दिविक रमेश या फ़िर रमेश शर्मा
कोई फ़र्क नहीं पड़ता हॆ
जिस भी नाम से मॆंने पुकारा
एक दोस्त को ही सदा करीब पाया ।
आपने नहीं देखा इस शख्स को
बहुत करीब से
जाना भी नहीं इस पहचाने चेहेरे को
पर देखा ऒर महसूसा तो होगा
क्षितिज की गोद में बॆठे मासूम
शीतल अरुणिमा बिखेरते
तपती दोपहरी में आग बने
पर्वतों के शिखरों को लांघते
ऒर फिर क्षितिज पर पश्चिम के
मंद-मंद सुरमई अंधेरे के बीच
थकान को विश्रान्ति का गीत सुनाते
सूर्य को ।
आपने, नहीं देखा इस शख्स को ।
प्रेम जनमेजय
सोमवार २८ अगस्त, २००६
( यह कविता प्रेम ने मेरे साठवें जन्म दिन पर भेंट की थी । मेरी वास्तविक जन्मतिथि २८ अगस्त हॆ जबकि प्रमाण-पत्रों में ६ फरवरी लिखाई गई हॆ । मित्र की इस मीठी सॊगात को आपसे बांटते हुए मुझे हर्ष हॆ ।)
सोमवार, 19 जुलाई 2010
रविवार, 11 जुलाई 2010
प्रणाम सम्पूर्ण
न सही अदृश्य या निराकार ही
तब भी करूंगा समर्पित
समस्त को
निज प्रणाम यहीं से ।
भले ही कह लें मुझे नास्तिक
पर करना हॆ मुझे अनुकरण वृक्ष का
होकर फलीभूत यहीं से
करना हॆ समर्पित
सबकुछ ।
जब भिगो सकते हॆं मेघ
वहीं से
जब महका सकते हॆं फूल
वहीं से
तो क्यों नहीं मॆं
यहीं से ।
चाहता हूं फले फूले लोक गीत
लोक में रहकर, यहीं पर ।
फले फूले जंगल, जंगल में
यहीं पर ।
चाहता हूं
मिलता रहे आशीर्वाद यहीं पर
समस्त का
जो न अदृश्य हॆ न निराकार ही ।
ऒर करता रहूं समर्पित
निज प्रणाम यहीं से
एक ऎसा प्रणाम
जो न डर हॆ न दीनता
न धर्म हॆ न हीनता ।
तब भी करूंगा समर्पित
समस्त को
निज प्रणाम यहीं से ।
भले ही कह लें मुझे नास्तिक
पर करना हॆ मुझे अनुकरण वृक्ष का
होकर फलीभूत यहीं से
करना हॆ समर्पित
सबकुछ ।
जब भिगो सकते हॆं मेघ
वहीं से
जब महका सकते हॆं फूल
वहीं से
तो क्यों नहीं मॆं
यहीं से ।
चाहता हूं फले फूले लोक गीत
लोक में रहकर, यहीं पर ।
फले फूले जंगल, जंगल में
यहीं पर ।
चाहता हूं
मिलता रहे आशीर्वाद यहीं पर
समस्त का
जो न अदृश्य हॆ न निराकार ही ।
ऒर करता रहूं समर्पित
निज प्रणाम यहीं से
एक ऎसा प्रणाम
जो न डर हॆ न दीनता
न धर्म हॆ न हीनता ।
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