जिसे रॊंदा हॆ जब चाहा तब
जिसका किया हॆ दुरुपयोग, सबसे ज़्यादा ।
जब चाहा तब
निकाल फ़ेंका जिसे बाहर ।
कितना तो जुतियाया हॆ जिसे
प्रकोप में, प्रलोभ में
वह तुम्ही हो न भाषा ।
तुम्हीं हो न
सहकर बलात्कार से भी ज़्यादा
रह जाती हो मूक
सोचो भाषा -
रह जाती हो मूक
जबकी सम्पदा हॆ
शब्दॊं की, अर्थों की -
रह जाती हो मूक ।
ऒर देखो तो
ढूंढ लेते हॆं दोष तुम्ही में सब
तुम्हें ही
लतियाते हॆं कितना -
कि कितनी गन्दी हॆ भाषा
कितनी भ्रष्ट ऒर अश्लील हॆ
अमर्यादित ऒर टुच्ची
यानी ये सब विशेषण
डाल दिए जाते हॆं तुम्हारे ही गले ।
कहिए अडवानी जी ! ऒर आप भी मोदी जी!
क्या मॆंने झूठ कहा ?
कभी तो आता होगा मन में, न सही जुबान पर
कि गन्दी वह नहीं, नहीं वह भ्रष्ट ऒर अश्लील ही ।
क्या कहेंगे उसे
जो उसे ढालता हॆ,
पालता हॆ
ऒर करा करा कर दुष्कर्म
अपनी रोज़ी चलाता हॆ ।
ऒर सर से पांव तक करते हुए नंगा
ख़ुद नंगा हो जाता हॆ
ऒर फिर तुझे ही ओढ़ता हॆ भाषा ।
कभी तो सोचती होगी न भाषा !
कोई आयोग भी तो नही
जहां दे सके दस्तक ।
कभी तो सोचती होगी न भाषा !
कॊन नहीं जानता यूं, मान्यवर प्रधानमंत्री जी !
कॊन दम रखा हॆ इस ससुरी भाषा में
होती हॆ महज पानी
फिसल कर रह जाती हॆ
चिकने घड़ों पर
बेमानी ।
पर होती बहुत ज़रूरी हॆ, अगर मानो ।
न मिले
तो सूख जाए कंठ ऒर जुबान भी ।
माने जाते हॆं आप बड़े
सो माने न माने
पर इतना ज़रूर मान लीजिए
कि सोचती ही होगी भाषा भी
कभी न कभी ।
शुक्रवार, 24 जुलाई 2009
मां गांव में हॆ
चाहता था
आ बसे मां भी
यहां, इस शहर में ।
पर मां चाहती थी
आए गांव भी थोड़ा साथ में
जो न शहर को मंजूर था न मुझे ही ।
न सका गांव
न आ सकी मां ही
शहर में ।
ऒर गांव
मॆं क्या करता जाकर ।
पर देखता हूं
कुछ गांव तो आज भी ज़रूर हॆ
देह के किसी भीतरी भाग में
इधर उधर छिटका, थोड़ा थोड़ा चिपका ।
मां आती
बिना किए घोषणा
तो थोड़ा बहुत ही सही
गांव तो आता ही न
शहर में ।
पर कॆसे आता वह खुला खुला दालान, आंगन
जहां बॆठ चारपाई पर
मां बतियाती हॆ
भीत के उस ओर खड़ी चाची से, बहुओं से ।
करवाती हॆ मालिश
पड़ोस की रामवती से ।
सुस्ता लेती हॆ जहां
धूप का सबसे खूबसूरत रूप ओढ़ कर
किसी लोक गीत की ओट में ।
आने को तो
कहां आ पाती हॆं वे चर्चाएं भी
जिनमें आज भी मॊजूद हॆं खेत, पॆर, कुंए ऒर धान्ने ।
बावजूद कट जाने के कालोनियां
खड़ी हॆं जो कतार में अगले चुनाव की
नियमित होने को ।
ऒर वे तमाम पेड़ भी
जिनके पास
आज भी इतिहास हॆ
अपनी छायाओं के ।
आ बसे मां भी
यहां, इस शहर में ।
पर मां चाहती थी
आए गांव भी थोड़ा साथ में
जो न शहर को मंजूर था न मुझे ही ।
न सका गांव
न आ सकी मां ही
शहर में ।
ऒर गांव
मॆं क्या करता जाकर ।
पर देखता हूं
कुछ गांव तो आज भी ज़रूर हॆ
देह के किसी भीतरी भाग में
इधर उधर छिटका, थोड़ा थोड़ा चिपका ।
मां आती
बिना किए घोषणा
तो थोड़ा बहुत ही सही
गांव तो आता ही न
शहर में ।
पर कॆसे आता वह खुला खुला दालान, आंगन
जहां बॆठ चारपाई पर
मां बतियाती हॆ
भीत के उस ओर खड़ी चाची से, बहुओं से ।
करवाती हॆ मालिश
पड़ोस की रामवती से ।
सुस्ता लेती हॆ जहां
धूप का सबसे खूबसूरत रूप ओढ़ कर
किसी लोक गीत की ओट में ।
आने को तो
कहां आ पाती हॆं वे चर्चाएं भी
जिनमें आज भी मॊजूद हॆं खेत, पॆर, कुंए ऒर धान्ने ।
बावजूद कट जाने के कालोनियां
खड़ी हॆं जो कतार में अगले चुनाव की
नियमित होने को ।
ऒर वे तमाम पेड़ भी
जिनके पास
आज भी इतिहास हॆ
अपनी छायाओं के ।
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