नहीं लिखा गया तो
एक ओर रख दिया कागज
बंद कर दिया ढक्कन पॆन का
ऒर बॆठ गया लगभग चुप
माथा पकड़ कर।
"रूठ गए क्या",
आवाज आई अदृश्य
हिलते हुए
एक ओर रखे कागज से,
"हमें भी तो मिलनी चाहिए न कभी छुट्टि।
पत्नी तो नहीं हॆं न हम आपकी!"
बहुत देर तक सोचता रहा मॆं
सोचता रहा-
पत्नी से क्यों की तुलना
कविता ने?
करता रहा देर तक हट हट
गर्दन निकाल रहे
अपराध बोध को।
खोजता रह गया कितने ही शब्द
कुतर्कों के पक्ष में।
बचाता रहा विचारों को
स्त्री विमर्श से।
पर कहाँ था इतना आसान निकलना
कविता की मार से!
रह गया बस दाँत निपोर कर--
कॊन समझ पाया हॆ तुम्हें आज तक ठीक से
कविता?
"पर
समझना तो होगा ही न तुम्हें कवि।"
आवाज फिर आई थी
ऒर मॆं देख रहा था
एक ओर पड़ा कागज
फिर हिल रहा था।
waah! kya sateek vyangy kiya hai.khud ko hi katghare mein rakhna saral nhin hota .abhivyakti ke maadhyam se yah swikaarokti prashansniy hai.
जवाब देंहटाएंमॆं समझता हूं इ सबसे अच्छे व्यंग्य की शॆली खुद की ओएर पेनी निगाह डालने की ही होती हॆ। मॆं में ऒरों को समेट कर लिखन आसान नहीं होता। आपकी टिप्पनी ऒर पकड़ प्रेरणादायी हॆ।
हटाएंसंवेदनशील विषय पर अत्यधिक संवेदनशील कविता बधाई
जवाब देंहटाएंतुम्हारी राय का बहुत महत्त्व हे प्रेम।
हटाएंगहरे अर्थों को समेटे है कविता, सर...
जवाब देंहटाएंआपने गहरे अर्थों की पहचान की, यही इस कविता की सफलता भी हॆ। धन्यवाद।
हटाएंअपनी तरह की पहली कविता....बहुत अच्छी कविता.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा महसूस कर रहा हूं।
हटाएंकविता की सीमाओं पर सघन अर्थ लेती हुई एक कविता |
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुशील जी।
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