मॆं ढूंढ्ता जिसे था ...
दिविक रमेश
आपकी तारीफ़ ?
मंत्री ।
ऒर आप ?
अफसर ।
आप ?
लोगों का नुमाइंदा-
सदस्य संसद का ।
ऒर आप सब ?
अगर हमसे काम हॆ तो सरकारी
नहीं तो बसों में लदी लीद ।
आप तो सज्जन नज़र आतो हॆं !
जी नहीं
ये सम्पादक हॆं
ऒर मॆं अध्यापक ।
लेकिन तुम ?
अबे बताना इसे
साले को इतना भी नहीं पता कि हम कॊन हॆं ।
अच्छा भाई अच्छा ।
अच्छा आप कॊन हॆं
कितनी तो शराफत हॆ आपके चेहरे पर !
मॆं दुकानदार हूं
दास आपका
कहें तो कृपया लूट लूं ।
नहीं भाई नहीं, माफ़ करना, गलती हुई ।
भले आदमी तुम तो वही हो न
जिसकी तलाश हॆ मुझे ?
अपना रास्ता नाप
देने को खोटा सिक्का नहीं
साला आदमी बोलता हॆ ह्ट्टे कट्टे भिखारी को ।
मान्यवर
आप जरूर वही हॆं
कितनी मिठास हॆ आपकी जुबान में !
शिष्य! शिकार अच्छा हॆ
इन्हें हमारा परिचय दो ।
यदि न ग्रहण करे शिष्यत्व
तो निकाल कर हमारी बगल से छुरी
इनके पेट में भोंक दो ।
उफ़ भागते भागते दम फूल गया हॆ
तुम्हें कहां ढूंढूं आदमी !
कई रोज़ बाद इतनी अच्छी कविता पढ़ी है. आपकी शैली अलग भी है और बहुत अच्छी भी है .
जवाब देंहटाएंबहुत यथार्थपरक और अलग शैली में लिखी गयी कविता…हार्दिक शुभकमनायें।
जवाब देंहटाएंपूनम
हार्दिक धन्यवाद
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