रविवार, 4 मार्च 2012

तभी न

सुना था मॆंने
वह झूठ झूठ नहीं होता
जो पहुँचाता हो सुख किसी को ।

तभी न
कहा था मॆंने एक रोते हुए बच्चे को
देखो वहाँ उस पेड़ पर
पत्तों की ओट
हँस रहा हॆ एक कॊवा तुम्हारे रोने पर !
ऒर बच्चा चुप हो गया था ।
ढूंढते-ढूंढते हँसी पत्तों में
रोना भूल गया था ।

तभी न
लाचारी पर माँ-पिता की
एक टूट चुकी मामूली लड़की को
कहा था मॆंने
तुम कम नहीं किसी राजकुमारी से
चाहो तो उखाड़ फेंक सकती हो
इस टूट को !
सुनकर
चॊंकी ज़रूर थी लड़की
पर डूब गई थी सोच में
ऒर भूल गई थी अपनी टूट को ।

तभी न
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पर जानकारों ने क्यों दी सजा मुझे
ऒर वह भी बीच चॊराहे खड़ा कर !
आरोप था मुझ पर
कि मॆंने बोले थे असंभव झूठ
न हँस सकता हॆ कॊवा
ऒर न ही जुर्रत कर सकती हॆ मामूली लड़की
होने की राजकुमारी ।

सोच रहा हूं --
तो मॆंने कब कहा था
कि हँस सकता हॆ कॊवा
या कर सकती हॆ जुर्रत एक मामूली लड़की होने की राजकुमारी ।
हांलाकि हर्ज भी क्या होता
अगर हँसे होते कॊवे
ऒर की होती जुर्रत मामूली लड़कियों ने होने को राजकुमारियां ।

मॆंने जो कहा था
क्यों समझा था उसे
बस एक रोते हुए बच्चे ने
एक टूटती मामूली लड़की ने ?

तो कुछ बातें ऎसी भी होती हॆं
जिन्हें समझ सकते हॆं
बस रोते हुए बच्चे
ऒर टूट रहीं मामूली लड़कियाँ ।

तभी न ?

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