सोमवार, 4 मई 2020

बाल कहानी :रितु के पापा


रितु के पापा
-    दिविक रमेश          


पापा ने रितु को बुलाया और डांटते हुए कहा, “”“देखो, आगे से कभी पावस के साथ मत खेलना। मैंने देख लिया तो अच्छा नहीं होगा। समझी।“ जाओ और पढ़ो। ““” वह वहां से चली गई।

रितु स्तब्ध थी। सोचा कि आज अचानक पापा को हो क्या गया। वे तो हमें बहुत प्यार करते हैं। चॉकलेट देते हैं। उन्होंने ही तो पावस के साथ खेलने को भी कहा था। फिर आज क्याहुआ। सोचते-सोचते रितु का मन रो उठा। उसे सबसे बड़ी चिंता तो यह हुई कि अब खेलेगी किस के साथ । उसके तो कोई भाई या बहन भी नहीं है। माँ से कितनी ही बार तो कहा है कि एक भैया या बहन ला दो न । पावस से भी कहती –“ माँ जब हमारा भैया या बहन लाएंगी तो तुम्हें भी उससे खेलने दूंगी।“ पावस खुश हो जाता।

रितु की आयु  लगभग 13 वर्ष की है। पास के ही अच्छे स्कूल में पढ़ती  है। पावस भी उसी स्कूल में पढ़ता है। एक कक्षा सीनियर है। पावस का फ्लैट रितु के टूटे-फूटे से मकान से बहुत दूर नहीं है। पावस के पिता पैसे वाले ओयापारी हैं और रितु के पिता दफ्तर में क्लर्क । दोनों ही स्कूल की बस से स्कूल जाते हैं। साथ-साथ खेलते हैं। एक-दूसर पर विश्वास भी बहुत है। कभी-कभी रूठा-रूठी भी कर लेते थे। लेकिन जल्दी ही सुलह हो जाती।

      इधर पापा भी बेचैन थे। सोच रहे थे कि रितु को इतना क्यों डांट दिया। उसका तो कोई भाई-बहन भी नहीं है। एक पावस ही तो है जिसके साथ खेल लेती है। पावस के पापा ने ठीक से बात नहीं की तो उसमें रितु या पावस का क्या दोष्।  वे उठे और रितु को देखने आए। रितु माँ के पास नहीं थी। पूछने के बाद पता चला कि वह तो बाहर चली गई थी। कहीं पावस के पास तो नहीं चली गई, पापा ने सोचा और उन्हें फिर गुस्सा आने लगा। माँ से बोले- तुमने क्यों जाने दिया उसे?’
माँ ने सहज भाव से कहा – रोज ही जाती है।
लेकिन आज क्यों गई? मैंने मना किया था। उसने मेरी बात नहीं मानी। – कहते हुए पापा बाहर चले गए।

      पापा ने दूर से देखा कि पावस और रितु एक कोने में चुपचाप से खड़े थे। परेशान से। पापा थोड़ा करीब गए और एक पेड़ के तने की ओट में खड़े हो गए। उन्हें आवाज आई। पावस कह रहा था – रितु तुम अपने पापा की बात मान लो। स्कूल में टीचर कहती हैं न कि हमें अपने पापा और मम्मी की बातें माननी चाहिए। अब हम नहीं मिलेंगे।
रितु ने रुआंसी होकर जवाब दिया,’ फिर हम किसके साथ खेलेंगे पावस? हम अकेले कैसे रहेंगे?’
पावस थोड़ा परेशान हुआ। बोला, रितु तुम रोओ मत। दु:ख तो हमें भी है, पर रो तो नहीं रहे न ? हमारे ढेर सारे खिलौनों से भी कौन खेलेगा। अकेले खेलने में मजा भी कहाँ आता है। हमारी  भी तो कोई बहन नहीं है। तुम आ जाती हो तो मुझे भी तो बहुत अच्छा लगता है। पर तुम रोओ मत रितु। तुम्हारा रोना मुझे अच्छा नहीं लगता।
ठीक है,  मैं नहीं रूओंगी, रितु ने आँखें पोंछते हुए कहा,  मैं जाती हूँ। पता चला तो पापा मारेंगे।
ठीक है। और सुनो, जब हम बड़े हो जाएंगे तब साथ-साथ खेलेंगे। तब अपने पापा से कह कर मैं एक बड़ा सा मकान भी बनवा लूंगा।‘, पावस ने कहा ।
नहीं, हम अपने पैसों से ही मकान बनवाएंगे। पापा अच्छे नहीं होते। , रितु बोली।

      रितु लौट पड़ी। पापा कुछ देर तक गुमसुम खड़े रहे। रितु थोड़ा दूर जा चुकी थी। वे पेड़ के तने की ओट से बाहर आए । पावस रितु को जाते हुए देख रहा था । एकदम उदास । लग रहा था कि बस अब रो देगा। उसे अपनी पीठ पर किसी हाथ का स्पर्श हुआ। वह चौंका ।पीछे मुड़ा तो देखा रितु के पापा खड़े थे। अंकल आप ?’ , पावस के मुँह से निकला। थोड़ा घबराया लेकिन संभल कर बोला, अंकल रितु मेरे ही कहने पर आई थी। उसे पीटना नहीं। अब मैं कभी नहीं मिलूंगा।

      पापा कहीं से भी गुस्से में नहीं लग रहे थे। बल्कि उनकी आँखों से जैसे प्यार टपक रहा था। बोले, पावस, क्या तुम बहुत नाराज हो बेटे ? रितु को तो मैंने आज तक कभी नहीं पीटा। अब क्यों पीटूंगा। तुम दोनों बहुत अच्छे बच्चे हो ?’
      सच्ची अंकल! आप रितु को नहीं पीटेंगे न? मैं सच कह रहा हूं कि अब हम कभी साथ-साथ नहीं खेलेंगे।“, पावस ने कहा।
      नहीं पीटूंगा। पर साथ-साथ क्यों नहीं  खेलोगे?’ , प्यार से पापा बोले।
      पावस चौंका। तब पापा ने खुश होकर कहा, अरे भाई, समझ लो कि थोड़ी देर को मैं भी रूठ गया था । अब मन गया हूँ। तुम भी रूठ कर मन जाते हो न? बस, यही समझ लो। जाओ और यह बात रितु को भी बता दो।

      पावस को तो बहुत  अच्छा लगा।  वह तो लगभग दौड़ ही पड़ा। रितु के पास जल्दी से जल्दी पहुंचना जो चाहता था ।  तभी पीछे से पापा की आवाज आई , और सुनो, रितु को यह भी कह देना कि पापा अच्छे होते हैं। 

एल-1202, ग्रेंड अजनारा हेरिटेज,
सेक्टर-74, नोएडा-201301

मो.9910177099     


     



प्रेम भारद्वाज : इतनी जल्दी भी क्या थी जानेकी


प्रेम भारद्वाज: अप्रत्याशित व्यक्तित्व का धनी
-दिविक रमेश

क्या इतनी जल्दी जाना चाहिए था आपको प्रेम भारद्वाज ? जनता हूं कि जवाब आसानी से नहीं दोगे। या रहस्यमयी मुस्कान भरके चुप हो जाओगे। मुस्कुराते-मुस्कुराते हुए भी कुछ सोचेते से नजर आओगे।  या फिर खोते से चले जाओगे। जवाब देने में तो मुझे आफी हद तक कंजूस ही आते रहे हो। लेकिन लगे हमेशा निरभिमानी हो, भलनसाहत का प्रदर्शन न करने वाले।भले होकर भी। दृढ़  लेकिन विनम्र। अचानक पहुंच गए तो नपी-तुली बात कर ली। चाय भी न पूछी। खुद बुलाया तो भी, स्वागत करते हुए  बहुत औपचारिकता से दूर्। गर्मजोशी की अपेक्षा करने वालों को ठेंगा दिखाते हुए। नहीं  जानता कि यह आपका सामान्य रूप था अथवा किसी –किसी के संदर्भ में। आपका कोई गुट-वुट भी था कि नहीं, यह भी ठीक से नहीं कह सकता, भले ही कुछ रचनाकारों के करीब लगते भी रहे हो।  छली या दुराग्रही तो कभी नहीं लगे आप। विनम्र जरूर लगे। बेबाक भी।  हाँ  अप्रत्याशित बार-बार लगे हो। ठीक से समझ पाया हूं कि नहीं, नहीं कह सकता। लेकिन न मुझे आपका पाखी  से जाना अच्छा लगा था और न ही दुनिया से।

प्रेम भारद्वाज से, अपने ऊपर पड़े उपर्युक्त प्रभाव को जरूर बताना चाहूंगा यदि वे स्वप्न भी मिले तो।
बहुत  घनिष्ठ परिचय जैसा उनसे कभी नहीं रहा लेकिन यह लिखते-लिखते भी अपने कहे पर संदेह भी हो रहा है। लेकिन यह कहना तो ठीक ही होगा कि किसी महत्त्वपूर्ण कार्य की  उनकी पहली सूची में शायद मेरा स्थान नहीं था। पर फिर कहूंगा कि ऐसा एकदम भी नहीं था। कुछ बातों  में  उन्होंने महत्त्व के कामों से बखूबी जोड़ा था।  संपादक  के रूप में रचना भी  मांगी –भले ही वह लेख ही हो। पाखी  द्वारा आयोजित सुचर्चित रचना पाठ के साथ कवि के रूप में भी जोड़ा (भले ही उसके पीछे  थोड़ी सिफारिश श्री विभूति नारायण राय और भारत भारद्वाज की भी रही हो)  और बार बार आग्रह के साथ बुलाकर श्रोताके रूप में भी जोड़ा। मुझे कविताओं को अनेक बार प्रकाशित किया। मेरे कहने पर मेरे कविता संग्रह की समीक्षा भी प्रकाशित की । अपूर्व जोशी जी के कक्ष में आयोजित एक विशेष बैठक में, बुल्लाए गए दो-तीन विशिष्ट बुद्धिजीवियों एक मुझे भी उन्होंनेही सम्मिलित किया था। लेकिन लगने ही नहीं दिया कभी कि मैं उनके निजी पसंदीदा रचनाकारों की मंडली ( वह थी या नहीं , नहीं जानता)  का सदस्य हूं। पाखी छोड़ने के बाद, बार-बार पूछने के बावजूद कभी नहीं बताया कि क्यों छोड़ा । दूसरों के माध्यम से जरूर बहुत कुछ सुनने को मिला लेकिन उन्होंने हद से हद यही कहा कि कबी बताएंगे। अपनी पत्रिका भवंती निकालने की बात जरूर की। भवंती ( शीर्षक मुझे कभी पसंद नही आया) के, हिंदी भवन, दिल्ली में आयोजित  लोकार्पण समारोह में भी पूरे आग्रह के साथ निमंत्रित किया और मैं सम्मिलित भी हुआ।भले ही मात्र श्रोता के रूप में। वहाँ अपूर्व जोशी जी के सम्मिलित होने की भी बात की जा रही थी।

नोएडा में  मैं 1985-86 से  रह रहा हूं। ठीक से नहीं जानता कि पाखी  कब से  निकलनी शुरु हुई थी । आहे-बगाहे  कुछ-कुछ सुना जरूर था। एक बार सुनने में आया कि नामवर  जी को पाखी ने बुलाया। मुझे लगा  कि मैं नोएडा में  रह रहा हूं लेकिन मुझे कर्यक्रिमों में  निमंत्रित भी  नहीं किया जाता। प्रेम भारद्वाज का नाम मैंने संपादक के रूप में ही सुना था। किसी स्रोत से पत्रिका देखने को मिली तो अपने प्रारम्भ  से रहे स्वभाव के चलते सोचा कि रचना तो प्रकाशनार्थ भेज  ही सकता हूं।  बाता जुलाई,2010 की है जब मैंने पहली बार संपादक  को औपचारिक ढंगे से ईमेल के द्वारा अपनी कविताएं  भेजी थीं। नमूनेके लिए प्रतिलिपि देखिए-
divikramesh ramesh 
AttachmentsSat, 17 Jul 2010, 16:44
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to info, divik_ramesh
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मान्यवर,
किसी मित्र ने लिंक भेजा तो पाखी का साइट देखा । सुना तो था ही ।
अपने से ही कुछ कविताएं भेज रहा हूँ ।
पसन्द आए तभी सम्मिलित करें । संक्षिप्त परिचय भी साथ हॆ ।
उत्तर दे पाएंगे तो अच्छा लगेगा ।
शुभकामनाएं ।

दिविक रमेश

याद नहीं आ रहा कि उत्तर मिला हो। लेकिन इतना याद  है  कि 2012 में मेरी कविताएं पाखी में प्रकाशित होने लगी थीं। और संपादक के रूप में प्रेम भारद्वाज को मैंने आखिरी ईमेल 2019 को भेजी थी –

divik ramesh 

प्रिय प्रेम भारद्वाज जी,
नहीं जानता कि गुंजाईश है कि नहीं लेकिन पाखी के लिए कविताएं भेजने का मन हुआ सो भेज  रहा हूं। 
शुभकामनाएं।
दिविक  रमेश 
संयोग ही कहिए कि पाखी के पते पर  संपादक प्रेम भारद्वाज को भेजी गई पहली और आखिरी ईमेल की तिथि 17 थी।  इस पत्र का उत्तर आया था –एकदम संक्षिप्त ।
prem bhardwaj 
17 Jan 2019, 18:06
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to me
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शुक्रिया भाई B

B का अर्थ शायद Brother रहा होगा।

      उनके पाखी से जाने के बाद जब श्री अपूर्व जोशी जी को मैंने कविताएं भेजने के बारे में बताया  तो उन्होंने श्री प्रेम भारद्वाज के प्रति पूरा मान दिखाते हुए मेरी कविताओं  को प्रकाशित किया। मुझे बहुत अच्छा लगा। उन्होंने केदारा नाथ सिंह पर प्रकाशित विशेषांक के प्रति भी उपलब्ध करायी जिस में मेरा भी लेख है और जिसे मेरे कई बार के आग्रह के बावजूद प्रेम भारद्वाज नहीं भिजवा पाए थे।
      प्रेम भारद्वाज भले ही कहानी के आदमी थे लेकिन कविता से भी उनका नाता जब तब पता चलता था। मुझे याद आ रहा है कि अपने आयोजनों में वे कविताओं पर भी बहुत ही गम्भीरता से टिप्पणी करते थे। खासकर जिन कविताओं में प्रतिपक्ष या विद्रोह का स्वर तेज होता था उन्हें वे खासकर पसंद करते थे। उनका एक प्रिय शब्द था –तेजाब । कविताओं में जब भी उन्हें तेजाब दिखता था तो मुग्ध दिखने लगते थे। अध्येता भी वे कमाल के थे। उनकी बातचीत में यह खूबी बराबर झलकती थी। लेकिन पढ़े गए पर वे बेबाकी से अपनी बात भी रखते थे। एक बार लिखा -  साल भर की पुस्तकों के संख्या हमें सुखद अहसास से भर देती हैं। इतनी तादाद में कभी पुस्तकें नहीं आयी। लेकिन जरा सा ठहर कर जब हम हर्फों के दरम्यान गुजरते हैं तो मायूसी हाथ लगती है। ज्यादा तो लिखा जा रहा मगर अच्छा नहीं लिखा जा रहा। एक खास तरह का सूखापन इसके लिए जिम्मेदार है। यह सूखापन रचनात्मकता और संवेदना दोनों स्तर पर है। वरिष्ठ रचनाकारों की कृतियों को देखकर मालूम होता है कि उनके भीतर का रचनाकार मर गया है। ..वरिष्ठ पीढ़ी अपने बाद की युवा पीढ़ी की तरफ देख रही है कि वह कुछ महान रचे। नयी पीढ़ी खुद से ज्यादा कहीं देखना नहीं चाहती। ऐसे में पाठक क्या करे? किधर देखे।(3 जनवरी, 2019)

      निश्चित रूप से प्रेम भारद्वाज को  पुस्तकों के लिए उत्सुक देखा है।अपनाएक अनुभव साझा करता हूं।  मेरा एक काव्य नाटक है –खण्ड –खण्द अ‍ग्नि। वाणी प्रकाशन ने 1994 में प्रकाशित हुआ था। 2017 में श्री प्रवीण पंडित ने 20 और 21 फरवरी को मैट्रो, दिल्ली की ओर से एक रंगमंच विशाल पार्क के उद्घाटन के अवसर पर इस नाटक का भव्य मंचन किया। नाटॅक लगभा 2 घंटे से ऊपर का था। मैं शहर में नहीं था। बाद में प्रेम भारद्वाज जी से पता  चला कि नाटक उन्होंने भी देखा था। उन्हें नाटक बहुत पदंद आया था। इसीलिए उन्होंने उसे पढ़ने की तीव्र इच्छा जाहिर की।लेकिन अपने संयत अंदाज में। मैंने उन्हें नटॅक उपलब्ध कराया।
      कविता उनके संपादकीयों में भी बराबर आती रहती थी। 17 जनवरी ,2019 को उन्होंने अज्ञेय की प्रख्यात कविता नाच के बहाने लिखा था – पिछले कई दिनों से अज्ञेय की नाच कविता परेशां कर रही है ...क्या हममें से अधिकतर लोग दो खम्भों पर तनी रस्सी पर नाच नहीं रहे हैं
एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूँ।
जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
वह दो खम्भों के बीच है।....
मैं पाखी का नियमित पाठक तो नहीं रहा हूं लेकिन जब भी पत्रिका हाथ आई , मैंने पाया कि संपादकीय हिला कर रख देता था। वस्तु और प्रस्तुति दोनों स्तर पर । एक और बानगी देखिए – मुझे पागल साबित कर एक निहायत ही घटिया और जेलनुमा पागलखाने में कैद कर दिया गया है। यहां क्रूरता से भरी दीवारें हमारे माथे के मजबूत होने का इम्तहान लेती हैं। मेरे पांवों में जंजीरें हैं। हाथों को भी बांध् देने की बार-बार धमकियां दी जाती हैं। वे यह मान चुके हैं कि मेरी आंखों में एक परमाणु बम है जो भीतरी आक्रोश के वायुयान से कहीं भी, कभी भी गिराया जा सकता है। हिरोशिमा-नागासकी की तरह दुनिया का कोई भी शहर नष्ट हो सकता है। वे हमारे जहांपनाह हैं। वे डर के महल में रहते हैं और झोपड़ी में रहने वाले हर उस व्यक्ति से डरते हैं जो पागलपन की राह पर है। इसलिए वे लगातार देश के नागरिकों को डरा रहे हैं। देश के मशहूर फिल्मी कलाकार नासिर जब अपने भीतर के बहाने देश में एक बड़े तबके भीतर डर की बात करते हैं तो उनका विरोध होता है। हम डर से डरे हुए है यह कहने की भी मना ही है।
मैं मनुष्य हूं। मगर भक्त नहीं हूं। एक आम आदमी जिसके पत्र की भाषा उसके पिता, पत्नी, प्रेमी, परिवार नहीं पढ़ पाया। मेरी हिमाकत तो देखिए कि मैं इस पागलखाने से अपने देश के उस राजा को पत्र लिखने बैठा हूं जो सत्य की लिपि ही भूल गया है। उसने दुनिया के तमाम भाषाविदों को बुलाकर सत्य की इस आदि लिपि को पूरी तरह से मिटाने की योजना बनाई है। वह एक ऐसी भाषा के आविष्कार में जुटे हैं जो सुनने वाले का विवेक हर कर उसे कठपुलती बना दे। भारत को वह कठपुतलियों का ऐसा देश बना देना चाहता है जिसका धागा उसके हाथों में हो। और वह उन्हें मन माफिक नचाए। उसको इस बात का भी मुगालता है कि इस मिशन में उनको जरूर कामयाबी मिलेगी।
('पाखी' फरवरी-2019 अंक का संपादकीय)

      भवंती का प्रवेशांक आया तो उसका संपादकीय सर्वाधिक चर्चित रहा । रत्नेश्वर सिंह ने लिखा – बस अभी-अभी 'भवन्ति' आई है। सबसे पहले संपादकीय पढ़ गया। उसी तल्खी, उसी तेवर के साथ प्रेम भारद्वाज मेरे सामने जैसे आ गए। उनकी आंखें धीमी-धीमी मटक रही हैं जैसे पलकों पर भारी बोझ हो! पलकें खुलती हैं तो लगता है कि भीतरी पतली नशें लाल होकर फटने को आतुर और बंद होने लगती हैं तो जैसे अफ़ीम का नशा! ((14 जून ,2019)

     प्रेम भारद्वाज, मैं समझता हूं कि अपने ईमानदार, तेजाबी और ज्वलंत संपादकीयों के लिए हमेशा याद आएंगे।

     मुझे ताज्जुब हुआ था जब मैंने उन्हें पाखी में प्रकाशित डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के साक्षात्कार के लिए प्रैम भारद्वाज को बहुतों के द्वारा बुरी तरह घेरते देखा था।जितना मेराअनुभव है,  प्रेम भारद्वाज को जानबूझ कर किसी का अपमान करते मैंने नहीं देखा। वे बहस कर सकते हैं –थोड़ी तेजी के साथ भी लेकिन भाषा की मर्यादा का वे ध्यान रखते थे। भारत भारद्वाज के साथ मैंने उन्हें बहस करते देखा था। विस्तार में नहीं जाना चाहूंगा। प्रसंग सबके सामने उजागर है। प्रेम भारद्वाज बहुत आहत हुए थे। मुझे तो लगा था, शायद गलत भी हो सकता हूं कि अधिकांश तो उनके खिलाफ, त्रिपाठी जी के बहाने,  अपनी निजी  खुंदस निकाल रहे थे। खैर, त्रिपाठी जी मामला निपटा दिया, यह संतोष की बात है। वे भी समझते ही होंगे कि प्रेम भारद्वाज की मंशा वह नहीं थी जो विरोधियों के द्वारा बतायी गयी थी।

     प्रेम भारद्वाज के उम्र भले ही बहुत विस्तृत न रही हो लेकिन वह बहुत गहरे थे। उनकी हर बात,उनकी हर हरकत गहराई से आती नजर आती थी।बड़ी  बिमारी से झूझते हुए भी उन्हें गहराई ने सजाए रखा।   इस गहराई को 24 अक्टूबर, 2019 को सहेजी गई इन पंतियों में महसूस कीजिए – मै क्षणों में जीता हूँ। शताब्दियों में मरता हूँ। रात के ज़िस्म को लोहे की तरह सख्ती से ढक लेता हूँ। जीवन में कोई फ़्लैश बैक नहीं होता, जीवन होता है। उसे कुछ भी नहीं चाहिए था। वह दरवाज़ा भी नहीं जिससे वह इतने सालों से बचने की कोशिश करता रहा है।। हम हमेशा ही काश से पैदा हो रहे हैं। एक दुनिया हम में हैं , वही हम हैं। कुछ मिलकर भी कुछ नहीं मिलता। कलेजे पर हाथ रख कर बोलिये कि जो हमने अब तक जीया है, उसे हम फिर से जीना चाहेंगे ? क्या हमें ज़िन्दगी के रफ ड्राफ्ट को भी एक बार फिर से सही कर लेना चाहिए, ऐसा संभव है क्या?”

    प्रेम भारद्वाज की एक सशक्त कहानी है –गुमसुदा की तलाश । उसे प्रकाशित करते समय उस पर टिप्पणी थी जिस से मैं अपनी बात को समाप्त करना चाहता हूं – पत्रकार , संपादक प्रेम भारद्वाज का लेखन सिर्फ अलहदा भर ही नहीं है अलबत्ता स्याह  समय में लिखे जा रहे इनके सम्पादकीय के शब्द चुभते  हैं .जख्म-जुनून, दुःख, नाराज़गी , बेचैनी से निकली  अपनी छटपटाहट को अल्फाजों  में ढाल कर  वे एक नया वितान रचते हैं ......

    प्रेम आपका दुनिया से चले जाने पर वश था लेकिन हमारी यादों से कभी नहीं जा पाओगे मित्र!

एल-1202,ग्रेंड अजनारा हेरिटेज,
नोएडा-201301
मो.9910177099




 


   




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सोमवार, 11 सितंबर 2017

दो  लेख और एक कविता

हिंदी बालसाहित्य का स्वातंत्र्योत्तर स्वरूप—बहस और विमर्श
             --- दिविक रमेश 

अपनी पुस्तक बालगीत साहित्य में निरंकार देव सेवक ने लिखा है-"स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बढ़ती हुई रुचि और पढ़ने की भूख का अनुमान करके एक साथ सैंकड़ों नए लेखकों ने सभी विधाओं में लिख लिखकर बाल साहित्य का भण्डार भरना प्रारम्भ कर दिया। विराज एम०ए०, गोकुल चन्द सन्त, नृसिंह शुक्ल, प्रसान्त, व्यथित हृदय, नरायन व्यास, विशम्भर सहाय प्रेमी, शारदा मिश्र, शिवमूर्ति वत्स, हरिकृष्ण देवसरे, मनहर चौहान ने अनेक पौराणिक, ऐतिहासिक ऒर परी कथायें बच्चों के लिए लिखीं। वैज्ञानिक बाल कथायें रमेश वर्मा, ......रत्न प्रकाश शील, जयप्रकाश भारती आदि की बहुत पसन्द की गईं।" इस आकलन से बाल साहित्य के परिदृश्य से जुड़ा कोई भी चौंक सकता है,  क्योंकि देवसरे को परी कथा आदि के विरोधी के रूप में जाना जाता है और इसके लिए उनके अपने अनेक आवेशपूर्ण वक्तव्य और घोषणाएं भी जिम्मेदार हैं जबकि जयप्रकाश भारती को मात्र पौराणिक, ऐतिहासिक और परी कथाओं वाली राह का लेखक मान कर प्रस्तुत किया जाता रहा है। इधर -उधर टटोला तो पाया कि परी कथाओं को लेकर देवसरे जी के मत को शायद ठीक से नहीं समझा गया है। वे झूठे कल्पनालोक से बचने की बात तो करते हैं लेकिन समूची परीकथा का विरोध नहीं करते। उन्हीं के शब्दों में," परी कथाएं सदियों से बच्चों का मन बहलाती रही हैं। नव-बालसाहित्य की रचना के सिलसिले में एक आवश्यकता यह भी अनुभव की गयी कि बच्चों को झूठे कल्पना लोक से बचाने के लिए जरूरी हॆ कि परीकथाओं के कथ्य को नये आयाम दिए जाएं।" वे आगे लिखते हैं-"परी कथाओं के खजाने को अपने शब्दों में बार-बार लिखकर बालसाहित्य-सर्जना का दम भरने वाले लेखकों के लिए यह भी एक चुनौती थी। उन्होंने इसे समूची परीकथा विरोध माना, जबकि वास्तव में परीकथा की विधा को स्वीकार करते हुए उसके कथ्य की मांग की गयी थी।" (नव बालसाहित्य के दिशादर्शक, संचेतना, दिसम्बर, 1982, पृ0 215)| कुछ ऐसी ही बात उन्होंने इसी लेख में राजा को कथा का पात्र बनाने के संदर्भ में लिखी है। उन्हें समझने का विशिष्ट दावा करने वालों को गौर करना होगा कि परी, राजा, भूत, पौराणिक पात्र, पशु-पौधों आदि के प्रयोग से उन्हें दिक्कत नहीं थी बशर्ते कि रचनाकार उनसे जुड़ी कथ्यगत रुढ़ियों को तोड़ने में समर्थ हो। जयप्रकाश भारती जी की भी उनके विरोधियों ने, बिना उनको ठीक से समझे,गलत-सलत छवि  प्रस्तुत करने में भरपूर योगदान किया है।  जयप्रकाश भारती की ही निम्न कविता-पंक्तियों पर ध्यान दिया जाए –
राजा का तो पेट बड़ा था
                        रानी का भी पेट घड़ा था।
                        खूब वे खाते छक-छक-छक कर
                        फिर सो जाते थक-थक-थककर।
                        काम यही था बक-बक, बक-बक                    
            नौकर से बस झक-झक, झक-झक
क्या यह कविता पारम्परिक ढंग की राजा-रानी पर लिखी कविता है? क्या यहां वही सामंतीय मूल्यों वाला राजा है जिसके सामने जबान खोलना भी अपने को सूली पर चढ़ाने का न्योता देना है? यह प्रजातंत्र के मूल्यों को स्थापित करती हुई एक ऐसी कविता है जिसे पढ़कर ताली बजा-बजा कर मजा लिया जा सकता है। कल्पना पहले के साहित्य में भी होती थी और  आज के साहित्य में भी उसके बिना काम नहीं चल सकता। अंतर यह है कि आज के बालक को कल्पना विश्वसनीयता की बुनियाद पर खड़ी चाहिए। अर्थात वह ’ऐसा भी हो सकता’ है ’ अथवा’ ‘ऐसा भी हुआ होगा’के दायरे में होनी चाहिए अन्यथा वह रद्दी की टोकरी में फेंक देगा। दूसरे शब्दों आज का बालसाहित्यकार सी रचनाएं नहीं देना चाहता जो अन्धविश्वास, सामन्तीय परम्पराओं, जादु -टोनोँ,अनहोनियो अथवा निष्क्रियता आदि मूल्यों की पोषक हों। आज की कहानियों में भी भूत, राजा, परी आदि हो सकते  लेकिन वे अपने पारम्परिक रूप से हटकर, ऊपर संकेतित पुरानेपन से अलग तरह के होते हैं। आज की कहानी की परी ज्ञान परी हो सकती है, संगीत परी हो सकती है। भूत औरों को बेवकूफ बना रहा शैतान या दुष्ट बच्चा हो सकता है जिसकी पोल अंतत: खुलनी ही होती है। चांद के अनुभव पर एक कविता है- बालस्वरूप राही की। यह कविता चांद पर नहीं है बल्कि नई दृष्टि पर है। एक वैज्ञानिक समझ किस प्रकार रचना में पूरी तरह रचा-बसा कर पेश की जा सकती है कि वह एक कलात्मक अनुभव के आनन्द से लहलहा उठे, इसका नमूना है यह कविता। हमारे यहाँ विज्ञान और आधुनिकता का मात्र अलाप करते रहने वाले इससे बहुत कुछ सीख सकते हैं। कविता इस प्रकार हैः

            चंदा मामा, कहो तुम्हारी शान पुरानी कहाँ गई,
            कात रही थी बैठी चरखा, बुढ़िया नानी कहाँ गई?
            सूरज से रोशनी चुराकर चाहे जितनी भी लाओ,
            हमें तुम्हारी चाल पता है, अब मत हमको बहकाओ।
            है उधार की चमक-दमक यह नकली शान निराली है
            समझ गए हम चंदा मामा, रूप तुम्हारा जाली है।

     
बाल-विज्ञान लेखन और राजा-रानी, परी कथाओं,लोककथाओं पुराणों या इतिहास पर आधारित रचनाओं के संदर्भ में जो विवादयुक्त टिप्पणियां होती हैं उनके पीछे न तो रचनाओं के आधार पर सुचिन्तित मंथन दिखता है और न ही खुला विचार। देवेंद्र मेवाड़ी के शब्दोँ में- विज्ञान लेखन करते समय बच्चों को मन के आँगन में बुलाना होगा और जैसे उनसे बातें करते करते या उन्हें किस्से- कहानियाँ या गीतों की लय मेँ विज्ञान की बातें बतानी होंगी विज्ञान की कोई जानकारी कथा -कहानी  के रूप में दी जाएगी  तो उसे बच्चे मन लगा कर पढ़ेंगे । ध्यान दियाजाए कि यहां जानकारी देने पर अधिक जोर है। कविता, कहानी आदि फॉर्म भर हैं। मेरी दृष्टि में बालसाहित्य से तात्पर्य ऐसे साहित्य से है जो बालोपयोगी साहित्य से भिन्न रचनात्मक साहित्य होता है अर्थात जो विषय निर्धारित करके शिक्षार्थ लिखा हुआ न होकर बालकों के बीच का अनुभव आधारित रचा गया बाल साहित्य होता है । वह कविता, कहानी नाटक आदि होता है न कि कविता, कहानी, नाटक आदि के चौखटे अथवा शिल्प मे भरी हुई विषय प्रधान जानकारी, शिक्षाप्रद  अथवा उपदेशपूर्ण सामग्री होता है। वह विषय नहीं बल्कि विषय के अनुभव की कलात्मक अभिव्यक्ति होता है। दूसरे शब्दों में कलात्मक अनुभव होता है । इसीलिए वह मौलिक भी होता है। मोबाइल भी कहानी का विषय बन सकता है लेकिन तब जब वह रचनाकार के किसी अनुभव विशेष का अंग बन जाए। कोरी जानकारी उपयोगी हो सकती है लेकिन रचना बनने के लिए उसे रचनात्मक शर्तोंसे गुजरना होता हॆ और रचनात्मक शर्तोंका आशय केवल कविता या कहानी के फॉर्म का उपयोग करना नहीं होता। कोई जब कहता हॆ कि कम्प्यूटर जी लॉक कर दीजिए तो वह कहने या अभिव्यक्ति की खूबसूरती है अन्यथा लॉक तो आदमी ही करता है। आज का श्रेष्ठ बालसाहित्यकार पहले की सोच के अनेक बालसाहित्यकारों से इस दृष्टि से भी भिन्न है ।
कुल मिलाकर कहा जाए तो हिन्दी का बालसाहित्य  लोरी,, पालना गीतो, प्रभाती, दोहा, गज़ल, पहेली, कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण, जीवनी, नाटक आदि अनेक रूपों और  विधाओं से सम्पन्न है । आज का बालसाहित्य तो कितने ही सार्थक प्रयोगों से समृद्ध है ।हिन्दी के बालसाहित्य और  उसमें भी कविता के क्षेत्र में उसकी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति को रेखांकित करते हुए एक समय में (स्वातंत्रोत्तर बालसाहित्य के संद्र्भ में) प्रतिष्ठित बालसाहित्यकार और  नंदन के संपादक स्व० जयप्रकाश भारती ने उस समय को बालसाहित्य का स्वर्णिम युग कहा था जिसे बड़े पैमाने पर स्वीकार भी किया गया एकआध उपेक्षा-योग्य मामूली कुंठित और पूर्वाग्रही प्रतिक्रिया के। तो भी सच यह भी है कि हिन्दी के बालसाहित्य के सही मूल्यांकन और उसके सही रेखांकन का अभाव है। जानकारियां हैं, कुछ हद तक इतिहास और  शोध-कार्य भी उपलब्ध होने लगे हैं, लेकिन अपने सही अर्थों में. समीक्षात्मक एवं आलोचनात्मक साहित्य की दृष्टि से वह फिलहाल अपने बचपने में ही है। फिलहाल, किसी सुदृढ़-सुचिन्तित सौन्दर्यशास्त्र  और  सम्यक या संतुलित दृष्टि के अभाव में  आज की तथाकथित उपलब्ध आलोचना प्राय: आलोचक की पसन्द या नापसन्द पर अधिक टिकी होती है। इस क्षेत्र में फिलहाल प्रकाश मनु और डॉ. शकुंतला कालरा का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

हिन्दी के बालसाहित्य के प्रारम्भ को लेकर थोड़ा विवाद है। बालसाहित्य की परम्परा को  खोजते और  सामने लाते हुए हिन्दी के सुप्रतिष्ठित बालसाहित्यकार और  चिंतक निरंकारदेव सेवक, स्नेह अग्रवाल और  जयप्रकाश भारती  के अतिरिक्त उमेश चौहान, डॉ, दिग्विजय कुमार सहाय आदि ने इस ओर कुछ विचार किया है । इन विचारों के अनुसार हिन्दी का बालसाहित्य 14 वीं-15वीं शताब्दी के आसपास से उपस्थित माना गया है । अर्थात अमीर खुसरो, सूरदास, जगनिक द्वारा लिखित आल्हा खंड, राजस्थानी कवि जटमल (1623) की रचना गोरा बादल आदि में बालसाहित्य की उपस्थिति मानी गई है । जहां तक बालक की पहली पुस्तक का प्रश्न है  तो गोरा बादल को माना गया है  जिसे एक मुकम्मल बाल काव्य के रूप में स्वीकार किया गया। मिश्र बंधुओं ने पुस्तक में खड़ी बोली का प्राधान्य माना है । यदि इस विवाद में न जाएं तो हिन्दी के बालसाहित्य का वास्तविक प्रारम्भ आधुनिक काल से अर्थात बीसवीं सदी के थोड़े पीछे-आगे से तो मानना ही होगा। सच तो यह है  कि भारत की प्रमुख भाषाओं मसलन असमी बंगाली, मराठी, तमिल, कन्नड़, हिन्दी, मलयालम, उड़िया आदि के आधुनिक बाल साहित्य के इतिहास पर नजर डालें तो हम पाएंगे कि (अपने वास्तविक अर्थों मेंइसका प्रारम्भ 19 वीं सदी के अंत और 20 वीं सदी के प्रारम्भ में हुआ था। कुछ अन्य भाषाओं में यह बाद में शुरु हुआ था। उदाहरण के लिए एक उत्तर-पूर्व की भाषा मणिपुरी मेंमुद्रित रूप में बाल साहित्य की जरूरत 1940 के दशक से 1950 के दशक में महसूस होने लगी थी। 1947 के बाद बाल साहित्य की अनेक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ। प्रमुख भाषाओं के मामले में, बालसाहित्य की शुरुआत के कारणों में से एक शिक्षा के लिए पाठ्य पुस्तकों की तैयारी की जरूरत था। ईसाई मिशनरी स्कूल स्थापित किए गए और उन के कारण नए प्रकार की शिक्षा प्रणाली ने नई शैली की कहानियां लिखने के लिए प्रेरित किया।
शास्त्रीय और  पहले के बाल साहित्य के श्रेष्ठ हिस्से के प्रति बिना किसी पूर्वाग्रह के कहा जा सकता है  कि स्वतंत्रता के बाद के भारतीय बाल साहित्य में बच्चों के अनुकूल ऐसा साहित्य लिखा गया है जो पुराने साहित्य की तरह उपदेशात्मक नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि हमें बच्चों को शास्त्रीय (classical) बाल साहित्य की जानकारी से वंचित रखना चाहिए। बंगाली में, जोगिंद्रनाथ  सरकार द्वारा 1891 में लिखित कहानियों की पुस्तक 'हाँसी और  खेला (हँसना और  खेलना) ने पहली बार कक्ष-कक्षा- परंपरा को तोड़ा और यह बच्चों के लिए पूरी तरह मनोरंजनदायक बनी। संयोग से कुछ सीख भी लेना एक अतिरिक्त लाभ था।
बालसाहित्य के नाम पर एक अरसे तक बालक के लिए साहित्य लिखा जाता रहा है (यूं आज भी ऐसा होते देखा जा सकता है ) जबकि आज बालक का साहित्य लिखा जा रहा है। पिछले वर्षों में यह समझ बहुत शिद्द्त से आई है कि बालक के लिए नहीं बल्कि बालक का बाल-साहित्य लिखा जाना चाहिए।इसका अर्थ है कि बाल-साहित्यकार को बालक बन कर साहित्य रचना होता है।  जब हम बालक के लिए लिखने का प्रयत्न करते हैं तो वह बालक पर प्राय:लादे जाने वाले बालसाहित्य का अभ्यास होता है।आज के तैयार बालक के लिए प्राय: उपदेशात्मक और उबाऊ होता है।आज का बाल-साहित्यकार सिखाने की पुरानी  शैली के स्थान पर साथ-साथ सीखने की शैली में अपने को अभिव्यक्त करता है। वह अनुभव और ज्ञान के माध्यम से अर्जित अपनी समझ का बालकों को सहज भागीदार बनाता है।  आज का बाल‌-साहित्यकार कमोबेश बालक का दोस्त बनकर उसके सुख-दुख का, उसकी उत्सुक्ताओं और कठिनाइयों का यानि उसके सबकुछ का साझीदार होता है। अंग्रेजी के बाल साहित्य  समीक्षक निकोलस टकर का मत भी इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य है- विश्व के नए बाल साहित्य के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह एक्दम साफ-सुथरा हो, उसकी कहानियां एकदम आदर्शपरक हों और उनका अंत सदा सुखदायी ही हो। यह तो वास्तव में अपने समयकाल से जुड़ा प्रश्न है। यदि बाल साहित्य में  पाठक यह  समझ लेता है कि इसके पीछे एक सुदृढ़ आग्रह है कि जीवन की कठिनाइयों  से जूझने  और जीवन जीने का वही  फार्मूला अपनाओ जो हम  बता रहे हैं तो वह तत्काल उसे छोड़ देता है। ( भारतीय बाल साहित्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, पृ. 15)।  वस्तुत: बालसाहित्य सृजन बहुत ही चुनौती का काम होता है। नामवर सिंह ने ठीक ही लिखा है ,"उनके लिए तो साहित्य वह है जो उन्हें हिलाये, डुलाये और दुलराये भी। यानी वे खुशी से झूम उठें।"
हमें यह भी समझ होगा (हालांकि समझा जा रहा हऐ) कि विविधताओं से भरे भारत के संदर्भ में यह बालक बनना क्या है । यहां आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक, आयु आदि कारणों से बालक का भी विविधताभरा स्वरूप है । महानगरी बालक का स्वरूप वही नहीं है जो कस्बाई या ग्रामीण या जंगलों में रहने वाले बच्चे का है। आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न बच्चे की मानसिकता वही नहीं है जो गरीबी में पल रहे बच्चे की है। आज के कितने ही बच्चों के सामने इंटरनेट, फिल्म तथा अन्य मीडिया की सुविधा के चलते एक नई दुनिया और उसके नए भाषा-रूप का भी विस्फोट हो रहा है और वे उससे प्रभावित हो रहे हैं। अत: आज का बाल-साहित्यकार बालक के बारे में परम्परा भर से काम चलाते हुए अर्थात उसके विकास की उपेक्षा करते हुए, सामान्य कुछ लिखकर अपने कार्य की इति नहीं कर सकता। सामान्य रूप और दृष्टि हो सकती है, अनुभव, उसका नया बोध और  उससे जन्मी नई दृष्टि नहीं। यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी के बालसाहित्य में जहां भाव और भावबोध की दृष्टि से बालक के नए-नए रूप उभर कर आए हैं वहीं रूप तथा भाषा-शैली में भी नए-नए अन्दाज और प्रयोग सम्मिलित हुए हैं, भले ही कुछ पहले की सोच में गिरफ्त जन उसे स्वीकार करने में कठिनाई झेल रहे हों। जब हम बालक की बात करते हैं तो हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश में अमीरी-गरीबी, जाति-पांत, भौगोलिक तथा अन्य स्थितियों आदि के कारण बालक बंटा हुआ है । आज के कुछ साहित्यकारों का उस ओर ध्यान हैं , लेकिन कल लिखे जाने वाले साहित्य में और ध्यान दिया जाना अपेक्षित है। अपने -अपने अनुभव के दायरों के बच्चों के बालमन को समझते हुए रचना होगाग्रामीण परिवेश के बच्चों के साथ -साथ आदिवासी बच्चों तक ठीक से  पहुंचना होगा।अभी यह चुनौती है। नए ढंग से, विशेष वर्ग के बालक के मन की एक कविता ’छाता’ है जो चकमक में प्रकाशित हुई थी-

छाता
 
सड़क!
हो जाओ न थोड़ी ऊंची
बस मेरे नन्हें कद से थोड़ी ऊंची।

मैं आराम से निकल जाऊंगा तब
तुम्हारे नीचे-नीचे
घर से स्कूल तक।

न मुझे धूप लगेगी, न बारिश।

हमारे घर में
नहीं है न छाता, सड़क!

एक और कविता देखिए –

गुल्लू का कम्प्यूटर (डॉ. प्रदीप शुक्ल)
      गुल्लू का कम्प्यूटर आया
      पूरा गाँव देख मुस्काया
      दादी के चेहरे पर लाली
      ले आई पूजा की थाली
      गुल्लू सबको बता रहा है
      लाईट कनेक्शन सता रहा है
      माउस उठा कर छुटकू भागा
      अभी अभी था नींद से जागा
      अंकल ने सब तार लगाये
      गुल्लू को कुछ समझ न आये
      कंप्यूटर तो हो गया चालू
      न ! स्क्रीन छुओ मत शालू
      जिसे खोजना हो अब तुमको
      गूगल में डालो तुम उसको
      कक्का कहें चबाकर लईय्या
      मेरी भैंस खोज दो भैय्या
      बड़े जोर का लगा ठहाका
      खिसियाये से बैठे काका !!

      आज ऐसी कहानियां उपलब्ध होने लगी हैं जो आज की विद्रूपताओं को उजागर कर रही हैं , मसलन लड़कियों के नाजायज स्पर्शों की अनुभवसम्पन्न समझ दे रही हैं ।गुस्ताखी माफ हो,  स्वयं मेरी ही कहानी है -"सॉरी लू लू जो आलेख प्रकाशन , दिल्ली से प्रकाशित मेरी  पुस्तक "बचपन की शरारत’ (सम्पूर्ण बाल गद्य रचनाएं) में संकलित है । आनेवाले साहित्यकारों को  ऐसी और  अन्य बुराइयों से जूझ रहे बच्चों की दुनिया में भी झांक कर लिखना होगा। क्षमा शर्मा ने उचित ही लिखा है कि "बहुत से लोग समझते हैं कि फैंटेसी लिखना बहुत आसान है और उसमें कोई तर्क नहीं होता जबकि फैंटेसी लिखना, ऎसी कथा कहना जिसमें बच्चों का कुतूहल और जिज्ञासा जग सके एक कठिन काम है. इसीलिए अक्सर लोग कहानी लिखने का एक आसान सा रास्ता अपनाते हैं. सरकार के जो नारे चल रहे होते हैं वे उन पर कहानियां कविताएं लिखते हैं. ऐसी कहानियां हमें हजारों की संख्या में मिलती हैं जो बेहद अपठनीय होती हैं. इन दिनों पर्यावरण और जेंडर सेंसिटाइजेशनपर लिखने वालों की भरमार है। ये कहानियां इतनी उबाऊ होती हैं कि इनके शुरुआती वाक्य पढ़ने के बाद सहज ही समझ में जाता है कि आगे क्या होगा।" जानवर, पेड़ आदि मनु्ष्य के सहजीवी हैं। रचनाकार अपने दृष्टिसम्पन्न अनुभव की अभिव्यक्ति के लिए इनका कलात्मक उपयोग यदि विश्वसनीयता के दायरे में रहकर करता है तो वह अभिव्यक्ति की क्षमता बन जाता है। मैं बाल कहानियों में से जानवरों को बाहर करने का कतई पक्षधर नहीं रहा हूं। वह संभव भी नहीं है। हां नए ट्रीटमेंट की जरूरत रहती है। जानवर पात्र होगा तो मनुष्य-पाठक को उसके मन की बात प्रेषित करने के लिए मानव-भाषा का ही उपयोग करना पड़ेगा। यही पेड़, फूल आदि के संदर्भ में भी सत्य हॆ। और इसे एक कुशल रचनाकार बिना मानवीकरण के भी सफलता के साथ सामने ला सकता है।
 मोहन राकेश की एक कहानी सुनहरा मुर्गा, काला बंदर, लाल अमरूद का पेड़ है। यह कहानी रोचक है और इसमें जो संदेश  निकल रहा है वह कहानी की बुनावट का हिस्सा बन कर आया है और कहीं से भी चस्पां या आरोपित होकर नहीं। भले ही पात्र आदमियों के साथ-साथ जानवर और पेड़ हैं लेकिन जानवर और पेड़ आदमियों की दुनियां में इस प्रकार खपाए गए हैं कि वे न तो अलग-थलग लगते हैं और न ही उन पर मानवीकरण हावी हुआ है। आदमियों की अपनी दुनिया है और उनकी अपनी। उन्हें आदमियों से संवाद करते हुए भी नहीं दिखाया गया है। विश्वसनीयता का भी पूरा ध्यान रखा गया हॆ। और वह भी कलात्मकता की कीमत पर नहीं। प्रारम्भ में कोई भी स्वीकार करेगा कि कसाई की निगाह मुर्गे पर है , बंदर पर चिड़ियाघर वालों की और अमरूद के पेड़ पर विद्यार्थियों ऒर लोगों की। कोई समझदारआपत्ति कर सकता हे कि ये तीनों जिस तरह एक दूसरे की रक्षा करते हैं वह कैसे संभव है? बंदर को किसी ने अपनी पीठ पर मुर्गे को बॆठा कर पेड़ पर ले जाते तो नहीं देखा। या पेड़ ने अपने आप अमरूद कैसे टपकाए। तो यही तो कलात्मकता है। जब बच्चे ऎसे वर्णन पढ़ते हॆं तो कहानी का कलात्मक अनुभव सहज ही दोस्तों में एक दूसरे की मदद करने के भाव को सर्वोपरि कर देता है। और यूं भी मुर्गा खुद उड़ कर पेड़ पर नहीं जा सकता और पेड़ से फल पक कर टपक भी सकता है। यह तो विश्वसनीयता के दायरे में आता ही है न? एक और वर्ण है जो पेड़ का मानवी करण जैसा लगता है- बंदर को पेड़ अपनी घनी शाखाओं में छिपा लेता हॆ। यहां बिना पेड़ के मानवी करण के आशय तो स्पष्ट हॆ न? इस रोचक कलात्मक अभिव्यक्ति के स्थान पर यह भी लिखा जा सकता था कि बंदर पेड़ की घनी शाखाओं में छिप गया। कहानी का अगला पड़ाव है विपत्ति का आना-वर्षा और ओले के रूप में। ऐसे में बिगाड़ में दूसरों पर दोष मढ़ा जाता हैवाली कहावत सामने आती है। एक-दूसरे पर आरोप लगाने का सिलसिला शुरु होता है और अविश्वास का जन्म होता हॆ। दोस्ती भंग हो जाती है। और कहानी के अंतिम पड़ाव में सवाभाविक ढ़ंग से चित्रित किया गया है कि दोस्ती के भंग होने पर, एक -दूसरे की मदद न करने की स्थिति में, कसाई, चिड़ियाघर वाले और उनके संदर्भ में अपने बुरे इरादों में सफल हो जाते हैं। कहानी खत्म हो जाती है। तो मेरी निगाह में यह कहानी है न कि कहानी के फॉर्म में कोई संदेश या सूचना ठूंसने का प्रयास। कहानी के मज़े के साथ-साथ संदेश खुद ब खुद उभर कर आता है। वर्णन में कल्पना हे लेकिन विश्वसनीयता की बुनियाद पर। यहां शिल्प उजागर नहीं है।


एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या व्यापक संदर्भ में बच्चे को एक ऐसा पात्र मान लिया जाए जिसमें बड़ों को अपनी समझ बस ठूंसनी होती है। मैं समझता हूं कि आज जरूरत बच्चे को ही शिक्षित करने की नहीं है, बड़ों को भी शिक्षित करने की है। इसलिए बाल साहित्यकार के समक्ष यह भी एक बड़ी और दोहरी चुनौती है। वस्तुत: सजग लोगों के सामने मूल चिन्ता यह भी रही है कि कैसे  रूढ़ियों में जकड़े मां-बाप और बुजुर्गों की मानसिकता से आज के बच्चे को मुक्त करके समयानुकूल बनाया जाए। साथ ही यह भी कि आज के बच्चे की जो मानसिकता बन रही है उसके सार्थक अंश को कैसे प्रेरित किया जाए और कैसे दकियानूसी सोच के दमन से उसे बचाया जाए। मैंने अक्सर कहा है कि बाल-साहित्य सबके लिए होता है-केवल बच्चों के लिए नहीं। बाल-साहित्य बड़ों को भी सुसंस्कृत कर सकता है।बाल साहित्य बच्चों का तो सच्चा दोस्त होता ही है, बड़ों को भी उनका सच्चा दोस्त बनने की राह दिखाता है

थोड़ी बात इलैक्ट्रोनिक माध्यम और टेक्नोलोजी के हौवे की भी कर ली जाए जिन्होंने विश्व के एक गांव बना दिया है। यह बात अलग हैं कि भारत में आज भी अनेक बच्चे इनसे वंचित हैं। इनसे क्या वे तो प्राथमिक शिक्षा तक से वंचित हैं। कितने ही तो अपने बचपन की कीमत पर श्रमिक तक हैं। अपने परिवेश ऒर परिस्थितियों के कारण अनेक बुरी आदतों से ग्रसित हॆं।  वे भी आज के बाल साहित्यकार के लिए चुनॊती होने चाहिए ? खैर जिन बच्चों की दुनिया में नई टेक्नोलोजी की पहुंच है उनकी सोच अवश्य बदली है। अच्छे रूप में भी ऒर गलत रूप में भी। विषयांतर कर कहना चाहूं कि मैं टेक्नोलोजी या किसी भी माध्यम का विरोधी नहीं हूं, बल्कि वे मानव के लिए जरूरी हॆं। उनका जितना भी गलत प्रभाव है उसके लिए वे दोषी नहीं हॆं बल्कि अन्तत: मनुष्य ही है जो अपनी बाजारवादी मानसिकता की तुष्टि के लिए उन्हें गलत के परोसने की भी वस्तु बनाता है।फिर चाहे वह यहां का हो, पश्चिम का हो या फिर कहीं का भी हो। होने को तो पुस्तक के माध्यम से भी बहुत कुछ गलत परोसा जा सकता है। तो क्या माध्यम के रूप में पुस्तक को गाली दी जाए। आज बहुत सा बाल साहित्य इन्टेरनेट के माधय्म से भी उपलब्ध है।अत: जरूरत इस बात कि है कि दोनों के बीच बहुत ही सार्थक रिश्ता बनाया जाए।किताबों की किताबें भी कम्प्यूटर पर पढ़ी जा सकती हैं। इसके लिए कितने ही वेबसाइट हैं।

अंत में कहना चाहूंगा कि भले ही आज सृजन बल्कि उत्कृष्ट सृजन की दृष्टि से समकालीन हिन्दी बाल साहित्य की स्थिति बहुत अच्छी और संतोषजनक हो चुकी है। ठीक है कि आज भी पारम्परिक सोच और पारम्परिक ढंग का बालसाहित्य लिखा और छपा जा रहा हऐ लेकिन ऐसे बालसाहित्य  की भी कमी नहीं है जिसमें समसामयिक घटनाओं, परिवेश और भविष्य की दुनिया मौजूद है। जिसमें आज के बच्चे की नब्ज और धड़कन है। स्कूली शिक्षा-पद्धति और बस्ते के बोझ की विडम्बना को लेकर सुरेंद्र विक्रम की एक बहुत अच्छी-मार्मिक कविता है।  आज नई पीढ़ी में भी समर्पित और सशक्त रचनाकारों की अच्छी-खासी संख्या है जिनके नामों की गणना करना फिलहाल छोड़ रहा हूं,  लेकिन, मेरे विनम्र मत में, इसके समक्ष आज वास्तविक चुनौती इसकी सही जगह और आकलन को लेकर बनी हुई है, बावजूद  कुछ बेहतर हो चुकी स्थितियों के वस्तुत: आज भी लगता है  कि हिन्दी में  लिखा जा रहा बाल-साहित्य जो ऊंचाई छू चुका है , तो उसकी ठीक से पहचान ही हो पा रही है और ही उसे कायदे से उसकी उपयुक्त जगह ही मिल पा रही है। इसका प्रमुख कारण, मेरी निगाह में, इसे बड़ों के लिए लिखे जा रहे सृजन के समक्ष समझा जाना ही है । कोई भी सृजन, अगर वह सृजन है तो किसी भी सृजन के समक्ष माना जाना चाहिए और उसे साहित्य के इतिहास में ससम्मान स्थान दिया जाना चाहिए।

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 प्रहार हो, फिर प्रहार हो/बस न कहूंगा- त्रिलोचन
               --दिविक रमेश

      त्रिलोचन की तरह त्रिलोचन की कविता ऊपरी तौर पर सामान्य, अपने पहनावे में सादी लग सकती है लेकिन जब हम उसके भीतर झांकते हैं तो उतनी ही असाधारण लगने लगती है जितने त्रिलोचन। इसीलिए त्रिलोचन के व्यक्तित्व को जानना उनकी कविताओं को जानने का एक अतिरिक्त लाभ और सुविधा देता है।शब्दों के रेशे-रेशे से अवगत कराते हुए जब त्रिलोचन बोलते थे तो मन ही मन, उनकी कविताओं में प्रयुक्त अनेक शब्दों का रहस्य खुलता चलता था। जब राह चलते-चलते वे किसी पेड़ के सामने रूक जाते और पूछते  -- ‘‘जानते हैं, यह कौन सा वृक्ष है?’’ और जवाब की परवाह किए बिना ही पत्तों की बनावट, उसके फूलों के गुण आदि के संबंध में जानकारी देते तो सहज ही समझ में आने लगता कि प्रकृति की सम्पदा के जो अनदेखे-से रूप त्रिलोचन में भरे पड़े हैं उनका रहस्य क्या है।
 त्रिलोचन की कविताएं भी त्रिलोचन की तरह रोक कर कभी पत्तों के खास समय में खास रंग और ढंग की ओर तो कभी बादलों की ओट में सूरज के हो जाने के बावजूद बची चमक की ओर ध्यान खींचती चलती हैं। त्रिलोचन का पूरा व्यक्तित्व दरअसल अपने साथ चल रहे व्यक्ति को सृजनशील बना देता था। यह गुण कविताओं में भी मौजूद है। उनकी कविताओं को पढ़ना भी सृजनशील होने का खतरा उठाना है। खतरा शब्द खासतौर पर कवि-पाठकों के संदर्भ में कह रहा हूँ। त्रिलोचन की सूक्ष्म अवलोकन क्षमताओं पर मुग्ध हुए बिना नहीं रहा जा सकता।  ‘‘बेले के पत्ते’’ कविता पढि़ए या इन कुछ पंक्तियों को पढि़ए, आपको मेरी बात का यकीन आ जाएगा --
            ‘‘बादलों ने हल्की अंगड़ाई ली
            एक ओर जरा चमक बढ़ गई
            हवा नए अंखुओं से यों ही बतियाती है
            उनका सिर हिलता है
            फूल खिलखिलाते हैं

त्रिलोचन ने अत्यधिक लिखा है। बहुत-सा अभी सहज उपलब्ध भी नहीं है। एक प्रश्न बार-बार उठता है कि कैसे नई कविता के बहुत से धुरंधर, सुविख्यात, सुचर्चित कवियों को पीछे छोड़ कर यह कवि युवा पीढ़ी के एक-बहुत बड़े हिस्से का आत्मीय एवं अनुकरणीय कवि बन गया ? त्रिलोचन से पूछा तो उनका जवाब था-  ‘‘देश की परिस्थिति बदल गई है। औरों के यहां युगानुरूप सामग्री नहीं मिल रही थी, इसलिए ये तीन कवि (नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन) उभर गए।’’ माना जाता है कि त्रिलोचन की भाषा और उनके द्वारा अपनी कविताओं में चित्रित आसपास की जिन्दगी के साधारण व्यक्ति-चरित्र और छोटी-छोटी स्थितियों ने युव-तम पीढ़ी को उनके साथ जोड़ा है। कारण कुछ भी हो लेकिन यह तय है कि त्रिलोचन की कविता का महत्व वे लोग भी मानने को विवश हो गए जो नहीं मानते थे। लेकिन यह इस कवि की खूबी रही है कि अपने इस ‘‘अगौते’’ के लिए इसने ‘‘समझौते’’ की आधुनिक समझदारीपूर्ण पद्धति का अनुसरण नहीं ही किया। इसने प्रतीक्षा की।

      त्रिलोचन की कविताओं के संबंध में यह तो प्रायः सभी मानते हैं कि उनका अनुभव का दायरा बहुत ही विस्तृत है और उनमें जन तथा प्रकृति की संवेदनाएं पूरे वेग से धड़कती हैं। यह भी माना गया है कि इनकी कविताएं मूलतः किसान-चेतना की कविताएं हैं। तो भी यह प्रश्न रह जाता है कि इनकी कविताओं का वह कौन सा पक्ष है जो इन्हें विशिष्ट बनाता है। कला या रूप की दृष्टि से तो यह सर्वमान्य तथ्य है कि सॉनेट के क्षेत्र में त्रिलोचन का काम अद्वितीय है। लेकिन फ्री वर्स के जमाने में एक स्पष्ट बंधन या अनुशासन को लेकर लिखने वाला कवि कैसे आधुनिक और नया है -- यह प्रश्न अभी तक लोग करते हैं। मान्य आलोचक भी अगर-मगर के साथ ही उन्हें आधुनिक या नया कहने को तैयार हैं। यह बात अलग है कि शमशेर जैसे कवि ने आलोचना के जनवरी, 1952 के अंक में त्रिलोचन शास्त्री को बहुत महत्वपूर्ण कवि घोषित करते हुए स. ही. वात्स्यायन की पारखी दृ्ष्टि को ही चुनौती दे डाली थी। इसी तथ्य से बल ले स्वयं मैंने नये कवियों में त्रिलोचन को सम्मिलित करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए अपना शोध-प्रबन्ध लिखा था -- नये कवियों के काव्य-शिल्प सिद्धान्त। दूसरी ओर निस्संदेह इस कवि की कविता में पुरानी कविता के से नैतिक मसले, जीवन-मरण के प्रश्न, घृणा-पाप पर प्रतिक्रिया, पूरी मानवता के प्रति अनुराग आदि भाव मिल जाते हैं और कहीं-कहीं उपदेशात्मक स्वर भी मिल जाते हैं।

      मैं समझता हूँ कि सबसे बड़ी खूबी तो यही है कि कवि, समग्र प्रभाव के रूप में, अपनी भाषा, तथ्य और एप्रोच की दृष्टि से रोमानी नहीं है। जीवन से सीधा और सधा हुआ साक्षात्कार जितना इस कवि में मिलता है वह बहुत कम देखने में आता है। आप यहां न तो बड़ी-बड़ी बातें बनाता हुआ रोमानी आदमी पाएंगे और न ही जीवन की विषम परिस्थितियों से पीठ दिखाता हुआ रोमानी आदमी। इन कविताओं का आदमी सहज-स्वाभाविक आदमी है जो दुखों से कष्ट की चेतना भी ग्रहण करता है और सुखों से आनंदित होता है। कवि के पास क्योंकि एक स्वस्थ जीवन-दृष्टि है इसलिए वह न तो दुखों को ‘‘ग्लोरिफाई’’ करते हुए ‘‘दर्द को दर्द की दवा’’ का दर्शन प्रस्तुत करता है और न ही दुखों से कातर होकर जीवन से कूच कर जाने का गलत रास्ता दिखाता है। यानी न तो यहां भुनभुनाने-बड़बड़ाने वाला रोमानी आवेश है और न ही हीन भावना से आच्छादित चिपचिपापन। इस अर्थ में त्रिलोचन की कविता ‘‘जीवन के’’ महत्व की कविता है। इन्हें आप संघर्ष की कविता भी कह सकते हैं लेकिन यह कविता है मानव जीवन से सीधी-सहज जुड़ी हुई। कवि मनुश्य की स्थिति को स्पष्टतः जानता है कि ‘‘मन जब जो मांगता है। यदि वह नहीं होता। तो उदास होता है। ‘‘लेकिन जिस व्यक्ति का दर्शन यह हो जाए कि ‘‘राह पर गया/अब मैं/चलना है/चलता हूँ/दिन हो या रात/बाधाएँ आएँ’’ अथवा जिसकी धारणा ही यह हो कि ‘‘कवि भारी पत्थर को अपनी छाती पर रखकर बिना रोये बहुत दूर तक चलता है या जिसके विश्वास में यह बात आ जाए कि ‘‘मौत भी रूकती नहीं तो जन्म भी रूकता कहां है’’ या जिसने इस प्रकार की तैयारी कर ली हो कि ‘‘चाहे गड़ी हो कई अनियां/अभी और भी शर छूटने वाले/एक से तू घबरा गया है/यहां एक से एक हैं लूटने वाले,’’ वह भला दुखों से या अपनी चाहतों के अभावों से अपनी राह कैसे छोड़ बैठेगा।’’ उसकी अपने प्रति विश्वास की दृष्टि झूम-झूम कर आशा भरे, सृजन भरे गीत गाएगी -- ‘‘बादल उठे अकाश भर गया।’’

      त्रिलोचन की बहुत सी कविताएँ शैली की दृष्टि से ऐसी लगती हैं कि मानो वे एकदम उन्हीं के सुख-दुख की कविताएँ हैं। लेकिन जब हम जरा भी उन्हें खोलते हैं तो एक पूरी की पूरी मानव-प्रकृति खुलती हुई नजर आती है। उनकी कविता का एक अंश है - ‘‘चिन्ता क्या /शंका क्या/बुरा क्या अकेलापन’’ इन पंक्तियों से लगता है जैसे वे अपने अकेलेपन को गौरवान्वित कर रहे हैं। जैसे वे समाजोन्मुख नहीं हैं। लेकिन यह वास्तविकता नहीं है। ये पंक्तियां असल में  उन तमाम लोगों की ओर से हैं जो किसी जीवन-मूल्य का जीवन-दर्शन को फैशन के बतौर नहीं बल्कि अपने जीवन को जीने की जरूरत के रूप में अपनाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपनी राह पर बढ़ने पर विवास रखते हैं और अपने जीवन-रत्न को दूसरे जीवन-रत्नों के लिए बिना किसी हानि-लाभ का हिसाब करते हुए समर्पित कर देते हैं। ऐसे कवि की धारणा ही यह बन जाती है कि कवि जो आदर्श कविता में प्रस्तुत करता है,  समय आने पर उसे उस पर बलि हो जाने के लिए तैयार भी रहना चाहिए। प्रसंगतः कह दूं कि निजी लाभों के लिए आदर्शों को झट से बदल लेने के सुविधाजनक युग में भी ऐसी बात मानने वाला कवि भले ही अपवादों की श्रेणी में पहुंच जाता है और बहुत से समझदार लोगों की नजर में मूर्ख भी हो सकता है, लेकिन ऐसे ही व्यक्ति से  आदर्श या जीवन-दर्शन भी गौरवान्वित हुआ करता है। ऐसे ही व्यक्ति ‘‘राह’’ को भुनाने वाले व्यक्तियों को भीतर ही भीतर तिलमिलाते ही रहते हैं और भयभीत भी किए रखते हैं। त्रिलोचन के ‘‘मैं’’ या उनकी जीवन-दृष्टि आदि को समझने के लिए यूं तो उनकी कविताओं में बहुत से अंश मिल जाते हैं लेकिन पूरी की पूरी कविता ‘‘मैं तुम’’ इस दृ्ष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह कविता त्रिलोचन के पूरे काव्य-परिवेश का परिचय-पत्र है। सबसे ऊपर तो कवि जिन अनुभवों को जिन रूपों में प्रस्तुत करता है वही उसकी जीवन-दृष्टि की पुष्टि कर देता है। ‘‘कभी पूछ कर देखो/मैं कहां हूं/मैं तुम्हारे खेत में/तुम्हारे साथ रहता हूं’’ या ‘‘धूप’’ को ‘‘सूरज की खेती है’’ कहने वाले कवि को यदि कोई जीवन-दृष्टि से हीन बता दे तो उसे किसी ‘‘अकारण नाराजगी’’ का ही परिणाम कहा जा सकता है। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि सचमुच त्रिलोचन पर यह आरोप लगा है कि वे घनघोर चित्रवादी कवि हैं और उनकी कविताओं से कोई जीवन-दृष्टि निकाल लेना बहुत कठिन काम है।

      त्रिलोचन मात्र सरोकारों के कवि नहीं बल्कि सहानुभूति के कवि हैं। इसलिए वे कविता में बातें नहीं बनाते बल्कि जीवन का यथार्थ उतारते हैं -- जी हुई और जी जा रही स्थितियों को सामने लाते हैं। ऐसे में उनकी कविताओं में आया हुआ कहानीनुमा वर्णन इतना विस्तृत लगने लगता है कि बहुत से लोग उन्हें केवल घोर चित्रवादी कवि ही मानने लगते हैं। निसन्देह त्रिलोचन की कविताओं में वस्तु-वर्णन खूब मिलता है। उनकी शैली ही ऐसी है कि ऊपरी तौर पर देखने पर लगेगा कि वे वस्तु की कमेंटरी दे रहे हैं। लेकिन मेरा ऐसा समझने वाले लोगों से निवेदन है कि वे एक बार फिर त्रिलोचन की शैली पर गौर फरमायें। त्रिलोचन जिस वस्तु का चित्रण अपनी कविताओं में विस्तार से करते हैं उन्हें अपनी एक खास टैक्नीक से ‘‘वस्तु-चित्रण’’ तक ही सीमित नहीं रहने देते बल्कि उसे अर्थ की बहुत सी ‘‘लेयरस’’ वाला बना देते हैं। इनकी कविताओं में भले ही वस्तु वस्तु बनी रहती है, वे उसे प्रतीकवत इस्तेमाल नहीं करते। लेकिन वस्तु के वर्णन में लाक्षणिकता  भर देते हैं। वह एक सिद्धहस्त कवि का ही काम हो सकता है। केवल किसी वस्तु का वर्णन समझकर ही हम इनकी कविताओं को पढ़ जायेंगे तो इन्हें अधूरे रूप में ही समझ पायेंगे। ‘‘तेनजिंग और हिलारी के प्रति’’ सॉनेटस का ध्यान कीजिये। इसमें हिमालय पर विजय का चित्रण है। लेकिन जब तक पाठक इस सॉनेट में प्रयुक्त पंक्ति ‘‘मैं केवल बढ़ते चरण देखता हूँ’’ को नहीं पकड़ेगा तब तक सॉनेट के पूरे मर्म को जाने बिना वह ‘‘हिमालय’’ और ‘‘हिलारी तथा तेनजिंग’’ के लाक्षणिक अर्थों को भी नहीं समझ सकेगा। इसी प्रकार ‘‘उस जनपद का कवि हूँ’’ का 67वां सॉनेट पढ़ कर देखें। इसमें जेठ की दुपहरी का चित्रण है। आप चाहें तो जेठ की दुपहरी के सूक्ष्म चित्रण पर ही मुग्ध होकर कहते रहें कि देखिए त्रिलोचन के यहां वस्तु वस्तु बनी रहती है। लेकिन खूबी कहीं ज्यादा है जिसे पकड़ना होगा और उसकी कुंजी त्रिलोचन सॉनेट में ही रख देते हैं। इस सॉनेट के शुरू में कवि कहानी-सी कहता है। लेकिन इसके तीन स्पष्ट पक्ष हैं। एक जेठ की दुपहरी का प्रकोप, दूसरा उस प्रकोप को, लक्ष्य की पूर्ति के हित में सह जाने की दृढ़ता और तीसरा एक अंध-विश्वास का मखौल -- ‘‘हम तुम समय नहीं मुहूर्त को देख चले थे। पंखे लू के मारूत ने अविराम झले थे।’’ यदि हम अन्तिम दो पक्षों को गहराई से नहीं पकड़ पायेंगे तो निस्सन्देह इस सॉनेट में व्यक्त जेठ की दुपहरी के चित्रण मात्र पर वाह-वाह या हाय-हाय कह कर बस कर लेंगे। लेकिन दोनों पक्ष सामने आते ही ‘‘जेठ की दुपहरी’’ एक और अर्थ से चमकने लगती है। वह जीवन की दुपहरी से भी जा जुड़ती है। वस्तु वस्तु ही बनी रहे और पूरा का पूरा चित्रण जीवन के अनेक मसलों और परिस्थितियों तथा विश्वासों से ही जा जुड़े यह इस कवि का अद्भुत कमाल है। यह कमाल इनकी फ्री वर्स में लिखी कविताओं में भी मिलता है। यह जरूर है कि कभी-कभी ये फालतू या खटकने वाला विवरण भी देते लगते हैं। लेकिन बीच-बीच में ये निचोड़नुमा टिप्पणियों के आधार-स्तम्भ और नाटकीयता की सीमेंट लगाते चलते हैं। उससे कविताओं में विलक्षण चमक और मजबूती पैदा हो जाती है। तो भी खटकने वाले अंशों की सर्वथा उपेक्षा केवल इसलिए नहीं की जा सकती कि आजकल त्रिलोचन एक बड़े कवि के रूप में व्यावहारिक महत्व भी पा गए हैं।

      प्रगतिशील कवि त्रिलोचन का एक और पक्ष ऐसा है जो सोचने पर बार-बार मजबूर करता है। और कुछ लोगों के लिए वह तकलीफ-देह ही है। वह पक्ष है ऊपरी तौर पर उनकी कविताओं का शान्तमुखी होना। इनकी कविताओं में जन का दुख और उसका महत्व दोनों ही उभर कर आते हैं। लेकिन वह अपनी दीन-हीन स्थिति के जिम्मेदारों से लड़ता, उन पर बरसता, उनसे टकराता, यहां तक कि बहस करता भी नजर नहीं आता। न यहां बारूद है, न गोली, न तीर है, न तलवार, न आन्दोलनों के जुझारू हाथ। ऐसे में ये कविताएं संघर्षशील चेतना की कविताएं कैसे कहला सकती हैं। यहां तो मिलती हैं सह जाने की मनोवृति, धैर्य धारण करने का सुझाव और कभी-कभी आत्मदया का सा-भाव -- ‘‘दुख से दबे हुए मानव, आ आ मैं ले लूं तेरा सब दुख, तू हलका हो कर सिर ताने आसमान में।’’ लूटपाट, बलात्कार, मार-काट आदि से भरी इस दुनिया में वह जरा भी जोश में आये बिना ‘‘निर्मम आघातों को सह कर, फिर उठ कर, संभल, कर चलने’’ वाला दर्शन भी प्रस्तुत करता है।’’ यहां नागार्जुन की कविताओं जैसी गर्जना नहीं है, जोश भी नहीं है। कवि की प्रक्रिया को ध्यान से देखें तो ‘‘धरती’’ की कविताओं में जो किसी हद तक सीधी तेजी थी वह बाद में ‘‘दीवारें दीवारें’’ जैसी कुछ कविताओं को छोड़कर जोश में गायब होती चली गई। बाद की कविताओं में या तो कवि ने व्यंग्य से काम लेना शुरू कर दिया या फिर ‘‘धैर्य धारण’’ प्रवृति से।  ऐसा क्यों हुआ?

      सामान्यतौर पर तो कह सकते हैं कि त्रिलोचन का मूल स्वभाव लड़ने-झगड़ने का नहीं बल्कि आघातों को सह कर और शक्ति अर्जित करने का है। इसके अतिरिक्त भी एक दिलचस्प उत्तर हो सकता है। वह उत्तर त्रिलोचन की उन कविताओं से मिलता है जो उनके निजी साहित्यिक परिवेश और जीवन से संबद्ध हैं। वे चाहे आलोचकों आदि पर लिखी गई कविताएं हों अथवा अपने अभावग्रस्त जीवन से सम्बद्ध। इन कविताओं में त्रिलोचन सीधे-सीधे नहीं बल्कि व्यंग्य से प्रहार करते हैं। यानी वे अपनी बात तो कहते हैं -- अपनी असहमति तो प्रकट करते हैं लेकिन भृकुटि तान कर नहीं बल्कि मुस्कुरा-मुस्कुरा करः-

      ‘‘घोर निराशा में भी मुस्कुरा कर बोला कुछ बात नहीं है/अभी तो कई और तमाशे मैं देखूंगा/मेरी छाती वज्र की बनी है, प्रहार हो, फिर प्रहार हो/बस न कहूंगा/अधीरता है मुझे न भाती.............’’

त्रिलोचन को जो अपने जीवन और साहित्य के प्रति काफी हद तक उपेक्षात्मक रूख मिला उसने कवि को एक सहनशील और चुनौतियां स्वीकार करने वाला व्यक्तित्व प्रदान कर  दिया। वह हर समय आने वाली चुनौती से जूझने के लिए तैयारी में लगा रहता। हर आने वाले आघात को सहने की तैयारी में लग जाता। जब उसने महसूस किया कि ‘‘अपनी कैसे कहूं/यहां कौन सुनेगा’’ तो उन्होंने अपनी कहनी तो बन्द नहीं की लेकिन अपना व्यक्तित्व शिव के जैसा, जो कि उनके नाम के अनुकूल भी है, बनाने में जुट गया जो तेज से तेज जहर को भी बर्दाश्त कर ले। अतः उन्होंने दर्शन ही यह बना लिया कि सहो और लड़ो। ‘‘सहो’’ वाला पक्ष अधिक सशक्त रहा। ऐसा व्यक्ति अन्याय का जवाब तुरन्त पलट कर नहीं देता बल्कि ‘‘अन्याय’’ से पहुंचे कष्ट पर सोच-विचार कर उसे प्रस्तुत करता है। वह अपनी या अपने पक्ष की कमज़ोरियों पर भी सोचता है। अपने भीतर, लड़ाई से पूर्व, शक्ति भी अर्जित कर लेना चाहता है और ऐसा वही व्यक्ति करता है जो जीवन की महत्ता को समझता है, जीवन को विषम बना देने वाली परिस्थितियों से गहरे में बेचैन हो उठता है। यह भी एक ढंग का वैशिष्टय ही है।

      मेरी नजर में त्रिलोचन की कविताएं संघर्ष के लिए तैयारी कर लेने वाले पक्ष से अधिक जुड़ी हुई हैं। विषम परिस्थितियों में भी व्यक्ति जी सके, टूटे नहीं, अपने को हीन न समझे और विपदाओं को सहते हुए खुद को और मजबूत बनाए आदि त्रिलोचन की कविताओं का मूल लक्ष्य है। ये कविताएं हार मान कर बैठ जाने वाले व्यक्ति की कविताएं कतई नहीं हैं और न ही हार या जीत पर अतिरिक्त उत्तेजना से भर कर रोने अथवा चिल्लाने की कविताएं हैं। मन को ‘‘अदीन’’ बनाने वाली ये कविताएं इस दृष्टि से बहुत ज़रूरी कविताएं हैं। इन कविताओं का लक्ष्य है व्यक्ति को किसी भी आफ़त में टूटने न देना तथा न-आफ़त के लिए तैयार करना। अतः ये कविताएं संस्कार बनाती हैं और मानव और उसके जीवन के महत्व को रेखांकित करती हैं और विषम परिस्थितियों में पिस रहे व्यक्ति को हीन-भावना से ग्रसित हो कर कुंठित होने से बचाती हैं तथा सक्रिय बनाती हैं।

      दरअसल त्रिलोचन पर लिखना एक पूरी दुनिया पर लिखना है। इनकी कविताओं के इतने पक्ष हैं कि उन पर पूरा-पूरा एक ही लेख में लिख-समझा देना बहुत ही दुष्कर काम है। कहा जाता है कि त्रिलोचन के यहां रोमांस नहीं मिलता। कहना चाहूंगा कि ऐसा नहीं है। त्रिलोचन के यहां जहां व्यंग्य और गाम्भीर्य मिलताहै वहीं रोमांस और विट की फुव्वारें भी मिल जाती हैं। उनके नटखट (छेड़छाड़ वाले) रोमांस की एक झलक चैती संग्रह की एक कविता इच्छा में देखी जा सकती है-

सर दर्द क्या है

मुझे इच्छा थी
तुम्हारे इन हाथों का स्पर्श
कुछ और मिले

और
इम आंखों के
करुण प्रकाश में
नहाता रहूं

और
सांसों की अधीरता भी
          कानों सुनूं
बिलकुल यही इच्छा थी
सर दर्द क्या है।

इनकी भाषा पर ही हम बहुत देर तक मुग्ध हो सकते हैं और बहस कर सकते हैं। क्योंकि जिस कवि के पास ‘‘कौवा ररता है’’ और ‘‘कौवा काँय करता है’’ के भावगत अन्तर को पहचानने और व्यक्त करने की भाषा तथा दृष्टि-परक क्षमता है उसकी भाषा और सूक्ष्म दृष्टि पर जल्दी और थोड़े में कुछ भी लिखना कवि को अधूरे रूप में ही प्रस्तुत करना होगा। कानों सुनूं पर ही विचार कर लीजिए।

      मुझे कला-सिद्ध इस कवि की कविताएँ, जन को खुद अपनी और दूसरों की नजरों में उठाकर उसे सम्मान दिलाने के लक्ष्य से भरपूर लगती हैं। त्रिलोचन ‘‘जीवन’’ के महत्व को समझने और समझाने वाले कवि हैं -- वह जीवन चाहे मानव या प्राणीमात्र का हो या पूरे ब्रह्माण्ड का हो। उनकी कविताएं भूखे-नंगे को सबसे पहले रोटी दिलाने के लिए पुकारती हैं तथा ‘‘भूखे-नंगों’’ से बड़े-से-बड़े आघातों को सह जाने की वह जरूरी प्रेरणा देती हैं जिसके बिना कोई भी व्यक्ति किसी भी लड़ाई को नहीं लड़ सकता। व्यक्ति को पहले अपना सम्मान समझना होगा। त्रिलोचन मर-खप रहे, प्रतिकूल परिस्थितियों में जीने पर विवश व्यक्ति को पहले स्फूर्तिवान तथा मजबूत बना देना चाहते हैं। सहने और धैर्य से काम लेने से उनका तात्पर्य यही है। विषम परिस्थितियों में जी रहे व्यक्ति के मन में ये कविताएँ जीने की ललक पैदा करती हैं। और जिस व्यक्ति में जीने की ललक पैदा हो जाती है वह अपने प्रति न तो अन्याय सहता है और न वह जीवन से भागता है।

      दो पंक्तियाँ हैं :
            कुहरे की घाटी से उठ उठ कर लहराना
            सर्दी का है अपनी विजय-ध्वजा फहराना।

      आरम्भ से अंत की ओर की गई अपनी काव्य-यात्रा में यह कवि ऋषि तुल्य होता चला गया है। वह कभी सर्वे भवन्तु सुखिनः के मर्म को नहीं छोड़ पाया - अजातशत्रु की तरह। उसका तो जीवन-मूल्य रहा ही यह - सबके दिन अच्छे हों, तब होगा अच्छा दिन। यह पंक्ति उनकी कविता निवेदन से है जो 2002 में प्रकाशित उनके कविता-संग्रह मेरा घर में संकलित है।

      वर्ष 2002 में प्रकाशित कविता संग्रहों में सर्वाधिक ध्यान खींचने वाला संग्रह हैं कवि त्रिलोचन का मेरा घर। इस संग्रह में त्रिलोचन जी की पहले की लिखी ऐसी कविताएँ हैं जो पहली बार पुस्तक का रूप देख सकी हैं। इसमें 1992 से 2002 के बीच लिखी कविताएँ हैं। यहाँ घर की बोली शीर्षक से उनकी कुछ अवधी कविताएँ भी हैं। सदा की भांति त्रिलोचन जी के इस संग्रह की भी मेरा घर या कविताएँ हाथ हैं पाँव हैं, जैसी कविताएँ किसी भी सशक्त युवा कवि को राह दिखा सकती है।

      त्रिलोचन, लगता है, अपने जीवन के अंत तक कवितामय ही रहे। 87 वर्ष की आयु में उनका 15वाँ कविता संग्रह जीने की कला प्रकाशित हुआ। त्रिलोचन को पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियों आदि का अद्भुत ज्ञान था। इस दृष्टि से उनका यह संग्रह विशिष्ट है। कवि के अनुसार पेड़, पौधों, फूल-पत्तियों, जानवर और इंसान से जुड़ी स्मृतियाँ उतरी हैं शब्दों में। वस्तुतः इस अत्यंत सक्रिय कवि को अलसर के बड़े आपरेशन से गुजरना पड़ा और पूरा एक वर्ष और 26 दिन उसे खुद को संभालने में लग गए। तब 16 सितम्बर, 2002 को उन्होंने एक कविता लिखी दुनिया कैसे बचे जो इस संग्रह की पहली कविता है और जिसका एक अंश हैः

            गीध आदि जो वायुमण्डल को
            स्वच्छ रखा करते थे
            नष्ट होते होते नष्ट हो चले
            इस दुर्घट योग से दुनिया कैसे बचे!

वस्तुतः त्रिलोचन का ज्ञान और अनुभव संसार अपार है। उनकी दुनिया सम्बंधी चिन्ताएँ भी गहरी और बहुआयामी हैं जिनमें एक है पर्यावरण सम्बन्धी चिन्ता। संग्रह समर्पित ही है जल, हरीतिमा, वन्य प्राणियों और मानव मूल्यों की रक्षा में जुटे लोगों को। त्रिलोचन कविताओं की सहजता और स्पष्टता के लिए विख्यात हैं। ये विशेषताएँ इस संग्रह में भी मौजूद हैं। छिपकली की आवाज, तहदिल अब नहीं है, पशु-पंछी, मेल-जोल, आजीविका, साही, बॉस की उपेक्षा, बेल, लाहटोरा, गर्मी के फल, अशोक कहाँ है, धरम की कमाई, आदर-फूल और काँटे का जैसी अनेक कविताएँ हैं जिन्होंने हिन्दी कविता को आगे बढ़ाया है और समृद्ध किया है। ये कविताएँ जीवों-वनस्पतियों का निजी-विशिष्ट संसार साक्षात् करती हैं। कवि का इतिहास-बोध भी सर्वत्र झलकता है। भाषा याने नए-नए शब्दों के सटीक प्रयोगों की तमीज़ भी ये कविताएँ सिखा सकती हैं। कुछ पाठक इन कविताओं को विषयों आधारित सप्रयास कविताएँ भी कह सकते हैं लेकिन ये कविताएँ डाक्यूमेंटरी कविताओं की श्रेणी में गिनी जा सकती हैं। इस संकलन का संदर्भ ग्रंथ जैसा महत्व भी स्वीकार करना होगा।

      अंत की ओर आते-आते मेरे ध्यान में उनका कविता-संग्रह तुम्हें सौंपता हूँ आ रहा है। इस संग्रह की ओर कम ही ध्यान गया है। 1985 में पहली बार छपा था। यह संग्रह कवि के अभिव्यक्ति-पक्ष की विविधताओं और सक्षमताओं को चौकाने की हद तक सामने लाता है। यहाँ त्रिलोचन बकलम खुद रूप में भी हैं:

      हम बजने वाले बाजे हैं कोई छेड़े --
      स्वर निकलेगा और न छेड़े तो भी स्वर का
      चढ़ना-गिरना नहीं रूकेगा, भय से भेड़े
      तो भेड़े किवाड़ कोई भी अपने घर का
      हाथ बढ़ाता हूँ - आखिर क्यों हो संकोचन -
      यही हमारे स्वर हैं, स्नेहाधीन - त्रिलोचन।

इसी संग्रह में सीधी-सीधी राजनीतिक कविताएँ भी हैं त्रिलोचन की। मुश्किल यह है कि त्रिलोचन की समय के साथ लोकप्रिय कुछ कविताओं के सहारे ही उन्हें कमतर या पूजनीय कह कर चलने वाली चालू आलोचनाओं ने त्रिलोचन के विराट रूप को पढ़ने-समझने में बहुत बाधा पहुँचायी है। यही आज के पाठकों के लिए चुनौती भी है। कवियों पर कुछ अपनी भी राय बनाने के लिए उन्हें सम्पूर्णता में पढ़ने की।

      त्रिलोचन जी की तो यही इच्छा रही ---
            पत्र-पुष्प जितने भी चाहो
            अभी ले जाओ
            जिसे चाहो उसे दे दो
            लो
            जो भी चाहो लो
            एक अनुरोध मेरा मान लो
            सुरभि हमारी यह
                  हमें बड़ी प्यारी है
            इसको संभालकर जहाँ जाना
                  ले जाना।
            इसे
            तुम्हें सौंपता हूँ।

एल-1202, ग्रेंड अजनारा हेरिटेज,
सेक्टर-74, नोएडा-201301
मो. 9910177099


     वह फूटा था
---- दिविक रमेश

दिमाग के किसी उर्वर भाग में
वह फूटा था
ठीक जैसे फूटता है  दाना
जमीन को फोड़कर ।

ठीक वैसा ही स्वागत किया था मैंने
उस नवजात का
जैसे करता है किसान
निहारता
पहला कदम दानों का बढ़ता   
फसलों की ओर।

उसी तरह बढ़ाने लगा था पींगे
मेरा मन भी
जैसे बढ़ता है किसान सहज ही।

अचानक हुआ था शंकित
शायद होता हो जैसे  किसान भी।

कहीं
बढ़ तो नहीं रहा था मैं आत्महत्या की ओर?

मैं डरा हुआ था।
और आप हैं कि न डरने का नाटक करते हुए
बंधा रहे थे मेरा साहस।

समय दिखा रहा था अंगूंठा।
शायद सिखा रहा हो अंगूंठा दिखाने की कला।
पर कब समझा!

divikramesh34@gmail.com