच
थकान को विश्रान्ति का गीत सुनाते
सूर्य को ।
आपने, नहीं देखा इस शख्स को ।
प्रेम जनमेजय
सोमवार २८ अगस्त, २००६
( यह कविता प्रेम ने मेरे साठवें जन्म दिन पर भेंट की थी । मेरी वास्तविक जन्मतिथि २८ अगस्त हॆ जबकि प्रमाण-पत्रों में ६ फरवरी लिखाई गई हॆ । मित्र की इस मीठी सॊगात को आपसे बांटते हुए मुझे हर्ष हॆ ।)
रविवार, 11 जुलाई 2010
प्रणाम सम्पूर्ण
न सही अदृश्य या निराकार ही
तब भी करूंगा समर्पित
समस्त को
निज प्रणाम यहीं से ।
भले ही कह लें मुझे नास्तिक
पर करना हॆ मुझे अनुकरण वृक्ष का
होकर फलीभूत यहीं से
करना हॆ समर्पित
सबकुछ ।
जब भिगो सकते हॆं मेघ
वहीं से
जब महका सकते हॆं फूल
वहीं से
तो क्यों नहीं मॆं
यहीं से ।
चाहता हूं फले फूले लोक गीत
लोक में रहकर, यहीं पर ।
फले फूले जंगल, जंगल में
यहीं पर ।
चाहता हूं
मिलता रहे आशीर्वाद यहीं पर
समस्त का
जो न अदृश्य हॆ न निराकार ही ।
ऒर करता रहूं समर्पित
निज प्रणाम यहीं से
एक ऎसा प्रणाम
जो न डर हॆ न दीनता
न धर्म हॆ न हीनता ।
तब भी करूंगा समर्पित
समस्त को
निज प्रणाम यहीं से ।
भले ही कह लें मुझे नास्तिक
पर करना हॆ मुझे अनुकरण वृक्ष का
होकर फलीभूत यहीं से
करना हॆ समर्पित
सबकुछ ।
जब भिगो सकते हॆं मेघ
वहीं से
जब महका सकते हॆं फूल
वहीं से
तो क्यों नहीं मॆं
यहीं से ।
चाहता हूं फले फूले लोक गीत
लोक में रहकर, यहीं पर ।
फले फूले जंगल, जंगल में
यहीं पर ।
चाहता हूं
मिलता रहे आशीर्वाद यहीं पर
समस्त का
जो न अदृश्य हॆ न निराकार ही ।
ऒर करता रहूं समर्पित
निज प्रणाम यहीं से
एक ऎसा प्रणाम
जो न डर हॆ न दीनता
न धर्म हॆ न हीनता ।
सोमवार, 12 अप्रैल 2010
बस
दिविक रमेश
नहीं जानता
फ़र्क होता भी हॆ किसी विचार ऒर रणनीति में ।
कवि हूं न
मेरे लिए तो विचार
जीना भी हॆ ऒर मरना भी ।
भावान्ध कहे या कहे कोई मूर्ख ही ।
नहीं समझ पाता
जब भून दिया जाता हॆ
नोंच लिया जाता हॆ तमाम रिश्तों से
उन तमाम जनों को
जो न स्व भाव से न स्व विचार से ही
किसी के विरुद्ध होते हॆं --
विरुद्ध तो वे माऎं होंगी
होंगी वे पत्नियां
वे भाई ऒर बहनें
वे बेटे ऒर बेटियां ।
अपने विरुद्ध इन तमाम जनों को भी
क्या भून डाला जाएगा
अपने किसी भाव या विचार के लिए ।
एक कवि हुए थे साथी, शायद दो भी या ऒर भी
जिन्होंने ख़त लिखा था वेतनभोगी पुलसियों के नाम
किया था क्षोभ भी व्यक्त
की थी टिप्पणी भी उनकी भूमिका पर
लेकिन अधिक से अधिक समझ के लिए
ऒर इस भूनने से कहीं ज़्यादा मानवीय
कहीं ज़्यादा आत्मीय
ऒर कहीं ज़्यादा आसरदार भी !
फल देखे हॆं मॆंने वृक्षों पर पकते हुए
मॆंने की हॆ महसूस गन्ध
ताज़ा ताज़ा चोए कच्चे दूध की ।
उतारी हॆ जी में
जंगल से आती हवाओं की
नदी के जल से होती ठिठोलियां, अठखेलियां ।
बस!
ऒर बस !
बस बस !
"आभिव्यक्ति के ख़तरे" की
अब ऒर अधिक मॊकापरस्त व्याख्या
बस !
हथियार सोचता भी आदमी हॆ
बनाता भी
सच तो यह हॆ
कि चलाता भी आदमी ही हॆ ।
अगर भूनना हॆ
तो भूनना चाहिए
वह सोचना
वह बनाना
वह चलाना ।
आदमी को किया जाना चाहिए निहत्था ।
बतानी चाहिए
दो आमने सामने खड़े आदमियों की
निहत्थी ताकत
बना देना चाहिए
जंगलों को एक राह
बस!
ऒर बस!
नहीं जानता
फ़र्क होता भी हॆ किसी विचार ऒर रणनीति में ।
कवि हूं न
मेरे लिए तो विचार
जीना भी हॆ ऒर मरना भी ।
भावान्ध कहे या कहे कोई मूर्ख ही ।
नहीं समझ पाता
जब भून दिया जाता हॆ
नोंच लिया जाता हॆ तमाम रिश्तों से
उन तमाम जनों को
जो न स्व भाव से न स्व विचार से ही
किसी के विरुद्ध होते हॆं --
विरुद्ध तो वे माऎं होंगी
होंगी वे पत्नियां
वे भाई ऒर बहनें
वे बेटे ऒर बेटियां ।
अपने विरुद्ध इन तमाम जनों को भी
क्या भून डाला जाएगा
अपने किसी भाव या विचार के लिए ।
एक कवि हुए थे साथी, शायद दो भी या ऒर भी
जिन्होंने ख़त लिखा था वेतनभोगी पुलसियों के नाम
किया था क्षोभ भी व्यक्त
की थी टिप्पणी भी उनकी भूमिका पर
लेकिन अधिक से अधिक समझ के लिए
ऒर इस भूनने से कहीं ज़्यादा मानवीय
कहीं ज़्यादा आत्मीय
ऒर कहीं ज़्यादा आसरदार भी !
फल देखे हॆं मॆंने वृक्षों पर पकते हुए
मॆंने की हॆ महसूस गन्ध
ताज़ा ताज़ा चोए कच्चे दूध की ।
उतारी हॆ जी में
जंगल से आती हवाओं की
नदी के जल से होती ठिठोलियां, अठखेलियां ।
बस!
ऒर बस !
बस बस !
"आभिव्यक्ति के ख़तरे" की
अब ऒर अधिक मॊकापरस्त व्याख्या
बस !
हथियार सोचता भी आदमी हॆ
बनाता भी
सच तो यह हॆ
कि चलाता भी आदमी ही हॆ ।
अगर भूनना हॆ
तो भूनना चाहिए
वह सोचना
वह बनाना
वह चलाना ।
आदमी को किया जाना चाहिए निहत्था ।
बतानी चाहिए
दो आमने सामने खड़े आदमियों की
निहत्थी ताकत
बना देना चाहिए
जंगलों को एक राह
बस!
ऒर बस!
मंगलवार, 23 मार्च 2010
सड़क से संसद तक
वह गिर गया था
सम्भल कर !
ऒर गिरा भी रहा
हथेलियां मल कर !
वह मुस्कुराया था आंखे भींच कर !
वह कराहा था
ढूंढ़ते हुए अपनी चोट को, दर्द को
जाने कहां थी, कहां था
जो ।
भीड़ में
अपवाद की तरह मॊजूद राजगुरू चीखा
हटो! हटो!
आने दो हवा!
कॆसे गिरा !
ज़रूर गिराया होगा किसी ने-
उफ आयी हॆं कितनी चोटें ।
बोली भीड़ -- कहां? कहां?
खिंच गए राजगुरू तनते हुए
कोई चुनाओ तो था नहीं
कि विनम्र होते । बोले --
देखते नहीं दर्द
कराह भले मानस की!
चुप !
कहां, कहां!
उठाओ
ज़रा हाथ लगाओ
ऒर इन्हें सड़क से मेरी गाड़ी में लिटाओ!
मुझे इलाज कराना हॆ इनका
ऒर फिर संसद जाना हॆ ।
कहां? कहां?
मुंह बनाया रजगुरू ने
धर्मगुरू की मुद्रा में
ऒर कहा--
आओ! उठाओ!
उसी आदमी के पक्ष में
हाथ जोड़े
कर रहा था विनती राजगुरू
अगले चुनाओ में --
इन्हें जिताओ
जिताओ !
सड़क के आदमी को संसद पहुंचाओ !
लोग भूल चुके थे ।
सम्भल कर !
ऒर गिरा भी रहा
हथेलियां मल कर !
वह मुस्कुराया था आंखे भींच कर !
वह कराहा था
ढूंढ़ते हुए अपनी चोट को, दर्द को
जाने कहां थी, कहां था
जो ।
भीड़ में
अपवाद की तरह मॊजूद राजगुरू चीखा
हटो! हटो!
आने दो हवा!
कॆसे गिरा !
ज़रूर गिराया होगा किसी ने-
उफ आयी हॆं कितनी चोटें ।
बोली भीड़ -- कहां? कहां?
खिंच गए राजगुरू तनते हुए
कोई चुनाओ तो था नहीं
कि विनम्र होते । बोले --
देखते नहीं दर्द
कराह भले मानस की!
चुप !
कहां, कहां!
उठाओ
ज़रा हाथ लगाओ
ऒर इन्हें सड़क से मेरी गाड़ी में लिटाओ!
मुझे इलाज कराना हॆ इनका
ऒर फिर संसद जाना हॆ ।
कहां? कहां?
मुंह बनाया रजगुरू ने
धर्मगुरू की मुद्रा में
ऒर कहा--
आओ! उठाओ!
उसी आदमी के पक्ष में
हाथ जोड़े
कर रहा था विनती राजगुरू
अगले चुनाओ में --
इन्हें जिताओ
जिताओ !
सड़क के आदमी को संसद पहुंचाओ !
लोग भूल चुके थे ।
मंगलवार, 29 दिसंबर 2009
हाय-तॊबा क्यों ऒर क्यों नहीं
आज सहित्य में इतनी धड़ेबाजी हो चुकी हॆ कि क्या गलत हॆ ऒर क्या ठीक इसका सही सही निर्णय कर पाना कठिन हो गया हॆ । सही लोगों को पुरस्कार मिलता हॆ तब भी जोड़-तोड़ की शंका तो बनी ही रह्ती हॆ । कॆलाश वाजपेयी ऎसा कवि तो नहीं ही हॆ जो इस पुरस्कार के योग्य नहीं हॆ । बल्कि विलम्ब ही हुआ हॆ । पुरस्कारों की राजनीति इतनी गिर चुकी हॆ कि ज्यादातर लेखकों को असमय पुरस्कार मिले हॆ जबकि बहुतों को या तो बहुत देर से मिले हॆं या फिर मिले ही नहीं हॆं ।मॆंने कभी लिखा था कि साहित्य अकादमी को हिन्दी साहित्य के लिए हर वर्ष के लिए कम से कम चार पुरस्कार निर्धारित करने होंगे । तब जाकर कुछ न्याय होगा । यहां तो कल का छोकरा या छोकरी , अधिकतर साहित्येतर कारणों से पुरस्कार प्राप्त कर लेने में सफल होते हॆं जबकि साहित्येतर कारणों से ही कितने ही समकक्ष ऒर वरिष्ठ तक उपेक्षित कर दिए जाते हॆं । मुझे याद आ रहा हॆ कि जब केदार जी को यह पुरस्कार मिला था तो उन्होंने कहा था कि पुरस्कार गिरिजाकुमार माथुर को मिलना चाहिये था । अगली बार मथुर जी को ही मिला था । ऎसा तंत्र फॆला दिया गया हॆ- पत्रिकाओं से पुस्तकों तक, संस्थाओं से विश्वविद्यालयों तक - कि जब भी दिमाग में उभरें तो वही प्रचारित-प्रसारित गिने-चुने नाम ही उभरें । शेष उपेक्षित रहे रहें । संयोग से यदि ऎसे उपेक्षितों में से किसी का नाम प्रस्तावित भी कर दे तो उस ऒर उसकी समझ पर टूट पड़ों ताकि वह भी उनके ही सुर में अलापने को बाध्य हो जाए । लेकिन कुछ अपवाद भी होते हॆं । वे बेशर्म होकर डटे रहते हॆं ऒर सहते हॆं । आप सर्वे कराएं, भाइयों के पास आगामी कितने ही वर्षों के लिए पुरस्कार प्राप्त करने वालों की सूची मिल जाएगी । संयोग से सूची का नाम सफल नहीं होता तो वे ही सिर पर आसमान उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगे । कॆलाश वाजपेयी को बधाई ।
अच्छा एक प्रश्न चलते चलते -मनोरंजन के लिए -कितने लोग होंगे जिन्हें दिविक रमेश का नाम भी मालूम होगा ? बाकी सब तो छोड़िये ।
नव वर्ष की शुभकामनाऒं के साथ,
आप ही का
दिविक रमॆश
अच्छा एक प्रश्न चलते चलते -मनोरंजन के लिए -कितने लोग होंगे जिन्हें दिविक रमेश का नाम भी मालूम होगा ? बाकी सब तो छोड़िये ।
नव वर्ष की शुभकामनाऒं के साथ,
आप ही का
दिविक रमॆश
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