पापा जब गलती हो जाती
क्यों हमको तब डर लगता हॆ ?
छिप जाए या झूठ बोल दें
क्यों जी को ऎसा लगता हॆ ?
पापा बोले देखो बेटू
गलती तो सबसे हो जाती ।
पर गलती पर गलती करना
बात नहीं अच्छी कहलाती ।
शनिवार, 26 नवंबर 2011
यह बच्चा
कॊन हॆ पापा यह बच्चा जो
थाली की झूठन हॆ खाता ।
कॊन हॆ पापा यह बच्चा जो
कूड़े में कुछ ढूंढा करता ।
देखो पापा देखो यह तो
नंगे पाँव ही चलता रहता ।
कपड़े भी हॆं फटे- पुराने
मॆले मॆले पहने रहता ।
पापा ज़रा बताना मुझको
क्या यह स्कू्ल नहीं हॆ जाता ।
थोड़ा ज़रा डांटना इसको
नहीं न कुछ भी यह पढ़ पाता ।
पापा क्यों कुछ भी न कहते
इसको इसके मम्मी-पापा ?
पर मेरे तो कितने अच्छे
अच्छे-अच्छे मम्मी-पापा ।
पर पापा क्यों मन में आता
क्यों यह सबका झूठा खाए ?
यह भी पहने अच्छे कपड़े
यह भी रोज़ स्कूल में जाए ।
थाली की झूठन हॆ खाता ।
कॊन हॆ पापा यह बच्चा जो
कूड़े में कुछ ढूंढा करता ।
देखो पापा देखो यह तो
नंगे पाँव ही चलता रहता ।
कपड़े भी हॆं फटे- पुराने
मॆले मॆले पहने रहता ।
पापा ज़रा बताना मुझको
क्या यह स्कू्ल नहीं हॆ जाता ।
थोड़ा ज़रा डांटना इसको
नहीं न कुछ भी यह पढ़ पाता ।
पापा क्यों कुछ भी न कहते
इसको इसके मम्मी-पापा ?
पर मेरे तो कितने अच्छे
अच्छे-अच्छे मम्मी-पापा ।
पर पापा क्यों मन में आता
क्यों यह सबका झूठा खाए ?
यह भी पहने अच्छे कपड़े
यह भी रोज़ स्कूल में जाए ।
शनिवार, 29 अक्टूबर 2011
स्त्री विमर्श: प्रतिशोध नहीं प्रतिरोध हॆ ।
जॆसे जीवन में नारी का महत्त्व हमेशा था, हॆ ऒर रहेगा. उसी प्रकार साहित्य में भी नारी के बिना ना काम चला था, चला हॆ ऒर न चलेगा । पुरूष की उपस्थित जितनी अनिवार्य हॆ उतनी ही नारी की भी । यह तथ्य हॆ ऒर कोशिशों के बावजूद इसे झुठलाया नहीं जा सकता । यह बात अलग हॆ कि समय-समय पर पुरुष ऒर नारी के संबंधों की संतुलित समझ गड़बड़ाती रही हो । ऒर तभी ऎसे विरोधाभासों ने जन्म लिया हॆ कि अनिवार्य रूप में संबंधों की वॆसी स्थितियां जीवन ऒर साहित्य के विमर्शों के केन्द्रीय विषय बने हॆं । परिणाम कुछ भी ऒर कितनी भी
मात्रा में हाथ आया हो । मातृसत्तात्मक समाज से पितृसत्तात्मक समाज की यात्रा भी इसी पृथ्वी पर घटी हॆ । पुरुष वर्चस्व न आसमान से टपका हॆ ऒर न ही जन्मजात हॆ । जॆसे स्त्री पॆदा नहीं होती, बनायी जाती हॆ उसी प्रकार पुरुष भी पॆदा नहीं होता, बनाया जाता हॆ । विडम्बना यह हॆ कि इस बनाने में जाने-अनजाने पुरुष ऒर नारी दोनों का हाथ होता हॆ -कमोबेश । अत: मुझे तो वह सोच अधिक उपयुक्त लगती हॆ जिसकी तहत पुरुषवर्चस्व ऒर उसकी खामियों को पितृसत्तात्मकता में देखा जाता हॆ । वोल्गा से गंगा को इस दृष्टि से भी पढ़ा जा सकता हॆ। वाल्मीकि रामायण में युद्ध के बाद का ऒर अग्नि- परीक्षा से पहले का सीता-रामका सवाद पढ़ा जा सकता हॆ जिससे खुद मुझे अपने काव्य-नाटक ’खण्ड- खण्ड अग्नि’ लिखने में बहुत मदद मिली ऒर जिसे आलोचकों ने स्त्री-चेतना ऒर विमर्श की कृति बताया । तुलसी का कलियुग वर्णन, महादेवी वर्मा की श्रृंखला की कड़ियां , मॆथिलीशरण गुप्त की साकेत वाली ऊर्मिला ऒर यशोधरा, सुभद्रा कुमारी चॊहान की वीरांगना लक्ष्मीबाई का गुणगान, प्रेमचन्द के उपन्यास, जॆनेन्द्र की कृतियां ऒर कितनी ही अन्य पहले की कृतियों को पढ़ा ऒर समझा जा सकता हॆ । राजा राम मोहनराय, दयानन्द सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा ज्योतिबा फुले, तिलक, गांधी, टॆगोर आदिके किए पर कोई पानी फिरा सकता हॆ क्या । अपने को ही सनम समझने की झॊंक ऒर केन्द्र में लाने की महत्त्वाकांक्षा के चलते भले ही अपने से पूर्व के योगदान को कोई झुठलाना चाहे तो अलग बात हॆ । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपने समय की किसी भी उत्तम सोच या उपलब्धि की पूर्व में तॆयार हो चुकी एक पूर्वपीठिका हुआ करती हॆ ।माना गया हॆ
कि नारीवाद की प्रेणता वर्जीनिया वुल्फ थीं जिनका लेखन काल 1915 से 1940 हॆ । यह समय भारतीय नवजागरण का भी हॆऒर भारतीय नारी जागरण का भी ।
अगर पूर्व ऒर पर के संदर्भ से अलग कर अपने स्वायत्त रूप में तुलसी की पंक्ति ’नारि मुई गृह संपति नासी, मूड मुड़ाइ होंहि सन्यासी ’ को पढ़ा जाए तो घरवाली नारि का अपार महत्त्व समझ में आ जाता हॆ। यहां सन्यासी होने का महत्त्व नहीं पुरुष की दुर्गति के प्रति संकेत हॆ । जिस संदर्भ में यह पंक्ति कही गई हॆ उसकी संकीर्णता का तो मॆं भी पक्षधर नहीं हूं । गुप्त जी की यशोधरा सीधे-सीधे प्रश्न करती हॆ -सिद्धि हेतु स्वामी गये, यह गॊरव की बात;/ पर चोरी-चोरी गये, यही बड़ा व्याघात/ सखि, वे मुझसे कह कर जाते/ कह, तो क्या मुझको वे पग-बाधा ही पाते ? ध्यान दिया जाए कि पुरुष वर्चस्ववादी समाज में एक नारी अपने ’स्वामी’ को प्रश्नों के घेरे में ला रही हॆ । हां ’पग बाधा’ वाली बात मेरी निगाह में भी पुरुषवादी मानसिकता का परिणाम हॆ। यह पंक्ति नारी को पुरुष की समक्षता से थोड़ा नीचे ले आती हॆ ।जब सही अधिकार की बात हो तो ’बाधा’ के बारे में नहीं सोचा जाता ।
अब नारी-लेखन, नारी-चेतना ऒर नारी विमर्श की ओर आया जाए । महादेवी वर्मा का मत काफ़ी तर्क सम्मत लगाता हॆ जब वे लिखती हॆं :"पुरुष के द्वारा नारी चित्रण अधिक आदर्श बन सकता हॆ, किन्तु यथार्थ के अधिक समीप नहीं । पुरुष के लिए नारीत्व अनुमान हॆ नारी के लिए अनुभव ।" नयी कहानी ऒर नई कविता ने भी अपने से पूर्व के लेखन से भिन्न होने का एक कारण "भोगे हुए यथार्थ" की अभिव्यक्ति को माना था । मनुष्य के सामूहिक मनोविज्ञान के स्थान पर व्यक्तिगत मनोविज्ञान को महत्त्व दिया था । एक प्रकार से अनूठेपन (यूनीक्नेस) को स्वीकार किया था । लेकिन किसी दर्शन, सोच याविचार के अभाव में या दूसारे शब्दों में खुद को छोड़ किसी के भी प्रति उत्तरदायित्व के आभाव में "भोगे हुए यथार्थ" का चित्रण कितना एकांगी, बेस्वादु ,भावुक ऒर अराजक हो सकता हॆ इससे भी सुधीजन अपरिचित न होंगे । 1970 के दशक में साहित्य की स्त्री को क्या बना दिया गया था उस ओर ध्यान जाना चाहिए । साहित्यकर्मियों में पुरुषों के साथ नारियां भी सम्मिलित थीं । उस साहित्य को क्रांतिकारी कदम कहा गया । सबकुछ का निषेध जो था । स्त्री महज यॊन-बिम्ब
बना दी गई थी । रीतिकालीन नारी सॊन्दर्य गनीमत लगने लगा था । संबंधहीनता की प्रकाष्ठा हो गई थी । लेकिन ऎसे में धूमिल जॆसे कवि भी थे जिन्होंने घोड़े के संदर्भ में लगाम का स्वाद घोड़े से ही जानने की सोच दी थी ।अर्थात घोड़े की की तकलीफ की प्रमाणिक अभिव्यक्ति घोड़ा ही कर सकता हॆ । फिर वह कहावत भी तो हॆ न -जा के पांव न फटि बिवाई वो क्या जाने पीर परायी । लेकिन रचनाप्रक्रिया के स्तर पर यह मसला पेचीदा भी हॆ। मृत्यु का चित्रण मर कर करने लगे तो ...।
खॆर ’चेतना’ ऒर विमर्श में बाँटकर इस मसले को थोड़ा सरल तो बना ही दिया हॆ ।
मुख्य प्रश्न यह हो सकता हॆ कि आखिर पुरुष में वे कॊनसे सुर्खाब के पर लगे हॆं जिनके कारण स्त्री वही हो जॆसा पुरुष चाहता हॆ । ऒर यह चाहना भी सत्तात्मक या दम्भपूर्ण हो । अवधारणात्मक या इच्छाधर्मी तक नहीं । नारी-विमर्श यहीं से शुरु होता हॆ। नारी के अपने होने यानी उसकी अस्मिता की पहचान ऒर अर्जन के दायरे में उसकी तकलीफ़ें, उसके सपने,
उसका चिन्तन, उसका विद्रोह, उसका अधिकार, उसके होने का स्वीकार, उसका आत्मविश्वास, अपने बूते पर खड़े होने की ताकत, उसके प्रतिरोध ही नहीं अपितु उसके प्रतिशोध, उसकी हार-जीत, ऒर उसकी उपलब्धियां आदि सब आती हॆं ऒर साहित्य में नारी विमर्श यही हॆ अथवा होना चाहिए । नारी-विमर्श पुरुष का नहीं बल्कि नारी की अस्मिता को रॊंदने-कुचलने वाली पुरुष मानसिकता का विध्वंसक हॆ या होना चाहिए । उसका सशक्तिकरण हॆ। नारी-विमर्श अन्तत: ’नारी’’ को ’वही कटघरे में खड़े पुरुष’के स्थान पर स्थापित करना नहीं हॆ अपितु ’कटघरे में खड़े पुरुष ’को नारी का उपयुक्त दर्शन कराना ऒर मनवाना हॆ । बेजगह कर दी गई नारी को उसकी पर लाना हॆ । स्त्री-पुरुष को संबंधों के कुछ ही नहीं बल्कि तमाम रूपों में रखकर स्त्री को बुनियादी तॊर पर उसकी जगह दिलाना हॆ । जनवरी 2011 में दिवंगत हुई कोरिया की एक बहुत ही प्रसिद्ध उपन्यासकार पार्क वनसे की कृतियों को ऒर विशेष रूप से उनकी आत्मकथात्मक कृतियों को पढ़कर इस दृष्टि को समझा जा सकता हॆ । बेटे(लड़के)-बेटी(लड़की) का अन्तर लेखिका यानी बेटी को कितना आहत करता हॆ जब युद्ध में भाई (बेटे) की मॊत के बाद माँ को यह कहते सुनती हॆ-" हे भगवान, एक बेकार लड़की के बदले, एक अच्छे-भले लड़के को क्यों उठा लिया ?" (नामोक (नंगा वृक्ष) । फ़्रेंच-केनेडियन लेखिका क्लेर मार्टिन की आत्मकाथा ’इन एन आयर्न ग्लब’में पिता की क्रूरता से माँ ऒर दोनों बहिनें कांप उठती थीं ।इसी नए अर्थ में ’स्त्री-पुरुष’ के एक दूसरे के पूरक होने’ को समझना हॆ । तो बुनियादी प्रश्न यह हॆ कि हमारी महिला (हांलाकि मॆं सिद्धान्तत: रचनाकार के साथ महिला या पुरुष लगाना ठीक नहीं समझता) रचनाकार क्या ऎसा लिख चुकी हॆं जो नारी विमर्श को सिद्ध करता हो ? मॆं कहूंगा -हाँ । लेकिन कहूँगा अभी बहुत कुछ लिखना बाकी भी हॆ । अभी आत्मकथात्मक साहित्य अधिक आया हॆ । ऒर शुरु के दॊर में यह स्वाभाविक भी हॆ । अपनी या अपने की तकलीफ़ बहुत विशिष्ट होती हॆ ।विशिष्ट या असाधारण को सामान्य या साधारण बना देना भी एक बहुत बड़ी कला होती हॆ यद्यपि कठिन भी बहुत होती हॆ । वह कहते हॆं न अपना आपा मेंटना पड़ता हॆ। अपनी तकलीफ़ को दूसरे की ऒर दूसरे की तकलीफ़ को अपनी बना देना आसान नहीं होता । मसलन मीरा में वह कला थी । उसने पुरुष वर्चस्व को सर्वमान्यता की ओर अग्रसित धता भी बताई थी ऒर झुकाया भी था । इधर उषा प्रियंवदा में वह कला हॆ । कृष्णा सोबती में हॆ । मृदला गर्ग ऒर चित्रा मुदगल में हॆ । कात्यायनी में हॆ । ऒर भी उदाहरण दिए जा सकते हॆं । कविता में स्त्री मुक्ति के संदर्भ में कात्यायनी स्पष्ट ऒर सशक्त स्वर के साथ उपस्थित हॆ । उनकी कविता ’सात भाइयों के बीच चंपा’ प्रमाण हॆ जिसके माध्यम से सम्पूर्ण नारी दृष्टि के दर्शन होते हॆं । कृष्णा सोबती ने जब यारों के यार ऒर मित्रो मरजानी जॆसी कृतियां ऒर ’मर्द रिझाऊ’ नहीं बल्कि ’मर्द मारू’ भाषा दी तो हंगामा होना स्वाभाविक था । पहली बार हिन्दी कहानी ने स्त्री के पारम्परिक ढके-दबे, सुरक्षात्मक, सांकेतिक,अर्द्ध छवि देत वाले सांस्कारिक रूप की कॆद से निकल कर ’बोल्ड’ होते हुए देखा था- "मित्रो अपने दोनों हाथों से अपनी छातियां पकड़कर पूछती हॆ ,
"सच कहना जिठानी सुहागवंती, क्या ऎसी छातियां किसी ऒर की भी हॆं ?" ध्यान देना होगा कि यहां रचनाकार स्त्री हॆ ऒर पात्र भी स्त्री हॆ। इसे चटखारे लेने वाले देह विमर्श के खाते में डाल कर नहीं समझा जा सकता । स्त्री की भी अपनी देह-दुनिया हॆ । वह केवल पुरुषार्थ देह नहीं हॆ । उसकी देह केवल पुरुष को समर्पित करने की वस्तु नहीं हॆ, अपने से उपभोग करने के लिए भी हॆ । सहवास का सही अर्थ भी शायद यही हॆ । स्वाभाविक हॆ कि विमर्श पर उतर कर स्त्री द्वारा रचे गए साहित्य की भाषा भी उसमें उभरे तीखे प्रश्नों की भांति तीखी यानी पुरुष वर्चस्ववादियों के लिए तीखी ऒर बेशर्म ही होगी । अत: पुरुषवर्चस्ववादियों की हिप्पोक्रेसी पर भी समकालीन केन्द्रीय स्त्री-लेखन बज्रपात ही करता हॆ। कई बार कहा जाता हॆ कि स्त्री विमर्श समाज में स्त्री को पुरुष की तरह एक पूर्ण हॆसियत दिलाने के लिए हॆ । पुरुष की तरह वाली बात मुझे अधिक उचित नहीं लगती । इसके अपने खतरे हॆं । मसलन यह तो ठीक हॆ कि स्त्री पुरुष के द्वारा दी गई या नियंत्रित भाषा ही क्यों बोले-लिखे लेकिन उसे स्त्री-भाषा तो खोजनी ही होगी ऒर मज़ा तब हॆ जब पुरुष भी उसे अपनाने को बाध्य कर दिया जाए । कहना यह चाहता हूं कि जिस भाषा में पुरुष बोलता-लिखता हॆ ऒर जिसे आप बिना स्वीकृति दिए केवल बदले के लिए अपनाना चाहती हॆं तो वह भी कोई उचित राह नहीं हुई । खॆर । यह बहस फिर कभी । बस
कृष्णा सोबती पर यारों के यार को लेकर ’चकारमई अश्लील भाषा" के आरोप के उत्तर में उनके कहे को उद्धृरत करना चाहूंगा जिसे मॆंने अपनी पुस्तक ’संवाद भी विवाद भी’ में प्रकाशित कृष्णा जी की कृति ’ऎ लड़की’ पर लिखे अपने लेख में भी उद्धृित किया था जो भाषा के प्रति सच्चे सरोकार को सामने लाता हॆ : ""जब ’यारों के यार’ जॆसी गंभीर कहानी लिखी जाती हॆ तो वह अपनी व्यक्तिगत या सामाजिक नफ़ासतों के प्रदर्शनों के लिए नहीं लिखी जाती।" यानी भाषा को विषय या कहें रचाना की सह्ज ऒर अनिवार्य मांग के साथ जोड़ा गया हॆ । लेखिका की ही एक पंक्ति हॆ:" किसी के धकलने से कोई धावक नहीं होता । खुद दॊड़ने वाला ही धावक कहलाता हॆ । बड़ी बात यह हॆ कि कृष्णा जी की स्त्रियां स्त्रियां रहकर ही ताकतवर हॆं । वे अपने स्त्री
अस्तित्व को गलाकर मर्द बन मर्दानगी देखने-दिखनी की कायल नहीं हॆ । वे पुरुष के आतंक से न भयभीत हॆं ऒर न ही आकर्षित ।
नारी-विमर्श ऒर देह-विमर्श का फिलहाल चोली-दामन का साथ हॆ । देह मुक्त की बात कही ऒर समझी जा रही हॆ। बहस यह भी हॆ कि देह मुक्ति वस्तुत: देह से परे जाना हॆ । देह से परे जाना क्या हॆ? मान लो एक स्त्री का बलात्कार होता हॆ। स्पष्ट हॆ कि पुरुष (बलात्कारी) दोषी हॆ । लेकिन एक सोच के अनुसार दाग स्त्री की देह को लगता रहा हॆ। एक ऒर उदाहरण लीजिए । भारतीय संदर्भ में । दो प्रेमी हॆं । उनके देह संबंध स्थापित हो गए । किसी कारण विवाह नहीं हुआ । अब लड़की को प्राय: यह सलाह दी जाती हॆ कि वह अपने देह-संबंध को छिपाए । नहीं छिपाएगी तो , यॊन शुचिता के हिमायती होने के कारण पुरुषों से ताने सुनती रहेगी । अपवित्र कहलाएगी । ऎसे में देह मुक्त अनिवार्य हो जाती हॆ ऒर देह से परे जाने का अर्थ भी समझ में आता हॆ-अर्थात सारी पवित्रता, शुचिता आदि का ठेका देह से जोड़ देने वाली सोच का विरोध । लेकिन स्त्री देह का ऎसा उपयोग जो मेनका का विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए किया गया था उसकी विडम्बना को गहराई से समझना होगा । ऎसी स्थिति में मेनका का विद्रोह मुखरित होना चाहिए ऒर उसे समझना चाहिए कि उसकी देह को अपवित्र करने की साजिश की वह शिकार हुई हॆ। इस संदर्भ में देह का क्या बिगड़ता हॆ कह कर पुरुष को क्षमा या उपेक्षित नहीं करना चाहिए ।मॆत्रयी पुषपा ने बहुत सामने आकर लिखा हॆ ऒर
बहुतों ने उन्हें सराहा भी हॆ । नि:संदेह उनका लेखन उल्लेखनीय हॆ लेकिन दृष्टि ऒर आभिव्यक्ति रूप के स्तर पर वह चूका नहीं हॆ, ऎसा नहीं कहा जा सकता ।’चाक" की केन्द्रीय चिन्ता भले ही स्त्री-देह के स्व-राज की लगती हो लेकिन एक पुरुष से प्रतिशोध के लिए दूसरे पुरुष पहलवान कॆलासी सिंह को कालावती चाची के द्वारा सेक्स-मुक्ति के नाम पर आनन्द (संजीवनी) देकर अपने पक्ष में करना ऒर प्रतिशोध लेना भले ही युद्ध ऒर प्रेम में सब जायज हॆ जॆसी स्थापना के अनुकूल हो लेकिन सर्वथा ग्राह्य नहीं हॆ भले ही अनुभव के स्तर पर (अपवाद की तरह) यह सच्ची घटना से प्रेरित प्रसंग ही क्यों न हो । सोचना होगा कि इसे देह की स्वतंत्रता कहें या देह का कपट अथवा देह की राजनीति या कुछ ऒर । कभी -कभी इसी विमर्श के अन्तर्गत एक पत्नी का अपने पति से प्रतिशोध दूसरे पुरुष के प्रति संजीवनी के रूप में देह समर्पण के रूप में भी दिखाया जाता हॆ । लेकिन याद रखना होगा कि सब एक जॆसे नहीं होते जॆसी धारणाओं के बावजूद दूसरे पुरुष के ’पुरुष’ न हो जाने की गारंटी नहीं होती । अत: पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति की राह ऎसी देह मुक्ति हो सकती हॆ इस पर भी संदेह ही किया जा सकता हॆ । वस्तुत: स्त्री विमर्श की राह प्रतिशोध से प्रतिरोध की ओर होनी चाहिए । तब स्वछंदता या स्वेच्छा भी स्वीकार्य होगी । अन्यथा आप पुरुष को पुरुष बनाए रखने का ही अधिक काम करेंगी । स्वेच्छा के रूप मे देह मुक्ति ऒर स्त्री विमर्श की एक बहुत ही सशक्त कृति चित्रा जी की आवां हॆ । सुनन्दा विवाह के लिए अपने प्रेमी ’सुहॆल’ के धर्म परिवर्तन के आग्रह या शर्त को मानने से इंकार कर देती हॆ क्योंकि उसे सहज रूप में लगता हॆ कि वॆसा करने से उसकी अपनी पहचान या अस्मिता दाव पर लगी लगती हॆ। बुनियादी तॊर पर यह मसला दो प्रेमियों तक सीमित न रह कर बहुत दूर तक जाता हॆ । अत: यहँ विरोध ’सुहॆल’ का नहीं हॆ । एक अनुचित ऒर अग्राह्य अवधारणा या व्यवस्था का हॆ । इसीलिए यहाँ विशिष्ट सामान्य या असाधारण साधारण बन जाता हॆ । विशिष्ट अनुभव सबका हो जाता हॆ । अत:सुनन्दा का बिना ब्याह के न केवल देह संबंध बनाना बल्कि ’प्राउड’माँ भी बन जाना देह मुक्ति के एक नए व्याकरण को सामने लाता हॆ ऒर अपने को मनवाता भी हॆ। साथ ही ’कुँवारी माँ’ वाली चली आ रही स्त्री विरोधी धारणा पर कुठाराघात भी करता हॆ । भले ही मठाधीसों को यह हरकत रास न आए ।
अच्छी बात यह हॆ कि हमारे यहाँ तीनों वर्गों की नारियों को केन्द्र में रखकर हमारी लेखिकाओं ने कलम चलाई हॆ । नासिरा शर्मा का उपन्यास शाल्मली पढ़ कर देख लें या कुसुम अंसल की कृतियां । राजी सेठ को पढ़ लें या सुनीता जॆन को । या फिर मालती जोशी की नारी मन को टटोलती कहानियां पढ़ लें ।हाँ अति भावुकता या आवेश की ओर ले जाने वाली अति उत्साही ऒर अपने को मात्र चर्चा में लाने की ललक वाले देहवादी स्त्रीविमर्श को अधिक व्यापक करना होगा । स्त्री विमर्श के नाम पर बनने लगीं रुढ़ियों को तोड़ना होगा । ऒर इसके लिए हमारे पास समर्थ लेखिकाएं हॆं । सुविख्यात आलोचक प्रो० निर्मला जॆन के स्त्री ऒर स्त्री सम्बन्धित सुचिन्तित ऒर संतुलित विमर्श को अवश्य ध्यान में लाया जाना चाहिए ।ज़रूरत तो अब स्त्रियों में भी जो दलितों में दलित हॆं उन पर ज्यादा से ज्यादा लिखे जाने की हॆ। पर वह हाथ पकड़ कर लिखवाने जॆसा नहीं होना चाहिए । मुझे चितकोबरा वाली मृदला गर्ग की बहिन मंजुल भगत के उपन्यास ’अनारो’की भी याद हो आयी हॆ।बहुत ही संतुलित रहकर विमर्श करने वाली मृदुला गर्ग के अनुसार - ’कहा गया कि स्त्री की प्राकृतिक, स्वाभाविक मनोवृत्ति जीवन-पर्यन्त एक ही साथी से सहवास संबंध रखने की है, और इसके ठीक उलट पुरुष अनेक स्त्रियों से समागम का इच्छुक रहता है. इसीलिए स्त्री सच्चा सहवास-सुख तभी प्राप्त कर पाती है, जब पुरुष उसे भावनात्मक प्रेम करे, जबकि पुरुष स्त्री से हासिल हुए महज दैहिक सुख से ही संतुष्ट हो जाता है. अचरज है कि स्त्री-पुरुष की दैहिक संरचना का अंतर जानने के बावजूद, इस भ्रम पर लोग यकीन करते रहे. दरअसल इसका जवाब सीधा है, सत्ता के खेल का यह दिलचस्प पहलू है कि मातहत द्वारा अधिकृत व्यक्ति, अधिकारी के मत को आत्मसात करके उसकी आवाज में बोलते रहने में ही भलाई है. स्त्रियों ने वही किया जो गुलाम व वंचित हमेशा से करते आए हैं. पर आज का पुरुष कुछ हद तक सच्चाई को समझ और जान गया है और वह प्रेम को मानवीय आदान-प्रदान की वस्तु मानने लगा है ।’ नासिरा शर्मा के अनुसार, " मर्दों ने जब कभी पूरी ईमानदारी से प्रेम की बेल को सींचा है तो उन्होंने इतिहास बनाया है. हम पुरुष में प्रेम को वतनपरस्ती के रूप में भी देख सकते हैं, जिसके आगे उन्हें सब कुछ तुच्छ लगता है. मानवीय रिश्ते और सत्ता का नशा भी उन्हें लुभा नहीं पाता, अपने प्रेम से डिगा नहीं पाता. जाहिर है कि हर पुरूष के जीवन में प्रेम शब्द का अलग अर्थ होना चाहिए, जो मर्द-औरत के सीमित दायरे तक महदूद नहीं है ।"किस किस के नाम गिनाऊं । आकाश भरा हॆ । किस किस तारे का नाम लूं । सबकुछ तो शायद अभी मेरी पढ़ने की मेज़ तक भी नहीं पहुंचा हॆ। ऒर अंत की ओर आते आते याद आ रही हॆं रति सक्सेना की कुछ काव्य पंक्तियां:
स्त्री देह की विवशता अलग हॆ
उसे अलंकृत होना हॆ किसी ऒर के लिए
जागना सोना हॆ किसी ऒर के लिए
खिंचावों को भोगती
देह से देह की खरपत्वार उगाती
बाहर से संवरती भीतर से शींझती
वह स्त्री देह बस स्त्री देह ही रह गई (कुंडली मारे बॆठी स्त्री देह)
मॆंने दरख्त की जड़ से जीभ बनाई
पत्तियों से दांत
घाटियों में गूंजती आवाज को पकड़ा
सागरी लहरों से देह बनाई
लो अब मॆम तॆयार हूं
बतियाने के लिए
अरे अब तुम कहाँ गए ? (क्या तुम मुझसे बात करोगी )
मात्रा में हाथ आया हो । मातृसत्तात्मक समाज से पितृसत्तात्मक समाज की यात्रा भी इसी पृथ्वी पर घटी हॆ । पुरुष वर्चस्व न आसमान से टपका हॆ ऒर न ही जन्मजात हॆ । जॆसे स्त्री पॆदा नहीं होती, बनायी जाती हॆ उसी प्रकार पुरुष भी पॆदा नहीं होता, बनाया जाता हॆ । विडम्बना यह हॆ कि इस बनाने में जाने-अनजाने पुरुष ऒर नारी दोनों का हाथ होता हॆ -कमोबेश । अत: मुझे तो वह सोच अधिक उपयुक्त लगती हॆ जिसकी तहत पुरुषवर्चस्व ऒर उसकी खामियों को पितृसत्तात्मकता में देखा जाता हॆ । वोल्गा से गंगा को इस दृष्टि से भी पढ़ा जा सकता हॆ। वाल्मीकि रामायण में युद्ध के बाद का ऒर अग्नि- परीक्षा से पहले का सीता-रामका सवाद पढ़ा जा सकता हॆ जिससे खुद मुझे अपने काव्य-नाटक ’खण्ड- खण्ड अग्नि’ लिखने में बहुत मदद मिली ऒर जिसे आलोचकों ने स्त्री-चेतना ऒर विमर्श की कृति बताया । तुलसी का कलियुग वर्णन, महादेवी वर्मा की श्रृंखला की कड़ियां , मॆथिलीशरण गुप्त की साकेत वाली ऊर्मिला ऒर यशोधरा, सुभद्रा कुमारी चॊहान की वीरांगना लक्ष्मीबाई का गुणगान, प्रेमचन्द के उपन्यास, जॆनेन्द्र की कृतियां ऒर कितनी ही अन्य पहले की कृतियों को पढ़ा ऒर समझा जा सकता हॆ । राजा राम मोहनराय, दयानन्द सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा ज्योतिबा फुले, तिलक, गांधी, टॆगोर आदिके किए पर कोई पानी फिरा सकता हॆ क्या । अपने को ही सनम समझने की झॊंक ऒर केन्द्र में लाने की महत्त्वाकांक्षा के चलते भले ही अपने से पूर्व के योगदान को कोई झुठलाना चाहे तो अलग बात हॆ । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपने समय की किसी भी उत्तम सोच या उपलब्धि की पूर्व में तॆयार हो चुकी एक पूर्वपीठिका हुआ करती हॆ ।माना गया हॆ
कि नारीवाद की प्रेणता वर्जीनिया वुल्फ थीं जिनका लेखन काल 1915 से 1940 हॆ । यह समय भारतीय नवजागरण का भी हॆऒर भारतीय नारी जागरण का भी ।
अगर पूर्व ऒर पर के संदर्भ से अलग कर अपने स्वायत्त रूप में तुलसी की पंक्ति ’नारि मुई गृह संपति नासी, मूड मुड़ाइ होंहि सन्यासी ’ को पढ़ा जाए तो घरवाली नारि का अपार महत्त्व समझ में आ जाता हॆ। यहां सन्यासी होने का महत्त्व नहीं पुरुष की दुर्गति के प्रति संकेत हॆ । जिस संदर्भ में यह पंक्ति कही गई हॆ उसकी संकीर्णता का तो मॆं भी पक्षधर नहीं हूं । गुप्त जी की यशोधरा सीधे-सीधे प्रश्न करती हॆ -सिद्धि हेतु स्वामी गये, यह गॊरव की बात;/ पर चोरी-चोरी गये, यही बड़ा व्याघात/ सखि, वे मुझसे कह कर जाते/ कह, तो क्या मुझको वे पग-बाधा ही पाते ? ध्यान दिया जाए कि पुरुष वर्चस्ववादी समाज में एक नारी अपने ’स्वामी’ को प्रश्नों के घेरे में ला रही हॆ । हां ’पग बाधा’ वाली बात मेरी निगाह में भी पुरुषवादी मानसिकता का परिणाम हॆ। यह पंक्ति नारी को पुरुष की समक्षता से थोड़ा नीचे ले आती हॆ ।जब सही अधिकार की बात हो तो ’बाधा’ के बारे में नहीं सोचा जाता ।
अब नारी-लेखन, नारी-चेतना ऒर नारी विमर्श की ओर आया जाए । महादेवी वर्मा का मत काफ़ी तर्क सम्मत लगाता हॆ जब वे लिखती हॆं :"पुरुष के द्वारा नारी चित्रण अधिक आदर्श बन सकता हॆ, किन्तु यथार्थ के अधिक समीप नहीं । पुरुष के लिए नारीत्व अनुमान हॆ नारी के लिए अनुभव ।" नयी कहानी ऒर नई कविता ने भी अपने से पूर्व के लेखन से भिन्न होने का एक कारण "भोगे हुए यथार्थ" की अभिव्यक्ति को माना था । मनुष्य के सामूहिक मनोविज्ञान के स्थान पर व्यक्तिगत मनोविज्ञान को महत्त्व दिया था । एक प्रकार से अनूठेपन (यूनीक्नेस) को स्वीकार किया था । लेकिन किसी दर्शन, सोच याविचार के अभाव में या दूसारे शब्दों में खुद को छोड़ किसी के भी प्रति उत्तरदायित्व के आभाव में "भोगे हुए यथार्थ" का चित्रण कितना एकांगी, बेस्वादु ,भावुक ऒर अराजक हो सकता हॆ इससे भी सुधीजन अपरिचित न होंगे । 1970 के दशक में साहित्य की स्त्री को क्या बना दिया गया था उस ओर ध्यान जाना चाहिए । साहित्यकर्मियों में पुरुषों के साथ नारियां भी सम्मिलित थीं । उस साहित्य को क्रांतिकारी कदम कहा गया । सबकुछ का निषेध जो था । स्त्री महज यॊन-बिम्ब
बना दी गई थी । रीतिकालीन नारी सॊन्दर्य गनीमत लगने लगा था । संबंधहीनता की प्रकाष्ठा हो गई थी । लेकिन ऎसे में धूमिल जॆसे कवि भी थे जिन्होंने घोड़े के संदर्भ में लगाम का स्वाद घोड़े से ही जानने की सोच दी थी ।अर्थात घोड़े की की तकलीफ की प्रमाणिक अभिव्यक्ति घोड़ा ही कर सकता हॆ । फिर वह कहावत भी तो हॆ न -जा के पांव न फटि बिवाई वो क्या जाने पीर परायी । लेकिन रचनाप्रक्रिया के स्तर पर यह मसला पेचीदा भी हॆ। मृत्यु का चित्रण मर कर करने लगे तो ...।
खॆर ’चेतना’ ऒर विमर्श में बाँटकर इस मसले को थोड़ा सरल तो बना ही दिया हॆ ।
मुख्य प्रश्न यह हो सकता हॆ कि आखिर पुरुष में वे कॊनसे सुर्खाब के पर लगे हॆं जिनके कारण स्त्री वही हो जॆसा पुरुष चाहता हॆ । ऒर यह चाहना भी सत्तात्मक या दम्भपूर्ण हो । अवधारणात्मक या इच्छाधर्मी तक नहीं । नारी-विमर्श यहीं से शुरु होता हॆ। नारी के अपने होने यानी उसकी अस्मिता की पहचान ऒर अर्जन के दायरे में उसकी तकलीफ़ें, उसके सपने,
उसका चिन्तन, उसका विद्रोह, उसका अधिकार, उसके होने का स्वीकार, उसका आत्मविश्वास, अपने बूते पर खड़े होने की ताकत, उसके प्रतिरोध ही नहीं अपितु उसके प्रतिशोध, उसकी हार-जीत, ऒर उसकी उपलब्धियां आदि सब आती हॆं ऒर साहित्य में नारी विमर्श यही हॆ अथवा होना चाहिए । नारी-विमर्श पुरुष का नहीं बल्कि नारी की अस्मिता को रॊंदने-कुचलने वाली पुरुष मानसिकता का विध्वंसक हॆ या होना चाहिए । उसका सशक्तिकरण हॆ। नारी-विमर्श अन्तत: ’नारी’’ को ’वही कटघरे में खड़े पुरुष’के स्थान पर स्थापित करना नहीं हॆ अपितु ’कटघरे में खड़े पुरुष ’को नारी का उपयुक्त दर्शन कराना ऒर मनवाना हॆ । बेजगह कर दी गई नारी को उसकी पर लाना हॆ । स्त्री-पुरुष को संबंधों के कुछ ही नहीं बल्कि तमाम रूपों में रखकर स्त्री को बुनियादी तॊर पर उसकी जगह दिलाना हॆ । जनवरी 2011 में दिवंगत हुई कोरिया की एक बहुत ही प्रसिद्ध उपन्यासकार पार्क वनसे की कृतियों को ऒर विशेष रूप से उनकी आत्मकथात्मक कृतियों को पढ़कर इस दृष्टि को समझा जा सकता हॆ । बेटे(लड़के)-बेटी(लड़की) का अन्तर लेखिका यानी बेटी को कितना आहत करता हॆ जब युद्ध में भाई (बेटे) की मॊत के बाद माँ को यह कहते सुनती हॆ-" हे भगवान, एक बेकार लड़की के बदले, एक अच्छे-भले लड़के को क्यों उठा लिया ?" (नामोक (नंगा वृक्ष) । फ़्रेंच-केनेडियन लेखिका क्लेर मार्टिन की आत्मकाथा ’इन एन आयर्न ग्लब’में पिता की क्रूरता से माँ ऒर दोनों बहिनें कांप उठती थीं ।इसी नए अर्थ में ’स्त्री-पुरुष’ के एक दूसरे के पूरक होने’ को समझना हॆ । तो बुनियादी प्रश्न यह हॆ कि हमारी महिला (हांलाकि मॆं सिद्धान्तत: रचनाकार के साथ महिला या पुरुष लगाना ठीक नहीं समझता) रचनाकार क्या ऎसा लिख चुकी हॆं जो नारी विमर्श को सिद्ध करता हो ? मॆं कहूंगा -हाँ । लेकिन कहूँगा अभी बहुत कुछ लिखना बाकी भी हॆ । अभी आत्मकथात्मक साहित्य अधिक आया हॆ । ऒर शुरु के दॊर में यह स्वाभाविक भी हॆ । अपनी या अपने की तकलीफ़ बहुत विशिष्ट होती हॆ ।विशिष्ट या असाधारण को सामान्य या साधारण बना देना भी एक बहुत बड़ी कला होती हॆ यद्यपि कठिन भी बहुत होती हॆ । वह कहते हॆं न अपना आपा मेंटना पड़ता हॆ। अपनी तकलीफ़ को दूसरे की ऒर दूसरे की तकलीफ़ को अपनी बना देना आसान नहीं होता । मसलन मीरा में वह कला थी । उसने पुरुष वर्चस्व को सर्वमान्यता की ओर अग्रसित धता भी बताई थी ऒर झुकाया भी था । इधर उषा प्रियंवदा में वह कला हॆ । कृष्णा सोबती में हॆ । मृदला गर्ग ऒर चित्रा मुदगल में हॆ । कात्यायनी में हॆ । ऒर भी उदाहरण दिए जा सकते हॆं । कविता में स्त्री मुक्ति के संदर्भ में कात्यायनी स्पष्ट ऒर सशक्त स्वर के साथ उपस्थित हॆ । उनकी कविता ’सात भाइयों के बीच चंपा’ प्रमाण हॆ जिसके माध्यम से सम्पूर्ण नारी दृष्टि के दर्शन होते हॆं । कृष्णा सोबती ने जब यारों के यार ऒर मित्रो मरजानी जॆसी कृतियां ऒर ’मर्द रिझाऊ’ नहीं बल्कि ’मर्द मारू’ भाषा दी तो हंगामा होना स्वाभाविक था । पहली बार हिन्दी कहानी ने स्त्री के पारम्परिक ढके-दबे, सुरक्षात्मक, सांकेतिक,अर्द्ध छवि देत वाले सांस्कारिक रूप की कॆद से निकल कर ’बोल्ड’ होते हुए देखा था- "मित्रो अपने दोनों हाथों से अपनी छातियां पकड़कर पूछती हॆ ,
"सच कहना जिठानी सुहागवंती, क्या ऎसी छातियां किसी ऒर की भी हॆं ?" ध्यान देना होगा कि यहां रचनाकार स्त्री हॆ ऒर पात्र भी स्त्री हॆ। इसे चटखारे लेने वाले देह विमर्श के खाते में डाल कर नहीं समझा जा सकता । स्त्री की भी अपनी देह-दुनिया हॆ । वह केवल पुरुषार्थ देह नहीं हॆ । उसकी देह केवल पुरुष को समर्पित करने की वस्तु नहीं हॆ, अपने से उपभोग करने के लिए भी हॆ । सहवास का सही अर्थ भी शायद यही हॆ । स्वाभाविक हॆ कि विमर्श पर उतर कर स्त्री द्वारा रचे गए साहित्य की भाषा भी उसमें उभरे तीखे प्रश्नों की भांति तीखी यानी पुरुष वर्चस्ववादियों के लिए तीखी ऒर बेशर्म ही होगी । अत: पुरुषवर्चस्ववादियों की हिप्पोक्रेसी पर भी समकालीन केन्द्रीय स्त्री-लेखन बज्रपात ही करता हॆ। कई बार कहा जाता हॆ कि स्त्री विमर्श समाज में स्त्री को पुरुष की तरह एक पूर्ण हॆसियत दिलाने के लिए हॆ । पुरुष की तरह वाली बात मुझे अधिक उचित नहीं लगती । इसके अपने खतरे हॆं । मसलन यह तो ठीक हॆ कि स्त्री पुरुष के द्वारा दी गई या नियंत्रित भाषा ही क्यों बोले-लिखे लेकिन उसे स्त्री-भाषा तो खोजनी ही होगी ऒर मज़ा तब हॆ जब पुरुष भी उसे अपनाने को बाध्य कर दिया जाए । कहना यह चाहता हूं कि जिस भाषा में पुरुष बोलता-लिखता हॆ ऒर जिसे आप बिना स्वीकृति दिए केवल बदले के लिए अपनाना चाहती हॆं तो वह भी कोई उचित राह नहीं हुई । खॆर । यह बहस फिर कभी । बस
कृष्णा सोबती पर यारों के यार को लेकर ’चकारमई अश्लील भाषा" के आरोप के उत्तर में उनके कहे को उद्धृरत करना चाहूंगा जिसे मॆंने अपनी पुस्तक ’संवाद भी विवाद भी’ में प्रकाशित कृष्णा जी की कृति ’ऎ लड़की’ पर लिखे अपने लेख में भी उद्धृित किया था जो भाषा के प्रति सच्चे सरोकार को सामने लाता हॆ : ""जब ’यारों के यार’ जॆसी गंभीर कहानी लिखी जाती हॆ तो वह अपनी व्यक्तिगत या सामाजिक नफ़ासतों के प्रदर्शनों के लिए नहीं लिखी जाती।" यानी भाषा को विषय या कहें रचाना की सह्ज ऒर अनिवार्य मांग के साथ जोड़ा गया हॆ । लेखिका की ही एक पंक्ति हॆ:" किसी के धकलने से कोई धावक नहीं होता । खुद दॊड़ने वाला ही धावक कहलाता हॆ । बड़ी बात यह हॆ कि कृष्णा जी की स्त्रियां स्त्रियां रहकर ही ताकतवर हॆं । वे अपने स्त्री
अस्तित्व को गलाकर मर्द बन मर्दानगी देखने-दिखनी की कायल नहीं हॆ । वे पुरुष के आतंक से न भयभीत हॆं ऒर न ही आकर्षित ।
नारी-विमर्श ऒर देह-विमर्श का फिलहाल चोली-दामन का साथ हॆ । देह मुक्त की बात कही ऒर समझी जा रही हॆ। बहस यह भी हॆ कि देह मुक्ति वस्तुत: देह से परे जाना हॆ । देह से परे जाना क्या हॆ? मान लो एक स्त्री का बलात्कार होता हॆ। स्पष्ट हॆ कि पुरुष (बलात्कारी) दोषी हॆ । लेकिन एक सोच के अनुसार दाग स्त्री की देह को लगता रहा हॆ। एक ऒर उदाहरण लीजिए । भारतीय संदर्भ में । दो प्रेमी हॆं । उनके देह संबंध स्थापित हो गए । किसी कारण विवाह नहीं हुआ । अब लड़की को प्राय: यह सलाह दी जाती हॆ कि वह अपने देह-संबंध को छिपाए । नहीं छिपाएगी तो , यॊन शुचिता के हिमायती होने के कारण पुरुषों से ताने सुनती रहेगी । अपवित्र कहलाएगी । ऎसे में देह मुक्त अनिवार्य हो जाती हॆ ऒर देह से परे जाने का अर्थ भी समझ में आता हॆ-अर्थात सारी पवित्रता, शुचिता आदि का ठेका देह से जोड़ देने वाली सोच का विरोध । लेकिन स्त्री देह का ऎसा उपयोग जो मेनका का विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए किया गया था उसकी विडम्बना को गहराई से समझना होगा । ऎसी स्थिति में मेनका का विद्रोह मुखरित होना चाहिए ऒर उसे समझना चाहिए कि उसकी देह को अपवित्र करने की साजिश की वह शिकार हुई हॆ। इस संदर्भ में देह का क्या बिगड़ता हॆ कह कर पुरुष को क्षमा या उपेक्षित नहीं करना चाहिए ।मॆत्रयी पुषपा ने बहुत सामने आकर लिखा हॆ ऒर
बहुतों ने उन्हें सराहा भी हॆ । नि:संदेह उनका लेखन उल्लेखनीय हॆ लेकिन दृष्टि ऒर आभिव्यक्ति रूप के स्तर पर वह चूका नहीं हॆ, ऎसा नहीं कहा जा सकता ।’चाक" की केन्द्रीय चिन्ता भले ही स्त्री-देह के स्व-राज की लगती हो लेकिन एक पुरुष से प्रतिशोध के लिए दूसरे पुरुष पहलवान कॆलासी सिंह को कालावती चाची के द्वारा सेक्स-मुक्ति के नाम पर आनन्द (संजीवनी) देकर अपने पक्ष में करना ऒर प्रतिशोध लेना भले ही युद्ध ऒर प्रेम में सब जायज हॆ जॆसी स्थापना के अनुकूल हो लेकिन सर्वथा ग्राह्य नहीं हॆ भले ही अनुभव के स्तर पर (अपवाद की तरह) यह सच्ची घटना से प्रेरित प्रसंग ही क्यों न हो । सोचना होगा कि इसे देह की स्वतंत्रता कहें या देह का कपट अथवा देह की राजनीति या कुछ ऒर । कभी -कभी इसी विमर्श के अन्तर्गत एक पत्नी का अपने पति से प्रतिशोध दूसरे पुरुष के प्रति संजीवनी के रूप में देह समर्पण के रूप में भी दिखाया जाता हॆ । लेकिन याद रखना होगा कि सब एक जॆसे नहीं होते जॆसी धारणाओं के बावजूद दूसरे पुरुष के ’पुरुष’ न हो जाने की गारंटी नहीं होती । अत: पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति की राह ऎसी देह मुक्ति हो सकती हॆ इस पर भी संदेह ही किया जा सकता हॆ । वस्तुत: स्त्री विमर्श की राह प्रतिशोध से प्रतिरोध की ओर होनी चाहिए । तब स्वछंदता या स्वेच्छा भी स्वीकार्य होगी । अन्यथा आप पुरुष को पुरुष बनाए रखने का ही अधिक काम करेंगी । स्वेच्छा के रूप मे देह मुक्ति ऒर स्त्री विमर्श की एक बहुत ही सशक्त कृति चित्रा जी की आवां हॆ । सुनन्दा विवाह के लिए अपने प्रेमी ’सुहॆल’ के धर्म परिवर्तन के आग्रह या शर्त को मानने से इंकार कर देती हॆ क्योंकि उसे सहज रूप में लगता हॆ कि वॆसा करने से उसकी अपनी पहचान या अस्मिता दाव पर लगी लगती हॆ। बुनियादी तॊर पर यह मसला दो प्रेमियों तक सीमित न रह कर बहुत दूर तक जाता हॆ । अत: यहँ विरोध ’सुहॆल’ का नहीं हॆ । एक अनुचित ऒर अग्राह्य अवधारणा या व्यवस्था का हॆ । इसीलिए यहाँ विशिष्ट सामान्य या असाधारण साधारण बन जाता हॆ । विशिष्ट अनुभव सबका हो जाता हॆ । अत:सुनन्दा का बिना ब्याह के न केवल देह संबंध बनाना बल्कि ’प्राउड’माँ भी बन जाना देह मुक्ति के एक नए व्याकरण को सामने लाता हॆ ऒर अपने को मनवाता भी हॆ। साथ ही ’कुँवारी माँ’ वाली चली आ रही स्त्री विरोधी धारणा पर कुठाराघात भी करता हॆ । भले ही मठाधीसों को यह हरकत रास न आए ।
अच्छी बात यह हॆ कि हमारे यहाँ तीनों वर्गों की नारियों को केन्द्र में रखकर हमारी लेखिकाओं ने कलम चलाई हॆ । नासिरा शर्मा का उपन्यास शाल्मली पढ़ कर देख लें या कुसुम अंसल की कृतियां । राजी सेठ को पढ़ लें या सुनीता जॆन को । या फिर मालती जोशी की नारी मन को टटोलती कहानियां पढ़ लें ।हाँ अति भावुकता या आवेश की ओर ले जाने वाली अति उत्साही ऒर अपने को मात्र चर्चा में लाने की ललक वाले देहवादी स्त्रीविमर्श को अधिक व्यापक करना होगा । स्त्री विमर्श के नाम पर बनने लगीं रुढ़ियों को तोड़ना होगा । ऒर इसके लिए हमारे पास समर्थ लेखिकाएं हॆं । सुविख्यात आलोचक प्रो० निर्मला जॆन के स्त्री ऒर स्त्री सम्बन्धित सुचिन्तित ऒर संतुलित विमर्श को अवश्य ध्यान में लाया जाना चाहिए ।ज़रूरत तो अब स्त्रियों में भी जो दलितों में दलित हॆं उन पर ज्यादा से ज्यादा लिखे जाने की हॆ। पर वह हाथ पकड़ कर लिखवाने जॆसा नहीं होना चाहिए । मुझे चितकोबरा वाली मृदला गर्ग की बहिन मंजुल भगत के उपन्यास ’अनारो’की भी याद हो आयी हॆ।बहुत ही संतुलित रहकर विमर्श करने वाली मृदुला गर्ग के अनुसार - ’कहा गया कि स्त्री की प्राकृतिक, स्वाभाविक मनोवृत्ति जीवन-पर्यन्त एक ही साथी से सहवास संबंध रखने की है, और इसके ठीक उलट पुरुष अनेक स्त्रियों से समागम का इच्छुक रहता है. इसीलिए स्त्री सच्चा सहवास-सुख तभी प्राप्त कर पाती है, जब पुरुष उसे भावनात्मक प्रेम करे, जबकि पुरुष स्त्री से हासिल हुए महज दैहिक सुख से ही संतुष्ट हो जाता है. अचरज है कि स्त्री-पुरुष की दैहिक संरचना का अंतर जानने के बावजूद, इस भ्रम पर लोग यकीन करते रहे. दरअसल इसका जवाब सीधा है, सत्ता के खेल का यह दिलचस्प पहलू है कि मातहत द्वारा अधिकृत व्यक्ति, अधिकारी के मत को आत्मसात करके उसकी आवाज में बोलते रहने में ही भलाई है. स्त्रियों ने वही किया जो गुलाम व वंचित हमेशा से करते आए हैं. पर आज का पुरुष कुछ हद तक सच्चाई को समझ और जान गया है और वह प्रेम को मानवीय आदान-प्रदान की वस्तु मानने लगा है ।’ नासिरा शर्मा के अनुसार, " मर्दों ने जब कभी पूरी ईमानदारी से प्रेम की बेल को सींचा है तो उन्होंने इतिहास बनाया है. हम पुरुष में प्रेम को वतनपरस्ती के रूप में भी देख सकते हैं, जिसके आगे उन्हें सब कुछ तुच्छ लगता है. मानवीय रिश्ते और सत्ता का नशा भी उन्हें लुभा नहीं पाता, अपने प्रेम से डिगा नहीं पाता. जाहिर है कि हर पुरूष के जीवन में प्रेम शब्द का अलग अर्थ होना चाहिए, जो मर्द-औरत के सीमित दायरे तक महदूद नहीं है ।"किस किस के नाम गिनाऊं । आकाश भरा हॆ । किस किस तारे का नाम लूं । सबकुछ तो शायद अभी मेरी पढ़ने की मेज़ तक भी नहीं पहुंचा हॆ। ऒर अंत की ओर आते आते याद आ रही हॆं रति सक्सेना की कुछ काव्य पंक्तियां:
स्त्री देह की विवशता अलग हॆ
उसे अलंकृत होना हॆ किसी ऒर के लिए
जागना सोना हॆ किसी ऒर के लिए
खिंचावों को भोगती
देह से देह की खरपत्वार उगाती
बाहर से संवरती भीतर से शींझती
वह स्त्री देह बस स्त्री देह ही रह गई (कुंडली मारे बॆठी स्त्री देह)
मॆंने दरख्त की जड़ से जीभ बनाई
पत्तियों से दांत
घाटियों में गूंजती आवाज को पकड़ा
सागरी लहरों से देह बनाई
लो अब मॆम तॆयार हूं
बतियाने के लिए
अरे अब तुम कहाँ गए ? (क्या तुम मुझसे बात करोगी )
गुरुवार, 25 अगस्त 2011
हिन्दी साहित्य में नारी, नारी विमर्श ऒर भविष्य
मेरी अगली पोस्ट उपर्युक्त विषय पर होगी । प्रतीक्षा करेंगे न ? धन्यवाद ।
हिन्दी के समसामयिक चर्चा बिन्दु
मॆं समझता हूं कि हिन्दी के घरेलू ऒर वॆश्विक महत्त्व को लेकर पर्याप्त सॆद्धान्तिक विचार हो चुका हॆ । भारत के संदर्भ में
अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में इसे सम्पर्क भाषा मानने.मनवाने की सॆद्धान्तिक कवायद भी भरपूर हो गयी हॆ। फिर भी
क्या कारण हॆ कि हर वर्ष सितम्बर माह आते.आते हिदी के बोलबाले को लेकर तमाम चिंताएं.चिंतन रह रह कर शुरु होने लगता हॆ।
क्या कारण हॆ कि राज भाषा के रूप में हिन्दी के आकड़ों की बहार लादी जाने लगती हॆ । वह भी एक ऎसी हिन्दी में जिसे फिर हिन्दी
बनाने की ज़रूरत पड़ने लगती हॆ। क्या कारण हॆ कि हिन्दी में ही नहीं हम अंग्रेजी में भी अंग्रजी को गरियाने की रस्म हर ओर
निभाते नज़र आने लगते हॆं । क्या कारण हॆ कि हमारी चिन्ता हिन्दी की अपनी लकीर को बड़ा करने की तुलना में दूसरी भाषा की
लकीर को छोटा करने के प्रति अधिक समर्पित नज़र आने लगती हॆ।भाषा माँ की तरह है। और कोई भी माँ अपने सहज रूप में ‘संकट’ की स्थिति पैदा कर ही नहीं सकती। वह अपनी सहज प्रक्रिया में संघर्श, टकराहट या ऐसी ही किसी नकारात्मक प्रवृत्ति को प्रश्रय दे ही नहीं सकती। अतः भाषा को लेकर ‘संकट’ पैदा करने वाले व्यक्ति असहज ही कहे जाएँगे। मनुष्य अपने-अपने संदर्भ में अपनी माँ को (और इसी आधार पर अपनी भाषा को) प्यार करता है, यह सहज है, किसी भी प्राणी की तरह। लेकिन अपनी माँ (भाषा) से सहज प्यार करने के अनुभव से सम्पन्न मनुष्य दूसरे की माँ (भाषा) से असहज होकर ही घृणा कर सकता है। यह ‘असहजता’ मनुष्य में क्यों आती है इसकी गहरी जाँच-पड़ताल की जा सकती है। हिन्दी और भारतीय भाषाओं के अन्तःसंबंधों की वास्तविकता को एक बार फिर पहचानना होगा। व्यक्तियों का एक ऐसा वर्ग भी है जो राष्ट्रभाषा या राजभाषा की समस्या को हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं के संबंधों में न ढूँढकर मात्र हिन्दी और अंग्रेजी की प्रतिद्वंद्विता के रूप में उभारना चाहता है।’ यह सिद्ध है कि भारत में भाषाओं की लड़ाई के पीछे, जो आज भी आंशिक रूप में ही सही एक हक़ीक़त है, स्वयं भाषाओं का हाथ नहीं है बल्कि कुछ और तत्वों का है जो विघटनकारी हैं, भारत की लम्बी और गहरी समन्वयवादी परम्परा के शत्रु हैं, राष्ट्रद्रोही हैं अथवा संकीर्ण हैं। भाषायी समन्वय राष्ट्र को मजबूत बनाता है। अतः भाषा का सच्चा काम लोगों को जोड़ने का होता है तोड़ने का नहीं। राष्ट्रभाषा के संदर्भ में यह बताना आवश्यक है कि वह राष्ट्रीय भावना की सूचक होती है। भीतरी तौर पर उसमें राष्ट्र को एकताबद्ध करने की प्रबल प्रवृत्ति होनी चाहिए और बाह्य तौर पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्र को विशिष्ट सिद्ध करने की प्रवृत्ति। अर्थात् राष्ट्रभाषा का आदर्श आभ्यंतर एकता और बाह्य विशिष्टता है। राष्ट्रभाषा का काम विभेद और अंतर सम्बन्धी विवादों का समाधान करना होता है। भारत जैसे बहुभाषी देशों में राष्ट्रभाषा का संपर्क भाषा और राजभाषा के रूप में भी सक्षम होना होता है। मातृभाषा तो वह होती ही है। सूत्र रूप में कहें तो भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्रों में किसी भी मातृभाषा के अन्य मातृभाषाओं के रहते राष्ट्रभाषा बनने का संदर्भ उठापटक, जीत-हार आदि जैसी पीड़ाजनक स्थितियों का न होकर स्पर्धा एवं स्वीकृति की अवस्थाओं का होता है, सत्य और यथार्थ को मज़बूर या बाध्य होकर नहीं, सहर्ष और सम्मान की भावना से स्वीकार करने का होता है। यहां तक तो ठीक हॆ कि हिन्दी दिवस के अवसर पर
हम हिन्दी के होने ऒर उस होने की उपलब्धियों का जश्न मनाएं लेकिन वह केवल रस्मीतॊर पर होकर रह जाए, केवल आंकड़ेबाजी
का खेल बन कर रह जाए, भारतीयों के संदर्भ में दिलों में/से उतरी ज़बान न लगे तो फिर सचमुच चिन्ता ऒर चिन्तन की बात
कही जाएगी । मॆं नहीं कहता भाषण, प्रतियोगिताओं, कार्यशालाओं आदि का महत्त्व ऒर अवश्यकता नहीं हॆ । पर मज़ा तो
तब हॆ न जब ये सब ’प्रायोजित’ नहीं अपितु सहज आयोजित घटनाक्रम लगें । अत: आज ज़रूरत हॆ कुछ ऎसे बिन्दुओं की पहचान
करना जिन पर चर्चा करते हुए ऎसी स्थितियों को प्राप्त किया जा सके जिनसे हिन्दी को हम उसके अपेक्षित दर्जे पर पहुंचा सकें ।
वैश्विक स्तर पर यदि हिन्दी का संदर्भ देखा जाए तो उसके पठन-पाठन की दृष्टि से वह उत्साहवर्द्धक एवं तकलीफदेह दोनों ही रूपों में उपस्थित है। आंकड़ों के आधार पर तो हम विश्व-पटल पर हिंदी की उपस्थिति को लेकर गर्व भी कर सकते हैं लेकिन कुछ देशों के संदर्भ में हकीकत चिन्ताजनक भी हुई है। एक ओर जहाँ हिन्दी के वेबजालों की संख्या में बढ़ोतरी होती जा रही है और अमेरिका जैसे देश में तो हिन्दी को स्कूलों के स्तर पर भी पढ़ाया जा रहा है - कितने ही अमेरिकी तो भारत आकर विशेष रूप से हिन्दी सीख रहे हैं। वे हिन्दी जानना अपना विकल्प नहीं बल्कि अपनी आवश्यकता मानते हैं। वे जानते हैं कि भारत के भाषाई और सांस्कृतिक संसार तक पहुँच के लिए हिन्दी का आना अनिवार्य है। भारतीय जीवन के गहरे एवं यथार्थ पूर्ण अध्ययन के लिए भी वे हिन्दी की जानकारी को अनिवार्य मानते हैं। कुछ का इरादा तो हिन्दी में पारंगत होकर हिन्दी का अध्यापक बनना भी है। (स्पैन, मार्च, अप्रैल, 2007, पृ012) वहाँ हिन्दी के गढ़ माने जाने वाले देशों जैसे रूस और जर्मनी में हिन्दी के पठन-पाठन और उसके विस्तार पर आघात भी पहुँचा है। इस प्रसंग में इतना अवश्य जोड़ना चाहूँगा हमें देश और विदेशों में भारत की तमाम भाषाओं के सीखने-सिखाने की स्थितियाँ पैदा करनी होंगी या फिर एक ऐसी भारतीय भाषा को चुनना होगा जिसके माध्यम से भारत की अन्य भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य को भी विदेशों में पहुँचाया जा सके और साथ ही उस भाषा के विदेशों में अध्ययन-अध्यापन की भरपूर स्थितियाँ भी पैदा की जाएँ। और यह भी कि वह भाषा स्पष्ट कारणों से, भारतीय मूल की ही होनी चाहिए। मेरी विनम्र राय है कि उपर्युक्त दूसरा रास्ता ज्यादा व्यावहारिक है। उदाहरण के लिए यदि हम ‘हिन्दी’ को विदेश के संदर्भ में देश की भाषा स्वीकार कर लें तो विदेशों में केवल हिन्दी सीखने-सिखाने का प्रबन्ध करना होगा और देश में एक उचित योजना के तहत हिन्दी में अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य को उपलब्ध कराना होगा ताकि वह सब हिन्दी के माध्यम से विदेशों में पहुँचाया जा सके।’ अच्छी बात यह है कि बिना हिन्दीतर भारतीय भाषाओं का गला दबाए इस दिशा में काम चल निकला है। हिन्दी भाषा के शिक्षण को अधिक दिलचस्प ढंग से करना होगा। केवल पारम्परिक तरीकों से नहीं। अभी हाल ही में हिन्दी शिक्षण के लिए भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परि्षद् ने ‘ऋषि’ नामक सॉफ्टवेयर निकाला है। वह इस दिशा में उपयोगी सिद्ध होगा। अनेक वेबसाइट भी हिन्दी शिक्षण का कार्य कर रहे हैं। उनसे लाभ पहुँचेगा। आज, कम से कम भारत में, टेलीविज़न के हिन्दी चैनलों के कारण, रोज़गार की दृष्टि से भी हिन्दी भाषा का महत्व काफ़ी बढ़ गया है। इससे हिन्दी को काफ़ी बढ़ावा मिल रहा है।
हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए भी हमें अपने पूर्वाग्रही तरीके (यानी हिन्दी उत्तम है, हिन्दी और भाषाओं की अपेक्षा महत्वपूर्ण है, अन्य भाषाएँ हिन्दी की तुलना में हेय और कमज़ोर हैं, ऐसी अभिव्यक्तियों से भरे तरीके) छोड़कर सकारात्मक ढंग से, अन्य भाषाओं को साथ लेकर चलते हुए, समन्वयवादी भावना के साथ हिन्दी का प्रचार प्रसार करना होगा। हिन्दी का प्रचार-प्रसार किसी भी सूरत में किसी को चिढ़ाने के लिए नहीं होना चाहिए। हिन्दी भारत की केन्द्रीय भाषा है अतः राष्ट्रभाषा के रूप में राजभाषा भी है। यह सत्य है। लेकिन इस सत्य को जो मानने को तैयार नहीं हैं उनसे हम कैसे निपटें। क्या धौंस से या बल से? आप मुझे ग़लत कह सकते हैं लेकिन मुझे यह रास्ता एकदम गलत, अराजक और बलात्कारी लगता है। मुझे तो अपने देश में गधों के गलों में ‘मैं अंग्रेजी बोलता हूँ, मैं गधा हूँ’ की पट्टियाँ डाल कर जुलूस निकालने वाले तथाकथित हिन्दी प्रेमियों के विवेक पर भी तरस ही आता है। मैं दोहरा दूँ कि भाषा के रूप में कोई भाषा न बड़ी है न छोटी, न अपनी है न परायी। पहले दिया जा चुका उदाहरण दूँ तो कोई भी माँ न छोटी होती है, न बड़ी, न अपनी होती है न परायी। माँ माँ होती है और भाषा भाषा। लेकिन हम मनुष्य हैं, कोरे विचार नहीं हैं, भाव भी हैं। हममें भावना भी है। इसीलिए हमें अपनी मातृभाषा, अपनी राष्ट्रभाषा से सहज भावनात्मक प्रेम होता है। माँएँ खड़ी हों तो हर बच्चा दौड़कर अपनी अपनी माँ को ही जा पकड़ता है। यही बात भाषाओं के संदर्भ में भी लागू होती है। इसका सीधा अर्थ यह है कि संदर्भ विश्व का हो या अपने बहुभाषी देश का हमें सभी भाषाओं को समान आदर देने की सही आदत डालनी ही होगी। उनके तालमेल में ही, उनके सह अस्तित्व में ही हमारी भलाई है, उसे समझना होगा। अपनी अपनी भाषा को सहज रूप में अपनाते और समृद्ध करते हुए, दूसरों की भाषाओं को कमतर दिखाने की गलत प्रवृत्ति से बचना होगा। भारत के संदर्भ में तो यह और भी ज़्यादा ज़रूरी है। भाषाएँ आपस में पेच लड़ाने की वस्तुएँ नहीं होतीं, बल्कि उनकी भीतरी समानताओं को पहचानते हुए उनमें तालमेल, पारस्परिक सद्भाव जगाने के लिए होती है।
भारत की वर्तमान भाषाओं की लिपियों और देवनागरी का प्रश्न भी उठाना चाहूँगा यद्यपि यह प्रश्न इतना नया भी नहीं है। इसमें तो कोई संदेह नहीं कि देवनागरी एक ऐसी लिपि है जो दुनिया के किसी भी भाषा के शब्द को लिपिबद्ध करने और उच्चारित करने की क्षमता रखती है। सोचना होगा कि क्या हम देवनागरी में राष्ट्रीय लिपि होने की संभावनाएँ पहचान सकते हैं?
ऒर अंत में अपनी ही कविता प्रस्तुत कर रहा हूं :
हैरान थी हिन्दी
हैरान थी हिन्दी।
उतनी ही सकुचाई
लजायी
सहमी सहमी सी
खड़ी थी
साहब के कमरे के बाहर
इज़ाजत माँगती
माँगती दुआ
पी.ए. साहब की
तनिक निगाह की।
हैरान थी हिन्दी
आज भी आना पड़ा था उसे
लटक कर
खचाखच भरी
सरकारी बस के पायदान पर
सम्भाल सम्भाल कर
अपनी इज्जत का आँचल
हैरान थी हिन्दी
आज भी नहीं जा रहा था
किसी का ध्यान
उसकी जींस पर
चश्मे
और नए पर्स पर
मैंने पूछा
यह क्या माजरा है हिन्दी
सोचा था
इंग्लैंड
और फिर अमरीका से लौट कर
साहिब बन जाऊँगी
और अपने देष के
हर साहब से
आँखें मिला पाऊँगी।
क्या मालूम था
अमरीका रिटर्न होकर भी
बसों
और साहब के द्वार पर
बस धक्के ही खाऊँगी।
हिन्दी !
अब जाने भी दो
छोड़ो भी गम
इतनी बार बन कर उल्लू अब तो समझो
कि तुम जिनकी हो
उनकी तो रहोगी ही न
उनके मान से ही
क्यों नहीं कर लेती सब्र
यह क्या कम है
कि तुम्हारी बदौलत
कितनों ने ही
कर ली होगी सैर
इंग्लैंड और अमरीका तक की।
आप तो नहीं दिखे?
पहाड़ सा टूट पड़ा
यह प्रष्न
मेरी हीन भावना पर।
जिससे बचना चाहता था
वही हुआ।
संकट में था
कैसे बताता
कि न्यूयार्क क्या
मैं तो नागपुर तक नहीं बुलाया गया था
कैसे बताता
न्यौता तो क्या
मेरे नाम पर तो
सूची से पहले भी ज़िक्र तक नहीं होता
कैसे बताता
कि उबरने को अपनी झेंप से
अपनी इज्जत को
‘नहीं मैं नहीं जा सका’ की झूठी थेगली से
ढ़कता आ रहा हूँ।
अच्छा है
षायद समझ लिया है
मेरी अन्तरात्मा की झेंप को
हिन्दी ने।
आखिर उसकी
झेंप के सामने
मेरी झेंप तो
तिनका भी नहीं थी
बोली -
भाई,
समझते हो न मेरी पीर
हाँ बहिन!
यूं ही थोड़े कहा है किसी ने
जा के पाँव न फटी बिवाई
वो क्या जाने पीर पराई
और लौट चले थे
हम भाई बहिन
बिना और अफसोस किए
अपने अपने
डेरे।
अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में इसे सम्पर्क भाषा मानने.मनवाने की सॆद्धान्तिक कवायद भी भरपूर हो गयी हॆ। फिर भी
क्या कारण हॆ कि हर वर्ष सितम्बर माह आते.आते हिदी के बोलबाले को लेकर तमाम चिंताएं.चिंतन रह रह कर शुरु होने लगता हॆ।
क्या कारण हॆ कि राज भाषा के रूप में हिन्दी के आकड़ों की बहार लादी जाने लगती हॆ । वह भी एक ऎसी हिन्दी में जिसे फिर हिन्दी
बनाने की ज़रूरत पड़ने लगती हॆ। क्या कारण हॆ कि हिन्दी में ही नहीं हम अंग्रेजी में भी अंग्रजी को गरियाने की रस्म हर ओर
निभाते नज़र आने लगते हॆं । क्या कारण हॆ कि हमारी चिन्ता हिन्दी की अपनी लकीर को बड़ा करने की तुलना में दूसरी भाषा की
लकीर को छोटा करने के प्रति अधिक समर्पित नज़र आने लगती हॆ।भाषा माँ की तरह है। और कोई भी माँ अपने सहज रूप में ‘संकट’ की स्थिति पैदा कर ही नहीं सकती। वह अपनी सहज प्रक्रिया में संघर्श, टकराहट या ऐसी ही किसी नकारात्मक प्रवृत्ति को प्रश्रय दे ही नहीं सकती। अतः भाषा को लेकर ‘संकट’ पैदा करने वाले व्यक्ति असहज ही कहे जाएँगे। मनुष्य अपने-अपने संदर्भ में अपनी माँ को (और इसी आधार पर अपनी भाषा को) प्यार करता है, यह सहज है, किसी भी प्राणी की तरह। लेकिन अपनी माँ (भाषा) से सहज प्यार करने के अनुभव से सम्पन्न मनुष्य दूसरे की माँ (भाषा) से असहज होकर ही घृणा कर सकता है। यह ‘असहजता’ मनुष्य में क्यों आती है इसकी गहरी जाँच-पड़ताल की जा सकती है। हिन्दी और भारतीय भाषाओं के अन्तःसंबंधों की वास्तविकता को एक बार फिर पहचानना होगा। व्यक्तियों का एक ऐसा वर्ग भी है जो राष्ट्रभाषा या राजभाषा की समस्या को हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं के संबंधों में न ढूँढकर मात्र हिन्दी और अंग्रेजी की प्रतिद्वंद्विता के रूप में उभारना चाहता है।’ यह सिद्ध है कि भारत में भाषाओं की लड़ाई के पीछे, जो आज भी आंशिक रूप में ही सही एक हक़ीक़त है, स्वयं भाषाओं का हाथ नहीं है बल्कि कुछ और तत्वों का है जो विघटनकारी हैं, भारत की लम्बी और गहरी समन्वयवादी परम्परा के शत्रु हैं, राष्ट्रद्रोही हैं अथवा संकीर्ण हैं। भाषायी समन्वय राष्ट्र को मजबूत बनाता है। अतः भाषा का सच्चा काम लोगों को जोड़ने का होता है तोड़ने का नहीं। राष्ट्रभाषा के संदर्भ में यह बताना आवश्यक है कि वह राष्ट्रीय भावना की सूचक होती है। भीतरी तौर पर उसमें राष्ट्र को एकताबद्ध करने की प्रबल प्रवृत्ति होनी चाहिए और बाह्य तौर पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्र को विशिष्ट सिद्ध करने की प्रवृत्ति। अर्थात् राष्ट्रभाषा का आदर्श आभ्यंतर एकता और बाह्य विशिष्टता है। राष्ट्रभाषा का काम विभेद और अंतर सम्बन्धी विवादों का समाधान करना होता है। भारत जैसे बहुभाषी देशों में राष्ट्रभाषा का संपर्क भाषा और राजभाषा के रूप में भी सक्षम होना होता है। मातृभाषा तो वह होती ही है। सूत्र रूप में कहें तो भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्रों में किसी भी मातृभाषा के अन्य मातृभाषाओं के रहते राष्ट्रभाषा बनने का संदर्भ उठापटक, जीत-हार आदि जैसी पीड़ाजनक स्थितियों का न होकर स्पर्धा एवं स्वीकृति की अवस्थाओं का होता है, सत्य और यथार्थ को मज़बूर या बाध्य होकर नहीं, सहर्ष और सम्मान की भावना से स्वीकार करने का होता है। यहां तक तो ठीक हॆ कि हिन्दी दिवस के अवसर पर
हम हिन्दी के होने ऒर उस होने की उपलब्धियों का जश्न मनाएं लेकिन वह केवल रस्मीतॊर पर होकर रह जाए, केवल आंकड़ेबाजी
का खेल बन कर रह जाए, भारतीयों के संदर्भ में दिलों में/से उतरी ज़बान न लगे तो फिर सचमुच चिन्ता ऒर चिन्तन की बात
कही जाएगी । मॆं नहीं कहता भाषण, प्रतियोगिताओं, कार्यशालाओं आदि का महत्त्व ऒर अवश्यकता नहीं हॆ । पर मज़ा तो
तब हॆ न जब ये सब ’प्रायोजित’ नहीं अपितु सहज आयोजित घटनाक्रम लगें । अत: आज ज़रूरत हॆ कुछ ऎसे बिन्दुओं की पहचान
करना जिन पर चर्चा करते हुए ऎसी स्थितियों को प्राप्त किया जा सके जिनसे हिन्दी को हम उसके अपेक्षित दर्जे पर पहुंचा सकें ।
वैश्विक स्तर पर यदि हिन्दी का संदर्भ देखा जाए तो उसके पठन-पाठन की दृष्टि से वह उत्साहवर्द्धक एवं तकलीफदेह दोनों ही रूपों में उपस्थित है। आंकड़ों के आधार पर तो हम विश्व-पटल पर हिंदी की उपस्थिति को लेकर गर्व भी कर सकते हैं लेकिन कुछ देशों के संदर्भ में हकीकत चिन्ताजनक भी हुई है। एक ओर जहाँ हिन्दी के वेबजालों की संख्या में बढ़ोतरी होती जा रही है और अमेरिका जैसे देश में तो हिन्दी को स्कूलों के स्तर पर भी पढ़ाया जा रहा है - कितने ही अमेरिकी तो भारत आकर विशेष रूप से हिन्दी सीख रहे हैं। वे हिन्दी जानना अपना विकल्प नहीं बल्कि अपनी आवश्यकता मानते हैं। वे जानते हैं कि भारत के भाषाई और सांस्कृतिक संसार तक पहुँच के लिए हिन्दी का आना अनिवार्य है। भारतीय जीवन के गहरे एवं यथार्थ पूर्ण अध्ययन के लिए भी वे हिन्दी की जानकारी को अनिवार्य मानते हैं। कुछ का इरादा तो हिन्दी में पारंगत होकर हिन्दी का अध्यापक बनना भी है। (स्पैन, मार्च, अप्रैल, 2007, पृ012) वहाँ हिन्दी के गढ़ माने जाने वाले देशों जैसे रूस और जर्मनी में हिन्दी के पठन-पाठन और उसके विस्तार पर आघात भी पहुँचा है। इस प्रसंग में इतना अवश्य जोड़ना चाहूँगा हमें देश और विदेशों में भारत की तमाम भाषाओं के सीखने-सिखाने की स्थितियाँ पैदा करनी होंगी या फिर एक ऐसी भारतीय भाषा को चुनना होगा जिसके माध्यम से भारत की अन्य भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य को भी विदेशों में पहुँचाया जा सके और साथ ही उस भाषा के विदेशों में अध्ययन-अध्यापन की भरपूर स्थितियाँ भी पैदा की जाएँ। और यह भी कि वह भाषा स्पष्ट कारणों से, भारतीय मूल की ही होनी चाहिए। मेरी विनम्र राय है कि उपर्युक्त दूसरा रास्ता ज्यादा व्यावहारिक है। उदाहरण के लिए यदि हम ‘हिन्दी’ को विदेश के संदर्भ में देश की भाषा स्वीकार कर लें तो विदेशों में केवल हिन्दी सीखने-सिखाने का प्रबन्ध करना होगा और देश में एक उचित योजना के तहत हिन्दी में अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य को उपलब्ध कराना होगा ताकि वह सब हिन्दी के माध्यम से विदेशों में पहुँचाया जा सके।’ अच्छी बात यह है कि बिना हिन्दीतर भारतीय भाषाओं का गला दबाए इस दिशा में काम चल निकला है। हिन्दी भाषा के शिक्षण को अधिक दिलचस्प ढंग से करना होगा। केवल पारम्परिक तरीकों से नहीं। अभी हाल ही में हिन्दी शिक्षण के लिए भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परि्षद् ने ‘ऋषि’ नामक सॉफ्टवेयर निकाला है। वह इस दिशा में उपयोगी सिद्ध होगा। अनेक वेबसाइट भी हिन्दी शिक्षण का कार्य कर रहे हैं। उनसे लाभ पहुँचेगा। आज, कम से कम भारत में, टेलीविज़न के हिन्दी चैनलों के कारण, रोज़गार की दृष्टि से भी हिन्दी भाषा का महत्व काफ़ी बढ़ गया है। इससे हिन्दी को काफ़ी बढ़ावा मिल रहा है।
हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए भी हमें अपने पूर्वाग्रही तरीके (यानी हिन्दी उत्तम है, हिन्दी और भाषाओं की अपेक्षा महत्वपूर्ण है, अन्य भाषाएँ हिन्दी की तुलना में हेय और कमज़ोर हैं, ऐसी अभिव्यक्तियों से भरे तरीके) छोड़कर सकारात्मक ढंग से, अन्य भाषाओं को साथ लेकर चलते हुए, समन्वयवादी भावना के साथ हिन्दी का प्रचार प्रसार करना होगा। हिन्दी का प्रचार-प्रसार किसी भी सूरत में किसी को चिढ़ाने के लिए नहीं होना चाहिए। हिन्दी भारत की केन्द्रीय भाषा है अतः राष्ट्रभाषा के रूप में राजभाषा भी है। यह सत्य है। लेकिन इस सत्य को जो मानने को तैयार नहीं हैं उनसे हम कैसे निपटें। क्या धौंस से या बल से? आप मुझे ग़लत कह सकते हैं लेकिन मुझे यह रास्ता एकदम गलत, अराजक और बलात्कारी लगता है। मुझे तो अपने देश में गधों के गलों में ‘मैं अंग्रेजी बोलता हूँ, मैं गधा हूँ’ की पट्टियाँ डाल कर जुलूस निकालने वाले तथाकथित हिन्दी प्रेमियों के विवेक पर भी तरस ही आता है। मैं दोहरा दूँ कि भाषा के रूप में कोई भाषा न बड़ी है न छोटी, न अपनी है न परायी। पहले दिया जा चुका उदाहरण दूँ तो कोई भी माँ न छोटी होती है, न बड़ी, न अपनी होती है न परायी। माँ माँ होती है और भाषा भाषा। लेकिन हम मनुष्य हैं, कोरे विचार नहीं हैं, भाव भी हैं। हममें भावना भी है। इसीलिए हमें अपनी मातृभाषा, अपनी राष्ट्रभाषा से सहज भावनात्मक प्रेम होता है। माँएँ खड़ी हों तो हर बच्चा दौड़कर अपनी अपनी माँ को ही जा पकड़ता है। यही बात भाषाओं के संदर्भ में भी लागू होती है। इसका सीधा अर्थ यह है कि संदर्भ विश्व का हो या अपने बहुभाषी देश का हमें सभी भाषाओं को समान आदर देने की सही आदत डालनी ही होगी। उनके तालमेल में ही, उनके सह अस्तित्व में ही हमारी भलाई है, उसे समझना होगा। अपनी अपनी भाषा को सहज रूप में अपनाते और समृद्ध करते हुए, दूसरों की भाषाओं को कमतर दिखाने की गलत प्रवृत्ति से बचना होगा। भारत के संदर्भ में तो यह और भी ज़्यादा ज़रूरी है। भाषाएँ आपस में पेच लड़ाने की वस्तुएँ नहीं होतीं, बल्कि उनकी भीतरी समानताओं को पहचानते हुए उनमें तालमेल, पारस्परिक सद्भाव जगाने के लिए होती है।
भारत की वर्तमान भाषाओं की लिपियों और देवनागरी का प्रश्न भी उठाना चाहूँगा यद्यपि यह प्रश्न इतना नया भी नहीं है। इसमें तो कोई संदेह नहीं कि देवनागरी एक ऐसी लिपि है जो दुनिया के किसी भी भाषा के शब्द को लिपिबद्ध करने और उच्चारित करने की क्षमता रखती है। सोचना होगा कि क्या हम देवनागरी में राष्ट्रीय लिपि होने की संभावनाएँ पहचान सकते हैं?
ऒर अंत में अपनी ही कविता प्रस्तुत कर रहा हूं :
हैरान थी हिन्दी
हैरान थी हिन्दी।
उतनी ही सकुचाई
लजायी
सहमी सहमी सी
खड़ी थी
साहब के कमरे के बाहर
इज़ाजत माँगती
माँगती दुआ
पी.ए. साहब की
तनिक निगाह की।
हैरान थी हिन्दी
आज भी आना पड़ा था उसे
लटक कर
खचाखच भरी
सरकारी बस के पायदान पर
सम्भाल सम्भाल कर
अपनी इज्जत का आँचल
हैरान थी हिन्दी
आज भी नहीं जा रहा था
किसी का ध्यान
उसकी जींस पर
चश्मे
और नए पर्स पर
मैंने पूछा
यह क्या माजरा है हिन्दी
सोचा था
इंग्लैंड
और फिर अमरीका से लौट कर
साहिब बन जाऊँगी
और अपने देष के
हर साहब से
आँखें मिला पाऊँगी।
क्या मालूम था
अमरीका रिटर्न होकर भी
बसों
और साहब के द्वार पर
बस धक्के ही खाऊँगी।
हिन्दी !
अब जाने भी दो
छोड़ो भी गम
इतनी बार बन कर उल्लू अब तो समझो
कि तुम जिनकी हो
उनकी तो रहोगी ही न
उनके मान से ही
क्यों नहीं कर लेती सब्र
यह क्या कम है
कि तुम्हारी बदौलत
कितनों ने ही
कर ली होगी सैर
इंग्लैंड और अमरीका तक की।
आप तो नहीं दिखे?
पहाड़ सा टूट पड़ा
यह प्रष्न
मेरी हीन भावना पर।
जिससे बचना चाहता था
वही हुआ।
संकट में था
कैसे बताता
कि न्यूयार्क क्या
मैं तो नागपुर तक नहीं बुलाया गया था
कैसे बताता
न्यौता तो क्या
मेरे नाम पर तो
सूची से पहले भी ज़िक्र तक नहीं होता
कैसे बताता
कि उबरने को अपनी झेंप से
अपनी इज्जत को
‘नहीं मैं नहीं जा सका’ की झूठी थेगली से
ढ़कता आ रहा हूँ।
अच्छा है
षायद समझ लिया है
मेरी अन्तरात्मा की झेंप को
हिन्दी ने।
आखिर उसकी
झेंप के सामने
मेरी झेंप तो
तिनका भी नहीं थी
बोली -
भाई,
समझते हो न मेरी पीर
हाँ बहिन!
यूं ही थोड़े कहा है किसी ने
जा के पाँव न फटी बिवाई
वो क्या जाने पीर पराई
और लौट चले थे
हम भाई बहिन
बिना और अफसोस किए
अपने अपने
डेरे।
मंगलवार, 7 जून 2011
समकालीन कविता: एक विमर्श
बात शुरू करते हॆं समकालीन हिदी कविता के परिदृश्य से क्योंकि समकालीन कविता की दशा-दिशा ऒर चिन्ताएं काफ़ी हद तक उसी में समाहित हॆ । ।उल्लेखनीय है कि हिन्दी कविता का संसार या क्षितिज बहुत फैलाव लिए हुए है। एक ओर देश की धरती पर हिन्दी और हिन्दीतर प्रदेशों में रची गई अथवा रची जा रही कविता है तो दूसरी ओर देश के बाहर प्रवासी और भारतवंशी कवियों के द्वारा सम्भव कविता है। रूप और शैलियों की दृष्टि से भी देखें तो हिन्दी कविता को समृद्ध पाएँगे। यहाँ काव्य नाटक और लम्बी कविताएँ भी हैं और ग़ज़ल, गीत और छन्दोबद्ध रचनाएँ भी खूब लिखी जा रही हैं। लक्ष्मीशंकर वाजपेयी अच्छा लिख रहे हॆं । नरेश शांडिल्य की अच्छी गज़लों का संग्रह ‘मैं सदियों की प्यास’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। पिछले दिनों वाणी प्रकाशन से प्रकाशित काव्य-नाटक ‘खण्ड-खण्ड अग्नि’ ऒर किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित ’गेहूं घर आया हॆ’ काफ़ी चर्चित रहे है। दलित ऒर स्त्री कविता अपनी-अपनी तरह उपस्थिति दर्ज करा चुकी हॆं । कविता आज विविधरंगी ऒर विलक्षण हॆ । कवि केदारनाथ सिंह ने किसी संदर्भ में लिखा था - इस समय सड़क पर/ कोई भी किसी का/ समकालीन नहीं हॆ . . . । ऊपर लिखे का यह अर्थ नहीं हॆ कि इस दॊर की कविता केवल सामूहिक रूप में ही अपना वॆशिष्ट्य अर्जित कर सकी हॆ । कुछ ऎसे कवि ज़रूर हॆं जो काफ़ी हद तक या तो अपना-अपना वॆशिष्ट्य पा चुके हॆं या उसे पाने के लिए प्रयत्नशील हॆं । यहां मॆं ऎसी कविताओं के बारे में कुछ नहीं कहना चाहूंगा जो काव्यगत नवीनता के नाम पर कोरा अभ्यास मात्र होती हॆं । थोड़े शब्दों में पकड़ने की कोशिश की जाए तो समकालीन कविता सक्षम, एवं सकारात्मक दृष्टि से संपन्न कविता हॆ जिसने एक ऒर नकारात्मकता या निषेध से मुक्ति दिलाई हॆ तो दूसरी ओर गहरी मानवीय संवेदना से कविता को जागृत रहकर समृद्ध किया हॆ । अपनी भूमि को सांस्कृतिक मूल्यों, स्थानीयता, देसीपन ऒर लोकधर्मिता, स्थितियों की गहरी पहचान, अधिक यथार्थ, ठोस ऒर प्रामाणिक चरित्र, मानवीय सत्ता ऒर आत्मीय संबधों-रिश्तों की गरमाहट से लहलहा दिया हॆ । मुख्यधारा की राजनीतिपरक समकालीन कविताओं पर भी दृष्टि डाले तो पाऎंगे कि ये कविताएं नारेबाजी से तो दूर हॆं ही, नारेनुमा तक नहीं हॆं । ये तो गहरी संवेदनाओं से युक्त, भाषा ऒर कलात्मक क्षमताओं से भरपूर एवं संयमित हॆं । यहां काव्य-मुद्राओं एवं चमत्कारों के लिए कोई स्थान नहीं हॆ । इन कविताओं ने सहजता का वरण किया हॆ । प्रेम की कविताओं में भी ललक ऒर जिज्ञासा हॆ । रोमांटिक भावुकता के स्थान पर आत्मीय लगाव हॆ । वस्तुत: यह कविता अकविता के निषेधवाद से तो कोसों दूर आगे की कविता हॆ ही - लगभग उसकी प्रतिद्वन्दी जॆसी - धूमिल की लटकेबाजी ऒर रेहटरिक को भी छोड़कर चली हॆ । हां प्रभाव इनका ज़रूर धीरे धीर गया हॆ । समकालीन कविता की एक महिमामय उपल्ब्धि त्रिलोचन की कविता को , इसके परिदृश्य में सशक्त पहचान मिलना भी हॆ । अकविता के अंतिम संकलन ’निषेध’ के बाद अलग से उभर कर आने वाली कविता को रेखांकित करने के अनेक प्रयास भी हुए । इन्हीं प्रयासों में से एक था त्रिलोचन जी की प्रेरणा से दिविक रमेश के द्वारा संपादित 1981 में प्रकाशित कविता-संग्रह ’निषेध के बाद’ जिसके 13 कवियों में मेरे सहित अवधेश कुमार, तेजी ग्रोवर, राजेश जोशी, राजकुमार कुम्भज, चन्द्रकांत देवताले, सोमदत्त, श्याम विमल ऒर अब्दुल बिस्मिल्लाह सम्मिलित थे । कविताओं पर सुधीश पचॊरी ने टिप्पणी लिखी थी । संकलन त्रिलोचन जी की 64वीं वर्षगांठ पर उन्हीं को समर्पित हॆ । हां मानबहादुर सिंह, गोरख पाण्डेय ऒर ज्योत्सना मिलन जॆसे कवियों की भी कविताओं को सम्मिलित किए बिना समकालीन कविता का परिदृश्य अधूरा ही रहेगा । देश की भूमि पर, विशेष रूप से हिन्दी अंचल में ही देखें तो एक साथ कई पीढ़ियां काव्य रचना में तल्लीन दिखाई देती हैं। कुंवर नारायण, रामदरश मिश्र, कैलाश वाजपेयी, माणिक बच्छावत, गंगा प्रसाद विमल, सुनीता जॆन आदि सक्रिय हैं तो अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे, भगवत रावत, नन्दकिशोर आचार्य, चन्द्रकांत देवताले, अरुण कमल, विश्वरंजन, मंगलेश डबराल आदि के साथ अन्य दो कनिष्ठ और नई पीढ़ियों के भी कितने ही कवि हिन्दी कविता को भरपूर योगदान दे रहे हैं। हिन्दी में अशोक सिंह द्वारा अवतरित ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’, वाली संताल आदिवासी निर्मला पुतुल और ‘क्या तो समय’ वाले अरूण देव इधर के कवि हैं और दोनों ही 1972 के जन्मे हैं। कुछ और कवियों में बोधिसत्व, हेमन्त कुकरेती, प्रताप राव कदम, पंकज राग, हरे प्रसाद उपाध्याय, उमाशंकर चॊधरी, दिनेश कुमार शुक्ल, सूरजपाल चॊहान, सुरंजन, विमल कुमार, दुर्गाप्रसाद गुप्त, प्रताप सहगल, लालित्य ललित आदि कवि भी ध्यान खींचते हैं। हिन्दीतर सूची बहुत लंबी हो सकती हॆ । यहां आए नाम सहसा आए हॆं । सोच-समझकर नहीं ।अत: छूट गए सभी समर्थ कवि अपने-अपने को यहां सम्मिलित माने । बात थोड़े उदाहरणॊं से भी आगे बढ़ाई जा सकती हॆ ।एक कवि हैं बद्रीनारायण। युवा प्रतिभाओं में बद्रीनारायण का नाम अग्रिम पंक्ति में है। उनका कविता संग्रह ‘शब्द पदीयम्’ उनका दूसरा कविता-संग्रह है। निःसन्देह ये कविताएँ उनकी आगे की कविताएँ हैं और अधिक परिपक्व हैं। बद्री नारायण उन कवियों में से हैं जो लोक से ताकत लेते हैं। वे कथनों को मुहावरी जामा पहनाने में समर्थ हैं। यह सामर्थ्य भाषा को मोम बना देने वाली ताकत से आता है जो बद्री में हैः
चिड़िया और हिरणी के बारे में सोचना
अन्ततः शिकारी के बारे में सोचना है
अथवा
मैं कटी लकड़ी हूँ
जो खोजती है पेड़ों को
अशोक वाजपेयी ने कितनी ही खूबसूरत प्रेम कविताएँ दी हैं। अशोक जी सच्चे मायनों में प्रयोगशील कवि कहे जा सकते हैं। भाषा के साथ भी वे बहुत बार सार्थक प्रयोग करने से नहीं चूकते। उनके एक संग्रह ‘इबादत से गिरी मात्राएँ’ में एक-एक पंक्ति की 30 कविताएँ हैं जो कवि का भाषा पर विलक्षण अधिकार सिद्ध करती हैं। उनकी कविताएँ स्वयं कवि की अपनी कविता-परंपरा को ही नहीं बल्कि हिंदी कविता को समृद्ध करने में समर्थ हैं। एक कविता है ‘सरनाम सिंह की मृत्यु पर’। यह एक अद्वितीय कविता है। मनुष्यता के बेहतरीन रूप को यह कविता इस तरह फोकस में लाती है कि मनुष्यता का उदघोष करने वाली सैंकड़ों कविताओं पर भारी पड़ जाती है। एक अंश है:
पर तुम्हारी मृत्यु के दो दिनों बाद यह सौभाग्य है कि हम जीवित हैं,
लेकिन यह सच है कि तुम्हारे मरने में कुछ हमारा भी मर गया,
और यह क्या था हम जीते जी कभी नहीं जान पाएँगे-
हम तुम्हें भूलेंगे ताकि हमें अपना कुछ मरना याद न आए, सरनाम।
विष्णु खरे अकेले और अनूठे कवि हैं। उनके यहाँ आवेश या उत्तेजनापूर्ण विषयों पर भी कमाल की धैर्यवान और ठंडी-ठंडी ठहरी हुई प्रौढ़ शैली मिलती है। जरा भी हड़बड़ी नहीं। अपनी राह पर अपनी धुन में जाता हुआ एक यात्री-लेकिन पूरे माहौल के प्रति सचेत। शायद इसीलिए कवि की कविता अपना एक सहज साँचा बनाती है और अपने असर का एक खास मिजाज तैयार करती है - झटकाभर देकर फुस नहीं हो जाती। एक कविता है ‘पुनरवतरण’। इस कविता में यीशु के बहाने, आब्लीक शैली में जिस प्रकार शांति, सद्भाव, मानव-प्रेम आदि चाहनेवालों को, सता-विचारकों द्वारा घरविहीन बना दिए जाने की विडंबना को व्यक्त किया गया है यह समझ के स्तर पर गहरी छाप छोड़ता है। कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं:
हालाँकि इस धरती पर हमें तुम्हारी जरूरत है यीशु
हालाँकि हम तुम्हारा वचन याद करते हैं और तुम्हारी सख्त जरूरत है
लेकिन मैं वह जगह सोच नहीं पाता जहाँ तुम अवतरित होगे
और सुरक्षित रह सको।
रामदरश जी उन गिने चुने लेखकों में से एक हैं जिन्होंने कहानी क्या, उपन्यास क्या, संस्मरण क्या, जीवनी क्या और कविता क्या, न जाने कितनी ही विधाओं में बहुत अधिक लिखा है। अच्छी बात यह है कि अधिकता ने उनके स्तर को अधिक आघात नहीं पहुंचाया है। उनकी कविताएं बहुत अपनी और अपने परिवेशानुभवों को समेटे हुए सहज हैं और गहरे अर्थ बोध से संयुक्त हैं। कहीं भी बनावटीपन नहीं। कवि की स्मृति में अपना गाँव-गवाहंड सदा बसा है। और उनकी कविताओं को वहाँ से बहुत ताकत मिलती है। ‘कोयले और चूल्हे’ का यह अंश भीतर तक छू जाता हैः
‘आसान दिनों में
अभिजात हँसी हँसता हुआ गैस का चूल्हा
हमारे साथ चलता रहता है
लेकिन जब जाड़े के मुश्किल दिन आते हैं
तब आँगन के कोने में उपेक्षित उदास-सा पड़ा
कोयले का चूल्हा जाग जाता है हमारी आँखों में।’
भगवत रावत एक समर्थ कवि हैं भले ही आलोचकों की निगाह में उतने नहीं चढ़ सके हैं। चुनी हुई या निर्वाचित कविताओं के द्वारा ऐसे पाठक, जो पूरे साहित्य को पढ़ने का समय नहीं निकाल पाते, कवि की उत्कृष्ट देन से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। स्वयं कवि की भी अपनी काव्य-यात्रा की उपलब्धियों का पता चलता है। मानवीय चेतना से भरपूर भगवत रावत की कविताओं में से एक कविता का अंश हैः
सच पूछो तो
इतने से कामों के लिए आया था पृथ्वी पर
और भागता रहा यहाँ से वहाँ।
हिन्दीतर प्रदेशों में भी हिन्दी कविता काफ़ी फल-फूल रही है, भले उसकी ओर अपेक्षित ध्यान देने की ज़रूरत बनी हुई है। अरविंदाक्षन, पद्मजा घोरपड़े, प्रतिभा मुदिलियार, क्षमा कौल जैसे अनेक कवि-कवयित्रियां हैं जिन्होंने अच्छी कविताएँ लिखी हैं। बाहर रह रहे प्रवासी एवं भारत के मूलवासी भारतीयों में आज अनेक हिन्दी साहित्य सृजन में न केवल संलग्न हैं बल्कि अच्छा लिख रहे हैं और उनके लेखन को सहज ही लेखन की केन्द्रीय धारा में सम्मिलित किया जा सकता है। तेजेन्द्र शर्मा, दिव्या माथुर, डॉ कृष्ण कुमार , प्रो. आदेश, उषा राजे सक्सेना, सुषम बेदी, डॉ. गौतम सचदेव, अनिल जनविजय, डॉ. पुस्पिता, निखिल कौशिक, हेमराज सुन्दर, डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव, पद्मेश गुप्त, सुधा ओम ढींगरा (यहां भी अब एक लंबीसूची हॆ ) आदि अनेक कवियों के नाम गिनाए जा सकते हैं।
यदि कहूँ कि बावजूद निराशा भरे अनेक स्वरों के और बावजूद पाठकीय उपेक्षाओं की मार से उपजे रूदन के, समकालीन हिन्दी कविता का श्रेष्ठ विश्व की किसी भी श्रेष्ठ कविता से कमतर नहीं है, न ही कलात्मक विशद अनुभवों की दृष्टि से और न ही विविध एवं सहज सशक्त अभिव्यक्ति कौशल की दृष्टि से । तो ऐसे वचन को अतिशयोक्ति मानने वालों के पास प्रायः कविता से इतर ही तर्क हुआ करते हैं। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि प्रतिवर्ष सैंकड़ों कविता संग्रह प्रकाशित होते हैं और कितनी ही पत्र-पत्रिकाओं में एक बड़ी संख्या में कविताएँ छपती हैं। इतनी बड़ी संख्या को एक साथ अध्ययन के दायरे में लाना असंभव है। उनकी हम तक या हमारी उन तक संपूर्ण यात्रा निस्संदेह कठिन है। इसीलिए मुख्यतः बात प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण कवियों की कृतियों तक ही सीमित रह जाती है। तो भी युवा कवियों की पीढ़ी के पास अवसरों की कमी नहीं हॆ । माना कि परिवेश में अड़ंगेबाजी कम नहीं हैं। निःसंदेह पत्र-पत्रिकाओं, प्रकाशकों एवं संपादकों की भरमार के बावजूद। हिन्दी कविता में आज तीन प्रकार के कवि हैं -- एक वे जो ‘जाने’ जाते हैं। दूसरे वे जो ‘माने’ जाते हैं और तीसरे वे जो ‘जाने-माने’ जाते हैं। सबसे सौभाग्यशाली कवि दिखने में तो तीसरी श्रेणी के कवि हैं लेकिन असल में हैं वे दूसरी श्रेणी वाले कवि ही, क्योंकि ‘माने’ की श्रेणी में आने के बाद ‘जाने-माने’ की श्रेणी में उनका प्रस्थान आसान हो जाता है। दूसरी श्रेणी में वे कवि होते हैं जिनकी ओर लाड़-प्यार वाला ध्यान, कुछ प्रभावशाली आलोचक, केन्द्रित करते हैं। प्रायः इन्हें ही संस्थाओं के फल-फूल प्राप्ति का सौभाग्य प्राप्त होता है। बड़े प्रकाशकों के पिछ्छलग्गूपन का आस्वाद भी इन्हें ही मयस्सर होता है। पत्र-पत्रिकाओं की विशिष्ट शोभा भी इन्हीं से बढ़ायी जाती है। पाठयक्रमों में भी ये ही अवलोकित होते हैं। ये ही वे होते हैं जिन्हें अन्य समर्थ कवियों की कुंठा का कारण बनाने के भी भरपूर प्रयत्न चलते रहते हैं। इत्यादि, इत्यादि। ऐसे परिवेश की पहुंच अपनी स्वदेशी धरती पर फल-फूल रहों के साथ, बाहर की धरती तक भी होती है। मुख्यधारा में वहाँ के रचनाकारों का प्रवेश भी प्रायः इसी परिवेश पर निर्भर करता है। हाँ, इतना अवश्य है कि पहली श्रेणी के कवियों में से कुछ, और वे बहुत कम कुछ होते हैं, जल्दी ही ऐसे परिवेश के चक्रव्यूह को तोड़ने में समर्थ भी पाए जाते हैं। फिर भी, फिर भी, हिन्दी कविता के शिखर, जैसा प्रारम्भ में कहा था, सशक्त और ऊँचे हैं। और इसे संभव करने वाले उपर्युक्त तीनों ही श्रेणियों के कवियों में उपलब्ध हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि इस समय की कविता पहले की कविता वाली नारेबाजी, बड़बोलेपन, शोर और उत्तेजना के अतिरेक, सबको कोसों दूर छोड़ आयी है, जॆसा कि पहले भी कहा जा चुका हॆ । सीमित दायरे उसे पसन्द नहीं हैं चाहे वे कथ्य के हों या अभिव्यक्ति के। सूक्ष्म से सूक्ष्म, निजी से निजी और स्थानीयता की महक से भरे अनुभव भी आज की कविता का कथन हैं और विशाल से विशाल तथा व्यापक से व्यापक वैश्विक अनुभव भी आज की कविता से अछूता नहीं है। दृष्टि भी आज के कवि की एकांगी या एक दिशा गामी नहीं है बल्कि वह सच्चे मायने में प्रगतिशील है और संतुलित भी। प्रेम हो या राजनीति, ठेठ आदिवासी और ग्रामीण जीवन हो या कस्बाई और महानगरीय, रसोई हो या पांचसितारा होटल, सम्पन्न हो या दलित, आक्रामक हो या ठग कोई भी उसके अनुभव के दायरे से बचा नहीं है। आतंकवाद ऒर सम्प्रदायवाद तक अपने सबसे घिनॊने रूप के साथ अत्यंत प्रामिणक अनूभूतियों ऒर अनुभवों के साथ समकालीन कविता में मॊजूद हॆं ।अपने समय के समाज और देश की सम्पूर्ण धड़कन इस समय की कविता में उपस्थित हैं, वह भी अपने सम्पूर्ण रूप और विविध गति में। सोच और मार (वार) का एक अद्वितीय रास्ता इस कविता के पास है। इसके लिए उसके पास अपनी तरह के अभिव्यक्ति-औजार भी हैं। लोक (अर्थात् लोकजीवन, लोकभाषा, लोककथाएँ आदि), मिथक आदि से ताकत लेने में उसे गुरेज नहीं है। वह प्रहार करती है लेकिन सार्थक एवं सकारात्मक। सृजनात्मकता में आज की कविता का अटूट विश्वास है अतः वह निषेध और ध्वंस को छोड़ कर चलती है। वह प्रकृति में होने वाले उन छोटे-छोटे, महत्वहीन समझे जाने वाले व्यापारों को सामने लाकर अपनी इस दृष्टि का परिचय भी देती है और उसी राह समाज को चलाने की अपेक्षा भी करती है:
जब चोंच में दबा हो तिनका
तो उससे ज़्यादा खूबसूरत
कोई पक्षी नहीं होता।
(दिविक रमेश)
पक्षी की चोंच में तिनके के दबा होना सृजन और निर्माण की समझ को सामने लाता है। आज के कवि का मुख्य स्वर है ही विध्वंस और मृत्यु के खिलाफ। बाबरी मस्जिद का संदर्भ हो या, 11 सितम्बर अमेरिका का, गुजरात का हो या इराक युद्ध का, या फिर उत्तर प्रदेश की निठारी का, सब उसे बेचैन करते हैं। दिव्या माथुर के संग्रह का ही शीर्षक है 11 सितम्बर। सच तो यह है कि समय के दबाव से जन्मी मनुष्य की जितनी बेचैनियाँ और दबाव हो सकते हैं सब आज की कविता में प्रमुखता से मौजूद हैं। राजनीति की विसंगतियों के, बहुत ही ठहरे हुए तरीके से, आज की कविता परखचे उड़ाने में सक्षम हैं। दो अंश देखिएः
देश हमारा कितना प्यारा
बुश की आँखों का तारा
हम ही क्यों अमरीका जाएँ
अमरीका को भारत लाएँ
(मनमोहन, जिल्लत की रोटी)
हम अणु युग की ताकत का दुख नहीं चाहते
धरती पर विस्फोट नहीं चाहते
हम थोड़ी सी धरती और थोड़ा सा आकाश चाहते हैं
हम धरती का प्यार चाहते हैं
हम तितली और फूलों का प्यार चाहते हैं।
(पंकज चतुर्वेदी, एक ही चेहरा)
इस कविता ने संबंधों की खोती चली गई ‘आत्मीयता’ की वापसी का सफल प्रयत्न भी किया है। माँ, पिता, बहन, भाई, बेटियां, मित्र आदि पर केन्द्रित संभवतः सबसे अधिक कविताएँ इसी दौर ने संभव की हैं। साथ ही, यह भी कि इसी समय में स्त्री और दलित पर केन्द्रित विशिष्ट विमर्शात्मक कविताएँ भी उपलब्ध हुई हैं। प्रवासी कवियों में एक कवि हैं - अनिल जनविजय। उनकी कविताओं का संग्रह है -- राम जी भला करें। कितनी ही कविताओं में कवि का स्त्री-विमर्श मौजूद हैः पुरूष की/सबसे बड़ी/ताकत है/स्त्री। कवि की अभिव्यक्ति काफ़ी सहज और मौजमस्ती वाली है। बानगी देखिएः
मृत्यु -- मृत्यु ने
आलिंगन में बाँधा
और चूमा मुझे कई बार
पर एक दफ़ा भी
उसने मुझसे
किया न सच्चा प्यार।
कविताओं में मौजूद एक भाषागत लय भी आकर्षित करती है।
इसी प्रकार नीलेश रघुवंशी एक चर्चित कवयित्री हैं। अपनी प्रारम्भिक कविताओं से ही वे चर्चा में आ गयी थीं। उन्होंने अपनी कविताओं का अपनापन अर्जित कर लिया है। इनका एक संग्रह है ‘पानी की स्वाद’। स्त्री जगत के इतने सच्चे और टटके अनुभव कम ही कवयित्रियों में मिलते हैं जितने नीलेश के यहाँ। इनकी कविताओं की बड़ी ताकत यह है कि ये प्रचलित और चर्चित हिन्दी कविताओं में खो नहीं जाती। एक कविता है - ढेर सारे काम। यह एक दुर्लभ कविता है --
क्या तुम मार्च के अंत या अप्रैल के शुरू में आओगे?
अब तो ईष्र्या होने लगी है तुमसे
ढ़ेरों काम याद आ रहे हैं इन दिनों
तुम्हारे लिए कपड़े, मालिश की व्यवस्था
एक आया ढूँढ़नी है अभी से, ताकि जब आफिस जाऊँ तो वह तुम्हें अपनी सी लगे
गर्भवती स्त्री और शिशुपालन जैसी किताबें पढ़ती हूँ इन दिनों
ढ़ेर सारे नाम खोजती फिरती हूँ
हर दिन दूध वाले की जान खाती हूँ
दिन-भर इन्हीं चकल्लसों में उलझी रहती हूँ
फिर भी काम हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे।
हिंदी की जिन गिनी-चुनी कवयित्रियों ने पिछले कुछ वर्षों की सशक्त हिंदी कविता को संभव किया है उनमें कात्यायनी का नाम अग्रणी है। ‘जादू नहीं कविता’ इनका यद्यपि तीसरा संग्रह है लेकिन इसमें उनकी 1987 से 1997 के बीच लिखी गई वे कविताएँ हैं जो पिछले दो संग्रहों में शामिल नहीं हो सकी थीं। इस कवयित्री के आदर्श पाब्लो नेरूदा, नाज़िम हिकमत जैसे कवि हैं और इनकी प्रगतिशील दृष्टि सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन की प्रक्रिया में आस्था रखती है। इसलिए यथास्थिति के प्रति एक विद्रोह इनकी कविताओं में प्रायः मिलता है। कविताओं में जहाँ स्त्री सुलभ स्त्री-पीड़ा है तो उत्पीड़ित मनुष्य का दुःख और उसका संघर्ष भी है। इनमें हर भ्रम का पर्दाफ़ाश करते हुए सच तक पहुँचने की कोशिश और समझ है।
स्मृति स्वप्न नहीं
आशाएँ भ्रम नहीं
कविता जादू नहीं
सिर्फ कवि हम नहीं।
इस कवयित्री का कविता-कैनवास भी काफ़ी विस्तृत है। आलोचकों, पुरस्कारों, बड़े कवियों आदि से संबद्ध कुछ दिलचस्प कविताएँ भी यहाँ हैं:
बड़े कवि लगातार सोचते हैं
और वे सोचते हैं
कि सिर्फ वे ही सोचते हैं
या कि जो वे सोचते हैं
वह सिर्फ वे ही सोचते हैं।
वे लगातार सोचते हैं
और सोचना उन्हें अकेला कर देता है।
एक छोटी-सी घटना या कि एक छोट-सा स्मृति खंड अनामिका की कविता में एक वैचारिक मनःस्थिति का प्रेरक होकर आता है। ये कविताएँ भीतर से बाहर और निजता से समाज की ओर फैलती हैं। संग्रह की कुछ अच्छी कविताएँ स्त्री और बच्चे पर केंद्रित हैं। ‘ऋषिका’ कविता का एक अंश उद्धृत हैः--
माँ हूं मैं, मेरे भरोसे ही
बीमार पड़ता है चाँद !
जाओ, अब दूध पिलाऊँगी मैं,
सोओ कि इसे सुलाऊँगी मैं
उफ, करवट फेरने की जगह करो
मत खींचा-तानी बेवजह करो।
अनामिका के पास दृश्य-बंधों को सजीव करने वाली भाषा है, बिंबधर्मिता पर इनकी अच्छी पकड़ है। जाड़ा और संबंध ऐसी कविताएँ हैं, जहाँ व्यक्ति की यातना भाषा के भीतर से ऐसे रिस-रिस कर आती है जैसे आम की गुठली को देर तक चूसने पर भी स्वाद आता रहता है। भाषा की यह गुठली को देर तक चूसने पर भी स्वाद आता रहता है। भाषा की यह विशिष्टता अनामिका की अपनी विशिष्टता है।
इसके अतिरिक्त आज हिदी में स्त्री केन्द्रित कविताओं के साथ-साथ दलित केंद्रित भी अनेक ऐसी कविताएँ इस दौर में उपलब्ध हैं, जिन्हें हिन्दी कविता को मौलिक योगदान कहा जा सकता है। हालांकि यह विचारणिय हॆ कि क्या इन कविताओं ऒर तथाकथित इन से बाहर की कविताओं के झगड़ों को बढ़ाया जाए या हिन्दी कविता की एक विविधरंगी मुख्य धारा को खोजा जाए । खॆर । आज दलित कविता भरत की प्रय: सभी मुख्य भाषाओं में लिखी जा रही हॆ । मराठी में दलित कविता के मन्द-मन्द स्वर 1965-67 के आसपास प्रारम्भ हो गए थे जबकि आज वह समकालीन मराठी-कविता का अत्यंत महात्त्वपूर्ण हिस्सा हॆ । दलित कवियों में ऎसे कवि भी हॆं जो मार्क्स में आस्था रखते हॆं । ऎसे कवियों में बदले की सी गालीगलॊच के स्थान पर कुप्रवृतियों ऒर सामाजि-आर्थिक शोषकों के दमन ऒर उनकी चालाकियों पर तीखे प्रहार अधिक हॆं । मराठी दलित कविता में दलित कविता से आशय हॆ दलित कवियों द्वारा लिखी गयी कविता अर्थात अस्पृश्यता, समाजिक शोषण, जातिवाद ऒर अन्याय के खिलाफ़ विद्रोह ।मराठी दलित कविता की अनुवाद के माध्यम से अपनी पुस्तक ’रक्त में जलते हुए अनगिनत सूर्य’ (1982) के द्वारा हिन्दी जगत को कदाचित पहली झलक दिखाने वाले कवि दिनकर सोनवलकर के शब्दों में -" आगे चलकर दलित कविता दो दिशाओं में विकसित होने लगी- एक, अम्बेडकर, जिस पर बुद्ध के यथार्थवादी मानवतावाद का प्रभाव हॆ ऒर दूसरी, मार्क्सवादी जो समाज के आर्थिक विश्लेषण से प्रेरित हॆ । ....विद्रोह (दलित कविता) इसमें भी हॆ लेकिन वह फ़ेशनेबिल, सुविधाभोगी, बुद्धिजीवियों का शगल नहीं । जनवाद इसमें भी हॆ लेकिन वह पार्टी-पीड़ित नहीं हॆ ऒर न ही साहित्य में प्रतिष्ठित होने की एक आसान सीढ़ी । दलित कविता की ताकत हॆ ज़िन्दगी के कड़ुवे अनुभव, कवियों के आंसू, खून, पसीने ऒर उनके गुस्से से लिखी गयीं रचनाएं । उनका नाता दलितों के यथार्थ से हॆ । अपने अनुभवों से वह गहरे से जुड़ी हुई हॆ मसलन मां (आई) का वर्णन इसमे भी हॆ, लेकिन वह वात्सल्य, प्रेम, लाड़-प्यार लुटाने वाली मां नहीं हॆ; क्योंकि ऎसी असंख्य माताएं आज भी हॆं, जो रद्दी कागज़, लकड़ी, बोतले या लोहे के टुकड़े बीन-बीन कर अपना ऒर बच्चों का पेट पाल रही हॆं । ..... अम्बेडकरवादी कविता मार्क्सवाद के विरोध में कतई नहीं हॆ । उसके कथ्य निखालिस ’देसी’ हॆं ऒर संदर्भ भारतीय ।’ बहरहाल बात यदि हिदी दलित कविता की की जाए तो आज सुशीला टाक्भॊरें, सूरजपाल चैहान, कावेरी, ओमप्रकाश वाल्मीकि, डॉ जय प्रकाश कर्दम, मोहन्दास नॆमिशराय, सुदेश तन्वर, सूरज बडत्या, मुकेश मानस आदि कितने ही कवि हॆं जो इसे आवाज दे रहे हॆं । मलखान सिंह की एक कविता ’एक पूरी उम्र’ की निम्न पंक्तियों का मर्म भीतर तक हिला जाता हॆ :
यकीन मानिए
इस आदमखोर गांव में
मुझे डर लगता हॆ ।
लगता हॆ कि अभी बस अभी
ठुकुराइसी मॆंड़ चीखेगी
मॆं अध्सॊंच ही
खेत से उठ जाऊंगा
कि अभी बस अभी
हवेली घुड़केगी,
मॆं बेगारी में पकड़ा जाऊंगा ।
समकालीन हिन्दी कविता में अवसाद और चिन्ता के स्वर बहुत मिलते हैं जो उनके विरुद्ध खड़े होने की मानसिकता तॆयार करते हॆं- त्रिलोचनी कविता की तरह ।
ज्ञानेन्द्रपति की कुछ बेहतरीन कविताएँ राजनीतिक क्रूरताओं और आत्म व्यंग्य के कठिन स्वरों का दस्तावेज हैं। उनकी कविताओं में संबंध के प्रति आत्मीय भाव भी पूरे विवेक के साथ अभी जमा हुआ है। उनकी कविताओं में ‘देशज’ का सौन्दर्य देखते ही बनता है। स्थानीयता या देसीपन समकालीन कविता का एक ऎसा विशिष्ट गुण हॆ जिसके रहते आज हर कव एक दूसरे का समकालीन भी कहा जा सकता हे ऒर एक दूसरे से अलग भी । मानबहादुर सिंह के यहां अवध का सहज रंग मिलता हॆ तो विजेन्द्र के यहां राजस्थान का । खुद मेरी कविताओं के एक विशिष्ट गुण के रूप में कवि केदार नाथ सिंह ने मेरी कविताओं में सहज ही उपस्थित हरियाणवी ऒर हरियाणे को माना हॆ । असल में लोक (लोक कथाएं, मुहावरे, गीत इत्यादि) से आज की कविता न केवल अपनी अनुभव सम्पदा को ऒर समृद्ध करती हॆ बल्कि कलागत क्षमताओं के लिए भी लोक का बड़े स्रोत के रूप में उपयोग करती हॆ जो मेरी निगाह में एक सही ऒर महत्त्वपूर्ण रास्ता हॆ ।नवीनतम पीढ़ी के रचनाकारों को इस ओर विचार करना चाहिए । एक कवि हॆ आलोकधन्वा । इनकी कविताओं से भी सीखा जा सकता हॆ ।
चलते-चलते चार-पांच कवियों का और जिक्र करना चाहूँगा। एक हैं मॉरिशिश के हेमराज सुन्दर जिनकी कविताओं के संग्रह का नाम है - ‘अस्वीकृति में उठे हाथ’, दूसरे हैं सुन्दर चंद ठाकुर जिनका कविता-संग्रह है, ‘किसी रंग की छाया, तीसरे हैं, डॉ. कृष्ण कुमार जिनके चार कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं , चॊथे हैं केरल के अरविंदाक्षन जिनके संग्रह का नाम है - ‘घोड़ा’ऒर पांचवे हॆं -विश्वरंजन जिनकी कविताओं से मेरा परिचय अपेक्षाकृत नया हॆ । उनकी अच्छी कविताओं के दूसर संग्रह का शीर्षक हॆ :’आती हॆ बहुत अंदर से आवाज’ ।
सोमदत्त बखौरी की पीढ़ी के बाद, अभिमन्यु अनत के शब्दों में, ‘हेमराज सुन्दर ने - अपने समय के नवोदित कवियों में कविता के नए तकाज़े की पहल की है।’ वस्तुतः इनकी कविताओं में आक्रोश तो है लेकिन मात्र उत्तेजना एवं कुंठा नहीं। कुछ पंक्तियाँ हैं --
एक है सूर्य एक है चन्द्रमा
धरती-गगन एक है
परी तालाब से सागर तक फैला
सारा मॉरिशस एक है।
सुन्दरचन्द ठाकुर एक सशक्त कवि हैं जिनके पास अपना एक भाषा-मुहावरा है। कुछ ही पंक्तियाँ देखें:
मेरी नींद में सपने खत्म नहीं होते
मेरी आँख में उम्मीद अटकी रहती है
मेरे पाँव में लिपटी रहती हैं यात्राएँ
मेरे हाथ कभी खाली नहीं रहते।
(मैं आदमी हूँ)
स्पष्ट है कि ये पंक्तियाँ एक बहु वांछनीय परिवेश की ओर तो इंगित करती ही हैं, आज समेत किसी भी समय के किसी भी ‘विमर्श’ को स्वर देने में भी समर्थ हैं। कुछ और पंक्तियाँ देखें:
‘हत्यारा खून से लिख रहा है प्रार्थना
मंच पर खड़ा है मसखरा
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कविता की तरह थी यहाँ एक स्त्री
उसकी चुप्पी दिनों दिन बढ़ती ही जाती थी
----
समारोह में बंटते थे प्रशस्ति-पत्र - पुरस्कार
कविताओं में बढ़ता जाता था व्यापार।
----
उसके ऊपर एक पंखा
उसकी नींद की रखवाली करता घूमता रहता है।
दृश्य से जा चुकी वह चिड़िया
अभी बची हुई है वहाँ
उसके पंजों के नीचे दबी घास
खुल रही है धीरे-धीरे
वातावरण में
उसकी कूक की अनुपस्थिति मौजूद है।
स्त्री को थकान लगती थी और नींद आती थी
पुरूष उससे एक कप चाय की फरमाइश करता था।
कृष्ण कुमार के यहाँ ऊँचे मूल्यों के स्खलन की चिन्ता को लेकर बहुत ही अच्छी और गंभीर काव्याभिव्यक्तियाँ हैं। वे तीखे सवाल उठाती हैं। उनके पास रूढ़ि भेदक दृष्टि है। ऊपर से लग सकता है उनके यहाँ अध्यात्म ही अध्यात्म है लेकिन गहरे में सामाजिक विसंगतियों, मूल्य-स्खलन आदि का व्यंग्यपरक एवं संवेदनात्मक परिदृश्य मौजूद है।
अरविंदाक्षन की कविताओं की मूल चिन्ता पृथ्वी के सौन्दर्य को विनाश से बचाने की है। धरती को नष्ट करने वाले धूमकेतुओं से कवि सावधान करना चाहता है।
विश्वरंजन एक समर्थ कवि हॆं । चाल धीमी सही पर कदम पुख्ता हॆं । उनके पास एक दृष्टि-मंत्र भी हॆ :
जब सबकी हो जाती हॆ ज़मीन/ सामुहिक हो जाता हॆ मंत्र
यह कवि बहुत गहरे तक चालाकियों ऒर दर्दों की पहचान रखता हॆ लेकिन इनके यहां विद्रोह ’अफसोस’ ऒर ’आक्रोश’ के रूप में अधिक हे:
बच्चे जवान होने से पहले ही/ मार दिए जाएंगे इस बाहरी दुनिया में
बाज़ार दॆत्य बन नाचेगा/ ऒर मांगेगा रक्त/ आसमान में छींट उड़ेगे खून के/
ऒर उड़ेगी गर्दो-गुबार ।
क्या सचमुच समझ पा रहे हॆं हम
नज़फगढ़ या
उस जॆसे तमाम
शहर बन रहे गावों का दर्द ऒर
बाज़ार का रेंगता-सा खूनी पंजा ?
ऒर ऎसा सब देख-समझ कर कवि अपने अन्दर उतरने लगता हॆ । एक कविता हॆ, ’श्रीनगर की सड़कें ऒर दूर दिल्ली में जा बसे कुछ लोग’ जो सपनों को बचाए रखने में विश्वास जगाती हॆ ।’ अब बचपन के दिन कहां’ जॆसी कविताएं इसलिए मजबूत हॆं क्योंकि इन्होंने अपना शिल्प खुद तलाशा हॆ । अनेक ऎसी कविताएं हॆं जो हांट करती हॆं क्योंकि उनमें बहुत ही भयावह स्थितियों के मार्मिक चित्र हॆ । विस्तार भय के बावजूद एक बहुत ही अच्छी कविता ’मेहमान’ का इसलिए जिक्र करना चाहूंगा क्योंकि इस छोटी सी कविता में घर-परिवार की पूरी देसीयता ऒर संस्कृति बड़ी क्रिस्पी रूप में व्यक्त हुई हॆ ऒर वह प्रभावशाली हॆ । इसमें हमारी मध्यवर्गीय मनोवृति की एक सच्ची छवि हॆ :
जब नहीं आता हे मेहमान
घर में कब्रिस्तान का फॆलाव होता हॆ
आज भी नहीं आया कोई मेहमान घर में
घर में कब्रिस्तान का सन्नाटा हॆ ।
अंत की ओर आते-आते यहां मॆं एक मुद्दा उठाना चाहता हूं हालांकि यह बहुत नया भी नहीं हॆ । । विशेष रूप से आज के युवा कवियों के समक्ष । आज दलित विमर्श हॆ, स्त्री विमर्श हॆ ऒर आदिवासी विमर्श भी हो सकता हॆ । सबके अपने-अपने सॊन्दर्य-शास्त्र भी बन चले हॆं । फिर भी जिस मुद्दे को यहां उठाने वाला हूं वह ऎसा हॆ जिसका वास्ता सबसे पड़ सकता हॆ । व्यापक रूप में प्राय: सब कलाओं से । अत: मेरी निगाह में महात्त्वपूर्ण हॆ । बात युं शुरु की जा सकती हॆ कि कलाकार ( जिसमें कवि भी सम्मिलित हॆ ) ऒर समाज के रिश्ते को लेकर प्राय: दो दृष्टिकोण मिलते हॆं । एक यह कि कलाकार एक विशिष्ट व्यक्ति होता हॆ । वह जो कुछ भी रचता हॆ वह ईश्वर से मिली अपनी प्रतिभा के के बल पर ही रचता हॆ । वह पॆदा ही मॊलिक प्रतिभा लेकर होता हे । ऎसी दृष्टिवाले लोग कलाकार की निष्ठा खुद कलाकार ऒर उसकी कला तक ही सीमित मानते हॆं । ऎसी स्थिति में उनकी धारणा हॆ कि कलाकार की दुनिया में किसी को भी दख़ल देने का कोई अधिकार नहीं होता । अत: उनके लिए सामाजिक मुद्दा कोई मुद्दा ही नहीं होता ।तब वह कलाकार एक ऎसी आधुनिकता को जीता हॆ जो ’व्यक्ति’ पर किसी प्रकार के अंकुश या रोक का विरोध करती हॆ । उसकी मानसिकता ’मुझे समाज से क्या लेना-देना’ वाली होती हॆ । समाज पर वह अहसान ही करता नज़र आता हॆ । समाज का उस पर कोई अहसान नहीं होता । दू्सरा यह कि कलाकार अन्तत: समाज ही की देन हॆ । वह समाज निरपेक्ष हो ही नहीं सकता । समाज से संबंध की हर सोच से उसका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष लेना-देना होता हॆ । वह समाज के प्रति प्रतिबद्ध होता हॆ जिसके अभाव में वह महत्त्वपूर्ण ऒर मूल्यवान कला या रचना दे ही नहीं सकता । अत: वह समाज के प्रति उत्तरदायी ऒर कृतज्ञ होता हॆ । समाज के हित में वह हमेशा अपने विवेक को जागृत रखना चाहता हॆ।
इन दो दृष्टिकोणों के आधार में मूल अन्तर कदाचित कला-कर्म की प्रकृति को लेकर हॆ । कलाकर्म को आत्मनिष्ठ मानने वाले उसे प्राकृत कर्म मानते हॆं जबकि उसे सामाजिक मानने वाले एक चेतन कर्म मानते हॆं । चेतन कर्म में अपने ल्क्ष्यों के प्रति कलाकार जागरूक रहता हॆ । वह अर्जित किए हुए व्यक्तित्व की सॄजन-क्षमाताओं से लिखता हॆ । उसकी कला एक ऎसा रूप अर्जित करती हॆ जो दूसरों की मानसिकता में प्रवेश कर उसे प्रभावित करती हॆ, उसे दूसरों से जोड़ती हॆ । इस तरह कलाकार की सामाजिक प्रतिबद्धता दूसरे की सामाजिक प्रतिबद्धता बन जाती हॆ । दूसरी ओर आत्मनिष्ठ कलाकार अपनी निजता को ही रचता रहता हॆ । अपनी मॊलिकता के नाम पर अजूबा भी बनने का खतरा उठाता हॆ ।
अब सवाल यह हॆ कि जब समाज स्वयं परिवर्तन्शील हॆ, जब उसके मूल्य ही स्थिर नहीं हॆं, जब दुनिया में अनेक सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाएं हॆं, नए समाज की अनेक अवधारणाएं हॆं तो कलाकार कॆसे उसके प्रति प्रतिबद्ध होकर स्थायी या शश्वत मूल्यों की कला दे सकता हॆ । ऒर यह भी तो हो सकता हे कि जिस कला को एक कलाकार समाज के हित में मान रहा हॆ, वह समाज को अपने हित में ही न लगे । ऒर यह भी कि इस विविध रंगी समाज के किस रंग के प्रति कलाकार प्रतिबद्ध हो ।
ये उलझाव अपनी जगह सही हो सकते हॆं तो ण्भी मॆं इन्हें सामाजिक प्रतिबद्धता की राह में बड़ी रुकावट नहीं मानता । मोटे तॊर पर हर कलाकार अपने सम्य के योग्य चिन्तन की तस्वीर पेश किया करता हॆ । उसी के सहारे वह दूसरे लोगों को उस चिन्तन को परखने ऒर अपनाने के लिए प्रेरित भी करता हॆ।सच्ची कला जनता के दु:ख-सुख की पहचान ही नहीं कराती बल्कि विकल्प के रूप में एक नयी योग्य दुनिया की खोज के लिए प्रेरित भी किया करती हॆ । ऎसा प्रयत्न उन रचनाकारों का भी रहा हॆ जिन्होंने साहित्य का उद्देश्य ’स्वान्त: सुखाय घोषित किया हॆ ।’स्वन्त: सुखाय’ की बात करके वस्तुत: कलाकार उन बाह्य प्रभावों के प्रलोभनों के नकार की बात करता हॆ जो उसे उसके सच्चे विवेकशील रास्ते से हटा कर सत्ता या व्यवस्था का चाटूकार या पिच्छ्लग्गू बनने की राह पर धकलेने का प्रयत्न किया करते हॆं । उसे इस्तेमाल की वस्तु में बदलने की कोशिश किया करते हॆं । जिनके रहते वह अपनी बात कहने तक को स्वतन्त्र नही रह पाता ।
यह भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि कला का समाज से कोई यांत्रिक संबंध नहीं होता हांलाकि कला ऒर समाज के विकास का परस्पर सबंध गहरा होता हॆ ।मुक्तिबोध के अनुसार, ’मानव-चेतना, वस्तुत: मानव-संबंधों से निर्मित तथा उससे उद्गत चेतना हॆ । ये मानव-संबंध समाज के विकास के साथ परिवर्तित होते रहते हॆं, तथा समाज की विशेष स्थितियों की उनमें विशेषताएं प्रकट होती रहती हॆं । विशेषता संयुक्त ये मानव-संबंध, मानव-चेतना की मूलभूत नींवें हॆं, जिनके आधार पर कला, दर्शन, धर्म तथा साहित्य की सृष्टि होती हॆ । इन्हीं मानव-संबंधों की अवस्था-विशेष के अनुसार मानव की विश्व-दृष्टि भी बनती हॆ । निश्चय ही उसकी यह दृष्ट उसकी चेतना का ही अंग हॆ ।....चेतना कोई व्यक्तिगत वस्तु नहीं होती, उसके वस्तु-तत्व भी सामाजिक होते हॆं । ऎसे समय में जबकि मानव-विरोधी शक्तियां पूर ज़ोरों पर हॆं, बाज़ार हावी होता चला जा रहा हॆ ऒर कला को धीरे-धीरे निष्क्रिय ऒर निष्प्राण बना देने की साज़िशें चल रही हॆं , रचनाकार या कलाकार को इन मानव-विरोधी ताकतों के प्रति अतिरिक्त रूप से सजग होना पड़ेगा । लेकिन रचनात्मक चुनॊतियों का सामना करते हुए । प्रतिबद्ध होना किसी कलाकार के सही दिशा या सोच की ओर होना तो होता हॆ लेकिन कलाकार की कला के उत्कृष्ट होने की वह गारंटी नहीं होता । इसीलिए अपनी कला की उत्कृष्टता के लिए कला की कलात्मक अपेक्षाओं अर्थात क्षमताओं के प्रति उसे उदासीन नहीं होना होता । अत: दलित-विमर्श हो या स्त्री-विमर्श; आदिवासी -विमर्श हो या गरीब-विमर्श ये कला में कोरे नारे या दिखावे नहीं हो सकते । ये कविता य किसी भी कला-रूप मे फ्रेम में जड़ाऊ मात्र नहीं होने चाहिए , अन्यथा रचना या कला दो कॊड़ी की बन कर रह जाएगी भले ही बात या विचार कितना ही ग्राह्य क्यों न हो । मेरा तो ऎसा ही मानना हॆ ।
अंत में यह तो कहा ही जा सकता है कि हिन्दी कविता निरन्तर गतिशील है और एक से एक शिखर संभव करने को लालायित भी। बावजूद गद्य की चुनौतियों के। उसे सामने लाने में आज तो कितने ही ‘वैब जाल’ भी सशक्त भूमिका निभा रहे हैं। हर जागरूक पाठक और रचनाकार इन वैबजालों से आज परिचित है। इनके माध्यम से हिन्दी कविता पूरे विश्व के हिन्दी रचनाकारों और पाठकों को एक साथ जोड़ने की महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। अनुभूति, अभिव्यक्ति, सृजन गाथा, गर्भनाल और हिन्दी नेस्ट (बोलोजी) आदि अत्यंत महत्वपूर्ण हिंदी वेब जाल हैं। और अन्त में कवि त्रिलोचन के शब्दों में ‘हिन्दी कविता उनकी कविता है जिनकी सांसों में आराम नहीं था।’
बी-295, सेक्टर-20
नोएडा-201301
1. हाल ही में एक और महत्वपूर्ण वेब जाल ‘साहित्य कुंज’ से भी परिचय हुआ है।
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चिड़िया और हिरणी के बारे में सोचना
अन्ततः शिकारी के बारे में सोचना है
अथवा
मैं कटी लकड़ी हूँ
जो खोजती है पेड़ों को
अशोक वाजपेयी ने कितनी ही खूबसूरत प्रेम कविताएँ दी हैं। अशोक जी सच्चे मायनों में प्रयोगशील कवि कहे जा सकते हैं। भाषा के साथ भी वे बहुत बार सार्थक प्रयोग करने से नहीं चूकते। उनके एक संग्रह ‘इबादत से गिरी मात्राएँ’ में एक-एक पंक्ति की 30 कविताएँ हैं जो कवि का भाषा पर विलक्षण अधिकार सिद्ध करती हैं। उनकी कविताएँ स्वयं कवि की अपनी कविता-परंपरा को ही नहीं बल्कि हिंदी कविता को समृद्ध करने में समर्थ हैं। एक कविता है ‘सरनाम सिंह की मृत्यु पर’। यह एक अद्वितीय कविता है। मनुष्यता के बेहतरीन रूप को यह कविता इस तरह फोकस में लाती है कि मनुष्यता का उदघोष करने वाली सैंकड़ों कविताओं पर भारी पड़ जाती है। एक अंश है:
पर तुम्हारी मृत्यु के दो दिनों बाद यह सौभाग्य है कि हम जीवित हैं,
लेकिन यह सच है कि तुम्हारे मरने में कुछ हमारा भी मर गया,
और यह क्या था हम जीते जी कभी नहीं जान पाएँगे-
हम तुम्हें भूलेंगे ताकि हमें अपना कुछ मरना याद न आए, सरनाम।
विष्णु खरे अकेले और अनूठे कवि हैं। उनके यहाँ आवेश या उत्तेजनापूर्ण विषयों पर भी कमाल की धैर्यवान और ठंडी-ठंडी ठहरी हुई प्रौढ़ शैली मिलती है। जरा भी हड़बड़ी नहीं। अपनी राह पर अपनी धुन में जाता हुआ एक यात्री-लेकिन पूरे माहौल के प्रति सचेत। शायद इसीलिए कवि की कविता अपना एक सहज साँचा बनाती है और अपने असर का एक खास मिजाज तैयार करती है - झटकाभर देकर फुस नहीं हो जाती। एक कविता है ‘पुनरवतरण’। इस कविता में यीशु के बहाने, आब्लीक शैली में जिस प्रकार शांति, सद्भाव, मानव-प्रेम आदि चाहनेवालों को, सता-विचारकों द्वारा घरविहीन बना दिए जाने की विडंबना को व्यक्त किया गया है यह समझ के स्तर पर गहरी छाप छोड़ता है। कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं:
हालाँकि इस धरती पर हमें तुम्हारी जरूरत है यीशु
हालाँकि हम तुम्हारा वचन याद करते हैं और तुम्हारी सख्त जरूरत है
लेकिन मैं वह जगह सोच नहीं पाता जहाँ तुम अवतरित होगे
और सुरक्षित रह सको।
रामदरश जी उन गिने चुने लेखकों में से एक हैं जिन्होंने कहानी क्या, उपन्यास क्या, संस्मरण क्या, जीवनी क्या और कविता क्या, न जाने कितनी ही विधाओं में बहुत अधिक लिखा है। अच्छी बात यह है कि अधिकता ने उनके स्तर को अधिक आघात नहीं पहुंचाया है। उनकी कविताएं बहुत अपनी और अपने परिवेशानुभवों को समेटे हुए सहज हैं और गहरे अर्थ बोध से संयुक्त हैं। कहीं भी बनावटीपन नहीं। कवि की स्मृति में अपना गाँव-गवाहंड सदा बसा है। और उनकी कविताओं को वहाँ से बहुत ताकत मिलती है। ‘कोयले और चूल्हे’ का यह अंश भीतर तक छू जाता हैः
‘आसान दिनों में
अभिजात हँसी हँसता हुआ गैस का चूल्हा
हमारे साथ चलता रहता है
लेकिन जब जाड़े के मुश्किल दिन आते हैं
तब आँगन के कोने में उपेक्षित उदास-सा पड़ा
कोयले का चूल्हा जाग जाता है हमारी आँखों में।’
भगवत रावत एक समर्थ कवि हैं भले ही आलोचकों की निगाह में उतने नहीं चढ़ सके हैं। चुनी हुई या निर्वाचित कविताओं के द्वारा ऐसे पाठक, जो पूरे साहित्य को पढ़ने का समय नहीं निकाल पाते, कवि की उत्कृष्ट देन से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। स्वयं कवि की भी अपनी काव्य-यात्रा की उपलब्धियों का पता चलता है। मानवीय चेतना से भरपूर भगवत रावत की कविताओं में से एक कविता का अंश हैः
सच पूछो तो
इतने से कामों के लिए आया था पृथ्वी पर
और भागता रहा यहाँ से वहाँ।
हिन्दीतर प्रदेशों में भी हिन्दी कविता काफ़ी फल-फूल रही है, भले उसकी ओर अपेक्षित ध्यान देने की ज़रूरत बनी हुई है। अरविंदाक्षन, पद्मजा घोरपड़े, प्रतिभा मुदिलियार, क्षमा कौल जैसे अनेक कवि-कवयित्रियां हैं जिन्होंने अच्छी कविताएँ लिखी हैं। बाहर रह रहे प्रवासी एवं भारत के मूलवासी भारतीयों में आज अनेक हिन्दी साहित्य सृजन में न केवल संलग्न हैं बल्कि अच्छा लिख रहे हैं और उनके लेखन को सहज ही लेखन की केन्द्रीय धारा में सम्मिलित किया जा सकता है। तेजेन्द्र शर्मा, दिव्या माथुर, डॉ कृष्ण कुमार , प्रो. आदेश, उषा राजे सक्सेना, सुषम बेदी, डॉ. गौतम सचदेव, अनिल जनविजय, डॉ. पुस्पिता, निखिल कौशिक, हेमराज सुन्दर, डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव, पद्मेश गुप्त, सुधा ओम ढींगरा (यहां भी अब एक लंबीसूची हॆ ) आदि अनेक कवियों के नाम गिनाए जा सकते हैं।
यदि कहूँ कि बावजूद निराशा भरे अनेक स्वरों के और बावजूद पाठकीय उपेक्षाओं की मार से उपजे रूदन के, समकालीन हिन्दी कविता का श्रेष्ठ विश्व की किसी भी श्रेष्ठ कविता से कमतर नहीं है, न ही कलात्मक विशद अनुभवों की दृष्टि से और न ही विविध एवं सहज सशक्त अभिव्यक्ति कौशल की दृष्टि से । तो ऐसे वचन को अतिशयोक्ति मानने वालों के पास प्रायः कविता से इतर ही तर्क हुआ करते हैं। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि प्रतिवर्ष सैंकड़ों कविता संग्रह प्रकाशित होते हैं और कितनी ही पत्र-पत्रिकाओं में एक बड़ी संख्या में कविताएँ छपती हैं। इतनी बड़ी संख्या को एक साथ अध्ययन के दायरे में लाना असंभव है। उनकी हम तक या हमारी उन तक संपूर्ण यात्रा निस्संदेह कठिन है। इसीलिए मुख्यतः बात प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण कवियों की कृतियों तक ही सीमित रह जाती है। तो भी युवा कवियों की पीढ़ी के पास अवसरों की कमी नहीं हॆ । माना कि परिवेश में अड़ंगेबाजी कम नहीं हैं। निःसंदेह पत्र-पत्रिकाओं, प्रकाशकों एवं संपादकों की भरमार के बावजूद। हिन्दी कविता में आज तीन प्रकार के कवि हैं -- एक वे जो ‘जाने’ जाते हैं। दूसरे वे जो ‘माने’ जाते हैं और तीसरे वे जो ‘जाने-माने’ जाते हैं। सबसे सौभाग्यशाली कवि दिखने में तो तीसरी श्रेणी के कवि हैं लेकिन असल में हैं वे दूसरी श्रेणी वाले कवि ही, क्योंकि ‘माने’ की श्रेणी में आने के बाद ‘जाने-माने’ की श्रेणी में उनका प्रस्थान आसान हो जाता है। दूसरी श्रेणी में वे कवि होते हैं जिनकी ओर लाड़-प्यार वाला ध्यान, कुछ प्रभावशाली आलोचक, केन्द्रित करते हैं। प्रायः इन्हें ही संस्थाओं के फल-फूल प्राप्ति का सौभाग्य प्राप्त होता है। बड़े प्रकाशकों के पिछ्छलग्गूपन का आस्वाद भी इन्हें ही मयस्सर होता है। पत्र-पत्रिकाओं की विशिष्ट शोभा भी इन्हीं से बढ़ायी जाती है। पाठयक्रमों में भी ये ही अवलोकित होते हैं। ये ही वे होते हैं जिन्हें अन्य समर्थ कवियों की कुंठा का कारण बनाने के भी भरपूर प्रयत्न चलते रहते हैं। इत्यादि, इत्यादि। ऐसे परिवेश की पहुंच अपनी स्वदेशी धरती पर फल-फूल रहों के साथ, बाहर की धरती तक भी होती है। मुख्यधारा में वहाँ के रचनाकारों का प्रवेश भी प्रायः इसी परिवेश पर निर्भर करता है। हाँ, इतना अवश्य है कि पहली श्रेणी के कवियों में से कुछ, और वे बहुत कम कुछ होते हैं, जल्दी ही ऐसे परिवेश के चक्रव्यूह को तोड़ने में समर्थ भी पाए जाते हैं। फिर भी, फिर भी, हिन्दी कविता के शिखर, जैसा प्रारम्भ में कहा था, सशक्त और ऊँचे हैं। और इसे संभव करने वाले उपर्युक्त तीनों ही श्रेणियों के कवियों में उपलब्ध हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि इस समय की कविता पहले की कविता वाली नारेबाजी, बड़बोलेपन, शोर और उत्तेजना के अतिरेक, सबको कोसों दूर छोड़ आयी है, जॆसा कि पहले भी कहा जा चुका हॆ । सीमित दायरे उसे पसन्द नहीं हैं चाहे वे कथ्य के हों या अभिव्यक्ति के। सूक्ष्म से सूक्ष्म, निजी से निजी और स्थानीयता की महक से भरे अनुभव भी आज की कविता का कथन हैं और विशाल से विशाल तथा व्यापक से व्यापक वैश्विक अनुभव भी आज की कविता से अछूता नहीं है। दृष्टि भी आज के कवि की एकांगी या एक दिशा गामी नहीं है बल्कि वह सच्चे मायने में प्रगतिशील है और संतुलित भी। प्रेम हो या राजनीति, ठेठ आदिवासी और ग्रामीण जीवन हो या कस्बाई और महानगरीय, रसोई हो या पांचसितारा होटल, सम्पन्न हो या दलित, आक्रामक हो या ठग कोई भी उसके अनुभव के दायरे से बचा नहीं है। आतंकवाद ऒर सम्प्रदायवाद तक अपने सबसे घिनॊने रूप के साथ अत्यंत प्रामिणक अनूभूतियों ऒर अनुभवों के साथ समकालीन कविता में मॊजूद हॆं ।अपने समय के समाज और देश की सम्पूर्ण धड़कन इस समय की कविता में उपस्थित हैं, वह भी अपने सम्पूर्ण रूप और विविध गति में। सोच और मार (वार) का एक अद्वितीय रास्ता इस कविता के पास है। इसके लिए उसके पास अपनी तरह के अभिव्यक्ति-औजार भी हैं। लोक (अर्थात् लोकजीवन, लोकभाषा, लोककथाएँ आदि), मिथक आदि से ताकत लेने में उसे गुरेज नहीं है। वह प्रहार करती है लेकिन सार्थक एवं सकारात्मक। सृजनात्मकता में आज की कविता का अटूट विश्वास है अतः वह निषेध और ध्वंस को छोड़ कर चलती है। वह प्रकृति में होने वाले उन छोटे-छोटे, महत्वहीन समझे जाने वाले व्यापारों को सामने लाकर अपनी इस दृष्टि का परिचय भी देती है और उसी राह समाज को चलाने की अपेक्षा भी करती है:
जब चोंच में दबा हो तिनका
तो उससे ज़्यादा खूबसूरत
कोई पक्षी नहीं होता।
(दिविक रमेश)
पक्षी की चोंच में तिनके के दबा होना सृजन और निर्माण की समझ को सामने लाता है। आज के कवि का मुख्य स्वर है ही विध्वंस और मृत्यु के खिलाफ। बाबरी मस्जिद का संदर्भ हो या, 11 सितम्बर अमेरिका का, गुजरात का हो या इराक युद्ध का, या फिर उत्तर प्रदेश की निठारी का, सब उसे बेचैन करते हैं। दिव्या माथुर के संग्रह का ही शीर्षक है 11 सितम्बर। सच तो यह है कि समय के दबाव से जन्मी मनुष्य की जितनी बेचैनियाँ और दबाव हो सकते हैं सब आज की कविता में प्रमुखता से मौजूद हैं। राजनीति की विसंगतियों के, बहुत ही ठहरे हुए तरीके से, आज की कविता परखचे उड़ाने में सक्षम हैं। दो अंश देखिएः
देश हमारा कितना प्यारा
बुश की आँखों का तारा
हम ही क्यों अमरीका जाएँ
अमरीका को भारत लाएँ
(मनमोहन, जिल्लत की रोटी)
हम अणु युग की ताकत का दुख नहीं चाहते
धरती पर विस्फोट नहीं चाहते
हम थोड़ी सी धरती और थोड़ा सा आकाश चाहते हैं
हम धरती का प्यार चाहते हैं
हम तितली और फूलों का प्यार चाहते हैं।
(पंकज चतुर्वेदी, एक ही चेहरा)
इस कविता ने संबंधों की खोती चली गई ‘आत्मीयता’ की वापसी का सफल प्रयत्न भी किया है। माँ, पिता, बहन, भाई, बेटियां, मित्र आदि पर केन्द्रित संभवतः सबसे अधिक कविताएँ इसी दौर ने संभव की हैं। साथ ही, यह भी कि इसी समय में स्त्री और दलित पर केन्द्रित विशिष्ट विमर्शात्मक कविताएँ भी उपलब्ध हुई हैं। प्रवासी कवियों में एक कवि हैं - अनिल जनविजय। उनकी कविताओं का संग्रह है -- राम जी भला करें। कितनी ही कविताओं में कवि का स्त्री-विमर्श मौजूद हैः पुरूष की/सबसे बड़ी/ताकत है/स्त्री। कवि की अभिव्यक्ति काफ़ी सहज और मौजमस्ती वाली है। बानगी देखिएः
मृत्यु -- मृत्यु ने
आलिंगन में बाँधा
और चूमा मुझे कई बार
पर एक दफ़ा भी
उसने मुझसे
किया न सच्चा प्यार।
कविताओं में मौजूद एक भाषागत लय भी आकर्षित करती है।
इसी प्रकार नीलेश रघुवंशी एक चर्चित कवयित्री हैं। अपनी प्रारम्भिक कविताओं से ही वे चर्चा में आ गयी थीं। उन्होंने अपनी कविताओं का अपनापन अर्जित कर लिया है। इनका एक संग्रह है ‘पानी की स्वाद’। स्त्री जगत के इतने सच्चे और टटके अनुभव कम ही कवयित्रियों में मिलते हैं जितने नीलेश के यहाँ। इनकी कविताओं की बड़ी ताकत यह है कि ये प्रचलित और चर्चित हिन्दी कविताओं में खो नहीं जाती। एक कविता है - ढेर सारे काम। यह एक दुर्लभ कविता है --
क्या तुम मार्च के अंत या अप्रैल के शुरू में आओगे?
अब तो ईष्र्या होने लगी है तुमसे
ढ़ेरों काम याद आ रहे हैं इन दिनों
तुम्हारे लिए कपड़े, मालिश की व्यवस्था
एक आया ढूँढ़नी है अभी से, ताकि जब आफिस जाऊँ तो वह तुम्हें अपनी सी लगे
गर्भवती स्त्री और शिशुपालन जैसी किताबें पढ़ती हूँ इन दिनों
ढ़ेर सारे नाम खोजती फिरती हूँ
हर दिन दूध वाले की जान खाती हूँ
दिन-भर इन्हीं चकल्लसों में उलझी रहती हूँ
फिर भी काम हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे।
हिंदी की जिन गिनी-चुनी कवयित्रियों ने पिछले कुछ वर्षों की सशक्त हिंदी कविता को संभव किया है उनमें कात्यायनी का नाम अग्रणी है। ‘जादू नहीं कविता’ इनका यद्यपि तीसरा संग्रह है लेकिन इसमें उनकी 1987 से 1997 के बीच लिखी गई वे कविताएँ हैं जो पिछले दो संग्रहों में शामिल नहीं हो सकी थीं। इस कवयित्री के आदर्श पाब्लो नेरूदा, नाज़िम हिकमत जैसे कवि हैं और इनकी प्रगतिशील दृष्टि सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन की प्रक्रिया में आस्था रखती है। इसलिए यथास्थिति के प्रति एक विद्रोह इनकी कविताओं में प्रायः मिलता है। कविताओं में जहाँ स्त्री सुलभ स्त्री-पीड़ा है तो उत्पीड़ित मनुष्य का दुःख और उसका संघर्ष भी है। इनमें हर भ्रम का पर्दाफ़ाश करते हुए सच तक पहुँचने की कोशिश और समझ है।
स्मृति स्वप्न नहीं
आशाएँ भ्रम नहीं
कविता जादू नहीं
सिर्फ कवि हम नहीं।
इस कवयित्री का कविता-कैनवास भी काफ़ी विस्तृत है। आलोचकों, पुरस्कारों, बड़े कवियों आदि से संबद्ध कुछ दिलचस्प कविताएँ भी यहाँ हैं:
बड़े कवि लगातार सोचते हैं
और वे सोचते हैं
कि सिर्फ वे ही सोचते हैं
या कि जो वे सोचते हैं
वह सिर्फ वे ही सोचते हैं।
वे लगातार सोचते हैं
और सोचना उन्हें अकेला कर देता है।
एक छोटी-सी घटना या कि एक छोट-सा स्मृति खंड अनामिका की कविता में एक वैचारिक मनःस्थिति का प्रेरक होकर आता है। ये कविताएँ भीतर से बाहर और निजता से समाज की ओर फैलती हैं। संग्रह की कुछ अच्छी कविताएँ स्त्री और बच्चे पर केंद्रित हैं। ‘ऋषिका’ कविता का एक अंश उद्धृत हैः--
माँ हूं मैं, मेरे भरोसे ही
बीमार पड़ता है चाँद !
जाओ, अब दूध पिलाऊँगी मैं,
सोओ कि इसे सुलाऊँगी मैं
उफ, करवट फेरने की जगह करो
मत खींचा-तानी बेवजह करो।
अनामिका के पास दृश्य-बंधों को सजीव करने वाली भाषा है, बिंबधर्मिता पर इनकी अच्छी पकड़ है। जाड़ा और संबंध ऐसी कविताएँ हैं, जहाँ व्यक्ति की यातना भाषा के भीतर से ऐसे रिस-रिस कर आती है जैसे आम की गुठली को देर तक चूसने पर भी स्वाद आता रहता है। भाषा की यह गुठली को देर तक चूसने पर भी स्वाद आता रहता है। भाषा की यह विशिष्टता अनामिका की अपनी विशिष्टता है।
इसके अतिरिक्त आज हिदी में स्त्री केन्द्रित कविताओं के साथ-साथ दलित केंद्रित भी अनेक ऐसी कविताएँ इस दौर में उपलब्ध हैं, जिन्हें हिन्दी कविता को मौलिक योगदान कहा जा सकता है। हालांकि यह विचारणिय हॆ कि क्या इन कविताओं ऒर तथाकथित इन से बाहर की कविताओं के झगड़ों को बढ़ाया जाए या हिन्दी कविता की एक विविधरंगी मुख्य धारा को खोजा जाए । खॆर । आज दलित कविता भरत की प्रय: सभी मुख्य भाषाओं में लिखी जा रही हॆ । मराठी में दलित कविता के मन्द-मन्द स्वर 1965-67 के आसपास प्रारम्भ हो गए थे जबकि आज वह समकालीन मराठी-कविता का अत्यंत महात्त्वपूर्ण हिस्सा हॆ । दलित कवियों में ऎसे कवि भी हॆं जो मार्क्स में आस्था रखते हॆं । ऎसे कवियों में बदले की सी गालीगलॊच के स्थान पर कुप्रवृतियों ऒर सामाजि-आर्थिक शोषकों के दमन ऒर उनकी चालाकियों पर तीखे प्रहार अधिक हॆं । मराठी दलित कविता में दलित कविता से आशय हॆ दलित कवियों द्वारा लिखी गयी कविता अर्थात अस्पृश्यता, समाजिक शोषण, जातिवाद ऒर अन्याय के खिलाफ़ विद्रोह ।मराठी दलित कविता की अनुवाद के माध्यम से अपनी पुस्तक ’रक्त में जलते हुए अनगिनत सूर्य’ (1982) के द्वारा हिन्दी जगत को कदाचित पहली झलक दिखाने वाले कवि दिनकर सोनवलकर के शब्दों में -" आगे चलकर दलित कविता दो दिशाओं में विकसित होने लगी- एक, अम्बेडकर, जिस पर बुद्ध के यथार्थवादी मानवतावाद का प्रभाव हॆ ऒर दूसरी, मार्क्सवादी जो समाज के आर्थिक विश्लेषण से प्रेरित हॆ । ....विद्रोह (दलित कविता) इसमें भी हॆ लेकिन वह फ़ेशनेबिल, सुविधाभोगी, बुद्धिजीवियों का शगल नहीं । जनवाद इसमें भी हॆ लेकिन वह पार्टी-पीड़ित नहीं हॆ ऒर न ही साहित्य में प्रतिष्ठित होने की एक आसान सीढ़ी । दलित कविता की ताकत हॆ ज़िन्दगी के कड़ुवे अनुभव, कवियों के आंसू, खून, पसीने ऒर उनके गुस्से से लिखी गयीं रचनाएं । उनका नाता दलितों के यथार्थ से हॆ । अपने अनुभवों से वह गहरे से जुड़ी हुई हॆ मसलन मां (आई) का वर्णन इसमे भी हॆ, लेकिन वह वात्सल्य, प्रेम, लाड़-प्यार लुटाने वाली मां नहीं हॆ; क्योंकि ऎसी असंख्य माताएं आज भी हॆं, जो रद्दी कागज़, लकड़ी, बोतले या लोहे के टुकड़े बीन-बीन कर अपना ऒर बच्चों का पेट पाल रही हॆं । ..... अम्बेडकरवादी कविता मार्क्सवाद के विरोध में कतई नहीं हॆ । उसके कथ्य निखालिस ’देसी’ हॆं ऒर संदर्भ भारतीय ।’ बहरहाल बात यदि हिदी दलित कविता की की जाए तो आज सुशीला टाक्भॊरें, सूरजपाल चैहान, कावेरी, ओमप्रकाश वाल्मीकि, डॉ जय प्रकाश कर्दम, मोहन्दास नॆमिशराय, सुदेश तन्वर, सूरज बडत्या, मुकेश मानस आदि कितने ही कवि हॆं जो इसे आवाज दे रहे हॆं । मलखान सिंह की एक कविता ’एक पूरी उम्र’ की निम्न पंक्तियों का मर्म भीतर तक हिला जाता हॆ :
यकीन मानिए
इस आदमखोर गांव में
मुझे डर लगता हॆ ।
लगता हॆ कि अभी बस अभी
ठुकुराइसी मॆंड़ चीखेगी
मॆं अध्सॊंच ही
खेत से उठ जाऊंगा
कि अभी बस अभी
हवेली घुड़केगी,
मॆं बेगारी में पकड़ा जाऊंगा ।
समकालीन हिन्दी कविता में अवसाद और चिन्ता के स्वर बहुत मिलते हैं जो उनके विरुद्ध खड़े होने की मानसिकता तॆयार करते हॆं- त्रिलोचनी कविता की तरह ।
ज्ञानेन्द्रपति की कुछ बेहतरीन कविताएँ राजनीतिक क्रूरताओं और आत्म व्यंग्य के कठिन स्वरों का दस्तावेज हैं। उनकी कविताओं में संबंध के प्रति आत्मीय भाव भी पूरे विवेक के साथ अभी जमा हुआ है। उनकी कविताओं में ‘देशज’ का सौन्दर्य देखते ही बनता है। स्थानीयता या देसीपन समकालीन कविता का एक ऎसा विशिष्ट गुण हॆ जिसके रहते आज हर कव एक दूसरे का समकालीन भी कहा जा सकता हे ऒर एक दूसरे से अलग भी । मानबहादुर सिंह के यहां अवध का सहज रंग मिलता हॆ तो विजेन्द्र के यहां राजस्थान का । खुद मेरी कविताओं के एक विशिष्ट गुण के रूप में कवि केदार नाथ सिंह ने मेरी कविताओं में सहज ही उपस्थित हरियाणवी ऒर हरियाणे को माना हॆ । असल में लोक (लोक कथाएं, मुहावरे, गीत इत्यादि) से आज की कविता न केवल अपनी अनुभव सम्पदा को ऒर समृद्ध करती हॆ बल्कि कलागत क्षमताओं के लिए भी लोक का बड़े स्रोत के रूप में उपयोग करती हॆ जो मेरी निगाह में एक सही ऒर महत्त्वपूर्ण रास्ता हॆ ।नवीनतम पीढ़ी के रचनाकारों को इस ओर विचार करना चाहिए । एक कवि हॆ आलोकधन्वा । इनकी कविताओं से भी सीखा जा सकता हॆ ।
चलते-चलते चार-पांच कवियों का और जिक्र करना चाहूँगा। एक हैं मॉरिशिश के हेमराज सुन्दर जिनकी कविताओं के संग्रह का नाम है - ‘अस्वीकृति में उठे हाथ’, दूसरे हैं सुन्दर चंद ठाकुर जिनका कविता-संग्रह है, ‘किसी रंग की छाया, तीसरे हैं, डॉ. कृष्ण कुमार जिनके चार कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं , चॊथे हैं केरल के अरविंदाक्षन जिनके संग्रह का नाम है - ‘घोड़ा’ऒर पांचवे हॆं -विश्वरंजन जिनकी कविताओं से मेरा परिचय अपेक्षाकृत नया हॆ । उनकी अच्छी कविताओं के दूसर संग्रह का शीर्षक हॆ :’आती हॆ बहुत अंदर से आवाज’ ।
सोमदत्त बखौरी की पीढ़ी के बाद, अभिमन्यु अनत के शब्दों में, ‘हेमराज सुन्दर ने - अपने समय के नवोदित कवियों में कविता के नए तकाज़े की पहल की है।’ वस्तुतः इनकी कविताओं में आक्रोश तो है लेकिन मात्र उत्तेजना एवं कुंठा नहीं। कुछ पंक्तियाँ हैं --
एक है सूर्य एक है चन्द्रमा
धरती-गगन एक है
परी तालाब से सागर तक फैला
सारा मॉरिशस एक है।
सुन्दरचन्द ठाकुर एक सशक्त कवि हैं जिनके पास अपना एक भाषा-मुहावरा है। कुछ ही पंक्तियाँ देखें:
मेरी नींद में सपने खत्म नहीं होते
मेरी आँख में उम्मीद अटकी रहती है
मेरे पाँव में लिपटी रहती हैं यात्राएँ
मेरे हाथ कभी खाली नहीं रहते।
(मैं आदमी हूँ)
स्पष्ट है कि ये पंक्तियाँ एक बहु वांछनीय परिवेश की ओर तो इंगित करती ही हैं, आज समेत किसी भी समय के किसी भी ‘विमर्श’ को स्वर देने में भी समर्थ हैं। कुछ और पंक्तियाँ देखें:
‘हत्यारा खून से लिख रहा है प्रार्थना
मंच पर खड़ा है मसखरा
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कविता की तरह थी यहाँ एक स्त्री
उसकी चुप्पी दिनों दिन बढ़ती ही जाती थी
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समारोह में बंटते थे प्रशस्ति-पत्र - पुरस्कार
कविताओं में बढ़ता जाता था व्यापार।
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उसके ऊपर एक पंखा
उसकी नींद की रखवाली करता घूमता रहता है।
दृश्य से जा चुकी वह चिड़िया
अभी बची हुई है वहाँ
उसके पंजों के नीचे दबी घास
खुल रही है धीरे-धीरे
वातावरण में
उसकी कूक की अनुपस्थिति मौजूद है।
स्त्री को थकान लगती थी और नींद आती थी
पुरूष उससे एक कप चाय की फरमाइश करता था।
कृष्ण कुमार के यहाँ ऊँचे मूल्यों के स्खलन की चिन्ता को लेकर बहुत ही अच्छी और गंभीर काव्याभिव्यक्तियाँ हैं। वे तीखे सवाल उठाती हैं। उनके पास रूढ़ि भेदक दृष्टि है। ऊपर से लग सकता है उनके यहाँ अध्यात्म ही अध्यात्म है लेकिन गहरे में सामाजिक विसंगतियों, मूल्य-स्खलन आदि का व्यंग्यपरक एवं संवेदनात्मक परिदृश्य मौजूद है।
अरविंदाक्षन की कविताओं की मूल चिन्ता पृथ्वी के सौन्दर्य को विनाश से बचाने की है। धरती को नष्ट करने वाले धूमकेतुओं से कवि सावधान करना चाहता है।
विश्वरंजन एक समर्थ कवि हॆं । चाल धीमी सही पर कदम पुख्ता हॆं । उनके पास एक दृष्टि-मंत्र भी हॆ :
जब सबकी हो जाती हॆ ज़मीन/ सामुहिक हो जाता हॆ मंत्र
यह कवि बहुत गहरे तक चालाकियों ऒर दर्दों की पहचान रखता हॆ लेकिन इनके यहां विद्रोह ’अफसोस’ ऒर ’आक्रोश’ के रूप में अधिक हे:
बच्चे जवान होने से पहले ही/ मार दिए जाएंगे इस बाहरी दुनिया में
बाज़ार दॆत्य बन नाचेगा/ ऒर मांगेगा रक्त/ आसमान में छींट उड़ेगे खून के/
ऒर उड़ेगी गर्दो-गुबार ।
क्या सचमुच समझ पा रहे हॆं हम
नज़फगढ़ या
उस जॆसे तमाम
शहर बन रहे गावों का दर्द ऒर
बाज़ार का रेंगता-सा खूनी पंजा ?
ऒर ऎसा सब देख-समझ कर कवि अपने अन्दर उतरने लगता हॆ । एक कविता हॆ, ’श्रीनगर की सड़कें ऒर दूर दिल्ली में जा बसे कुछ लोग’ जो सपनों को बचाए रखने में विश्वास जगाती हॆ ।’ अब बचपन के दिन कहां’ जॆसी कविताएं इसलिए मजबूत हॆं क्योंकि इन्होंने अपना शिल्प खुद तलाशा हॆ । अनेक ऎसी कविताएं हॆं जो हांट करती हॆं क्योंकि उनमें बहुत ही भयावह स्थितियों के मार्मिक चित्र हॆ । विस्तार भय के बावजूद एक बहुत ही अच्छी कविता ’मेहमान’ का इसलिए जिक्र करना चाहूंगा क्योंकि इस छोटी सी कविता में घर-परिवार की पूरी देसीयता ऒर संस्कृति बड़ी क्रिस्पी रूप में व्यक्त हुई हॆ ऒर वह प्रभावशाली हॆ । इसमें हमारी मध्यवर्गीय मनोवृति की एक सच्ची छवि हॆ :
जब नहीं आता हे मेहमान
घर में कब्रिस्तान का फॆलाव होता हॆ
आज भी नहीं आया कोई मेहमान घर में
घर में कब्रिस्तान का सन्नाटा हॆ ।
अंत की ओर आते-आते यहां मॆं एक मुद्दा उठाना चाहता हूं हालांकि यह बहुत नया भी नहीं हॆ । । विशेष रूप से आज के युवा कवियों के समक्ष । आज दलित विमर्श हॆ, स्त्री विमर्श हॆ ऒर आदिवासी विमर्श भी हो सकता हॆ । सबके अपने-अपने सॊन्दर्य-शास्त्र भी बन चले हॆं । फिर भी जिस मुद्दे को यहां उठाने वाला हूं वह ऎसा हॆ जिसका वास्ता सबसे पड़ सकता हॆ । व्यापक रूप में प्राय: सब कलाओं से । अत: मेरी निगाह में महात्त्वपूर्ण हॆ । बात युं शुरु की जा सकती हॆ कि कलाकार ( जिसमें कवि भी सम्मिलित हॆ ) ऒर समाज के रिश्ते को लेकर प्राय: दो दृष्टिकोण मिलते हॆं । एक यह कि कलाकार एक विशिष्ट व्यक्ति होता हॆ । वह जो कुछ भी रचता हॆ वह ईश्वर से मिली अपनी प्रतिभा के के बल पर ही रचता हॆ । वह पॆदा ही मॊलिक प्रतिभा लेकर होता हे । ऎसी दृष्टिवाले लोग कलाकार की निष्ठा खुद कलाकार ऒर उसकी कला तक ही सीमित मानते हॆं । ऎसी स्थिति में उनकी धारणा हॆ कि कलाकार की दुनिया में किसी को भी दख़ल देने का कोई अधिकार नहीं होता । अत: उनके लिए सामाजिक मुद्दा कोई मुद्दा ही नहीं होता ।तब वह कलाकार एक ऎसी आधुनिकता को जीता हॆ जो ’व्यक्ति’ पर किसी प्रकार के अंकुश या रोक का विरोध करती हॆ । उसकी मानसिकता ’मुझे समाज से क्या लेना-देना’ वाली होती हॆ । समाज पर वह अहसान ही करता नज़र आता हॆ । समाज का उस पर कोई अहसान नहीं होता । दू्सरा यह कि कलाकार अन्तत: समाज ही की देन हॆ । वह समाज निरपेक्ष हो ही नहीं सकता । समाज से संबंध की हर सोच से उसका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष लेना-देना होता हॆ । वह समाज के प्रति प्रतिबद्ध होता हॆ जिसके अभाव में वह महत्त्वपूर्ण ऒर मूल्यवान कला या रचना दे ही नहीं सकता । अत: वह समाज के प्रति उत्तरदायी ऒर कृतज्ञ होता हॆ । समाज के हित में वह हमेशा अपने विवेक को जागृत रखना चाहता हॆ।
इन दो दृष्टिकोणों के आधार में मूल अन्तर कदाचित कला-कर्म की प्रकृति को लेकर हॆ । कलाकर्म को आत्मनिष्ठ मानने वाले उसे प्राकृत कर्म मानते हॆं जबकि उसे सामाजिक मानने वाले एक चेतन कर्म मानते हॆं । चेतन कर्म में अपने ल्क्ष्यों के प्रति कलाकार जागरूक रहता हॆ । वह अर्जित किए हुए व्यक्तित्व की सॄजन-क्षमाताओं से लिखता हॆ । उसकी कला एक ऎसा रूप अर्जित करती हॆ जो दूसरों की मानसिकता में प्रवेश कर उसे प्रभावित करती हॆ, उसे दूसरों से जोड़ती हॆ । इस तरह कलाकार की सामाजिक प्रतिबद्धता दूसरे की सामाजिक प्रतिबद्धता बन जाती हॆ । दूसरी ओर आत्मनिष्ठ कलाकार अपनी निजता को ही रचता रहता हॆ । अपनी मॊलिकता के नाम पर अजूबा भी बनने का खतरा उठाता हॆ ।
अब सवाल यह हॆ कि जब समाज स्वयं परिवर्तन्शील हॆ, जब उसके मूल्य ही स्थिर नहीं हॆं, जब दुनिया में अनेक सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाएं हॆं, नए समाज की अनेक अवधारणाएं हॆं तो कलाकार कॆसे उसके प्रति प्रतिबद्ध होकर स्थायी या शश्वत मूल्यों की कला दे सकता हॆ । ऒर यह भी तो हो सकता हे कि जिस कला को एक कलाकार समाज के हित में मान रहा हॆ, वह समाज को अपने हित में ही न लगे । ऒर यह भी कि इस विविध रंगी समाज के किस रंग के प्रति कलाकार प्रतिबद्ध हो ।
ये उलझाव अपनी जगह सही हो सकते हॆं तो ण्भी मॆं इन्हें सामाजिक प्रतिबद्धता की राह में बड़ी रुकावट नहीं मानता । मोटे तॊर पर हर कलाकार अपने सम्य के योग्य चिन्तन की तस्वीर पेश किया करता हॆ । उसी के सहारे वह दूसरे लोगों को उस चिन्तन को परखने ऒर अपनाने के लिए प्रेरित भी करता हॆ।सच्ची कला जनता के दु:ख-सुख की पहचान ही नहीं कराती बल्कि विकल्प के रूप में एक नयी योग्य दुनिया की खोज के लिए प्रेरित भी किया करती हॆ । ऎसा प्रयत्न उन रचनाकारों का भी रहा हॆ जिन्होंने साहित्य का उद्देश्य ’स्वान्त: सुखाय घोषित किया हॆ ।’स्वन्त: सुखाय’ की बात करके वस्तुत: कलाकार उन बाह्य प्रभावों के प्रलोभनों के नकार की बात करता हॆ जो उसे उसके सच्चे विवेकशील रास्ते से हटा कर सत्ता या व्यवस्था का चाटूकार या पिच्छ्लग्गू बनने की राह पर धकलेने का प्रयत्न किया करते हॆं । उसे इस्तेमाल की वस्तु में बदलने की कोशिश किया करते हॆं । जिनके रहते वह अपनी बात कहने तक को स्वतन्त्र नही रह पाता ।
यह भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि कला का समाज से कोई यांत्रिक संबंध नहीं होता हांलाकि कला ऒर समाज के विकास का परस्पर सबंध गहरा होता हॆ ।मुक्तिबोध के अनुसार, ’मानव-चेतना, वस्तुत: मानव-संबंधों से निर्मित तथा उससे उद्गत चेतना हॆ । ये मानव-संबंध समाज के विकास के साथ परिवर्तित होते रहते हॆं, तथा समाज की विशेष स्थितियों की उनमें विशेषताएं प्रकट होती रहती हॆं । विशेषता संयुक्त ये मानव-संबंध, मानव-चेतना की मूलभूत नींवें हॆं, जिनके आधार पर कला, दर्शन, धर्म तथा साहित्य की सृष्टि होती हॆ । इन्हीं मानव-संबंधों की अवस्था-विशेष के अनुसार मानव की विश्व-दृष्टि भी बनती हॆ । निश्चय ही उसकी यह दृष्ट उसकी चेतना का ही अंग हॆ ।....चेतना कोई व्यक्तिगत वस्तु नहीं होती, उसके वस्तु-तत्व भी सामाजिक होते हॆं । ऎसे समय में जबकि मानव-विरोधी शक्तियां पूर ज़ोरों पर हॆं, बाज़ार हावी होता चला जा रहा हॆ ऒर कला को धीरे-धीरे निष्क्रिय ऒर निष्प्राण बना देने की साज़िशें चल रही हॆं , रचनाकार या कलाकार को इन मानव-विरोधी ताकतों के प्रति अतिरिक्त रूप से सजग होना पड़ेगा । लेकिन रचनात्मक चुनॊतियों का सामना करते हुए । प्रतिबद्ध होना किसी कलाकार के सही दिशा या सोच की ओर होना तो होता हॆ लेकिन कलाकार की कला के उत्कृष्ट होने की वह गारंटी नहीं होता । इसीलिए अपनी कला की उत्कृष्टता के लिए कला की कलात्मक अपेक्षाओं अर्थात क्षमताओं के प्रति उसे उदासीन नहीं होना होता । अत: दलित-विमर्श हो या स्त्री-विमर्श; आदिवासी -विमर्श हो या गरीब-विमर्श ये कला में कोरे नारे या दिखावे नहीं हो सकते । ये कविता य किसी भी कला-रूप मे फ्रेम में जड़ाऊ मात्र नहीं होने चाहिए , अन्यथा रचना या कला दो कॊड़ी की बन कर रह जाएगी भले ही बात या विचार कितना ही ग्राह्य क्यों न हो । मेरा तो ऎसा ही मानना हॆ ।
अंत में यह तो कहा ही जा सकता है कि हिन्दी कविता निरन्तर गतिशील है और एक से एक शिखर संभव करने को लालायित भी। बावजूद गद्य की चुनौतियों के। उसे सामने लाने में आज तो कितने ही ‘वैब जाल’ भी सशक्त भूमिका निभा रहे हैं। हर जागरूक पाठक और रचनाकार इन वैबजालों से आज परिचित है। इनके माध्यम से हिन्दी कविता पूरे विश्व के हिन्दी रचनाकारों और पाठकों को एक साथ जोड़ने की महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। अनुभूति, अभिव्यक्ति, सृजन गाथा, गर्भनाल और हिन्दी नेस्ट (बोलोजी) आदि अत्यंत महत्वपूर्ण हिंदी वेब जाल हैं। और अन्त में कवि त्रिलोचन के शब्दों में ‘हिन्दी कविता उनकी कविता है जिनकी सांसों में आराम नहीं था।’
बी-295, सेक्टर-20
नोएडा-201301
1. हाल ही में एक और महत्वपूर्ण वेब जाल ‘साहित्य कुंज’ से भी परिचय हुआ है।
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रविवार, 15 मई 2011
जयप्रकाश भारती
जयप्रकाश भारती जी की याद करके "संजय" ऒर प्रकाश मनु ने मुझे तो रुला ही दिया । इतना बड़ा इंसान,
आजीवन बालक, बाल-साहित्य ऒर बाल-साहित्यकारों के प्रति हर घड़ी समर्पित ऎसा साहित्यकार ऒर संपादक हिन्दी क्या मुझे ऒर भाषाओं में भी देखने की तमन्ना हॆ । स्वाभिमान के धनी थे लेकिन अहंकार रत्ती भर भी नहीं । मेरे कोरिया प्रवास के दॊरान तो विशेष रूप से उनके पत्रों ने मुझे अद्भुत बल दिया था, ऒर प्रेरणा भी । हम कृतघ्न होंगे यदि समय रहते उनके दिए का सही सही मूल्यांकन नहीं कर पाते । वे अपनी अभिव्यक्ति में स्पष्ट ऒर मजबूत थे लेकिन आज की कुछ तथाकथित बहुत नामी गरामी विभूतियों की गुट्बाजियों, पूर्वाग्रही संकीर्णताओं,अहसानों से लादने ऒर अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग अलापने की सड़ांधभरी तथा ईर्ष्यालु वृतियों से अलग । इसीलिए कई बार उन्हें ठीक से समझने में कइयों को कठिनाई भी हो जाती थी । भले ही वे कई, बहुत बार अपनी अभिव्यक्तियों में वॆसे भी दिख जाते हों ।सच तो यह हॆ कि उनकी बॊछारें सब के लिए थीं । उनका व्यवहार नकली हो ही नहीं सकता था । दिखावा या बनावटीपन उनमें दुर्लभ ही नहीं असम्भव था ।वे हॆंस क्रिश्चियन ऎंडरसन जॆसे विश्वविख्यात सम्मान से सम्मानित होने वाले अकेले भारतीय लेखक थे जो हिन्दी से थे । यह कम बड़ी बात नहीं हॆ । यह हमारा गर्व भी हॆ ऒर गॊरव भी । ।समकालीन समयों में भारतीय पुरस्कारों/सम्मानों के प्रश्नों के घेरे में आते चले जाने के बावजूद । उनके द्वारा संपादित पुस्तक "हिन्दी के श्रेष्ठ बाल-गीत" जिसमें सुना हॆ प्रकाश मनु जी का भी सहयोग रहा था, आज भी एक चमकती हुई किताब हॆ भले ही बहुतों के गले में वह अटकती भी हो । किसी बड़े साहित्यकार की एक यह भी पहचान होती हॆ कि उसने अपने साहित्यिक क्षेत्र में बिना लागलपेट के कितने सार्थक ऒर अच्छे लेखक दिए याने प्रोत्साहित किए । बाल साहित्य के क्षेत्र में हिन्दी के ’त्रिलोचन थे’ । भारतीजी के समक्ष इस दृष्टि से उनके समय में यदि एक भी हिदी लेखक हो तो उसका नाम मॆं आदर सहित जानना चाहूंगा । कुछ छोटे मुंह बड़ी बात हो गई हो तो क्षमा कर दिया जाऊं, क्योंकि जानबूझकर किसी का भी दिल दुखाना या किसी का भी अपमान करना मुझे नहीं आता ।डॉ. नागेश पाण्डेय ’संजय’ सामने होते तो उन्हें गले ही लगा लेता उस सम्मान के लिए जो उन्होंने जयप्रकाश भारती जी को दिया हॆ । सस्नेह : दिविक रमेश
आजीवन बालक, बाल-साहित्य ऒर बाल-साहित्यकारों के प्रति हर घड़ी समर्पित ऎसा साहित्यकार ऒर संपादक हिन्दी क्या मुझे ऒर भाषाओं में भी देखने की तमन्ना हॆ । स्वाभिमान के धनी थे लेकिन अहंकार रत्ती भर भी नहीं । मेरे कोरिया प्रवास के दॊरान तो विशेष रूप से उनके पत्रों ने मुझे अद्भुत बल दिया था, ऒर प्रेरणा भी । हम कृतघ्न होंगे यदि समय रहते उनके दिए का सही सही मूल्यांकन नहीं कर पाते । वे अपनी अभिव्यक्ति में स्पष्ट ऒर मजबूत थे लेकिन आज की कुछ तथाकथित बहुत नामी गरामी विभूतियों की गुट्बाजियों, पूर्वाग्रही संकीर्णताओं,अहसानों से लादने ऒर अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग अलापने की सड़ांधभरी तथा ईर्ष्यालु वृतियों से अलग । इसीलिए कई बार उन्हें ठीक से समझने में कइयों को कठिनाई भी हो जाती थी । भले ही वे कई, बहुत बार अपनी अभिव्यक्तियों में वॆसे भी दिख जाते हों ।सच तो यह हॆ कि उनकी बॊछारें सब के लिए थीं । उनका व्यवहार नकली हो ही नहीं सकता था । दिखावा या बनावटीपन उनमें दुर्लभ ही नहीं असम्भव था ।वे हॆंस क्रिश्चियन ऎंडरसन जॆसे विश्वविख्यात सम्मान से सम्मानित होने वाले अकेले भारतीय लेखक थे जो हिन्दी से थे । यह कम बड़ी बात नहीं हॆ । यह हमारा गर्व भी हॆ ऒर गॊरव भी । ।समकालीन समयों में भारतीय पुरस्कारों/सम्मानों के प्रश्नों के घेरे में आते चले जाने के बावजूद । उनके द्वारा संपादित पुस्तक "हिन्दी के श्रेष्ठ बाल-गीत" जिसमें सुना हॆ प्रकाश मनु जी का भी सहयोग रहा था, आज भी एक चमकती हुई किताब हॆ भले ही बहुतों के गले में वह अटकती भी हो । किसी बड़े साहित्यकार की एक यह भी पहचान होती हॆ कि उसने अपने साहित्यिक क्षेत्र में बिना लागलपेट के कितने सार्थक ऒर अच्छे लेखक दिए याने प्रोत्साहित किए । बाल साहित्य के क्षेत्र में हिन्दी के ’त्रिलोचन थे’ । भारतीजी के समक्ष इस दृष्टि से उनके समय में यदि एक भी हिदी लेखक हो तो उसका नाम मॆं आदर सहित जानना चाहूंगा । कुछ छोटे मुंह बड़ी बात हो गई हो तो क्षमा कर दिया जाऊं, क्योंकि जानबूझकर किसी का भी दिल दुखाना या किसी का भी अपमान करना मुझे नहीं आता ।डॉ. नागेश पाण्डेय ’संजय’ सामने होते तो उन्हें गले ही लगा लेता उस सम्मान के लिए जो उन्होंने जयप्रकाश भारती जी को दिया हॆ । सस्नेह : दिविक रमेश
बुधवार, 11 मई 2011
बल्लू हाथी का बालघर
मित्रो ।
राजकमल प्रकाशन से हाल ही मेरा बाल-नाटक " बल्लू हाथी का बालघर" प्रकाशित हुआ हॆ । आपको यह सूचना देते हुए मुझे खुशी हॆ ऒर उम्मीद हॆ कि अपके लिए भी यह सूचना सुखद होगी ।
इस पर अपनी पहली प्रतिक्रिया डॉ. प्रकाश मनु ने अपने ब्लॉग prakashmanu-varta.blogspot.com पर दी हॆ जिसे पढकर मेरी तरह आपको भी अच्छा लगेगा ।
टिप्पणी यूं हॆ :
Wednesday, May 11, 2011
दिविक रमेश का बालनाटक बल्लू हाथी का बालघर
दिविक रमेश ने बड़ों के लिए तो लिखा ही है और समकालीन कवियों में उनका नाम सम्मान से लिया जाता है, पर बच्चों के लिए भी उन्होंने बड़ी सुंदर कविताएँ और कहानियाँ लिखी हैं। बल्लू हाथी का बालघर उनका बच्चों के लिए लिखा गया पहला नाटक है। और नाटक भी खासा खिलंदड़ा। हालाँकि उससे बच्चों को बढ़िया सीख भी मिलतती है, पर वह भी खेल के आनंद के साथ। यानी बच्चों को खेल-खेल में मगन करता हुआ नाटक।
नाटक में जिस जंगल की कथा है, वह खासा प्रजातांत्रिक जंगल है जिसमें सारे जानवर सभा में इकट्ठे होकर फैसले करते हैं और वहां शेर से लेकर खरगोश, बल्कि और नन्हे जीवों को भी अपनी बात कहने का पूरा हक है। ऐसे ही एक दिन सभा हो रही थी, तभी एक थका हुआ बूढ़ा हाथी आया और पीछे आकर बैठ गया। सबके पूछने पर उसने बताया कि वह भी इसी जंगल का ही है पर बरसों पहले उसे आदमी पकड़कर ले गए थे और पूरा जीवन वह आदमियों के बीच रहकर उनकी सेवा करता रहा। पर मनुष्यों का जानवरों के प्रति रवैया बेहद तकलीफ देने वाला है। कहकर बल्लू हाथी ने अपने कष्टभरे अनुभव बताए तो सभी को आदमियों पर गुस्सा और बल्लू हाथी पर बड़ा प्यार आया। आदमी किस तरह जंगल और पशुओं पर अत्यातार करके पर्यावरण को नष्ट कर रहा है, इसका छोटे-छोटे नाटकीय संवादों के जरिए वर्णन दिल को छू जाता है।
यहाँ तक तो नाटक में विषाद के गहरे रंग हैं। पर फिर फैसला होता है कि बूढ़े बल्लू हाथी का जंगल के सारे जानवर खयाल रखेंगे और बल्लू हाथी जंगल के सभी जानवरो के बच्चों के लिए एक क्रैच यानी बालघर खोलेगा। सबको कहानियाँ सुनाकर उनका खूब मनोरंजन करेगा और उन्हें कहानियों के जरिए ही जीवन की अच्छी बातें सिखाएगा।
बल्लू हाथी अपनी इस भूमिका को कितने खूबसूरत ढंग से निभाता है और बच्चों से उसकी दोस्ती कैसी नायाब हैं, बच्चे बल्लू हाथी को कितना प्यार करते हैं, यह सब तो शायद नाटक पढकर ही अच्छी तरह जाना जा सकेगा। अलबत्ता दिविक का यह नाटक इतना रस-आऩंदपूर्ण और कसा हुआ है कि यकीन नहीं होता कि यह उनका पहला बालनाटक है। जंगल के अनोखे बालघर का बल्लू हाथी वाकई दिलों में गहरी जगह बना लेने वाला बड़े कद का कैरेक्टर है। उम्मीद है, दिविक के ऐसे ही कुछ और बढ़िया बाल नाटक आगे भी पढ़ने को मिलेंगे।
बल्लू हाथी का बालघर को राजकमल प्रकाशन ने छापा है। 24 पृष्ठों की इस किताब का मूल्य है, 40 रुपए। चित्र चंचल ने बनाए हैं और वे सचमुच आनंदित करने वाले हैं।
Posted by Prakash Manu at 3:31 AM डॉ. नागेश पांडेय "संजय" said...
सम्मान्य दिविक जी की लेखनी का जबाब नहीं . उनकी कवितायेँ मुझे विशेष प्रिय हैं . किशोरों के लिए उनका प्रदेय अद्भुत है . उनसे मिलाने के लिए आपको धन्यवाद.
...
May 11, 2011 7:21 AM
राजकमल प्रकाशन से हाल ही मेरा बाल-नाटक " बल्लू हाथी का बालघर" प्रकाशित हुआ हॆ । आपको यह सूचना देते हुए मुझे खुशी हॆ ऒर उम्मीद हॆ कि अपके लिए भी यह सूचना सुखद होगी ।
इस पर अपनी पहली प्रतिक्रिया डॉ. प्रकाश मनु ने अपने ब्लॉग prakashmanu-varta.blogspot.com पर दी हॆ जिसे पढकर मेरी तरह आपको भी अच्छा लगेगा ।
टिप्पणी यूं हॆ :
Wednesday, May 11, 2011
दिविक रमेश का बालनाटक बल्लू हाथी का बालघर
दिविक रमेश ने बड़ों के लिए तो लिखा ही है और समकालीन कवियों में उनका नाम सम्मान से लिया जाता है, पर बच्चों के लिए भी उन्होंने बड़ी सुंदर कविताएँ और कहानियाँ लिखी हैं। बल्लू हाथी का बालघर उनका बच्चों के लिए लिखा गया पहला नाटक है। और नाटक भी खासा खिलंदड़ा। हालाँकि उससे बच्चों को बढ़िया सीख भी मिलतती है, पर वह भी खेल के आनंद के साथ। यानी बच्चों को खेल-खेल में मगन करता हुआ नाटक।
नाटक में जिस जंगल की कथा है, वह खासा प्रजातांत्रिक जंगल है जिसमें सारे जानवर सभा में इकट्ठे होकर फैसले करते हैं और वहां शेर से लेकर खरगोश, बल्कि और नन्हे जीवों को भी अपनी बात कहने का पूरा हक है। ऐसे ही एक दिन सभा हो रही थी, तभी एक थका हुआ बूढ़ा हाथी आया और पीछे आकर बैठ गया। सबके पूछने पर उसने बताया कि वह भी इसी जंगल का ही है पर बरसों पहले उसे आदमी पकड़कर ले गए थे और पूरा जीवन वह आदमियों के बीच रहकर उनकी सेवा करता रहा। पर मनुष्यों का जानवरों के प्रति रवैया बेहद तकलीफ देने वाला है। कहकर बल्लू हाथी ने अपने कष्टभरे अनुभव बताए तो सभी को आदमियों पर गुस्सा और बल्लू हाथी पर बड़ा प्यार आया। आदमी किस तरह जंगल और पशुओं पर अत्यातार करके पर्यावरण को नष्ट कर रहा है, इसका छोटे-छोटे नाटकीय संवादों के जरिए वर्णन दिल को छू जाता है।
यहाँ तक तो नाटक में विषाद के गहरे रंग हैं। पर फिर फैसला होता है कि बूढ़े बल्लू हाथी का जंगल के सारे जानवर खयाल रखेंगे और बल्लू हाथी जंगल के सभी जानवरो के बच्चों के लिए एक क्रैच यानी बालघर खोलेगा। सबको कहानियाँ सुनाकर उनका खूब मनोरंजन करेगा और उन्हें कहानियों के जरिए ही जीवन की अच्छी बातें सिखाएगा।
बल्लू हाथी अपनी इस भूमिका को कितने खूबसूरत ढंग से निभाता है और बच्चों से उसकी दोस्ती कैसी नायाब हैं, बच्चे बल्लू हाथी को कितना प्यार करते हैं, यह सब तो शायद नाटक पढकर ही अच्छी तरह जाना जा सकेगा। अलबत्ता दिविक का यह नाटक इतना रस-आऩंदपूर्ण और कसा हुआ है कि यकीन नहीं होता कि यह उनका पहला बालनाटक है। जंगल के अनोखे बालघर का बल्लू हाथी वाकई दिलों में गहरी जगह बना लेने वाला बड़े कद का कैरेक्टर है। उम्मीद है, दिविक के ऐसे ही कुछ और बढ़िया बाल नाटक आगे भी पढ़ने को मिलेंगे।
बल्लू हाथी का बालघर को राजकमल प्रकाशन ने छापा है। 24 पृष्ठों की इस किताब का मूल्य है, 40 रुपए। चित्र चंचल ने बनाए हैं और वे सचमुच आनंदित करने वाले हैं।
Posted by Prakash Manu at 3:31 AM डॉ. नागेश पांडेय "संजय" said...
सम्मान्य दिविक जी की लेखनी का जबाब नहीं . उनकी कवितायेँ मुझे विशेष प्रिय हैं . किशोरों के लिए उनका प्रदेय अद्भुत है . उनसे मिलाने के लिए आपको धन्यवाद.
...
May 11, 2011 7:21 AM
शनिवार, 2 अप्रैल 2011
शमशेर होना भी कविता की प्रासंगिकता हॆ बनाम पूर्णत्व के अन्वेषी एवं साधक कवि-चिन्तक शमशेर बहादुर सिंह
मुझे एक लम्बे समय तक शमशेर के सम्पर्क में रहने का सुअवसर मिला हॆ । । बहुतेरों की तरह उनसे निकटता का दावा भी कर सकता हूं । मॆं उनके घर पर गया हूं ऒर वे भी मेरे घर पर आए हॆं । दिल्ली विश्वविद्यालय के उनके कार्यालय में ऒर बाहर हुई सभाओं आदि में भी उनसे मुलाकात करने के मुझे सुअवसर मिले हॆं । शमशेर जी स्रे मेरा पहला वास्ता 70 के दशक में ही पड़ा था ।बहुत ही प्रभावशाली ढ़ंग से । मॆं दिल्ली की एक कॉलोनी लाजपतनगर में रहता था । शमशेर जी भी वहीं रह रहे थे । यह बात मुझे कुछ बाद में पता चली थी । आकाशवाणी ने मावलंकार हॉल में, भारी संख्या में उपस्थित श्रोताओं के समक्ष कवि-गोष्ठी का आयोजन किया था । युवा कवियों में मॆं भी एक था । कवियों ऒर कविताओं का चयन एक समिति ने किया था जिसमें कवि शमशेर भी एक सदस्य थे । यह बात मुझे आयोजन के समाप्त होने पर पता चली थी । शमशेर जी से तब तक मेरा परिचय भी नहीं था । मंच पर ही पहली मुलाकात में पता चला था कि वे भई लाजपत नगर में ही रहते हॆं । उनके चश्में में से प्रॊढ़ता का गाम्भीर्य पूरी तरह झलक रहा था । बोले-’तुम्हारी कविताएं एक साथ पढ़ना चाहूंगा । अच्छा लगा लेकिन बात आई-गई हो गयी । उन दिनों मॆं कवि भारतभूषण के सम्पर्क में भी था । एक संदर्भ में भारत जी से शमशेर की बात का ज़िक्र हुआ तो वे तपाक से बोले कि शमशेर आज के बड़े कवि हॆं । उन्होंने कविताओं की पांडुलिपि उन्हें तुरन्त दे देने की सलाह दी ।मॆंने वॆसा ही किया । यूं उनसे मिलते रहने का सिलसिला चल निकला । बहुत ही गम्भीरता से लेकिन सहानुभूति के साथ वे मेरी कविताओं को देखते रहे. सुझाव देते रहे ऒर कुछ कविताओं को स्वीकृत-अस्वीकत करते रहे ।साहित्य ऒर दुनिया से जुड़ी कितनी ही बातें होती रहीं । बाद में मॉडल टाउन चले गए तो भी मिलना-जुलना होता रहा । उनके माध्यम से अंग्रेजी ऒर उर्दू के क्लासिकी साहित्य से रू-ब-रू होता रहा । मॆंने उनकी सोच ऒर उनके व्यक्तित्व में बहुत गहरे तालमेल का अनुभव किया था । वे मृदु भाषी थे लेकिन अपने सिद्धान्तों के लिए अडिग थे -जिद्द की हद तक । वे किसी के प्रशंसक हो सकते थे लेकिन उसकी कमियों को न बाताएं ऎसा सभव नहीं था । लेकिन परनिन्दा से वे सतर्क होकर भी बचते थे । उन्होंने एक बार बताया था कि किसी बात को लेकर जब उन्होंने ठान लिया था कि धर्मयुग के सम्पादक धर्मवीर भारती को रचना नहीं भेजेगें तो फिर रचना नहीं ही भेजी । हालांकि वे उनके नाटक अंधायुग के प्रशंसक थे । अज्ञेय से अच्छे संबंध होने के बावजूद उनकी समझ सम्बंधी चूक को उजागर किया । सबूत के लिए आलोचना के जनवरी 1952 अंक के पृ० 72 को देखा जा सकता हॆ । शमशेर जी का कहना था - "यह बात नहीं कि श्री स०ही० वात्स्यायन अपनी पीढ़ी की सभी अच्छी प्रतिभाओं को समझ सके हों । केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन की प्रतिभाएं विषय-वस्तु के अलावा टेकनीक की दृष्टि से भी कम महत्त्व की नहीं हॆं; एक ऒर महत्त्वपूर्ण कवि त्रिलोचन शास्त्री हॆं । ये नाम मॆंने इसलिए गिनाए ताकि दो बातों की तरफ ध्यान जाए; एक यह कि जिसे प्रयोगवादी कविता कहा जाता हॆ उसका बड़ा हिस्सा प्रगतिशिल कवियों की देन हॆ । दोयम यह कि ’प्रतीक’ या उपरोक्त कविता-संग्रहो (तारसप्तक, दूसरा सप्तक ) के बाहर जो नए काव्य-शिल्पी हॆं उनको लिए बिना प्रयोगशिल साहित्य की बहस अधूरी रहेगी ।’ स्पष्ट हॆ कि उनकी प्राथमिकता कविता के सही मूल्यांकन की थी । उन्हें साहित्य-नियामकों से संबधों की चिन्ता नहीं थी । वस्तुत: त्रिलोचन समेत अपने साथी कवियों में, मूलत: समाजचेता होते हुए भी, अपनी निजी ठसक के न केवल पूरे हिमायती थे बल्कि पूरे प्रयोगकर्ता भी थे । शमशेरियत का यह एक अहं आयाम हॆ जो उनके सृजन ऒर व्यक्तित्व को खासमखास बानाता हॆ । । उनकी ठसक की एक बानगी 1961 में पहली बार प्रकाशित अनके कविता संग्रह ’कुछ ऒर कविताएं’ के इस कथन में भी मिलती हॆ -’फ़ॆसन किन विषयों पर लिखने का हॆ, कॊन सी शॆली ’चल रही हॆ’, किस ’वाद’ का युग आ गया हॆ या चला गया हॆ --मॆंने कभी इसकी परवा नहीं की । जिस विषय पर जिस ढ़ंग से लिखना मुझे रुचा, मन जिस रूप में भी रमा, भावनाओं ने उसे अपना लिया; अभिव्यक्ति अपनी ओर से सच्ची हो, यही मात्र मेरी कोशिश रही- उसके रास्ते में किसी भी बाहरी आग्रह का आरोप या अवरोध मॆंने सहन नहीं किया ।’ ऒर स्वयं 1978 में प्रकाशित मेरे पहले संग्रह ’रास्ते के बीच’, जिसके लिए कविताओं का चयन भी उन्होंने ही किया था, की भूमिका में उन्होंने लिखा था -’उनका जो तेवर हॆ वह ईमानदार ऒर सच्चा हॆ ऒर कविता में जान इसी से आती हॆ । .....मुझे इस संग्रह में नयी पीढ़ी के मन ऒर मस्तिष्क की एक झांकी मिली जो सच्ची हॆ ऒर अर्थपूर्ण ।’ ’कुछ ऒर कविताएं’ में ही उनके इस लिखे की ओर भी ध्यान दिलाना चाहूंगा -"कवि का कर्म अपनी भावनाओं में, अपनी प्रेरणाओं में, अपने आंतरिक संस्कारों में, समाज -सत्य के मर्म को ढालना-उसमें अपने को पाना हॆ. ऒर उस पाने को अपनी पूरी कलात्मक क्षमता से पूरी सच्चाई के साथ व्यक्त करना हॆ, जहां तक वह कर सकता हो ।" मेरी निगाह में, ऒर ज़रूरी नहीं कि आप उससे सहमत हों ही हों, कवि-चिन्तक शमशेर पूर्णत्व के सच्चे अन्वेषी ऒर साधक पुरुष थे । असल में शमशेर के बारे में बात करना एक ऎसे कवि-रचनाकार-चिन्तक के बारे में बात करना हॆ जो मुक्कमल या पूर्णत्व का हिमायती हॆ । इसीलिए उनके यहां, खासकर अपने संदर्भ में, शायद, कदाचित आदि संदेह सूचक शब्द बराबर इस्तेमाल में आए हॆं । एक ऒर दिलचस्प अनुभव हुआ जो उपर्युक्त का तसल्लीबख़्श उदाहरण माना जा सकता हॆ । एक बार दोपहर उनके घर पहुंचा तो मुझ से ज़्यादा उन्हें मेरे भोजन की चिन्ता हुई । घर पर अकेले ही थे । मेरे ना नुकर करने के बावजूद वे रसॊई में गए ऒर थाली में चावल ऒर टिण्डे की सब्जी ले आए । बहुत ही आत्मीय ऒर स्नेहिल भाव से अपनी चिर परिचित शॆली में खाने का आग्रह किया । दाल-चावल तो खूब सुना था ऒर खाया भी लेकिन चावल-टिण्डा ! मेरे लिए किसी अजूबे से कम न था चावल-टिण्डे का वह मेल । खॆर, चेहरे पर वह भाव आने नहीं दिया । शमशेर तपाक से फिर रसोई में गए ऒर दूध ले आए । चावल-टिण्डे में दूध डालते हुए बोले- अब मिलाकर खाओ, बहुत स्वादिष्ट लगेगा । मॆं पूर्णत्व के अन्वेषी ऒर साधक की ऒर विभोर होकर देखने ही वाला था कि मानो अपने तईं किसी अधूरेपन को पाटने के लिए फिर रसोई की ओर मुखातिब हुए । अब कॊनसा गज़ब ढहने वाला था नहीं जानता था पर एहसास ज़रूर हो रहा था कि ढहने वाला हॆ । मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था । मॆं भी विचित्र ऒर मेरा साहिब भी विचित्र ! इसबार उनके हाथ में गुड़ था ऒर आँखों में ’पा लिया, पा लिया ’ वाले आइंस्टीन की सी चमक थी । आते ही चावल-टिण्डे-दूध को गुड़ समर्पित कर दिया । मॆं भी पूरा ऒर मेरा साहिब भी पूरा । शमशेर सचमुच पूर्णत्व के पुजारी थे ।
कवि-चिन्तक शमशेर की प्रासंगिकता खुद शमशेर की समझ ऒर पहचान में भी हॆ । खासकर अनेक प्रकार से प्रदूषित ऒर तकलीफ़ देते साहित्यिक परिवेश में । शमशेर जी को पढ़ते-जानते कुछ ऎसे तथ्य हाथ आए जो अपने समय की कविता ऒर कविता-परिवेश पर सशक्त ऒर निभीर्क टिप्पणियां हॆं । बल्कि आगे के समय पर भी । बहुत ही मॊलिक ऒर शायद पहली बार । उन्हें जानना कदाचित दिलचस्प ही होगा । नामवर जी के अनुसार अज्ञेय द्वारा संपादित तारसप्तक की पहली समीक्षा शमशेर जी ने ही की थी ऒर वह भी उसके प्रकाशन (1943) के तीन वर्ष बाद 1946 में जो नया साहित्य में ’सात आधुनिक हिन्दी कवी’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी । अपनी परख ऒर सोच में शमशेर कितने वस्तुपरक, कितने दृढ़ ऒर साफ़ थे इसका सबूत उक्त समीक्षा को माना जा सकता हॆ । आरम्भ में ही उन्होंने लिखा हॆ-"प्रयोग ही तारसप्त्क का नारा हॆ । इस दिशा में ’तार सप्तक’ की क्या विशेषता हॆ ? एकदम स्पष्ट कहा जाय तो कोई खास नहीं । कारण इसके दो हॆं । एक तो यह कि मॊलिक रूप से ’तारसप्तक’ के प्रयोग अन्यत्र कई ऒर कवियों के, इसके काफ़ी पहले के संग्रहों में मिल जायँगे: प्रथमत: निराला में ही - न केवल तारसप्तक के लगभग सभी प्रयोग बल्कि उससे भी ऒर कहीं अधिक, कहीं अधिक,...। दूसरा कारण जो तारसप्तक के प्रयोगों को न्यून करता हॆ, यह कि वे बहुत कम सफल हुए हॆं, यहां सिवाय अज्ञेय ऒर रामविलास के ।’ मुक्तिबोध के सम्बन्ध में उन्होंने वहीं पर लिखा था -"गजानन मुक्तिबोध की अभिव्यक्ति उनके कला प्रकारों के अनुरूप सूक्ष्म ऒर पुष्ट नहीं हॆ । शमशेर अपनी निजता, अपने विवेक, अपनी विनम्रता का संरक्षण करते हुए साफ़गोई के धनी थे । एक हद तक अपना सबकुछ दाव पर लगा देने वाले निर्भीक ।
कवि चिन्तक शमशेर की एक ऒर महत्त्वपूर्ण पहल का जायजा लीजिए । "फूल नहीं, रंग बोलते हॆं’ केदारनाथ अग्रवाल जी का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कविता सग्रह हॆ जो अक्टूबर, 1965 में प्रकाशित हुआ था । । यह वही संग्रह हॆ जिसमें उनकी वह कालजयी कविता भी हॆ जिसका प्रकृति-चित्रण बहुत ही प्रसिद्ध हॆ ऒर जिसका शीर्षक ’चन्द्र गहना से लॊटती बार हॆ’ । कविता की कुछ पंक्तियां निम्न प्रकार से हॆं:
देख आया चन्द्र गहना ।
देखता हँ दृश्य अब मॆं
मेड़ पर इस खेत की बॆठा अकेला ।
एक बीत के बराबर
यह हरा ठिगना चना,
बाँधे मुरॆठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सज कर खड़ा हॆ ।
पास ही मिल कर उगी हॆ
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की हॆ लचीली,
नीले फूले फूल को सिल पर चढ़ा कर
कह रही हॆ, जो छुए यह
दूँ हृदय का दान उसको ।
विडम्बना देखिए इस संग्रह अर्थात ’फूल नहीं, रंग बोलते हॆं ’ की समीक्षा के प्ररम्भ में ही शमशेर बहादुर सिंह को लिखना पड़ा था -"पॊने दो साल हो गए केदार के प्रतिनिधि संकलन ’फूल नहीं रंग बोलते हॆं’ को निकले ऒर सुनता हँ अभी तक उसकी कोई रिव्यू कहीं नहीं निकली, न कोई चर्चा कहीं हुई । .....केदार सन ’३० से भी पहले से लिख रहे हॆं ।"
इस कवि की एक अन्य मजबूत पक्षधरता से वाकिफ़ होना भी शायद उचित ही रहेगा । यह हॆ अनुचित या अन्याय का पुरज़ोर विरोध करना ऒर उसे बर्दाश्त न करना ।फिर ज़ोखिम भी क्यों न उठाना पड़े । हादसा ’चुका भी नहीं हूं मॆं’ को लेकर हॆ । पूरा विवरण मेरे ही द्वारा संपादित दिशाबोध के पहले अंक (जून 1978) में हॆ जिसे उन्होंने पूरे आग्रह से प्रकाशित कराया था । । यहां कुछ अंश देना ही काफ़ी रहेगा :
"चुका भी हूं नहीं मॆं" का जो (तथाकथित) "दूसरा संस्करण" राधाकृष्ण प्रकाशन ने छापा हॆ, उसे लेखक की यानी मेरी मान्यता प्राप्त नहीं हॆ । कारण, वह संस्करण बिना मुझसे पूछे, मेरी मर्जी के खिलाफ, चुपचाप छाप लिया गया हॆ--"
"राधाकृष्ण प्रकाशन ने जो दूसरा संस्करण निकाला हॆ, उसमें, पहले संस्करण की सारी की सारी अशुद्धियां ज्यों ख त्यों मॊजूद हॆं । अत: मेरी कविता के गम्भीर पाठकों के लिए अब प्रामाणिक ऒर शुद्ध वही संस्करण हॆ जो राजकमल प्रकाशन की ओर से प्रकाशित होने जा रहा हॆ ।"
"अगस्त, 77 में राधाकृष्ण प्रकाशन मेरे संग्रह की "बची हुई प्रतियां" मुझे वापिस करना चाहते थे । यह जानकर फ़ॊरन मॆंने राजकमल प्रकाशन से दूसरे संस्करण के लिये बात तय कर ली । मॆम उन ’बची हुई प्रतियों’ को वापस पाने की प्रतीक्षा ही करता रहा । वे वापस नहीं आयीं; बल्कि सपष हऎ, कि बिक गयीं । " "प्रकाशक की सहसा ’नीति-परिवर्तन’ का कारण समझना कठिन नहीं हॆ ।मेरी कविता की पुस्तक पहले धीर-धीरे बिक रही होगी, लाभांश उसमें बहुत कम होगा । मगर जब वही पुस्तक मध्य साहित्य परिषद ऒर साहित्य अकादमी की ओर से पुरस्कृत हो गयी तो उसकी मांग ऒर प्रतिष्ठा यकायक बढ़ गयी । अब क्या ज़रूरत बची हुई "प्रतियां वापिस" करने की !! " हिन्दी का एक ’प्रतिष्ठित’ ’ माना जाने वाला प्रकाशक अपने लेखक को कितना अवहेलनीय, उपेक्षणीय ऒर कितना महत्त्वहीन समझता हॆ -अमल में- यह ऒरों की तरह मेरे लिए भी. आँख खोलने वाला ताज़ा अनुभव हॆ ।"
कवि शमशेर को लेकर अनेक बातें कहीं गई हॆं । मसलन वे प्रयत्नसाध्य कवि थे , उनके बिम्ब खण्डित हॆं कि उनके यहां मार्क्सवाद ऒर रूमानियत का अन्तर्विरोध हॆ कि उनकी कविता दुरूह हॆ । आदि आदि । शमशेर के संदर्भ में प्रयत्नसाध्य शब्द बहुत फिट नहीं बॆठता । अन्यों के संदर्भ में जो प्रयत्नसाध्य पवित्रता हो सकती हॆ वह उनके अपने संदर्भ में सहज ही थी । मंदिर में मंदिर की पवित्रता की सी पवित्रता के साथ ही प्रवेश करना उचित होता हॆ । शमशेर कि कविता असल में पाठक से भी उचित तॆयारी की अपेक्षा रखती हॆ । मुक्तिबोध ऒर शमशेर की कविता को अपेक्षाकृत कठिन माना गया हॆ पर हम जानते हॆं कि उनकी कविताओं का आस्वादन भी लिया गया हॆ ऒर आकलन भी हुआ हॆ । यूं शमशेर जी ने ’चुका भी नहीं हूं मॆ’ ’ कविता संग्रह के आभार-ज्ञापन में लिखा हॆ -" अपनी काव्यकृतियां मुझे दरअसल सामाजिक दृष्टि से कुछ बहुत मूल्यवान नहीं लगतीं । उनकी वास्तविक सामाजिक उपयोगिता मेरे लिए एक प्रश्न-चिन्ह-सा ही रही हॆ, कितनी ही धुंधली सही ।’मेरी समझ में अपनी सोच ऒर कविता दोनों में मूलत: शमशेर एक हॆ । ’कुछ ऒर कविताए ’ से उनके शब्द लेकर बात समझी जा सकती हॆ -" इसका मतलब यह नहीं कि हम अपने दायित्व से ग़ाफ़िल हों, कोशिश न करें समाज में नयी चेतना फूंकने की-अगर कविता के माध्यम से ही ऎसा करने की हमें प्रेरणा मिलती हॆ। मगर ऎसी’ ’चेतना’ रखना ऒर उसे ’फूंकना’- अभिमंत्रित शक्ति की तरह समाज के प्राणॊं में उसे भरना...इसका अर्थ क्या हॆ, यह ध्यान में रखना आवश्यक होगा । मामूली सामर्थ्य का काम नहीं । बेशक ऎसी चीज़ों के सद्य: प्रकाशन, ऒर प्रचार पर मेरा प्रबल आग्रह हॆ । आवश्यक नहीं कि हर दशा में ऎसी उपादेय चीज़ें सच्ची कविता ही मानी जायँ ।’ उन्हीं के अनुसार-’एक दॊर था, जब मॆं ऎसी चीज़ें लिखने के लिए अधिक उत्सुक था......। पर अपेक्षित स्तर मुझे सदा अपने कवि-व्यक्तित्व की पहुंच से बहुत ऊंचा ऒर असम्भव-सा महसूस होता ।.....कविता में सामाजिक अनूभूति काव्य-पक्ष के अन्तर्गत ही महत्त्वपूर्ण हो सकती हॆ । शमशेर की पॉलिटिक्स एक ईमानदार ऒर सच्चे व्यक्ति की पॉलाटिक्स हॆ । वह वॆसी पॉलिटिक्स नहीं हॆ जॆसी वह आज अपने अर्थों में समझी जाती हॆ । वे कम्युनिस्ट पार्टी के बहुत ही समर्पित कार्यकर्ता थे लेकिन उनका मोहभंग भी हुआ था । रामविलास जी ने उनके कवि की पॉलिटिक्स को कुछ यं समझा हॆ -उनकी उलझनों का एक कारण यह हॆ कि वे अपने रीति-वादी-रुमानी सॊन्दर्यबोध से अपने मार्क्सवादी विवेक की संगति नहीं बिठा पाए । दूसरा कारण यह हॆ कि जब वह रीतिवाद ऒर रुमानियत से हटकर, मानव-करुणा में गहरे डूब कर कविता लिखते हॆं, तब शायद समझते हॆं कि वह कविता मार्क्सवाद के अनुरूप हुई नहीं । इस लेख में भुवनेश्वर वाली कविता इसीलिए पूरी की पूरी मॆंने उद्धृत की हॆ । यह एक अनुपम आधुनिक कविता हॆ, आत्म-सम्मोहन से बाहर, नव्य रहस्यवाद से बचती हुई, दूसरे की ज़िन्दगी को सहानुभूति से चित्रित करने में एक चमत्कार ।’ रामविलास जी ने अपने लेख ’शमशेर बहादुर सिंह का आत्म-संघर्ष ऒर उनकी कविता’ ’ में, इस संदर्भ में यह मत भी दिया हॆ -"उस दुनिया में यथार्थ जगत का गर्द-गुबार कम हॆ, कॆन्टोनमेन्ट की तरह वह शहर की गन्दी बस्तियों से काफी दूर हॆ ..।" तो भी मॆं समझता हूं कि कवि जिन कविताओं का खुद ही पटाक्षेप करना चाहता हॆ क्या ज़रूरी हॆ कि उन्हें ही उंगली दिखाई जाए ।वस्तुत: शमशेर की कविता सॊन्दर्यबोध धर्मी हॆं । नारी हो या प्रेम, शमशेर की कविता में वह सॊन्दर्यपरक कलात्मक अभिव्यक्ति ही होती हॆ । शमशेर के यहां विषय नहीं अनूभूति ऒर उसमें भी कलात्मक अनूभूति का महत्त्व हॆ । उनकी कविता को मात्र काव्य-कॊशल कह कर खारिज़ नहीं किया जा सकता । कलात्मक क्षमता हासिल करने में उनकी पूरी आस्था हॆ । उनके अनुसार सच्चा कवि रूप-प्रकार को ग्रहण करते हुए अनुभूति के स्पंदन के समक्ष उसे मोम बना देता हॆ ।वे बारीक कातते हॆं । वे रीझ सकते हॆं लेकिन पीछे ही नहीं पड़ जाते । कविता को शमशेर बहुत निज़ी चीज़ मानते हॆं। उनके शब्दों में-"जितनी ही अधिक वह उसकी अपनी चीज़ हॆ , उतनी ही कालान्तर में वह ऒरों की भी हो सकती हॆ ।- अगर वह सच्ची हॆ, कला-पक्ष ऒर भाव-पक्ष दोनों ओर से ।"(कुछ ऒर कविताएं ) । शमशेर के यहां कृत्रिमता के लिए जगह नहीं हॆ । न ही रूढ़िवादिता अथवा चलन के लिए । बयानबाजी या नारेबाजी भी उनकी चाय का प्याला नहीं हॆ ।यहीं वे सबसे अलग हॆं ऒर अपने से पूर्व की कविता से भी भिन्न । प्रासंगिकता मुझे एक आन्दोलनवादी शब्द प्रतीत होने लगा हॆ । सवाल हॆ किस के लिए प्रासंगिक या उन्हीं या आप के लिए ही प्रासंगिक क्यों ? आप या वे शमशेर की कविता के लिए प्रासंगिक क्यों नहीं ? ’अज्ञेय से’ ’ कविता में शमशेर कॊ कुछ पंक्तियां हॆं--
जो नहीं हॆ
जॆसे के ’सुरुचि’
उसका ग़म क्या ?
वह नहीं हॆ ।
xxxxxxx
जो हॆ
उसे ही क्यों न सँजोना ?
उसी के क्यों न होना ?--
जो कि हॆ ।
कवि ऒर कविता की सच्ची स्वायत्ता (ऒर ऎंठ भी) भी शमसेर की प्रासंगिकता का एक बड़ा प्रस्थान बिन्दु हॆ ।
नि:सन्देह शमशेर उस अर्थ में जनकवि नहीं ही हॆं जिस अर्थ में नागार्जुन हॆं । त्रिलोचन भी हिन्दी के जनकवि नहीं हॆं, थोड़े बहुत अवधी के हों तो हों ।मॆं समझता हूं कि शायद नागार्जुन भी अपनी श्रेष्ठ या उत्कृष्ट कविताओं के कारण जनकवि नहीं हॆं बल्कि तात्कालिक रूप से प्रतिक्रिया स्वरूप लिखी आशुनुमा कविताओं के कारण जनकवि अधिक माने जाते हॆं । उन्हें जनकवि सिद्ध करते हुए ऎसी ही कविताओं के उदाहरण ज़्यादा देने पड़ते हॆं । आज हिन्दी में कितने ही मंचीय कवि बिना उत्कृष्ट कुछ लिखे भी लोकप्रियता के शिखर पर हॆं इसलिए अपनी तरह से वे भी अच्छी अच्छी बातें कहने वाले जनकवि हुए । त्रिलोचन जी कहा करते थे कि ऒरों मे खप जाने वाली कविताएं तात्कालिक रूप से लोकप्रियता की तालियां तो बजवा सकती हॆं लेकिन बहुत दूर तक चलने में वे असमर्थ ही रह जाया करती हॆं । पाब्लो नेरूदा ऒर फ़ॆज अहमद फ़ॆज की कितनी ही कविताएं मानों टूट कर लिखी गयी हॆं । शमशेर भी टूट कर लिखते थे यानि पूर तरह डूबकर । अपना आपा मेंटकर -बिना अपनापन खोए । शमशेर की कविता मनुष्य को प्रामाणिकता के साथ उसके होने के सबसे उत्तम रूप से रू-ब-रू करने का अवसर देती हॆ क्या यह कवि की प्रतिबद्धता का मूल्य नहीं हॆ । उनकी किसी भी कविता को उठा कर पढ़ लिया जाए, मसलन लॊट आ, ओ धार । देखिए इसी की ये पंक्तियां:
लॊट आ, ओ फूल की पंखड़ी
फिर
फूल में लग जा ।
क्या इस कविता के कितने ही प्रतिबद्ध अर्थ भी नहीं नकाले जा सकते ?
ऒर अंत में यह भी कि शमशेर ने अपनी ही भाषा-शॆली अर्जित की थी । वह अपने पहले ही पाठ में अभिभूत करने की क्षमता रखती हॆ भले ही कभी-कभी उलझा भी देती हो । बिम्बधर्मिता ऒर चित्रकारी उनकी भाषा को चार चार चाँद लागा देती हॆं । शब्दों का रखरखाव अर्थ -छवियों का आनन्ददायी रचाव करता हॆ । मेरी एक कविता हॆ-शमशेर की कविता, उसी को उद्धृत करते हुए अपनी बात खत्म करना चाहूंगा -
छुइये
मगर हॊले
कि यह कविता
शमशेर की हॆ ।
ऒर यह जो
एक-आध पाँखुरी
बिखरी
सी
पड़ी
हॆ
न ?
इसे भी
न हिलाना ।
बहुत मुमकिन हॆ
किसी मूड में
शमशेर ने ही
इसे ऎसा रक्खा हो ।
दर असल
शरीर में जॆसे
हर चीज़ अपनी जगह हॆ
शमशेर की कविता हॆ ।
देखो
शब्द समझ
कहीं पाँव न रख देना
अभी गीली हॆ
जॆसे आंगन
माँ ने माटी से
अभी-अभी लीपा हॆ
शमशेर की कविता हॆ ।
कवि-चिन्तक शमशेर की प्रासंगिकता खुद शमशेर की समझ ऒर पहचान में भी हॆ । खासकर अनेक प्रकार से प्रदूषित ऒर तकलीफ़ देते साहित्यिक परिवेश में । शमशेर जी को पढ़ते-जानते कुछ ऎसे तथ्य हाथ आए जो अपने समय की कविता ऒर कविता-परिवेश पर सशक्त ऒर निभीर्क टिप्पणियां हॆं । बल्कि आगे के समय पर भी । बहुत ही मॊलिक ऒर शायद पहली बार । उन्हें जानना कदाचित दिलचस्प ही होगा । नामवर जी के अनुसार अज्ञेय द्वारा संपादित तारसप्तक की पहली समीक्षा शमशेर जी ने ही की थी ऒर वह भी उसके प्रकाशन (1943) के तीन वर्ष बाद 1946 में जो नया साहित्य में ’सात आधुनिक हिन्दी कवी’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी । अपनी परख ऒर सोच में शमशेर कितने वस्तुपरक, कितने दृढ़ ऒर साफ़ थे इसका सबूत उक्त समीक्षा को माना जा सकता हॆ । आरम्भ में ही उन्होंने लिखा हॆ-"प्रयोग ही तारसप्त्क का नारा हॆ । इस दिशा में ’तार सप्तक’ की क्या विशेषता हॆ ? एकदम स्पष्ट कहा जाय तो कोई खास नहीं । कारण इसके दो हॆं । एक तो यह कि मॊलिक रूप से ’तारसप्तक’ के प्रयोग अन्यत्र कई ऒर कवियों के, इसके काफ़ी पहले के संग्रहों में मिल जायँगे: प्रथमत: निराला में ही - न केवल तारसप्तक के लगभग सभी प्रयोग बल्कि उससे भी ऒर कहीं अधिक, कहीं अधिक,...। दूसरा कारण जो तारसप्तक के प्रयोगों को न्यून करता हॆ, यह कि वे बहुत कम सफल हुए हॆं, यहां सिवाय अज्ञेय ऒर रामविलास के ।’ मुक्तिबोध के सम्बन्ध में उन्होंने वहीं पर लिखा था -"गजानन मुक्तिबोध की अभिव्यक्ति उनके कला प्रकारों के अनुरूप सूक्ष्म ऒर पुष्ट नहीं हॆ । शमशेर अपनी निजता, अपने विवेक, अपनी विनम्रता का संरक्षण करते हुए साफ़गोई के धनी थे । एक हद तक अपना सबकुछ दाव पर लगा देने वाले निर्भीक ।
कवि चिन्तक शमशेर की एक ऒर महत्त्वपूर्ण पहल का जायजा लीजिए । "फूल नहीं, रंग बोलते हॆं’ केदारनाथ अग्रवाल जी का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कविता सग्रह हॆ जो अक्टूबर, 1965 में प्रकाशित हुआ था । । यह वही संग्रह हॆ जिसमें उनकी वह कालजयी कविता भी हॆ जिसका प्रकृति-चित्रण बहुत ही प्रसिद्ध हॆ ऒर जिसका शीर्षक ’चन्द्र गहना से लॊटती बार हॆ’ । कविता की कुछ पंक्तियां निम्न प्रकार से हॆं:
देख आया चन्द्र गहना ।
देखता हँ दृश्य अब मॆं
मेड़ पर इस खेत की बॆठा अकेला ।
एक बीत के बराबर
यह हरा ठिगना चना,
बाँधे मुरॆठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सज कर खड़ा हॆ ।
पास ही मिल कर उगी हॆ
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की हॆ लचीली,
नीले फूले फूल को सिल पर चढ़ा कर
कह रही हॆ, जो छुए यह
दूँ हृदय का दान उसको ।
विडम्बना देखिए इस संग्रह अर्थात ’फूल नहीं, रंग बोलते हॆं ’ की समीक्षा के प्ररम्भ में ही शमशेर बहादुर सिंह को लिखना पड़ा था -"पॊने दो साल हो गए केदार के प्रतिनिधि संकलन ’फूल नहीं रंग बोलते हॆं’ को निकले ऒर सुनता हँ अभी तक उसकी कोई रिव्यू कहीं नहीं निकली, न कोई चर्चा कहीं हुई । .....केदार सन ’३० से भी पहले से लिख रहे हॆं ।"
इस कवि की एक अन्य मजबूत पक्षधरता से वाकिफ़ होना भी शायद उचित ही रहेगा । यह हॆ अनुचित या अन्याय का पुरज़ोर विरोध करना ऒर उसे बर्दाश्त न करना ।फिर ज़ोखिम भी क्यों न उठाना पड़े । हादसा ’चुका भी नहीं हूं मॆं’ को लेकर हॆ । पूरा विवरण मेरे ही द्वारा संपादित दिशाबोध के पहले अंक (जून 1978) में हॆ जिसे उन्होंने पूरे आग्रह से प्रकाशित कराया था । । यहां कुछ अंश देना ही काफ़ी रहेगा :
"चुका भी हूं नहीं मॆं" का जो (तथाकथित) "दूसरा संस्करण" राधाकृष्ण प्रकाशन ने छापा हॆ, उसे लेखक की यानी मेरी मान्यता प्राप्त नहीं हॆ । कारण, वह संस्करण बिना मुझसे पूछे, मेरी मर्जी के खिलाफ, चुपचाप छाप लिया गया हॆ--"
"राधाकृष्ण प्रकाशन ने जो दूसरा संस्करण निकाला हॆ, उसमें, पहले संस्करण की सारी की सारी अशुद्धियां ज्यों ख त्यों मॊजूद हॆं । अत: मेरी कविता के गम्भीर पाठकों के लिए अब प्रामाणिक ऒर शुद्ध वही संस्करण हॆ जो राजकमल प्रकाशन की ओर से प्रकाशित होने जा रहा हॆ ।"
"अगस्त, 77 में राधाकृष्ण प्रकाशन मेरे संग्रह की "बची हुई प्रतियां" मुझे वापिस करना चाहते थे । यह जानकर फ़ॊरन मॆंने राजकमल प्रकाशन से दूसरे संस्करण के लिये बात तय कर ली । मॆम उन ’बची हुई प्रतियों’ को वापस पाने की प्रतीक्षा ही करता रहा । वे वापस नहीं आयीं; बल्कि सपष हऎ, कि बिक गयीं । " "प्रकाशक की सहसा ’नीति-परिवर्तन’ का कारण समझना कठिन नहीं हॆ ।मेरी कविता की पुस्तक पहले धीर-धीरे बिक रही होगी, लाभांश उसमें बहुत कम होगा । मगर जब वही पुस्तक मध्य साहित्य परिषद ऒर साहित्य अकादमी की ओर से पुरस्कृत हो गयी तो उसकी मांग ऒर प्रतिष्ठा यकायक बढ़ गयी । अब क्या ज़रूरत बची हुई "प्रतियां वापिस" करने की !! " हिन्दी का एक ’प्रतिष्ठित’ ’ माना जाने वाला प्रकाशक अपने लेखक को कितना अवहेलनीय, उपेक्षणीय ऒर कितना महत्त्वहीन समझता हॆ -अमल में- यह ऒरों की तरह मेरे लिए भी. आँख खोलने वाला ताज़ा अनुभव हॆ ।"
कवि शमशेर को लेकर अनेक बातें कहीं गई हॆं । मसलन वे प्रयत्नसाध्य कवि थे , उनके बिम्ब खण्डित हॆं कि उनके यहां मार्क्सवाद ऒर रूमानियत का अन्तर्विरोध हॆ कि उनकी कविता दुरूह हॆ । आदि आदि । शमशेर के संदर्भ में प्रयत्नसाध्य शब्द बहुत फिट नहीं बॆठता । अन्यों के संदर्भ में जो प्रयत्नसाध्य पवित्रता हो सकती हॆ वह उनके अपने संदर्भ में सहज ही थी । मंदिर में मंदिर की पवित्रता की सी पवित्रता के साथ ही प्रवेश करना उचित होता हॆ । शमशेर कि कविता असल में पाठक से भी उचित तॆयारी की अपेक्षा रखती हॆ । मुक्तिबोध ऒर शमशेर की कविता को अपेक्षाकृत कठिन माना गया हॆ पर हम जानते हॆं कि उनकी कविताओं का आस्वादन भी लिया गया हॆ ऒर आकलन भी हुआ हॆ । यूं शमशेर जी ने ’चुका भी नहीं हूं मॆ’ ’ कविता संग्रह के आभार-ज्ञापन में लिखा हॆ -" अपनी काव्यकृतियां मुझे दरअसल सामाजिक दृष्टि से कुछ बहुत मूल्यवान नहीं लगतीं । उनकी वास्तविक सामाजिक उपयोगिता मेरे लिए एक प्रश्न-चिन्ह-सा ही रही हॆ, कितनी ही धुंधली सही ।’मेरी समझ में अपनी सोच ऒर कविता दोनों में मूलत: शमशेर एक हॆ । ’कुछ ऒर कविताए ’ से उनके शब्द लेकर बात समझी जा सकती हॆ -" इसका मतलब यह नहीं कि हम अपने दायित्व से ग़ाफ़िल हों, कोशिश न करें समाज में नयी चेतना फूंकने की-अगर कविता के माध्यम से ही ऎसा करने की हमें प्रेरणा मिलती हॆ। मगर ऎसी’ ’चेतना’ रखना ऒर उसे ’फूंकना’- अभिमंत्रित शक्ति की तरह समाज के प्राणॊं में उसे भरना...इसका अर्थ क्या हॆ, यह ध्यान में रखना आवश्यक होगा । मामूली सामर्थ्य का काम नहीं । बेशक ऎसी चीज़ों के सद्य: प्रकाशन, ऒर प्रचार पर मेरा प्रबल आग्रह हॆ । आवश्यक नहीं कि हर दशा में ऎसी उपादेय चीज़ें सच्ची कविता ही मानी जायँ ।’ उन्हीं के अनुसार-’एक दॊर था, जब मॆं ऎसी चीज़ें लिखने के लिए अधिक उत्सुक था......। पर अपेक्षित स्तर मुझे सदा अपने कवि-व्यक्तित्व की पहुंच से बहुत ऊंचा ऒर असम्भव-सा महसूस होता ।.....कविता में सामाजिक अनूभूति काव्य-पक्ष के अन्तर्गत ही महत्त्वपूर्ण हो सकती हॆ । शमशेर की पॉलिटिक्स एक ईमानदार ऒर सच्चे व्यक्ति की पॉलाटिक्स हॆ । वह वॆसी पॉलिटिक्स नहीं हॆ जॆसी वह आज अपने अर्थों में समझी जाती हॆ । वे कम्युनिस्ट पार्टी के बहुत ही समर्पित कार्यकर्ता थे लेकिन उनका मोहभंग भी हुआ था । रामविलास जी ने उनके कवि की पॉलिटिक्स को कुछ यं समझा हॆ -उनकी उलझनों का एक कारण यह हॆ कि वे अपने रीति-वादी-रुमानी सॊन्दर्यबोध से अपने मार्क्सवादी विवेक की संगति नहीं बिठा पाए । दूसरा कारण यह हॆ कि जब वह रीतिवाद ऒर रुमानियत से हटकर, मानव-करुणा में गहरे डूब कर कविता लिखते हॆं, तब शायद समझते हॆं कि वह कविता मार्क्सवाद के अनुरूप हुई नहीं । इस लेख में भुवनेश्वर वाली कविता इसीलिए पूरी की पूरी मॆंने उद्धृत की हॆ । यह एक अनुपम आधुनिक कविता हॆ, आत्म-सम्मोहन से बाहर, नव्य रहस्यवाद से बचती हुई, दूसरे की ज़िन्दगी को सहानुभूति से चित्रित करने में एक चमत्कार ।’ रामविलास जी ने अपने लेख ’शमशेर बहादुर सिंह का आत्म-संघर्ष ऒर उनकी कविता’ ’ में, इस संदर्भ में यह मत भी दिया हॆ -"उस दुनिया में यथार्थ जगत का गर्द-गुबार कम हॆ, कॆन्टोनमेन्ट की तरह वह शहर की गन्दी बस्तियों से काफी दूर हॆ ..।" तो भी मॆं समझता हूं कि कवि जिन कविताओं का खुद ही पटाक्षेप करना चाहता हॆ क्या ज़रूरी हॆ कि उन्हें ही उंगली दिखाई जाए ।वस्तुत: शमशेर की कविता सॊन्दर्यबोध धर्मी हॆं । नारी हो या प्रेम, शमशेर की कविता में वह सॊन्दर्यपरक कलात्मक अभिव्यक्ति ही होती हॆ । शमशेर के यहां विषय नहीं अनूभूति ऒर उसमें भी कलात्मक अनूभूति का महत्त्व हॆ । उनकी कविता को मात्र काव्य-कॊशल कह कर खारिज़ नहीं किया जा सकता । कलात्मक क्षमता हासिल करने में उनकी पूरी आस्था हॆ । उनके अनुसार सच्चा कवि रूप-प्रकार को ग्रहण करते हुए अनुभूति के स्पंदन के समक्ष उसे मोम बना देता हॆ ।वे बारीक कातते हॆं । वे रीझ सकते हॆं लेकिन पीछे ही नहीं पड़ जाते । कविता को शमशेर बहुत निज़ी चीज़ मानते हॆं। उनके शब्दों में-"जितनी ही अधिक वह उसकी अपनी चीज़ हॆ , उतनी ही कालान्तर में वह ऒरों की भी हो सकती हॆ ।- अगर वह सच्ची हॆ, कला-पक्ष ऒर भाव-पक्ष दोनों ओर से ।"(कुछ ऒर कविताएं ) । शमशेर के यहां कृत्रिमता के लिए जगह नहीं हॆ । न ही रूढ़िवादिता अथवा चलन के लिए । बयानबाजी या नारेबाजी भी उनकी चाय का प्याला नहीं हॆ ।यहीं वे सबसे अलग हॆं ऒर अपने से पूर्व की कविता से भी भिन्न । प्रासंगिकता मुझे एक आन्दोलनवादी शब्द प्रतीत होने लगा हॆ । सवाल हॆ किस के लिए प्रासंगिक या उन्हीं या आप के लिए ही प्रासंगिक क्यों ? आप या वे शमशेर की कविता के लिए प्रासंगिक क्यों नहीं ? ’अज्ञेय से’ ’ कविता में शमशेर कॊ कुछ पंक्तियां हॆं--
जो नहीं हॆ
जॆसे के ’सुरुचि’
उसका ग़म क्या ?
वह नहीं हॆ ।
xxxxxxx
जो हॆ
उसे ही क्यों न सँजोना ?
उसी के क्यों न होना ?--
जो कि हॆ ।
कवि ऒर कविता की सच्ची स्वायत्ता (ऒर ऎंठ भी) भी शमसेर की प्रासंगिकता का एक बड़ा प्रस्थान बिन्दु हॆ ।
नि:सन्देह शमशेर उस अर्थ में जनकवि नहीं ही हॆं जिस अर्थ में नागार्जुन हॆं । त्रिलोचन भी हिन्दी के जनकवि नहीं हॆं, थोड़े बहुत अवधी के हों तो हों ।मॆं समझता हूं कि शायद नागार्जुन भी अपनी श्रेष्ठ या उत्कृष्ट कविताओं के कारण जनकवि नहीं हॆं बल्कि तात्कालिक रूप से प्रतिक्रिया स्वरूप लिखी आशुनुमा कविताओं के कारण जनकवि अधिक माने जाते हॆं । उन्हें जनकवि सिद्ध करते हुए ऎसी ही कविताओं के उदाहरण ज़्यादा देने पड़ते हॆं । आज हिन्दी में कितने ही मंचीय कवि बिना उत्कृष्ट कुछ लिखे भी लोकप्रियता के शिखर पर हॆं इसलिए अपनी तरह से वे भी अच्छी अच्छी बातें कहने वाले जनकवि हुए । त्रिलोचन जी कहा करते थे कि ऒरों मे खप जाने वाली कविताएं तात्कालिक रूप से लोकप्रियता की तालियां तो बजवा सकती हॆं लेकिन बहुत दूर तक चलने में वे असमर्थ ही रह जाया करती हॆं । पाब्लो नेरूदा ऒर फ़ॆज अहमद फ़ॆज की कितनी ही कविताएं मानों टूट कर लिखी गयी हॆं । शमशेर भी टूट कर लिखते थे यानि पूर तरह डूबकर । अपना आपा मेंटकर -बिना अपनापन खोए । शमशेर की कविता मनुष्य को प्रामाणिकता के साथ उसके होने के सबसे उत्तम रूप से रू-ब-रू करने का अवसर देती हॆ क्या यह कवि की प्रतिबद्धता का मूल्य नहीं हॆ । उनकी किसी भी कविता को उठा कर पढ़ लिया जाए, मसलन लॊट आ, ओ धार । देखिए इसी की ये पंक्तियां:
लॊट आ, ओ फूल की पंखड़ी
फिर
फूल में लग जा ।
क्या इस कविता के कितने ही प्रतिबद्ध अर्थ भी नहीं नकाले जा सकते ?
ऒर अंत में यह भी कि शमशेर ने अपनी ही भाषा-शॆली अर्जित की थी । वह अपने पहले ही पाठ में अभिभूत करने की क्षमता रखती हॆ भले ही कभी-कभी उलझा भी देती हो । बिम्बधर्मिता ऒर चित्रकारी उनकी भाषा को चार चार चाँद लागा देती हॆं । शब्दों का रखरखाव अर्थ -छवियों का आनन्ददायी रचाव करता हॆ । मेरी एक कविता हॆ-शमशेर की कविता, उसी को उद्धृत करते हुए अपनी बात खत्म करना चाहूंगा -
छुइये
मगर हॊले
कि यह कविता
शमशेर की हॆ ।
ऒर यह जो
एक-आध पाँखुरी
बिखरी
सी
पड़ी
हॆ
न ?
इसे भी
न हिलाना ।
बहुत मुमकिन हॆ
किसी मूड में
शमशेर ने ही
इसे ऎसा रक्खा हो ।
दर असल
शरीर में जॆसे
हर चीज़ अपनी जगह हॆ
शमशेर की कविता हॆ ।
देखो
शब्द समझ
कहीं पाँव न रख देना
अभी गीली हॆ
जॆसे आंगन
माँ ने माटी से
अभी-अभी लीपा हॆ
शमशेर की कविता हॆ ।
सोमवार, 7 मार्च 2011
२१वीं सदी का बाल-साहित्य : विभिन्न भाषाओं से अनुवाद के विशिष्ट संदर्भ में
अनुवाद की बात करना प्राय: तब जायज माना जाता हॆ जब मूल महत्त्वपूर्ण ऒर समृद्ध हो । भारतीय भाषाओं की बात करें तो नि:संदेह बंगला ऒर मराठी जॆसी भाषाओं के समृद्ध ऒर मह्त्त्वपूर्ण बाल-साहित्य की भांति आज हिन्दी का बाल-साहित्य भी मह्त्त्वपूर्ण ऒर समृद्ध हे । इस नाते यदि हिन्दी-बाल-साहित्य के संदर्भ में भी अनुवाद की दृष्टि से विचार किया जाए तो तर्कयुक्त ही कहा जाएगा । लेकिन बहुभाषी भारत के संदर्भ में तो मेरे विचार से सभी भाषाओं के बाल-साहित्य के एक दूसरे की भाषा में अनुवाद की आवश्यकता हे । बावजूद इसके कि कई भाषाएं ऎसी भी हॆं जिनसे या जिनमें हिन्दी बाल-साहित्य का अनुवाद करना कोई आसान काम नहीं हॆ । मसलन र. शॊरिराजन के अनुसार शब्द, वाक्य-रचना, व्याकरण आदि की भिन्न्ता के कारण अनुवाद की दृष्टि से हिन्दी ऒर तमिल में आदान-प्रदान सरल नहीं हॆ । यह मत उन्होंने बहुत पहले मधुमती (१९६७) के बाल विशेषांक में प्रकट किया था । आज कमोबेश सभी भारतीय भाषाओं में बाल-साहित्य की भी प्रकाशित सामग्री उपलब्ध हॆ । यदि हम चाहते हॆं कि हमारे देश की एक बड़ी अनिवार्य जरूरत की तहत भावनात्मक एकता के स्वरूप की महत्तवपूर्ण जानकारी ऒर उसके सच्चे संस्कार हमारे बच्चों में सहज ऒर पुख्ता ढ़ंग से घर कर लें तो नि:संदेह यह कार्य बाल-साहित्य के आदान-प्रदान से ही संभव हो सकता हॆ । आज न बड़ों के ऒर न ही बालकों के दायरे संकुचित रह गए हॆं, ऎसी स्थिति अपेक्षित भी नहीं हॆ । हम वॆश्विक होने की होड़ में हॆं । सूचनाओं ऒर जानकारियों को भण्डार हमारे सामने खुला पड़ा हॆ । मूल्यों की कोई एक परिभाषा नहीं रह गई हॆ । बिना सोचे-समझे अपनी-अपनी परिभाषाओं से चिपके रहना कोई अच्छी राह नहीं मानी जाती । हालांकि मूल्यविहीनता का मूल्य किसी को स्वीकार नहीं हॆ -बच्चों की दुनिया में तो एकदम नहीं । लेकिन मूल्यों का आरोपण या उनका उपदेशीकरण भी आज बच्चों तक को ग्राह्य नहीं हॆ । अत: बाल-साहित्य सृजन, आज के साहित्यकार के लिए एक बड़ी चुनॊती भी हॆ । अत: बालक के एक बड़े ऒर व्यापक परिवेश की सोच के बिना किसी भी भाषा का बाल-साहित्य सम्पूर्ण नहीं माना जाएगा । ऒर इतने बड़े देश में, इतनी भाषाओं के बच्चों के संदर्भ में यह कार्य अनुवाद के माध्यम से बखूबी संभव हो सकता हॆ । अनुवाद हर भाषा को अपने-अपने क्षितिज व्यापक करने का अवसर प्रदान करता हॆ । आदान-प्रदान हर हाल भारतीय ऒर वॆश्विक बाल-साहित्य के विकास में मदद करता हॆ । अगले पड़ावों के रूप में भारतीय बाल-साहित्य ऒर वॆश्विक बाल-साहित्य की प्रतिष्ठापना की जा सकती हॆ । हम विश्व के बाल-साहित्य के परिदृष्य में दृढ़ पांव जमा सकते हॆं । ऒर ऎसा करके हम मानवीयता से भरपूर वॆश्विक बालक ऒर उसके साहित्य को प्राप्त कर सकते हॆं । स्पष्ट हॆ कि यही वह राह हॆ जो हमें मानव ऒर विश्व को बचाए रखने में कारगर ढंग से मदद कर सकती हॆ । इस संदर्भ में मॆं अपनी पहले ही से बनी एक राय ज़रूर बांटना चाहूंगा कि विश्व तक जल्दी से जल्दी पहुंचने के लिए हिन्दी को अन्य भारतीय भाषाओं का द्वार बनाना ज़्यादा व्यावहारिक होगा । अर्थात सभी भारतीय भाषाओं के बाल-साहित्य का यदि हिदी में अनुवाद उपलब्ध कराने की व्यवस्था कर ली जाए तो विदेशी भाषाओं के संदर्भ में केवल एक भारतीय भाषा ’हिन्दी’ के माध्यम से उन भाषाओं में अनुवाद के माध्यम से पहुंचना बहुत सरल तो होगा ही, प्रमाणिक भी होगा क्योंकि हमारे देश का एक एक हिस्सा सांस्कृतिक दृष्टि से तो एक हॆ ही । सच तो यह हॆ कि जब तक स्रोत ऒर लक्ष्य भाषाओं में सीधे-सीधे अनुवाद करने वालों का अभाव हे तब तक किन्हीं भी दो भारतीय भाषाओं में भी बाल-साहित्य की सच्ची पहुंच के लिए ’हिन्दी’ का माध्यम सबसे ज़्यादा उपयुक्त होगा न कि अंग्रेजी का । कम से कम 21 वीं सदी में तो हमें इस तथ्य को स्वीकार कर ही लेना चाहिए । आज इस बात की भी खासी ज़रूरत हॆ कि हिन्दी ऒर भारतीय भाषाओं के बाल साहित्य को दोयम दर्जे का मानने वाले से सीधी टक्कर ली जाए । जयप्रकाश भारती जॆसे साहित्यकार इस दिशा में आदर्श कहे जाएंगे ।
यहां मॆं बाल-साहित्य की पहचान से संबद्ध पहले ही से बना अपना यह मत भी बता दूं कि बाल-साहित्य के अन्तर्गत मॆं केवल रचनात्मक बाल-साहित्य अर्थात कालात्मक अनुभूति जन्य बाल-साहित्य को ही स्वीकार करता हूं न कि अध्ययन, शोध, जानकारी अथवा तथ्यजन्य बालोपयोगी बाल-साहित्य को । ऒर जिसे मॆं बाल-साहित्य के अन्तर्गत मान रहा हूं उसी के अनुवाद का मसला कठिन ऒर चुनॊतिपूण होता हॆ । यही वह साहित्य होता हॆ जिसके अनुवाद का मतलब एक भाषा के शब्दों को दूसरी भाषा के शब्दों में रख देना मात्र नहीं होता । यहां आत्मा का अर्थात संस्कृति, पाठ आदि सब का अनुवाद करना होता हॆ । ऒर यह भी कि अनुवाद के माध्यम से एक भाषा मे लिखी रचना अन्य भाषा में पहुंचकर भी रचना ही लगनी चाहिए । अर्थात दूसरी भाषा की प्रकृति के एकदम अनुकूल - अनूदित कविता पहले कविता होनी चाहिए । यह अनुवादक की दोनों भाषाओं पर अधिकार मात्र से संभव नहीं होता बल्कि भाषाओं से जुड़े जीवन ऒर संस्कृति आदि के गहरे अनुभवात्मक ज्ञान से अधिक संभव होता हॆ । अनुवाद को लेकर विद्वानों में जो शब्दश: अथवा कलात्मक या मुक्त अनुवाद की बहस हॆ, उसके संदर्भ में मेरा निवेदन तो यही हॆ कि जहाँ तक रचनात्मक बाल-साहित्य के अनुवाद की बात हॆ, संतुलन करते हुए कलात्मक या मुक्त अनुवाद की राह पकड़नी चाहिए । पीताम्बार पबिल्शिंग कम्पनी प्रा० लि० द्वारा प्रकाशित स्लोवाकिया की लोक-कथाओं के रस में पगी दिलचस्प कहानियों के अनुवाद की पुस्तक मॆत्री का पुल के सम्पादकीय में जयप्रकाश भारती का कहना हॆ -"डॉ. शारदा यादव ने कथाओं का ऎसा अनुवाद किया हॆ कि अनुवाद नहीं लगता ।" 2008 में साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ऒर प्रीति पंत द्वारा अनूदित "उरुगुवाई बाल कहानियां" पढ़ते समय मुझे भारती जी द्वारा बताए गए गुण के भरपूर दर्शन हुए । उदाहरण के लिए मॆं एक कहानी गंजा तोता का ज़िक्र कर सकता हूं । तोते का नाम हॆ -पेद्रीतो । अनुवाद देखिए - "पेद्रीतो उन बच्चों के साथ खूब समय बिताता था । वे उससे इतना कुछ कहते थे कि वह भी उनकी तरह बोलना भी सीख गया । वह कहता, "मिट्ठू राम राम अहा मीठी मिर्ची ! पेद्रीतो का प्याला!" वह ऒर भई बहुत कुछ कहता था, जो कि बताया नहीं जा सकता हॆ, क्योंकि तोते भी बच्चों की ही तरह बुरी बातें आसानी से सीख जाते हॆं । " स्पष्ट हॆ कि यहां अनुवाद करते समय अनुवादिका ने ध्यान रखा हॆ कि हिन्दी में अनूदित इन कहानियों के पाठक अधिकतर हिन्दी के जानकार भारतवासी होंगे । अत: राम राम आदि वाली सुखद ऒर ज़रूरी छूट ले ली हॆ ऒर कृत्रिम भाषा-परिवेश से अनुवाद को बचा लिया हॆ ।
21 वीं सदी को ध्यान में रख कर कहा जाए तो भारत की सहवर्ती भाषाओं में बाल-साहित्य के आदान-प्रदान की स्थिति बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं हॆ । साहित्य अकादमी, नेशनल बुक ट्रस्ट, चिलड्रन बुक ट्रस्ट जॆसी समर्पित ऒर सक्षम संस्थाओं के बावजूद । कहने को अनेक भारतीय भाषाओं में अनूदित रचनाएं मिल जाएंगी लेकिन संख्या की दृष्टि से अनुवाद बहुत ही कम कृतियों के हॆं । विदेशॊ बाल-साहित्य के अनुवाद भी भारतीय भाषाओं में प्रकाशित हॆं पर वे भी संख्या की दृष्टि से आशाप्रद नहीं हॆं । विधाओं की दृष्टि से देखा जाए तो ज़्यादातर अनुवाद गद्य विधाओं में रची रचनाओं के हुए हॆं, ऒर उनमें भी अधिकतर ज़ोर लोककथाओं पर रहा हॆ । इतिहास पर नज़र मारी जाए तो पाएंगे कि "हिन्दी बाल-कहानियों का उदय भारतेन्दु युग से माना जाता है। इस काल की अधिकांश कहानियाँ अनूदित हैं। इसके लिए वे संस्कृत की कहानियों के लिए आभारी हैं। सर्वप्रथम शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने कुछ मौलिक कहानियाँ लिखीं, इनमें ‘राजा भोज का सपना’ ‘बच्चों का इनाम’ तथा ‘लड़कों की कहानी’ का उल्लेख किया जा सकता है। आगे चलकर रामायण-महाभारत आदि पर आधारित अनेक कहानियाँ द्विवेदी युग में लिखी गईं। किन्तु हिन्दी बाल कहानी अपने स्वर्णिम अभ्युदय के लिए प्रेमचन्द्र जी की ऋणी है। उनकी अनेक कहानियों में बाल-मन का प्रथम निवेश हुआ और उसकी ज्वलंत झाँकी अनेक कहानियों में मिलती है। बालमन के अनुरूप उनकी बहुत सी कहानियाँ जो कि बड़ों के लिए ही थीं, बच्चों ने उल्लास के साथ हृदयंगम की।" (हिन्दी की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ, उषा यादव एवं राजकिशोर सिंह, आत्माराम एण्ड सन्स, 2001 ) | विडम्बना ही हॆ कि कविताओं या कविता-पुस्तकों के अनुवाद अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलते हॆं । रमेश कॊशिक ने रूसी बाल कविताओं के अच्छे अनुवाद किए हॆं । दिविक रमेश द्वारा चयनित ऒर अनूदित ऒर नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित कोरियाई कविताओं की पुस्तक ’कोरियाई बाल कविताएं’(2001) बच्चों में बहुत ही लोकप्रिय सिद्ध हुई हॆ । महेश नेवाणी ने सिंधी के साथ हिन्दी में बाल कविताओं के हिन्दी अनुवाद पुस्तक रूप में प्रकाशित किए हॆं ।पुस्तक का नाम -बधी एकता हॆ जो पहली बार 2005 में प्रकाशित हुई थी । लोकिन पुस्तक खास स्कूली बच्चों के लिए हॆ । ’दो शब्द’ में महेश नेवाणी की चिन्ता विचारणीय हॆ -"सिंधी जाति के लोगों पर से मेरा विश्वास डोल गया हॆ। सिंधी भाषा में कविता करूं या नहीं इस पर फिर एक बार गॊर करना पड़ेगा ।" एक बात यहां अवश्य कहना चाहूंगा कि अनुवाद करने से पहले रचानाओं का चयन बहुत सावधानी के साथ किया जाना चाहिए । तब अनु्वाद बहुत प्रभाव छोड़ता हॆ ।कठिनाई यह भी हॆ कि अनुवाद को भी दोयम दर्जे का मानने वालों की कमी नहीं हॆ । डॉ. श्याम सिंह शशि कि यह चिन्ता जायज ही हॆ कि "विदेशी भाषाओं के बालसाहित्य-लेखकों में चार्ल्स डिकिंस, मोपांसा, टॉलस्टाय, अरकदे, श़ैदार का कुछ बालसाहित्य हिंदी में अनूदित हुआ है किंतु तमिल, तेलुगु, कन्नड, मलयालम आदि भारतीय भाषाओं के कई बाल उपन्यास का अनुवाद शायद ही हिंदी में हुआ हो। कैसी विडंबना है ? वास्तव में अनुवाद को भी दोयम दर्जे का लेखन माना जाता रहा है, जिसकी चर्चा हिंदी साहित्य के इतिहासों में प्रायः नगण्य है। बांग्ला से हिंदी में कथा साहित्य का जितना अनुवाद हुआ है - उसकी अपेक्षा एक-तिहाई भी शायद हिंदी से बांग्ला में नहीं हुआ।" फिर भी ऎसा तो कहा ही जा सकता कि 21वीं सदी के एक दशक में अनुवाद के क्षेत्र में भले ही आशा के अनुरूप या पहले की तुलना में संख्या की दृष्टि से थोड़ी कमी नज़र आती हो लेकिन गुणवत्ता की दष्टि से कोई कमी नहीं हॆ । साहित्य अकादमी को ही लें । साहित्य अकादेमी के प्रकाशन कार्यक्रम की नई योजनाओं में से एक योजना है-विभिन्न भाषाओं में बाल पुस्तकों का प्रकाशन। भारतीय भाषाओं में बाल कृतियों के अनुवादों के प्रकाशन से इस योजना का शुभारंभ किया गया। आकर्षक चित्रों के साथ ये कृतियाँ अकादेमी द्वारा सन् 1990 से प्रकाशित की जा रही हैं। 16 भारतीय भाषाओं की बाल कृतियों के 100 से अधिक अनुवाद तथा साथ ही गारो, बोडो, हमान खासी, काकबरोक और राभा भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित किए जा चुके हैं।
अनुवाद बहुत बार ऎतिहासिक भूमिका निभा दिया करता हॆ । यह बात कोरिया के बच्चों के पितामह माने जाने वाले सो पा बांग जुंग हवा के हवाले से अच्छी तरह से समझी जा सकती हॆ । सो पा स्वयं बहुत अच्छे बाल-साहित्यकार थे ऒर सथ ही 1923 में उन्होंने बच्चों के लिए पत्रिका भी निकाली ।1923 से 5 मई को बाल-दिवस के रूप में स्थापित भी किया ताकि बच्चों में स्वतंत्रता ऒर राष्ट्र का गॊरव घर कर सके । उस समय कोरिया जापान के अधीन था । उन्होंने ऒर एक अन्य बहुत बड़े कोरियाई बाल-साहित्यकार (कवि) यून सॉक जुंग ने नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टॆगॊर की बच्चे ऒर बचपन पर केन्द्रित बाल-कविताओं की पस्तक ’द क्रीसेंट मून’ का अनुवाद किया था । टॆगॊर की पुस्तक 1913 में प्रकाशित हुई थी ऒर स्वयं टॆगॊर ने अपनी रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया था । खॆर । यह वह समय था जब कोरिया में पारम्परिक रूप से बच्चों के साहित्य के प्रति कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था । इस पुस्तक का अनुवाद न केवल उत्तम कोटि की बाल-कविता का परिचायक माना गया बल्कि कोरियाई बाल-साहित्य के क्षेत्र में नयी शॆली की स्थापना के अवसर के रूप में भी स्वीकार किया गया । स्पष्ट हॆ कि बाल-साहित्य के क्षेत्र में भी,किसी भी दृष्टि से, अनुवाद की भूमिका कम नहीं होती ।
यदि बालक सृष्टि की सबसे मूल्यवान रचना हॆ तो बाल-साहित्य का महत्व भी कम नहीं हॆ । ऒर भारत के संदर्भ में भारतीय ऒर विश्व के संदर्भ में वॆश्विक बालक ऒर बालक की कल्पना बिना अनुवाद के करना आज लगभग असंभव हॆ । इसीलिए भारत में बच्चों की एक अलग केन्द्रीय अकादमी आज की बड़ी जरूरत हॆ जिसकी एक महत्तवपूर्ण गतिविधि अनुवाद कर्म होना चाहिए । विस्तार से फिर कभी । आज हिन्दी में बहुत अच्छा लिखा जाने के बावजूद ऒर अच्छा लिखे जाने ऒर उसके समय पर प्रकाशन की प्रेरणादयी स्थितियां बनाए बिना न बालक का ऒर न ही मानव का ही हित होने वाला हॆ । जो संस्थाएं अपने सीमित साधनों के द्वारा इस दिशा में कुछ काम कर रही हॆं उन्हॆं बढ़ावा मिलना चाहिए । फिर उतना ही ध्यान अनुवाद पर देना होगा ।यूं हिन्दी में बाल साहित्य की बिक्री, यदि प्रकाशकों की माने तो उत्साहवर्द्धक हॆ -"वाणी प्रकाशन के प्रेमकिरण जी ने बताया कि उपन्यास, कहानी संग्रह के अलावा बाल साहित्य से जुड़ी पुस्तकों की अच्छी बिक्री है। साहित्य अकादमी के स्टाल पर विभिन्न भाषाओं की अनूदित बाल साहित्य व लोक कथाएं संबंधी पुस्तकों की काफी बिक्री है। राजकमल प्रकाशन के दिनेश आधार पाण्डेय ने बताया कि अल्बर्ट आइंस्टाइन की जीवनी, रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि, गुणाकर मुले की अक्षर कथा व तारों भरा आकाश समेत अन्य प्रसिद्ध कहानियों की किताबों की अच्छी बिक्री है।"(पटना, पुस्तक मेला ) । हॆरी पोटर(जे.के. राउलिंग) को ही लें ।भारत तथा विश्व की चौंसठ भाषाओं में उसके अनुवाद छप चुके हैं। करोड़ों बाल पाठकों ने उन्हें पढ़ा है।वस्तुत: भारतीय बालसाहित्य ऒर हिन्दी में बाल साहित्य का भविष्य उज्ज्वल हॆ । हां उसे हॆरी पॉटर की तरह प्रमोट करना भी आना चाहिए । यहीं पर थोड़ा विषयांतर करते हुए मॆं इस संतुलित दृष्टि का भी समर्थन करना चाहूंगा -"हम बालसाहित्य के लेखकों से कहना चाहेंगे कि वे इक्कीसवीं सदी के बालक को ध्यान में रखते हुए उत्तर कंप्यूटरी युग तक की कल्पना करेंगे तो भारतीय बालसाहित्य विश्व स्तर पर समसामयिक रूप ले सकेगा। हाँ, उसे रामायण, महाभारत तथा भारत के स्वर्णिम इतिहास का ज्ञान कराना भी आवश्यक है। हिंदी बालसाहित्य के लेखकों में प्रायः बहस होती रही है कि उन्हें परी कथाएँ लिखनी चाहिए या विज्ञान कथाएँ ? हमारा मानना है कि बचपन को कल्पना लोक में विचरने के लिए परी कथाएँ भी चाहिए किंतु भूत-प्रेत या अंधविश्वास का मनोरंजन बाल मन से खिलवाड़ होगा।"
खॆर चलते चलते मॆं इस सदी की हिन्दी में अनूदित कुछ पुस्तकों की ऒर ध्यान दिलाना चाहूंगा, वे हॆं -सुकुमार राय की चुनिन्दा कहानियां (अनुवादक : अमर गोस्वामी, साहित्य अकादमी ,2002), जापान की कथाएं (साहित्य अकादमी, 2001 ), जादुई बांसुरी ऒर अन्य कोरियाई कथाएं ( अनुवादक: दिविक रमेश नेशनल बुक ट्रस्ट, 2009), कोरियाई लोक कथाएं (अनुवादक: दिविक रमेश पीताम्बर पब्लिशिंग कम्पनी, 2000) । एक प्रकाशन हॆ -तूलिका । इसने इसी सदी में द्विभाषी अर्थात अंग्रजी ऒर हिन्दी में अनेक पुस्तकें प्रकाशित की हॆं । असल में यह पुस्तक-श्रृंखला हॆ । प्रकाशक के अनुसार इन पुस्तकों से बच्चों की शब्द-कल्पना-शक्ति बढ़ेगी- द्विभाषी पुस्तकों की यह श्रृंखला, कहानी सुनाने के माहौल में तस्वीरों की मदद से बच्चों की शब्द अनुमान शक्ति और शब्द भंडार बढ़ाने में मदद करती है। । कहा गया हॆ-"This series of bilingual books encourages children to ‘imagine words’ and build vocabulary with the aid of pictures in a storytelling setting. By providing words in two languages simultaneously, the books create a platform for children to build their own narratives. This helps them use words creatively, and remember them." एक खबर के अनुसार -" बच्चों के लिए काम करनेवाली गैरसरकारी और गैरव्यावसायिक संस्था ‘कथा’ ने बच्चों के लिए हिंदी भाषा में तीन पुस्तकें तैयार की हैं। तीनों पुस्तकें अन्य भाषाओं से हिंदी में अनूदित हैं। अनुवाद में हिंदी की आत्मा कितनी उतर पाई है या फिर कथाओं के तार स्थानीयता और बाल सुलभ भावनाओं के साथ कितना जुड़ पाते हैं? शायद ये अलग मुद्दे होकर भी वैश्विक युग में ज्यादा मायने नहीं रखते, लेकिन बच्चे पुस्तक को देखने के बाद उसे हाथ में लेते हैं, उसके पृष्ठों पलटते हैं और पुस्तकों के चित्रों में रम जाते हैं। इन पुस्तकों की यही ताकत है और बच्चों की पुस्तकों में यह ताकत होनी भी चाहिए। बच्चे चित्रों के जरिए शब्दों की पहचान कर लेते हैं और पृष्ठों को पलटते जाते हैं। पुस्तकों के निर्माण में संसाधनों की सुलभता का स्पष्ट दर्शन होता है, साथ ही उस सुरुचि का भी, जिसके बगैर इस दर्जे का काम कर पाना असंभव है। लेकिन इसके साथ ही पुस्तकों की कीमतें भी अधिक हैं। ‘सूई की नोक पर था एक’ गीता धर्मराजन द्वारा रचित अंग्रेजी भाषा की पुस्तक ‘ऑन द टिप ऑफ ए पिन वाज’ को विवेक नित्यानंद और मोयना मजुमदार ने हिंदी में रूपांतरित किया है। इसी तरह बियाट्रिस आलेमान्या द्वारा फ्रेंच भाषा में लिखी पुस्तक ‘ए लॉयन इन पेरिस’ को हिंदी में अनुदित किया है मोयना मजुमदार ने। इस पुस्तक की कथा पेरिस के प्रसिद्ध दोंफेर-रोशेरो चौराहे पर स्थापित शेर से प्रेरित है। यह पुस्तक अनोखी है। कथा की तीसरी पुस्तक है ‘उल्टा पुल्टा’। जर्मन भाषा की लेखिका ऑत्ये दाम्म की बच्चों के लिए लिखी गई पुस्तक 'फ्लिडोलिन’ का हिंदी अनुवाद है। अनुवाद मोयना मजुमदार ने किया है। यह कहानी चमगादड़ों के माध्यम से बच्चों में कुतूहल और सूझ-बूझ पैदा करती है। बहरहाल, इस सुरुचिपूर्ण कार्य के लिए ‘कथा’ और उसके साथ जुड़े लोग साधुवाद के पात्र हैं।" किताबघर प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, आलेख प्रकाशन ऒर आत्माराम एण्ड संस जॆसी अनेक महत्तवपूर्ण संस्थाएं हॆं जिनका बाल साहित्य में भी अच्छा खासा हस्तक्षेप हॆ । आशा की जा सकती हॆ कि ये अनुवाद के क्षेत्र में भी, खासकर बाल कविता के अनुवाद के क्षेत्र में अधिक से अधिक कृतियां लाएंगी । अंत में किताब्घर द्वारा प्रकाशित "बाल मनोवॆज्ञानिक लघुकाथाएं"(सं० रामेश्वर काम्बोज ’हिमांशु ) से एक पंजाबी लघुकथा का आनन्द लीजिए जिसका हिन्दी में शीर्षक हॆ -बदला ऒर इसके लेखक-अनुवादक डॉ श्यामसुंदर दीप्ति हॆं :
’देख ! तू हर बात पर जिद मत किया कर। जो काम करने का होता है, वह तू करती नहीं।’ उमा ने रचना को झिड़कते हुए कहा।’ ’करती तो हूँ सारा काम। सब्जी बनाने के लिए टमाटर नहीं ला के दिए थे ! आपके साथ कपड़े भी तो धुलवाये थे।’ रचना ने मम्मी को दलील दी।”यही काम तो नहीं करने होते। पढ़ भी लिया कर।’ उमा को और गुस्सा आ गया।’
’कर तो लिया स्कूल का काम।’ रचना ने अपना स्पष्टीकरण दिया।
’अच्छा ! ज्यादा बातें मत कर और एक तरफ़ होकर बैठ।’ रचना सिलाई-मशीन के कपड़े को पकड़ने लगी। उमा को गुस्सा आ गया और उसने थप्पड़ जमा दिया।
’अब अगर जो हाथ आ जाता मशीन में !’
रचना रोने लगी।
’अब रोना आ गया, चुप कर, नहीं तो और लगेगी एक। अच्छी बातें नहीं सीखनी, कोई कहना नहीं मानना।’
थोड़ी देर में दरवाजा खटका। उमा ने रचना से कहा, ’अच्छा ! जाकर देख, कौन है बाहर?’
पहले तो वह बैठी रही और गुस्से से मम्मी की तरफ़ देखती रही, पर फिर दुबारा कहने पर उठी और दरवाजा खोला। रचना के पापा का कोई दोस्त था।
रचना दरवाजा खोलकर लौट आई।
“कौन था ?’ रमा ने पूछा।
’अंकल थे।’ रचना ने रूखा-सा जवाब दिया और साथ ही बोली, ’मैंने अंकल को नमस्ते भी नहीं की।’
०
ऒर कोरियाई बाल कविताएं के सुविख्यात कवि यून सॉक जूंग की एक बाल कविता भी :
दुनिया का मानचित्र
घर का काम मिला हॆ मुझको
नक्शे में दुनिया दिखलाऊं
रात बॆठ कर मेहनत की पर
रहा अधूरा क्या बतलाऊं
देश न हो जो तेरा मेरा
राष्ट्र न हो जो मेरा तेरा
हो बस दुनिया देश बड़ा सा
तब होगा आसान बनाना
नक्शे में दुनिया बतलाना
(प्यारी सी दुनिया दिखलाना ) ।
बी-295, सेक्टर-20,
नोएडा-201301
मो० 09910177099
divik_ramesh@yahoo.com
यहां मॆं बाल-साहित्य की पहचान से संबद्ध पहले ही से बना अपना यह मत भी बता दूं कि बाल-साहित्य के अन्तर्गत मॆं केवल रचनात्मक बाल-साहित्य अर्थात कालात्मक अनुभूति जन्य बाल-साहित्य को ही स्वीकार करता हूं न कि अध्ययन, शोध, जानकारी अथवा तथ्यजन्य बालोपयोगी बाल-साहित्य को । ऒर जिसे मॆं बाल-साहित्य के अन्तर्गत मान रहा हूं उसी के अनुवाद का मसला कठिन ऒर चुनॊतिपूण होता हॆ । यही वह साहित्य होता हॆ जिसके अनुवाद का मतलब एक भाषा के शब्दों को दूसरी भाषा के शब्दों में रख देना मात्र नहीं होता । यहां आत्मा का अर्थात संस्कृति, पाठ आदि सब का अनुवाद करना होता हॆ । ऒर यह भी कि अनुवाद के माध्यम से एक भाषा मे लिखी रचना अन्य भाषा में पहुंचकर भी रचना ही लगनी चाहिए । अर्थात दूसरी भाषा की प्रकृति के एकदम अनुकूल - अनूदित कविता पहले कविता होनी चाहिए । यह अनुवादक की दोनों भाषाओं पर अधिकार मात्र से संभव नहीं होता बल्कि भाषाओं से जुड़े जीवन ऒर संस्कृति आदि के गहरे अनुभवात्मक ज्ञान से अधिक संभव होता हॆ । अनुवाद को लेकर विद्वानों में जो शब्दश: अथवा कलात्मक या मुक्त अनुवाद की बहस हॆ, उसके संदर्भ में मेरा निवेदन तो यही हॆ कि जहाँ तक रचनात्मक बाल-साहित्य के अनुवाद की बात हॆ, संतुलन करते हुए कलात्मक या मुक्त अनुवाद की राह पकड़नी चाहिए । पीताम्बार पबिल्शिंग कम्पनी प्रा० लि० द्वारा प्रकाशित स्लोवाकिया की लोक-कथाओं के रस में पगी दिलचस्प कहानियों के अनुवाद की पुस्तक मॆत्री का पुल के सम्पादकीय में जयप्रकाश भारती का कहना हॆ -"डॉ. शारदा यादव ने कथाओं का ऎसा अनुवाद किया हॆ कि अनुवाद नहीं लगता ।" 2008 में साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ऒर प्रीति पंत द्वारा अनूदित "उरुगुवाई बाल कहानियां" पढ़ते समय मुझे भारती जी द्वारा बताए गए गुण के भरपूर दर्शन हुए । उदाहरण के लिए मॆं एक कहानी गंजा तोता का ज़िक्र कर सकता हूं । तोते का नाम हॆ -पेद्रीतो । अनुवाद देखिए - "पेद्रीतो उन बच्चों के साथ खूब समय बिताता था । वे उससे इतना कुछ कहते थे कि वह भी उनकी तरह बोलना भी सीख गया । वह कहता, "मिट्ठू राम राम अहा मीठी मिर्ची ! पेद्रीतो का प्याला!" वह ऒर भई बहुत कुछ कहता था, जो कि बताया नहीं जा सकता हॆ, क्योंकि तोते भी बच्चों की ही तरह बुरी बातें आसानी से सीख जाते हॆं । " स्पष्ट हॆ कि यहां अनुवाद करते समय अनुवादिका ने ध्यान रखा हॆ कि हिन्दी में अनूदित इन कहानियों के पाठक अधिकतर हिन्दी के जानकार भारतवासी होंगे । अत: राम राम आदि वाली सुखद ऒर ज़रूरी छूट ले ली हॆ ऒर कृत्रिम भाषा-परिवेश से अनुवाद को बचा लिया हॆ ।
21 वीं सदी को ध्यान में रख कर कहा जाए तो भारत की सहवर्ती भाषाओं में बाल-साहित्य के आदान-प्रदान की स्थिति बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं हॆ । साहित्य अकादमी, नेशनल बुक ट्रस्ट, चिलड्रन बुक ट्रस्ट जॆसी समर्पित ऒर सक्षम संस्थाओं के बावजूद । कहने को अनेक भारतीय भाषाओं में अनूदित रचनाएं मिल जाएंगी लेकिन संख्या की दृष्टि से अनुवाद बहुत ही कम कृतियों के हॆं । विदेशॊ बाल-साहित्य के अनुवाद भी भारतीय भाषाओं में प्रकाशित हॆं पर वे भी संख्या की दृष्टि से आशाप्रद नहीं हॆं । विधाओं की दृष्टि से देखा जाए तो ज़्यादातर अनुवाद गद्य विधाओं में रची रचनाओं के हुए हॆं, ऒर उनमें भी अधिकतर ज़ोर लोककथाओं पर रहा हॆ । इतिहास पर नज़र मारी जाए तो पाएंगे कि "हिन्दी बाल-कहानियों का उदय भारतेन्दु युग से माना जाता है। इस काल की अधिकांश कहानियाँ अनूदित हैं। इसके लिए वे संस्कृत की कहानियों के लिए आभारी हैं। सर्वप्रथम शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने कुछ मौलिक कहानियाँ लिखीं, इनमें ‘राजा भोज का सपना’ ‘बच्चों का इनाम’ तथा ‘लड़कों की कहानी’ का उल्लेख किया जा सकता है। आगे चलकर रामायण-महाभारत आदि पर आधारित अनेक कहानियाँ द्विवेदी युग में लिखी गईं। किन्तु हिन्दी बाल कहानी अपने स्वर्णिम अभ्युदय के लिए प्रेमचन्द्र जी की ऋणी है। उनकी अनेक कहानियों में बाल-मन का प्रथम निवेश हुआ और उसकी ज्वलंत झाँकी अनेक कहानियों में मिलती है। बालमन के अनुरूप उनकी बहुत सी कहानियाँ जो कि बड़ों के लिए ही थीं, बच्चों ने उल्लास के साथ हृदयंगम की।" (हिन्दी की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ, उषा यादव एवं राजकिशोर सिंह, आत्माराम एण्ड सन्स, 2001 ) | विडम्बना ही हॆ कि कविताओं या कविता-पुस्तकों के अनुवाद अपवाद स्वरूप ही देखने को मिलते हॆं । रमेश कॊशिक ने रूसी बाल कविताओं के अच्छे अनुवाद किए हॆं । दिविक रमेश द्वारा चयनित ऒर अनूदित ऒर नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित कोरियाई कविताओं की पुस्तक ’कोरियाई बाल कविताएं’(2001) बच्चों में बहुत ही लोकप्रिय सिद्ध हुई हॆ । महेश नेवाणी ने सिंधी के साथ हिन्दी में बाल कविताओं के हिन्दी अनुवाद पुस्तक रूप में प्रकाशित किए हॆं ।पुस्तक का नाम -बधी एकता हॆ जो पहली बार 2005 में प्रकाशित हुई थी । लोकिन पुस्तक खास स्कूली बच्चों के लिए हॆ । ’दो शब्द’ में महेश नेवाणी की चिन्ता विचारणीय हॆ -"सिंधी जाति के लोगों पर से मेरा विश्वास डोल गया हॆ। सिंधी भाषा में कविता करूं या नहीं इस पर फिर एक बार गॊर करना पड़ेगा ।" एक बात यहां अवश्य कहना चाहूंगा कि अनुवाद करने से पहले रचानाओं का चयन बहुत सावधानी के साथ किया जाना चाहिए । तब अनु्वाद बहुत प्रभाव छोड़ता हॆ ।कठिनाई यह भी हॆ कि अनुवाद को भी दोयम दर्जे का मानने वालों की कमी नहीं हॆ । डॉ. श्याम सिंह शशि कि यह चिन्ता जायज ही हॆ कि "विदेशी भाषाओं के बालसाहित्य-लेखकों में चार्ल्स डिकिंस, मोपांसा, टॉलस्टाय, अरकदे, श़ैदार का कुछ बालसाहित्य हिंदी में अनूदित हुआ है किंतु तमिल, तेलुगु, कन्नड, मलयालम आदि भारतीय भाषाओं के कई बाल उपन्यास का अनुवाद शायद ही हिंदी में हुआ हो। कैसी विडंबना है ? वास्तव में अनुवाद को भी दोयम दर्जे का लेखन माना जाता रहा है, जिसकी चर्चा हिंदी साहित्य के इतिहासों में प्रायः नगण्य है। बांग्ला से हिंदी में कथा साहित्य का जितना अनुवाद हुआ है - उसकी अपेक्षा एक-तिहाई भी शायद हिंदी से बांग्ला में नहीं हुआ।" फिर भी ऎसा तो कहा ही जा सकता कि 21वीं सदी के एक दशक में अनुवाद के क्षेत्र में भले ही आशा के अनुरूप या पहले की तुलना में संख्या की दृष्टि से थोड़ी कमी नज़र आती हो लेकिन गुणवत्ता की दष्टि से कोई कमी नहीं हॆ । साहित्य अकादमी को ही लें । साहित्य अकादेमी के प्रकाशन कार्यक्रम की नई योजनाओं में से एक योजना है-विभिन्न भाषाओं में बाल पुस्तकों का प्रकाशन। भारतीय भाषाओं में बाल कृतियों के अनुवादों के प्रकाशन से इस योजना का शुभारंभ किया गया। आकर्षक चित्रों के साथ ये कृतियाँ अकादेमी द्वारा सन् 1990 से प्रकाशित की जा रही हैं। 16 भारतीय भाषाओं की बाल कृतियों के 100 से अधिक अनुवाद तथा साथ ही गारो, बोडो, हमान खासी, काकबरोक और राभा भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित किए जा चुके हैं।
अनुवाद बहुत बार ऎतिहासिक भूमिका निभा दिया करता हॆ । यह बात कोरिया के बच्चों के पितामह माने जाने वाले सो पा बांग जुंग हवा के हवाले से अच्छी तरह से समझी जा सकती हॆ । सो पा स्वयं बहुत अच्छे बाल-साहित्यकार थे ऒर सथ ही 1923 में उन्होंने बच्चों के लिए पत्रिका भी निकाली ।1923 से 5 मई को बाल-दिवस के रूप में स्थापित भी किया ताकि बच्चों में स्वतंत्रता ऒर राष्ट्र का गॊरव घर कर सके । उस समय कोरिया जापान के अधीन था । उन्होंने ऒर एक अन्य बहुत बड़े कोरियाई बाल-साहित्यकार (कवि) यून सॉक जुंग ने नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टॆगॊर की बच्चे ऒर बचपन पर केन्द्रित बाल-कविताओं की पस्तक ’द क्रीसेंट मून’ का अनुवाद किया था । टॆगॊर की पुस्तक 1913 में प्रकाशित हुई थी ऒर स्वयं टॆगॊर ने अपनी रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया था । खॆर । यह वह समय था जब कोरिया में पारम्परिक रूप से बच्चों के साहित्य के प्रति कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था । इस पुस्तक का अनुवाद न केवल उत्तम कोटि की बाल-कविता का परिचायक माना गया बल्कि कोरियाई बाल-साहित्य के क्षेत्र में नयी शॆली की स्थापना के अवसर के रूप में भी स्वीकार किया गया । स्पष्ट हॆ कि बाल-साहित्य के क्षेत्र में भी,किसी भी दृष्टि से, अनुवाद की भूमिका कम नहीं होती ।
यदि बालक सृष्टि की सबसे मूल्यवान रचना हॆ तो बाल-साहित्य का महत्व भी कम नहीं हॆ । ऒर भारत के संदर्भ में भारतीय ऒर विश्व के संदर्भ में वॆश्विक बालक ऒर बालक की कल्पना बिना अनुवाद के करना आज लगभग असंभव हॆ । इसीलिए भारत में बच्चों की एक अलग केन्द्रीय अकादमी आज की बड़ी जरूरत हॆ जिसकी एक महत्तवपूर्ण गतिविधि अनुवाद कर्म होना चाहिए । विस्तार से फिर कभी । आज हिन्दी में बहुत अच्छा लिखा जाने के बावजूद ऒर अच्छा लिखे जाने ऒर उसके समय पर प्रकाशन की प्रेरणादयी स्थितियां बनाए बिना न बालक का ऒर न ही मानव का ही हित होने वाला हॆ । जो संस्थाएं अपने सीमित साधनों के द्वारा इस दिशा में कुछ काम कर रही हॆं उन्हॆं बढ़ावा मिलना चाहिए । फिर उतना ही ध्यान अनुवाद पर देना होगा ।यूं हिन्दी में बाल साहित्य की बिक्री, यदि प्रकाशकों की माने तो उत्साहवर्द्धक हॆ -"वाणी प्रकाशन के प्रेमकिरण जी ने बताया कि उपन्यास, कहानी संग्रह के अलावा बाल साहित्य से जुड़ी पुस्तकों की अच्छी बिक्री है। साहित्य अकादमी के स्टाल पर विभिन्न भाषाओं की अनूदित बाल साहित्य व लोक कथाएं संबंधी पुस्तकों की काफी बिक्री है। राजकमल प्रकाशन के दिनेश आधार पाण्डेय ने बताया कि अल्बर्ट आइंस्टाइन की जीवनी, रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि, गुणाकर मुले की अक्षर कथा व तारों भरा आकाश समेत अन्य प्रसिद्ध कहानियों की किताबों की अच्छी बिक्री है।"(पटना, पुस्तक मेला ) । हॆरी पोटर(जे.के. राउलिंग) को ही लें ।भारत तथा विश्व की चौंसठ भाषाओं में उसके अनुवाद छप चुके हैं। करोड़ों बाल पाठकों ने उन्हें पढ़ा है।वस्तुत: भारतीय बालसाहित्य ऒर हिन्दी में बाल साहित्य का भविष्य उज्ज्वल हॆ । हां उसे हॆरी पॉटर की तरह प्रमोट करना भी आना चाहिए । यहीं पर थोड़ा विषयांतर करते हुए मॆं इस संतुलित दृष्टि का भी समर्थन करना चाहूंगा -"हम बालसाहित्य के लेखकों से कहना चाहेंगे कि वे इक्कीसवीं सदी के बालक को ध्यान में रखते हुए उत्तर कंप्यूटरी युग तक की कल्पना करेंगे तो भारतीय बालसाहित्य विश्व स्तर पर समसामयिक रूप ले सकेगा। हाँ, उसे रामायण, महाभारत तथा भारत के स्वर्णिम इतिहास का ज्ञान कराना भी आवश्यक है। हिंदी बालसाहित्य के लेखकों में प्रायः बहस होती रही है कि उन्हें परी कथाएँ लिखनी चाहिए या विज्ञान कथाएँ ? हमारा मानना है कि बचपन को कल्पना लोक में विचरने के लिए परी कथाएँ भी चाहिए किंतु भूत-प्रेत या अंधविश्वास का मनोरंजन बाल मन से खिलवाड़ होगा।"
खॆर चलते चलते मॆं इस सदी की हिन्दी में अनूदित कुछ पुस्तकों की ऒर ध्यान दिलाना चाहूंगा, वे हॆं -सुकुमार राय की चुनिन्दा कहानियां (अनुवादक : अमर गोस्वामी, साहित्य अकादमी ,2002), जापान की कथाएं (साहित्य अकादमी, 2001 ), जादुई बांसुरी ऒर अन्य कोरियाई कथाएं ( अनुवादक: दिविक रमेश नेशनल बुक ट्रस्ट, 2009), कोरियाई लोक कथाएं (अनुवादक: दिविक रमेश पीताम्बर पब्लिशिंग कम्पनी, 2000) । एक प्रकाशन हॆ -तूलिका । इसने इसी सदी में द्विभाषी अर्थात अंग्रजी ऒर हिन्दी में अनेक पुस्तकें प्रकाशित की हॆं । असल में यह पुस्तक-श्रृंखला हॆ । प्रकाशक के अनुसार इन पुस्तकों से बच्चों की शब्द-कल्पना-शक्ति बढ़ेगी- द्विभाषी पुस्तकों की यह श्रृंखला, कहानी सुनाने के माहौल में तस्वीरों की मदद से बच्चों की शब्द अनुमान शक्ति और शब्द भंडार बढ़ाने में मदद करती है। । कहा गया हॆ-"This series of bilingual books encourages children to ‘imagine words’ and build vocabulary with the aid of pictures in a storytelling setting. By providing words in two languages simultaneously, the books create a platform for children to build their own narratives. This helps them use words creatively, and remember them." एक खबर के अनुसार -" बच्चों के लिए काम करनेवाली गैरसरकारी और गैरव्यावसायिक संस्था ‘कथा’ ने बच्चों के लिए हिंदी भाषा में तीन पुस्तकें तैयार की हैं। तीनों पुस्तकें अन्य भाषाओं से हिंदी में अनूदित हैं। अनुवाद में हिंदी की आत्मा कितनी उतर पाई है या फिर कथाओं के तार स्थानीयता और बाल सुलभ भावनाओं के साथ कितना जुड़ पाते हैं? शायद ये अलग मुद्दे होकर भी वैश्विक युग में ज्यादा मायने नहीं रखते, लेकिन बच्चे पुस्तक को देखने के बाद उसे हाथ में लेते हैं, उसके पृष्ठों पलटते हैं और पुस्तकों के चित्रों में रम जाते हैं। इन पुस्तकों की यही ताकत है और बच्चों की पुस्तकों में यह ताकत होनी भी चाहिए। बच्चे चित्रों के जरिए शब्दों की पहचान कर लेते हैं और पृष्ठों को पलटते जाते हैं। पुस्तकों के निर्माण में संसाधनों की सुलभता का स्पष्ट दर्शन होता है, साथ ही उस सुरुचि का भी, जिसके बगैर इस दर्जे का काम कर पाना असंभव है। लेकिन इसके साथ ही पुस्तकों की कीमतें भी अधिक हैं। ‘सूई की नोक पर था एक’ गीता धर्मराजन द्वारा रचित अंग्रेजी भाषा की पुस्तक ‘ऑन द टिप ऑफ ए पिन वाज’ को विवेक नित्यानंद और मोयना मजुमदार ने हिंदी में रूपांतरित किया है। इसी तरह बियाट्रिस आलेमान्या द्वारा फ्रेंच भाषा में लिखी पुस्तक ‘ए लॉयन इन पेरिस’ को हिंदी में अनुदित किया है मोयना मजुमदार ने। इस पुस्तक की कथा पेरिस के प्रसिद्ध दोंफेर-रोशेरो चौराहे पर स्थापित शेर से प्रेरित है। यह पुस्तक अनोखी है। कथा की तीसरी पुस्तक है ‘उल्टा पुल्टा’। जर्मन भाषा की लेखिका ऑत्ये दाम्म की बच्चों के लिए लिखी गई पुस्तक 'फ्लिडोलिन’ का हिंदी अनुवाद है। अनुवाद मोयना मजुमदार ने किया है। यह कहानी चमगादड़ों के माध्यम से बच्चों में कुतूहल और सूझ-बूझ पैदा करती है। बहरहाल, इस सुरुचिपूर्ण कार्य के लिए ‘कथा’ और उसके साथ जुड़े लोग साधुवाद के पात्र हैं।" किताबघर प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, आलेख प्रकाशन ऒर आत्माराम एण्ड संस जॆसी अनेक महत्तवपूर्ण संस्थाएं हॆं जिनका बाल साहित्य में भी अच्छा खासा हस्तक्षेप हॆ । आशा की जा सकती हॆ कि ये अनुवाद के क्षेत्र में भी, खासकर बाल कविता के अनुवाद के क्षेत्र में अधिक से अधिक कृतियां लाएंगी । अंत में किताब्घर द्वारा प्रकाशित "बाल मनोवॆज्ञानिक लघुकाथाएं"(सं० रामेश्वर काम्बोज ’हिमांशु ) से एक पंजाबी लघुकथा का आनन्द लीजिए जिसका हिन्दी में शीर्षक हॆ -बदला ऒर इसके लेखक-अनुवादक डॉ श्यामसुंदर दीप्ति हॆं :
’देख ! तू हर बात पर जिद मत किया कर। जो काम करने का होता है, वह तू करती नहीं।’ उमा ने रचना को झिड़कते हुए कहा।’ ’करती तो हूँ सारा काम। सब्जी बनाने के लिए टमाटर नहीं ला के दिए थे ! आपके साथ कपड़े भी तो धुलवाये थे।’ रचना ने मम्मी को दलील दी।”यही काम तो नहीं करने होते। पढ़ भी लिया कर।’ उमा को और गुस्सा आ गया।’
’कर तो लिया स्कूल का काम।’ रचना ने अपना स्पष्टीकरण दिया।
’अच्छा ! ज्यादा बातें मत कर और एक तरफ़ होकर बैठ।’ रचना सिलाई-मशीन के कपड़े को पकड़ने लगी। उमा को गुस्सा आ गया और उसने थप्पड़ जमा दिया।
’अब अगर जो हाथ आ जाता मशीन में !’
रचना रोने लगी।
’अब रोना आ गया, चुप कर, नहीं तो और लगेगी एक। अच्छी बातें नहीं सीखनी, कोई कहना नहीं मानना।’
थोड़ी देर में दरवाजा खटका। उमा ने रचना से कहा, ’अच्छा ! जाकर देख, कौन है बाहर?’
पहले तो वह बैठी रही और गुस्से से मम्मी की तरफ़ देखती रही, पर फिर दुबारा कहने पर उठी और दरवाजा खोला। रचना के पापा का कोई दोस्त था।
रचना दरवाजा खोलकर लौट आई।
“कौन था ?’ रमा ने पूछा।
’अंकल थे।’ रचना ने रूखा-सा जवाब दिया और साथ ही बोली, ’मैंने अंकल को नमस्ते भी नहीं की।’
०
ऒर कोरियाई बाल कविताएं के सुविख्यात कवि यून सॉक जूंग की एक बाल कविता भी :
दुनिया का मानचित्र
घर का काम मिला हॆ मुझको
नक्शे में दुनिया दिखलाऊं
रात बॆठ कर मेहनत की पर
रहा अधूरा क्या बतलाऊं
देश न हो जो तेरा मेरा
राष्ट्र न हो जो मेरा तेरा
हो बस दुनिया देश बड़ा सा
तब होगा आसान बनाना
नक्शे में दुनिया बतलाना
(प्यारी सी दुनिया दिखलाना ) ।
बी-295, सेक्टर-20,
नोएडा-201301
मो० 09910177099
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