सोमवार, 4 मई 2020

बाल कहानी :रितु के पापा


रितु के पापा
-    दिविक रमेश          


पापा ने रितु को बुलाया और डांटते हुए कहा, “”“देखो, आगे से कभी पावस के साथ मत खेलना। मैंने देख लिया तो अच्छा नहीं होगा। समझी।“ जाओ और पढ़ो। ““” वह वहां से चली गई।

रितु स्तब्ध थी। सोचा कि आज अचानक पापा को हो क्या गया। वे तो हमें बहुत प्यार करते हैं। चॉकलेट देते हैं। उन्होंने ही तो पावस के साथ खेलने को भी कहा था। फिर आज क्याहुआ। सोचते-सोचते रितु का मन रो उठा। उसे सबसे बड़ी चिंता तो यह हुई कि अब खेलेगी किस के साथ । उसके तो कोई भाई या बहन भी नहीं है। माँ से कितनी ही बार तो कहा है कि एक भैया या बहन ला दो न । पावस से भी कहती –“ माँ जब हमारा भैया या बहन लाएंगी तो तुम्हें भी उससे खेलने दूंगी।“ पावस खुश हो जाता।

रितु की आयु  लगभग 13 वर्ष की है। पास के ही अच्छे स्कूल में पढ़ती  है। पावस भी उसी स्कूल में पढ़ता है। एक कक्षा सीनियर है। पावस का फ्लैट रितु के टूटे-फूटे से मकान से बहुत दूर नहीं है। पावस के पिता पैसे वाले ओयापारी हैं और रितु के पिता दफ्तर में क्लर्क । दोनों ही स्कूल की बस से स्कूल जाते हैं। साथ-साथ खेलते हैं। एक-दूसर पर विश्वास भी बहुत है। कभी-कभी रूठा-रूठी भी कर लेते थे। लेकिन जल्दी ही सुलह हो जाती।

      इधर पापा भी बेचैन थे। सोच रहे थे कि रितु को इतना क्यों डांट दिया। उसका तो कोई भाई-बहन भी नहीं है। एक पावस ही तो है जिसके साथ खेल लेती है। पावस के पापा ने ठीक से बात नहीं की तो उसमें रितु या पावस का क्या दोष्।  वे उठे और रितु को देखने आए। रितु माँ के पास नहीं थी। पूछने के बाद पता चला कि वह तो बाहर चली गई थी। कहीं पावस के पास तो नहीं चली गई, पापा ने सोचा और उन्हें फिर गुस्सा आने लगा। माँ से बोले- तुमने क्यों जाने दिया उसे?’
माँ ने सहज भाव से कहा – रोज ही जाती है।
लेकिन आज क्यों गई? मैंने मना किया था। उसने मेरी बात नहीं मानी। – कहते हुए पापा बाहर चले गए।

      पापा ने दूर से देखा कि पावस और रितु एक कोने में चुपचाप से खड़े थे। परेशान से। पापा थोड़ा करीब गए और एक पेड़ के तने की ओट में खड़े हो गए। उन्हें आवाज आई। पावस कह रहा था – रितु तुम अपने पापा की बात मान लो। स्कूल में टीचर कहती हैं न कि हमें अपने पापा और मम्मी की बातें माननी चाहिए। अब हम नहीं मिलेंगे।
रितु ने रुआंसी होकर जवाब दिया,’ फिर हम किसके साथ खेलेंगे पावस? हम अकेले कैसे रहेंगे?’
पावस थोड़ा परेशान हुआ। बोला, रितु तुम रोओ मत। दु:ख तो हमें भी है, पर रो तो नहीं रहे न ? हमारे ढेर सारे खिलौनों से भी कौन खेलेगा। अकेले खेलने में मजा भी कहाँ आता है। हमारी  भी तो कोई बहन नहीं है। तुम आ जाती हो तो मुझे भी तो बहुत अच्छा लगता है। पर तुम रोओ मत रितु। तुम्हारा रोना मुझे अच्छा नहीं लगता।
ठीक है,  मैं नहीं रूओंगी, रितु ने आँखें पोंछते हुए कहा,  मैं जाती हूँ। पता चला तो पापा मारेंगे।
ठीक है। और सुनो, जब हम बड़े हो जाएंगे तब साथ-साथ खेलेंगे। तब अपने पापा से कह कर मैं एक बड़ा सा मकान भी बनवा लूंगा।‘, पावस ने कहा ।
नहीं, हम अपने पैसों से ही मकान बनवाएंगे। पापा अच्छे नहीं होते। , रितु बोली।

      रितु लौट पड़ी। पापा कुछ देर तक गुमसुम खड़े रहे। रितु थोड़ा दूर जा चुकी थी। वे पेड़ के तने की ओट से बाहर आए । पावस रितु को जाते हुए देख रहा था । एकदम उदास । लग रहा था कि बस अब रो देगा। उसे अपनी पीठ पर किसी हाथ का स्पर्श हुआ। वह चौंका ।पीछे मुड़ा तो देखा रितु के पापा खड़े थे। अंकल आप ?’ , पावस के मुँह से निकला। थोड़ा घबराया लेकिन संभल कर बोला, अंकल रितु मेरे ही कहने पर आई थी। उसे पीटना नहीं। अब मैं कभी नहीं मिलूंगा।

      पापा कहीं से भी गुस्से में नहीं लग रहे थे। बल्कि उनकी आँखों से जैसे प्यार टपक रहा था। बोले, पावस, क्या तुम बहुत नाराज हो बेटे ? रितु को तो मैंने आज तक कभी नहीं पीटा। अब क्यों पीटूंगा। तुम दोनों बहुत अच्छे बच्चे हो ?’
      सच्ची अंकल! आप रितु को नहीं पीटेंगे न? मैं सच कह रहा हूं कि अब हम कभी साथ-साथ नहीं खेलेंगे।“, पावस ने कहा।
      नहीं पीटूंगा। पर साथ-साथ क्यों नहीं  खेलोगे?’ , प्यार से पापा बोले।
      पावस चौंका। तब पापा ने खुश होकर कहा, अरे भाई, समझ लो कि थोड़ी देर को मैं भी रूठ गया था । अब मन गया हूँ। तुम भी रूठ कर मन जाते हो न? बस, यही समझ लो। जाओ और यह बात रितु को भी बता दो।

      पावस को तो बहुत  अच्छा लगा।  वह तो लगभग दौड़ ही पड़ा। रितु के पास जल्दी से जल्दी पहुंचना जो चाहता था ।  तभी पीछे से पापा की आवाज आई , और सुनो, रितु को यह भी कह देना कि पापा अच्छे होते हैं। 

एल-1202, ग्रेंड अजनारा हेरिटेज,
सेक्टर-74, नोएडा-201301

मो.9910177099     


     



प्रेम भारद्वाज : इतनी जल्दी भी क्या थी जानेकी


प्रेम भारद्वाज: अप्रत्याशित व्यक्तित्व का धनी
-दिविक रमेश

क्या इतनी जल्दी जाना चाहिए था आपको प्रेम भारद्वाज ? जनता हूं कि जवाब आसानी से नहीं दोगे। या रहस्यमयी मुस्कान भरके चुप हो जाओगे। मुस्कुराते-मुस्कुराते हुए भी कुछ सोचेते से नजर आओगे।  या फिर खोते से चले जाओगे। जवाब देने में तो मुझे आफी हद तक कंजूस ही आते रहे हो। लेकिन लगे हमेशा निरभिमानी हो, भलनसाहत का प्रदर्शन न करने वाले।भले होकर भी। दृढ़  लेकिन विनम्र। अचानक पहुंच गए तो नपी-तुली बात कर ली। चाय भी न पूछी। खुद बुलाया तो भी, स्वागत करते हुए  बहुत औपचारिकता से दूर्। गर्मजोशी की अपेक्षा करने वालों को ठेंगा दिखाते हुए। नहीं  जानता कि यह आपका सामान्य रूप था अथवा किसी –किसी के संदर्भ में। आपका कोई गुट-वुट भी था कि नहीं, यह भी ठीक से नहीं कह सकता, भले ही कुछ रचनाकारों के करीब लगते भी रहे हो।  छली या दुराग्रही तो कभी नहीं लगे आप। विनम्र जरूर लगे। बेबाक भी।  हाँ  अप्रत्याशित बार-बार लगे हो। ठीक से समझ पाया हूं कि नहीं, नहीं कह सकता। लेकिन न मुझे आपका पाखी  से जाना अच्छा लगा था और न ही दुनिया से।

प्रेम भारद्वाज से, अपने ऊपर पड़े उपर्युक्त प्रभाव को जरूर बताना चाहूंगा यदि वे स्वप्न भी मिले तो।
बहुत  घनिष्ठ परिचय जैसा उनसे कभी नहीं रहा लेकिन यह लिखते-लिखते भी अपने कहे पर संदेह भी हो रहा है। लेकिन यह कहना तो ठीक ही होगा कि किसी महत्त्वपूर्ण कार्य की  उनकी पहली सूची में शायद मेरा स्थान नहीं था। पर फिर कहूंगा कि ऐसा एकदम भी नहीं था। कुछ बातों  में  उन्होंने महत्त्व के कामों से बखूबी जोड़ा था।  संपादक  के रूप में रचना भी  मांगी –भले ही वह लेख ही हो। पाखी  द्वारा आयोजित सुचर्चित रचना पाठ के साथ कवि के रूप में भी जोड़ा (भले ही उसके पीछे  थोड़ी सिफारिश श्री विभूति नारायण राय और भारत भारद्वाज की भी रही हो)  और बार बार आग्रह के साथ बुलाकर श्रोताके रूप में भी जोड़ा। मुझे कविताओं को अनेक बार प्रकाशित किया। मेरे कहने पर मेरे कविता संग्रह की समीक्षा भी प्रकाशित की । अपूर्व जोशी जी के कक्ष में आयोजित एक विशेष बैठक में, बुल्लाए गए दो-तीन विशिष्ट बुद्धिजीवियों एक मुझे भी उन्होंनेही सम्मिलित किया था। लेकिन लगने ही नहीं दिया कभी कि मैं उनके निजी पसंदीदा रचनाकारों की मंडली ( वह थी या नहीं , नहीं जानता)  का सदस्य हूं। पाखी छोड़ने के बाद, बार-बार पूछने के बावजूद कभी नहीं बताया कि क्यों छोड़ा । दूसरों के माध्यम से जरूर बहुत कुछ सुनने को मिला लेकिन उन्होंने हद से हद यही कहा कि कबी बताएंगे। अपनी पत्रिका भवंती निकालने की बात जरूर की। भवंती ( शीर्षक मुझे कभी पसंद नही आया) के, हिंदी भवन, दिल्ली में आयोजित  लोकार्पण समारोह में भी पूरे आग्रह के साथ निमंत्रित किया और मैं सम्मिलित भी हुआ।भले ही मात्र श्रोता के रूप में। वहाँ अपूर्व जोशी जी के सम्मिलित होने की भी बात की जा रही थी।

नोएडा में  मैं 1985-86 से  रह रहा हूं। ठीक से नहीं जानता कि पाखी  कब से  निकलनी शुरु हुई थी । आहे-बगाहे  कुछ-कुछ सुना जरूर था। एक बार सुनने में आया कि नामवर  जी को पाखी ने बुलाया। मुझे लगा  कि मैं नोएडा में  रह रहा हूं लेकिन मुझे कर्यक्रिमों में  निमंत्रित भी  नहीं किया जाता। प्रेम भारद्वाज का नाम मैंने संपादक के रूप में ही सुना था। किसी स्रोत से पत्रिका देखने को मिली तो अपने प्रारम्भ  से रहे स्वभाव के चलते सोचा कि रचना तो प्रकाशनार्थ भेज  ही सकता हूं।  बाता जुलाई,2010 की है जब मैंने पहली बार संपादक  को औपचारिक ढंगे से ईमेल के द्वारा अपनी कविताएं  भेजी थीं। नमूनेके लिए प्रतिलिपि देखिए-
divikramesh ramesh 
AttachmentsSat, 17 Jul 2010, 16:44
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to info, divik_ramesh
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मान्यवर,
किसी मित्र ने लिंक भेजा तो पाखी का साइट देखा । सुना तो था ही ।
अपने से ही कुछ कविताएं भेज रहा हूँ ।
पसन्द आए तभी सम्मिलित करें । संक्षिप्त परिचय भी साथ हॆ ।
उत्तर दे पाएंगे तो अच्छा लगेगा ।
शुभकामनाएं ।

दिविक रमेश

याद नहीं आ रहा कि उत्तर मिला हो। लेकिन इतना याद  है  कि 2012 में मेरी कविताएं पाखी में प्रकाशित होने लगी थीं। और संपादक के रूप में प्रेम भारद्वाज को मैंने आखिरी ईमेल 2019 को भेजी थी –

divik ramesh 

प्रिय प्रेम भारद्वाज जी,
नहीं जानता कि गुंजाईश है कि नहीं लेकिन पाखी के लिए कविताएं भेजने का मन हुआ सो भेज  रहा हूं। 
शुभकामनाएं।
दिविक  रमेश 
संयोग ही कहिए कि पाखी के पते पर  संपादक प्रेम भारद्वाज को भेजी गई पहली और आखिरी ईमेल की तिथि 17 थी।  इस पत्र का उत्तर आया था –एकदम संक्षिप्त ।
prem bhardwaj 
17 Jan 2019, 18:06
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to me
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शुक्रिया भाई B

B का अर्थ शायद Brother रहा होगा।

      उनके पाखी से जाने के बाद जब श्री अपूर्व जोशी जी को मैंने कविताएं भेजने के बारे में बताया  तो उन्होंने श्री प्रेम भारद्वाज के प्रति पूरा मान दिखाते हुए मेरी कविताओं  को प्रकाशित किया। मुझे बहुत अच्छा लगा। उन्होंने केदारा नाथ सिंह पर प्रकाशित विशेषांक के प्रति भी उपलब्ध करायी जिस में मेरा भी लेख है और जिसे मेरे कई बार के आग्रह के बावजूद प्रेम भारद्वाज नहीं भिजवा पाए थे।
      प्रेम भारद्वाज भले ही कहानी के आदमी थे लेकिन कविता से भी उनका नाता जब तब पता चलता था। मुझे याद आ रहा है कि अपने आयोजनों में वे कविताओं पर भी बहुत ही गम्भीरता से टिप्पणी करते थे। खासकर जिन कविताओं में प्रतिपक्ष या विद्रोह का स्वर तेज होता था उन्हें वे खासकर पसंद करते थे। उनका एक प्रिय शब्द था –तेजाब । कविताओं में जब भी उन्हें तेजाब दिखता था तो मुग्ध दिखने लगते थे। अध्येता भी वे कमाल के थे। उनकी बातचीत में यह खूबी बराबर झलकती थी। लेकिन पढ़े गए पर वे बेबाकी से अपनी बात भी रखते थे। एक बार लिखा -  साल भर की पुस्तकों के संख्या हमें सुखद अहसास से भर देती हैं। इतनी तादाद में कभी पुस्तकें नहीं आयी। लेकिन जरा सा ठहर कर जब हम हर्फों के दरम्यान गुजरते हैं तो मायूसी हाथ लगती है। ज्यादा तो लिखा जा रहा मगर अच्छा नहीं लिखा जा रहा। एक खास तरह का सूखापन इसके लिए जिम्मेदार है। यह सूखापन रचनात्मकता और संवेदना दोनों स्तर पर है। वरिष्ठ रचनाकारों की कृतियों को देखकर मालूम होता है कि उनके भीतर का रचनाकार मर गया है। ..वरिष्ठ पीढ़ी अपने बाद की युवा पीढ़ी की तरफ देख रही है कि वह कुछ महान रचे। नयी पीढ़ी खुद से ज्यादा कहीं देखना नहीं चाहती। ऐसे में पाठक क्या करे? किधर देखे।(3 जनवरी, 2019)

      निश्चित रूप से प्रेम भारद्वाज को  पुस्तकों के लिए उत्सुक देखा है।अपनाएक अनुभव साझा करता हूं।  मेरा एक काव्य नाटक है –खण्ड –खण्द अ‍ग्नि। वाणी प्रकाशन ने 1994 में प्रकाशित हुआ था। 2017 में श्री प्रवीण पंडित ने 20 और 21 फरवरी को मैट्रो, दिल्ली की ओर से एक रंगमंच विशाल पार्क के उद्घाटन के अवसर पर इस नाटक का भव्य मंचन किया। नाटॅक लगभा 2 घंटे से ऊपर का था। मैं शहर में नहीं था। बाद में प्रेम भारद्वाज जी से पता  चला कि नाटक उन्होंने भी देखा था। उन्हें नाटक बहुत पदंद आया था। इसीलिए उन्होंने उसे पढ़ने की तीव्र इच्छा जाहिर की।लेकिन अपने संयत अंदाज में। मैंने उन्हें नटॅक उपलब्ध कराया।
      कविता उनके संपादकीयों में भी बराबर आती रहती थी। 17 जनवरी ,2019 को उन्होंने अज्ञेय की प्रख्यात कविता नाच के बहाने लिखा था – पिछले कई दिनों से अज्ञेय की नाच कविता परेशां कर रही है ...क्या हममें से अधिकतर लोग दो खम्भों पर तनी रस्सी पर नाच नहीं रहे हैं
एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूँ।
जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
वह दो खम्भों के बीच है।....
मैं पाखी का नियमित पाठक तो नहीं रहा हूं लेकिन जब भी पत्रिका हाथ आई , मैंने पाया कि संपादकीय हिला कर रख देता था। वस्तु और प्रस्तुति दोनों स्तर पर । एक और बानगी देखिए – मुझे पागल साबित कर एक निहायत ही घटिया और जेलनुमा पागलखाने में कैद कर दिया गया है। यहां क्रूरता से भरी दीवारें हमारे माथे के मजबूत होने का इम्तहान लेती हैं। मेरे पांवों में जंजीरें हैं। हाथों को भी बांध् देने की बार-बार धमकियां दी जाती हैं। वे यह मान चुके हैं कि मेरी आंखों में एक परमाणु बम है जो भीतरी आक्रोश के वायुयान से कहीं भी, कभी भी गिराया जा सकता है। हिरोशिमा-नागासकी की तरह दुनिया का कोई भी शहर नष्ट हो सकता है। वे हमारे जहांपनाह हैं। वे डर के महल में रहते हैं और झोपड़ी में रहने वाले हर उस व्यक्ति से डरते हैं जो पागलपन की राह पर है। इसलिए वे लगातार देश के नागरिकों को डरा रहे हैं। देश के मशहूर फिल्मी कलाकार नासिर जब अपने भीतर के बहाने देश में एक बड़े तबके भीतर डर की बात करते हैं तो उनका विरोध होता है। हम डर से डरे हुए है यह कहने की भी मना ही है।
मैं मनुष्य हूं। मगर भक्त नहीं हूं। एक आम आदमी जिसके पत्र की भाषा उसके पिता, पत्नी, प्रेमी, परिवार नहीं पढ़ पाया। मेरी हिमाकत तो देखिए कि मैं इस पागलखाने से अपने देश के उस राजा को पत्र लिखने बैठा हूं जो सत्य की लिपि ही भूल गया है। उसने दुनिया के तमाम भाषाविदों को बुलाकर सत्य की इस आदि लिपि को पूरी तरह से मिटाने की योजना बनाई है। वह एक ऐसी भाषा के आविष्कार में जुटे हैं जो सुनने वाले का विवेक हर कर उसे कठपुलती बना दे। भारत को वह कठपुतलियों का ऐसा देश बना देना चाहता है जिसका धागा उसके हाथों में हो। और वह उन्हें मन माफिक नचाए। उसको इस बात का भी मुगालता है कि इस मिशन में उनको जरूर कामयाबी मिलेगी।
('पाखी' फरवरी-2019 अंक का संपादकीय)

      भवंती का प्रवेशांक आया तो उसका संपादकीय सर्वाधिक चर्चित रहा । रत्नेश्वर सिंह ने लिखा – बस अभी-अभी 'भवन्ति' आई है। सबसे पहले संपादकीय पढ़ गया। उसी तल्खी, उसी तेवर के साथ प्रेम भारद्वाज मेरे सामने जैसे आ गए। उनकी आंखें धीमी-धीमी मटक रही हैं जैसे पलकों पर भारी बोझ हो! पलकें खुलती हैं तो लगता है कि भीतरी पतली नशें लाल होकर फटने को आतुर और बंद होने लगती हैं तो जैसे अफ़ीम का नशा! ((14 जून ,2019)

     प्रेम भारद्वाज, मैं समझता हूं कि अपने ईमानदार, तेजाबी और ज्वलंत संपादकीयों के लिए हमेशा याद आएंगे।

     मुझे ताज्जुब हुआ था जब मैंने उन्हें पाखी में प्रकाशित डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के साक्षात्कार के लिए प्रैम भारद्वाज को बहुतों के द्वारा बुरी तरह घेरते देखा था।जितना मेराअनुभव है,  प्रेम भारद्वाज को जानबूझ कर किसी का अपमान करते मैंने नहीं देखा। वे बहस कर सकते हैं –थोड़ी तेजी के साथ भी लेकिन भाषा की मर्यादा का वे ध्यान रखते थे। भारत भारद्वाज के साथ मैंने उन्हें बहस करते देखा था। विस्तार में नहीं जाना चाहूंगा। प्रसंग सबके सामने उजागर है। प्रेम भारद्वाज बहुत आहत हुए थे। मुझे तो लगा था, शायद गलत भी हो सकता हूं कि अधिकांश तो उनके खिलाफ, त्रिपाठी जी के बहाने,  अपनी निजी  खुंदस निकाल रहे थे। खैर, त्रिपाठी जी मामला निपटा दिया, यह संतोष की बात है। वे भी समझते ही होंगे कि प्रेम भारद्वाज की मंशा वह नहीं थी जो विरोधियों के द्वारा बतायी गयी थी।

     प्रेम भारद्वाज के उम्र भले ही बहुत विस्तृत न रही हो लेकिन वह बहुत गहरे थे। उनकी हर बात,उनकी हर हरकत गहराई से आती नजर आती थी।बड़ी  बिमारी से झूझते हुए भी उन्हें गहराई ने सजाए रखा।   इस गहराई को 24 अक्टूबर, 2019 को सहेजी गई इन पंतियों में महसूस कीजिए – मै क्षणों में जीता हूँ। शताब्दियों में मरता हूँ। रात के ज़िस्म को लोहे की तरह सख्ती से ढक लेता हूँ। जीवन में कोई फ़्लैश बैक नहीं होता, जीवन होता है। उसे कुछ भी नहीं चाहिए था। वह दरवाज़ा भी नहीं जिससे वह इतने सालों से बचने की कोशिश करता रहा है।। हम हमेशा ही काश से पैदा हो रहे हैं। एक दुनिया हम में हैं , वही हम हैं। कुछ मिलकर भी कुछ नहीं मिलता। कलेजे पर हाथ रख कर बोलिये कि जो हमने अब तक जीया है, उसे हम फिर से जीना चाहेंगे ? क्या हमें ज़िन्दगी के रफ ड्राफ्ट को भी एक बार फिर से सही कर लेना चाहिए, ऐसा संभव है क्या?”

    प्रेम भारद्वाज की एक सशक्त कहानी है –गुमसुदा की तलाश । उसे प्रकाशित करते समय उस पर टिप्पणी थी जिस से मैं अपनी बात को समाप्त करना चाहता हूं – पत्रकार , संपादक प्रेम भारद्वाज का लेखन सिर्फ अलहदा भर ही नहीं है अलबत्ता स्याह  समय में लिखे जा रहे इनके सम्पादकीय के शब्द चुभते  हैं .जख्म-जुनून, दुःख, नाराज़गी , बेचैनी से निकली  अपनी छटपटाहट को अल्फाजों  में ढाल कर  वे एक नया वितान रचते हैं ......

    प्रेम आपका दुनिया से चले जाने पर वश था लेकिन हमारी यादों से कभी नहीं जा पाओगे मित्र!

एल-1202,ग्रेंड अजनारा हेरिटेज,
नोएडा-201301
मो.9910177099




 


   




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