गुरुवार, 25 अगस्त 2011

हिन्दी के समसामयिक चर्चा बिन्दु

मॆं समझता हूं कि हिन्दी के घरेलू ऒर वॆश्विक महत्त्व को लेकर पर्याप्त सॆद्धान्तिक विचार हो चुका हॆ । भारत के संदर्भ में
अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में इसे सम्पर्क भाषा मानने.मनवाने की सॆद्धान्तिक कवायद भी भरपूर हो गयी हॆ। फिर भी
क्या कारण हॆ कि हर वर्ष सितम्बर माह आते.आते हिदी के बोलबाले को लेकर तमाम चिंताएं.चिंतन रह रह कर शुरु होने लगता हॆ।
क्या कारण हॆ कि राज भाषा के रूप में हिन्दी के आकड़ों की बहार लादी जाने लगती हॆ । वह भी एक ऎसी हिन्दी में जिसे फिर हिन्दी
बनाने की ज़रूरत पड़ने लगती हॆ। क्या कारण हॆ कि हिन्दी में ही नहीं हम अंग्रेजी में भी अंग्रजी को गरियाने की रस्म हर ओर
निभाते नज़र आने लगते हॆं । क्या कारण हॆ कि हमारी चिन्ता हिन्दी की अपनी लकीर को बड़ा करने की तुलना में दूसरी भाषा की
लकीर को छोटा करने के प्रति अधिक समर्पित नज़र आने लगती हॆ।भाषा माँ की तरह है। और कोई भी माँ अपने सहज रूप में ‘संकट’ की स्थिति पैदा कर ही नहीं सकती। वह अपनी सहज प्रक्रिया में संघर्श, टकराहट या ऐसी ही किसी नकारात्मक प्रवृत्ति को प्रश्रय दे ही नहीं सकती। अतः भाषा को लेकर ‘संकट’ पैदा करने वाले व्यक्ति असहज ही कहे जाएँगे। मनुष्य अपने-अपने संदर्भ में अपनी माँ को (और इसी आधार पर अपनी भाषा को) प्यार करता है, यह सहज है, किसी भी प्राणी की तरह। लेकिन अपनी माँ (भाषा) से सहज प्यार करने के अनुभव से सम्पन्न मनुष्य दूसरे की माँ (भाषा) से असहज होकर ही घृणा कर सकता है। यह ‘असहजता’ मनुष्य में क्यों आती है इसकी गहरी जाँच-पड़ताल की जा सकती है। हिन्दी और भारतीय भाषाओं के अन्तःसंबंधों की वास्तविकता को एक बार फिर पहचानना होगा। व्यक्तियों का एक ऐसा वर्ग भी है जो राष्ट्रभाषा या राजभाषा की समस्या को हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं के संबंधों में न ढूँढकर मात्र हिन्दी और अंग्रेजी की प्रतिद्वंद्विता के रूप में उभारना चाहता है।’ यह सिद्ध है कि भारत में भाषाओं की लड़ाई के पीछे, जो आज भी आंशिक रूप में ही सही एक हक़ीक़त है, स्वयं भाषाओं का हाथ नहीं है बल्कि कुछ और तत्वों का है जो विघटनकारी हैं, भारत की लम्बी और गहरी समन्वयवादी परम्परा के शत्रु हैं, राष्ट्रद्रोही हैं अथवा संकीर्ण हैं। भाषायी समन्वय राष्ट्र को मजबूत बनाता है। अतः भाषा का सच्चा काम लोगों को जोड़ने का होता है तोड़ने का नहीं। राष्ट्रभाषा के संदर्भ में यह बताना आवश्यक है कि वह राष्ट्रीय भावना की सूचक होती है। भीतरी तौर पर उसमें राष्ट्र को एकताबद्ध करने की प्रबल प्रवृत्ति होनी चाहिए और बाह्य तौर पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्र को विशिष्ट सिद्ध करने की प्रवृत्ति। अर्थात् राष्ट्रभाषा का आदर्श आभ्यंतर एकता और बाह्य विशिष्टता है। राष्ट्रभाषा का काम विभेद और अंतर सम्बन्धी विवादों का समाधान करना होता है। भारत जैसे बहुभाषी देशों में राष्ट्रभाषा का संपर्क भाषा और राजभाषा के रूप में भी सक्षम होना होता है। मातृभाषा तो वह होती ही है। सूत्र रूप में कहें तो भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्रों में किसी भी मातृभाषा के अन्य मातृभाषाओं के रहते राष्ट्रभाषा बनने का संदर्भ उठापटक, जीत-हार आदि जैसी पीड़ाजनक स्थितियों का न होकर स्पर्धा एवं स्वीकृति की अवस्थाओं का होता है, सत्य और यथार्थ को मज़बूर या बाध्य होकर नहीं, सहर्ष और सम्मान की भावना से स्वीकार करने का होता है। यहां तक तो ठीक हॆ कि हिन्दी दिवस के अवसर पर
हम हिन्दी के होने ऒर उस होने की उपलब्धियों का जश्न मनाएं लेकिन वह केवल रस्मीतॊर पर होकर रह जाए, केवल आंकड़ेबाजी
का खेल बन कर रह जाए, भारतीयों के संदर्भ में दिलों में/से उतरी ज़बान न लगे तो फिर सचमुच चिन्ता ऒर चिन्तन की बात
कही जाएगी । मॆं नहीं कहता भाषण, प्रतियोगिताओं, कार्यशालाओं आदि का महत्त्व ऒर अवश्यकता नहीं हॆ । पर मज़ा तो
तब हॆ न जब ये सब ’प्रायोजित’ नहीं अपितु सहज आयोजित घटनाक्रम लगें । अत: आज ज़रूरत हॆ कुछ ऎसे बिन्दुओं की पहचान
करना जिन पर चर्चा करते हुए ऎसी स्थितियों को प्राप्त किया जा सके जिनसे हिन्दी को हम उसके अपेक्षित दर्जे पर पहुंचा सकें ।


वैश्विक स्तर पर यदि हिन्दी का संदर्भ देखा जाए तो उसके पठन-पाठन की दृष्टि से वह उत्साहवर्द्धक एवं तकलीफदेह दोनों ही रूपों में उपस्थित है। आंकड़ों के आधार पर तो हम विश्व-पटल पर हिंदी की उपस्थिति को लेकर गर्व भी कर सकते हैं लेकिन कुछ देशों के संदर्भ में हकीकत चिन्ताजनक भी हुई है। एक ओर जहाँ हिन्दी के वेबजालों की संख्या में बढ़ोतरी होती जा रही है और अमेरिका जैसे देश में तो हिन्दी को स्कूलों के स्तर पर भी पढ़ाया जा रहा है - कितने ही अमेरिकी तो भारत आकर विशेष रूप से हिन्दी सीख रहे हैं। वे हिन्दी जानना अपना विकल्प नहीं बल्कि अपनी आवश्यकता मानते हैं। वे जानते हैं कि भारत के भाषाई और सांस्कृतिक संसार तक पहुँच के लिए हिन्दी का आना अनिवार्य है। भारतीय जीवन के गहरे एवं यथार्थ पूर्ण अध्ययन के लिए भी वे हिन्दी की जानकारी को अनिवार्य मानते हैं। कुछ का इरादा तो हिन्दी में पारंगत होकर हिन्दी का अध्यापक बनना भी है। (स्पैन, मार्च, अप्रैल, 2007, पृ012) वहाँ हिन्दी के गढ़ माने जाने वाले देशों जैसे रूस और जर्मनी में हिन्दी के पठन-पाठन और उसके विस्तार पर आघात भी पहुँचा है। इस प्रसंग में इतना अवश्य जोड़ना चाहूँगा हमें देश और विदेशों में भारत की तमाम भाषाओं के सीखने-सिखाने की स्थितियाँ पैदा करनी होंगी या फिर एक ऐसी भारतीय भाषा को चुनना होगा जिसके माध्यम से भारत की अन्य भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य को भी विदेशों में पहुँचाया जा सके और साथ ही उस भाषा के विदेशों में अध्ययन-अध्यापन की भरपूर स्थितियाँ भी पैदा की जाएँ। और यह भी कि वह भाषा स्पष्ट कारणों से, भारतीय मूल की ही होनी चाहिए। मेरी विनम्र राय है कि उपर्युक्त दूसरा रास्ता ज्यादा व्यावहारिक है। उदाहरण के लिए यदि हम ‘हिन्दी’ को विदेश के संदर्भ में देश की भाषा स्वीकार कर लें तो विदेशों में केवल हिन्दी सीखने-सिखाने का प्रबन्ध करना होगा और देश में एक उचित योजना के तहत हिन्दी में अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य को उपलब्ध कराना होगा ताकि वह सब हिन्दी के माध्यम से विदेशों में पहुँचाया जा सके।’ अच्छी बात यह है कि बिना हिन्दीतर भारतीय भाषाओं का गला दबाए इस दिशा में काम चल निकला है। हिन्दी भाषा के शिक्षण को अधिक दिलचस्प ढंग से करना होगा। केवल पारम्परिक तरीकों से नहीं। अभी हाल ही में हिन्दी शिक्षण के लिए भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परि्षद् ने ‘ऋषि’ नामक सॉफ्टवेयर निकाला है। वह इस दिशा में उपयोगी सिद्ध होगा। अनेक वेबसाइट भी हिन्दी शिक्षण का कार्य कर रहे हैं। उनसे लाभ पहुँचेगा। आज, कम से कम भारत में, टेलीविज़न के हिन्दी चैनलों के कारण, रोज़गार की दृष्टि से भी हिन्दी भाषा का महत्व काफ़ी बढ़ गया है। इससे हिन्दी को काफ़ी बढ़ावा मिल रहा है।
हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए भी हमें अपने पूर्वाग्रही तरीके (यानी हिन्दी उत्तम है, हिन्दी और भाषाओं की अपेक्षा महत्वपूर्ण है, अन्य भाषाएँ हिन्दी की तुलना में हेय और कमज़ोर हैं, ऐसी अभिव्यक्तियों से भरे तरीके) छोड़कर सकारात्मक ढंग से, अन्य भाषाओं को साथ लेकर चलते हुए, समन्वयवादी भावना के साथ हिन्दी का प्रचार प्रसार करना होगा। हिन्दी का प्रचार-प्रसार किसी भी सूरत में किसी को चिढ़ाने के लिए नहीं होना चाहिए। हिन्दी भारत की केन्द्रीय भाषा है अतः राष्ट्रभाषा के रूप में राजभाषा भी है। यह सत्य है। लेकिन इस सत्य को जो मानने को तैयार नहीं हैं उनसे हम कैसे निपटें। क्या धौंस से या बल से? आप मुझे ग़लत कह सकते हैं लेकिन मुझे यह रास्ता एकदम गलत, अराजक और बलात्कारी लगता है। मुझे तो अपने देश में गधों के गलों में ‘मैं अंग्रेजी बोलता हूँ, मैं गधा हूँ’ की पट्टियाँ डाल कर जुलूस निकालने वाले तथाकथित हिन्दी प्रेमियों के विवेक पर भी तरस ही आता है। मैं दोहरा दूँ कि भाषा के रूप में कोई भाषा न बड़ी है न छोटी, न अपनी है न परायी। पहले दिया जा चुका उदाहरण दूँ तो कोई भी माँ न छोटी होती है, न बड़ी, न अपनी होती है न परायी। माँ माँ होती है और भाषा भाषा। लेकिन हम मनुष्य हैं, कोरे विचार नहीं हैं, भाव भी हैं। हममें भावना भी है। इसीलिए हमें अपनी मातृभाषा, अपनी राष्ट्रभाषा से सहज भावनात्मक प्रेम होता है। माँएँ खड़ी हों तो हर बच्चा दौड़कर अपनी अपनी माँ को ही जा पकड़ता है। यही बात भाषाओं के संदर्भ में भी लागू होती है। इसका सीधा अर्थ यह है कि संदर्भ विश्व का हो या अपने बहुभाषी देश का हमें सभी भाषाओं को समान आदर देने की सही आदत डालनी ही होगी। उनके तालमेल में ही, उनके सह अस्तित्व में ही हमारी भलाई है, उसे समझना होगा। अपनी अपनी भाषा को सहज रूप में अपनाते और समृद्ध करते हुए, दूसरों की भाषाओं को कमतर दिखाने की गलत प्रवृत्ति से बचना होगा। भारत के संदर्भ में तो यह और भी ज़्यादा ज़रूरी है। भाषाएँ आपस में पेच लड़ाने की वस्तुएँ नहीं होतीं, बल्कि उनकी भीतरी समानताओं को पहचानते हुए उनमें तालमेल, पारस्परिक सद्भाव जगाने के लिए होती है।

भारत की वर्तमान भाषाओं की लिपियों और देवनागरी का प्रश्न भी उठाना चाहूँगा यद्यपि यह प्रश्न इतना नया भी नहीं है। इसमें तो कोई संदेह नहीं कि देवनागरी एक ऐसी लिपि है जो दुनिया के किसी भी भाषा के शब्द को लिपिबद्ध करने और उच्चारित करने की क्षमता रखती है। सोचना होगा कि क्या हम देवनागरी में राष्ट्रीय लिपि होने की संभावनाएँ पहचान सकते हैं?

ऒर अंत में अपनी ही कविता प्रस्तुत कर रहा हूं :

हैरान थी हिन्दी

हैरान थी हिन्दी।

उतनी ही सकुचाई
लजायी
सहमी सहमी सी
खड़ी थी
साहब के कमरे के बाहर
इज़ाजत माँगती
माँगती दुआ
पी.ए. साहब की
तनिक निगाह की।

हैरान थी हिन्दी
आज भी आना पड़ा था उसे
लटक कर
खचाखच भरी
सरकारी बस के पायदान पर
सम्भाल सम्भाल कर
अपनी इज्जत का आँचल

हैरान थी हिन्दी
आज भी नहीं जा रहा था
किसी का ध्यान
उसकी जींस पर
चश्मे
और नए पर्स पर

मैंने पूछा
यह क्या माजरा है हिन्दी

सोचा था
इंग्लैंड
और फिर अमरीका से लौट कर
साहिब बन जाऊँगी
और अपने देष के
हर साहब से
आँखें मिला पाऊँगी।


क्या मालूम था
अमरीका रिटर्न होकर भी
बसों
और साहब के द्वार पर
बस धक्के ही खाऊँगी।

हिन्दी !
अब जाने भी दो
छोड़ो भी गम
इतनी बार बन कर उल्लू अब तो समझो
कि तुम जिनकी हो
उनकी तो रहोगी ही न
उनके मान से ही
क्यों नहीं कर लेती सब्र
यह क्या कम है
कि तुम्हारी बदौलत
कितनों ने ही
कर ली होगी सैर
इंग्लैंड और अमरीका तक की।


आप तो नहीं दिखे?

पहाड़ सा टूट पड़ा
यह प्रष्न
मेरी हीन भावना पर।

जिससे बचना चाहता था
वही हुआ।
संकट में था
कैसे बताता
कि न्यूयार्क क्या
मैं तो नागपुर तक नहीं बुलाया गया था

कैसे बताता
न्यौता तो क्या
मेरे नाम पर तो
सूची से पहले भी ज़िक्र तक नहीं होता

कैसे बताता
कि उबरने को अपनी झेंप से
अपनी इज्जत को
‘नहीं मैं नहीं जा सका’ की झूठी थेगली से
ढ़कता आ रहा हूँ।

अच्छा है
षायद समझ लिया है
मेरी अन्तरात्मा की झेंप को
हिन्दी ने।
आखिर उसकी
झेंप के सामने
मेरी झेंप तो
तिनका भी नहीं थी

बोली -
भाई,
समझते हो न मेरी पीर

हाँ बहिन!
यूं ही थोड़े कहा है किसी ने
जा के पाँव न फटी बिवाई
वो क्या जाने पीर पराई

और लौट चले थे
हम भाई बहिन
बिना और अफसोस किए
अपने अपने
डेरे।

2 टिप्‍पणियां:

  1. जब तक किसी भाषा के बोलने वाले हैं, भाषा जीवित रहती है। अब देखना यह है कि क्या हम जीवित हैं या एक मुर्दा समाज॥

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