बहुत दिनों के बाद ब्लॉग पर आ पा रहा हूं.
आज हिन्दी के बड़े कवि शमशेर बहादुर
सिंह जी का जन्मदिन (१३ जनवरी १९११, देहरादून)
हॆ. बहुत ही आदर के साथ उन्हें याद कर रहा हूं. शमशेर जी का मेरे कवि-जीवन में
बहुत महत्त्व रहा हॆ. मेरे पहले
कविता-संग्रह ’रास्ते
के बीच’(१९७७) के लिए न केवल कविताओं का
चयन किया था बल्कि उसके लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण शब्द भी लिखे थे. पांडुलिपि अब
वर्धा में महात्मागांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में उपलब्ध हॆ. शमशेर जी का आकाशवाणी पर साक्षात्कार लेने
का सॊभाग्य प्राप्त हुआ था, जिसका
चित्र लगा रहा हूं.कुछ ऒर चित्र भी. एक में शमशेर जी, निर्मल वर्मा, सुरेश ऋतुपर्ण ऒर मॆ, दूसरे में शमशेर जी, नागार्जुन आदि (रास्ते के बीच पर
हुई गोष्ठी में जिसका संयोजन प्रेम जनमेजय ने किया था) ऒर अन्य में शमशेर जी, मन्नू भण्डारी ऒर मॆं बोलते हुए.
जमाना ब्लॆक-व्हाइट का था. शमशेर जी पर मॆंने एक कविता भी लिखी थी -’शमशेर की कविता’ जिसका पूरा पाठ नामवर जी ने मेरी
पुस्तक ’गेहूं घर आया हॆ" की समीक्षा
करते हुए दूरदर्शन पर किया था. कविता यूं हॆ:
शमशेर की कविता
--दिविक रमेश
शमशेर की कविता
--दिविक रमेश
छूइये
मगर हॊले
कि यह कविता
शमशेर की हॆ ।
मगर हॊले
कि यह कविता
शमशेर की हॆ ।
ऒर यह जो
एक-आध पांखुरी
बिखरी
सी
पड़ी
हॆ
न?
एक-आध पांखुरी
बिखरी
सी
पड़ी
हॆ
न?
इसे भी
न हिलाना ।
न हिलाना ।
बहुत मुमकिन हॆ
किसी मूड में
शमशेर ने ही
इसे ऎसे रक्खा हो ।
किसी मूड में
शमशेर ने ही
इसे ऎसे रक्खा हो ।
शरीर में जॆसे
हर चीज़ अपनी जगह हॆ
शमशेर की कविता हॆ ।
हर चीज़ अपनी जगह हॆ
शमशेर की कविता हॆ ।
देखो
शब्द समझ
कहीं पांव न रख देना
अभी गीली हॆ
शब्द समझ
कहीं पांव न रख देना
अभी गीली हॆ
जॆसे आंगन
मां ने माटी से
अभी-अभी लीपा हॆ
शमशेर की कविता हॆ ।
मां ने माटी से
अभी-अभी लीपा हॆ
शमशेर की कविता हॆ ।
ऒर ’रास्ते के बीच पर लिखे शमशेर जी के शब्द
भी---
मोहभंग का साक्षात्कार और संघर्ष
- शमशेर बहादुर सिंह
मोहभंग का साक्षात्कार और संघर्ष
- शमशेर बहादुर सिंह
मेरी पीढ़ी के साहित्यकारों को आज
के कवियों में ‘दोष’ तो अनेक दिखाई दे सकते हैं, मगर जो युगीन विषेशताएं, आज के अनेक नये कवियों के यहां हैं
-- मसलन रूग्ण अंधविश्वास के विरूद्ध आलोचनात्मक साहसिक अभिव्यक्ति... या मसलन
युद्धोत्तेजना पैदा करने वाली शक्तियों, प्रक्रियाओं
और नीतियों का विरोध... यानी, विशेषताएं, जो वास्तव में मेरी पीढ़ी की रचनाओं
में विरल ही हैं: या वे मिलती भी हैं तो प्रायः र्हेटरिक की स्फीति के साथ। प्रमुख
अपवाद अलग हैं। यहां अलंकृत शब्द-योजनाएं नहीं, समासबद्ध झनकारों की गूंजें नहीं, -- बल्कि आज के जीवन के बीच से उठकर
आज की कविताएं उस गहरी वास्तविक चिन्ता को व्यक्त करती हैं, जिसका संबंध मानव-मात्र के
जीने-मरने से हो उठा है। उनमें संस्कृति और राजनीति के ठोस आधारों को स्पष्ट करने
की मांग होती है क्योंकि ‘आदर्शों’ और आश्वासनों के आडम्बर और ललित
प्रचार से युवा पीढ़ी बहुत ऊब चुकी है।
दिविक रमेश इसी युवा पीढ़ी का कवि है।
अपनी अभिव्यक्ति में भले ही उसकी कविताएं कहीं-कहीं मुझ जैसे लोगों को किंचित्
अटपटी भी लगें, मगर
हिन्दी की सभी श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में उसने अपना निश्चित स्थान बना लिया है, और यह उसका पहला ही संग्रह नहीं, इनका जो तेवर है वह ईमानदार और
सच्चा है और कविता में जान इसी से आती है। इनमें एक इमेज जो बार-बार उभरकर सामने
आता है वह ऐसा दायित्व-भार ढोने का है, जिसका
अर्थ आज की पीढ़ी के सामने स्पष्ट नहीं।... नामहीन-सी कोई सड़क है... या दिशा है वह।
और युवा पीढ़ी, युवा
कवि, उसमें दिग्भ्रमित-सा डोल रहा है, डोलने को बाध्य है। और उसके मन में
प्रष्न उठता है कि इस स्थिति के लिए कौन उत्तरदायी है? क्या वह नेतृत्व, वही गुरूजन और नेता नहीं, जो उसे गुमराह करते आये और आज भी
गुमराह करते जाना चाहते हैं? कविताएं
पढ़िये तो लगता है कवि पलटकर उनसे जवाब तलब कर रहा है।
इन कविताओं में एक निश्चित
व्यक्तित्व उभरता है। साफ लगता है कि अभी उसे और उभरना और निखरना है, और भी स्पष्ट और ‘तीखा’ होना है। होना भी चाहिए: क्योंकि
उसके और अपने समाज के जीवन में दबी हुई बहुत-सी तल्खियों को वह प्रकट कर रहा है। शुरू की कविताओं को आखीर की कविताओं से गौर से मिलाकर देखें तो मालूम होगा कि
दिविक रमेश ने काफी शक्ति अर्जित की है। मगर मैं फिर भी एक और ऊंचे स्तर को लक्ष्य
कर इसको एक सबल शुभारम्भ ही कहूंगा। हार्दिक प्रसन्नता के साथ। अपनी अनुभूतियों को
और भी सबल अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए अपनी भाषा के साथ उसे अभी और बहुत कुछ
संघर्ष करना है। उसकी पीढ़ी के अनेक कवियों के लिए भी यही बात कही जा सकती है।
इस कवि की समस्या क्या है? इसे हम शायद इस प्रश्न के रूप में
स्पष्ट कर सकते हैं जो वह अपनी कविताओं में पूछता हुआ-सा लगता है: ‘आज हमारी
राजनैतिक-सांस्कृतिक-सामाजिक विडम्बनाओं के साथ हमारी युवा पीढ़ी के व्यक्तित्व का
समीकरण क्या है? सीधे-सीधे:
आज किन मूल्यों से नयी पीढ़ी अपना सामंजस्य स्थापित करे? ... वह ‘नेताओं’ की
मोहक आदर्शवादी उद्घोषणाओं में अटूट विश्वास रखकर चली, प्राणपण से उनके दिखाए पथ पर आरूढ़
हुई। मगर बहुत दूर नहीं गई थी कि उसने क्या देखा कि आदर्षों के पर्दे में कुछ
व्यक्तियों और गिरोहों के अपने छिपे हुए स्वार्थ काम कर रहे हैं। इस प्रकार युवा
पीढ़ी केवल उनके स्वार्थ-साधन का माध्यम-भर बना ली गयी। यह विस्फोटक ज्ञान प्राप्त
कर, आज का युवक एक अजब वितृष्णा , खीझ
और आक्रोश से भर उठता है। और उसी तीखे मोहभंग को वह अपनी कविता-यात्रा में व्यक्त
करने को बाध्य होता है। यही उसकी रचनाधर्मिता का लक्ष्य हो जाता है -- अपने
व्यक्तित्व को अक्षुण्ण रखने, उसे
बचाने और पुष्ट करने के लिए युवा व्यक्ति का एक नया संघर्ष। यह संघर्ष उस
अभिव्यक्ति को प्राप्त करने की ओर भी अग्रसर होता है, जिसमें यह अनपेक्षित रूप से हताश
करने वाला युगीन यथार्थ, यह
सहसा ही चॊंकाने वाला साक्षात्कार, व्यक्त
हो सके,
यह मोहभंग।
अनेक स्थलों पर, इस प्रकार, सीधे-सीधे कहने की जो बातें होती
हैं, वे इन कविताओं में आधुनिक पाठक के
सामने आती हैं। अभिव्यक्ति की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया इस पाठक को अनेक स्थलों पर
बांधेगी,
और उसे
सोचने के लिए मजबूर करेगी। मुझे इस संग्रह में नयी पीढ़ी के मन और मस्तिष्क की एक
ऐसी झांकी मिली है जो सच्ची है और अर्थपूर्ण। ( पहले कविता संग्रह ‘रास्ते के बीच’ से साभार)
आशा हॆ आप को यह सब उचित ही लगा
होगा.