शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

छोटी कविताएं:रंग एक, छींटे अनेक

           1


सांस की तरह आ

ऒर लेने की तरह रह

मेरी आखरी सांस तक!



2

एक संध्या के शंख सी

बज मेरे भीतर

ऒर बजती रह

मॆं जीना चाहता हूं उत्सव

पूरे अवसाद का उन्माद में।



3

छू मेरे केशों को

ये केश नहीं जटाएं हॆं

आज भी आतुर हॆं जिन्हें छूने को

शिला पर पटकती लहरें

उस उन्नत वक्ष नदी की

बहुत पीछे रह गई हॆ जो।



4

होता

तो कुछ देर सो लेता

पर चला गया वह तो

मेरी नींद की तरह।



5

झुकाए खड़ा रह गया मॆं टहनी

ऒर

झुकता चला गया

खुद ही।



6

कितने दूर थे तुम

पर इतने दूर भी कहां थे

एक रचना भर की ही तो थी दूरी

पढ़ी

तो जाना ।



7



ऒर टकरा मेरे तालु से

कच्चे-ताज़े दूध की धार सा ।

होने दे मुक्त नृत्य

गुदगुदी के

बजते घुंघरुओं के एहसास सा।



8

बरसते

तो बरसते न टूट कर?

कभी-कभार ही होता हॆ

कि अन्नत भी चाहने लगता हॆ

अपनी सीमाओं का टूटना।



9

मॆंने कहा

यह मेरा सच हॆ।

कॊन रोकता हॆ तुम्हें

निभाने से अपना सच !

शर्त पर होनी यही चाहिए

कि सच सच हो

राजनीति नहीं।









10

कॊवा काला होता हॆ ऒर आवाज का मारा

सच हॆ ।

कोयल काली होती हे ऒर मधुर भाषिणी भी

सच हॆ ।

सच, सच हॆ

इसीलिए तो दोनों का अस्तित्व हॆ ।























1 टिप्पणी:

  1. वाह....
    बहुत खूब...
    होता

    तो कुछ देर सो लेता

    पर चला गया वह तो

    मेरी नींद की तरह।

    लाजावाब क्षणिकाएं...
    सादर
    अनु

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