मंगलवार, 7 जून 2011

समकालीन कविता: एक विमर्श

बात शुरू करते हॆं समकालीन हिदी कविता के परिदृश्य से क्योंकि समकालीन कविता की दशा-दिशा ऒर चिन्ताएं काफ़ी हद तक उसी में समाहित हॆ । ।उल्लेखनीय है कि हिन्दी कविता का संसार या क्षितिज बहुत फैलाव लिए हुए है। एक ओर देश की धरती पर हिन्दी और हिन्दीतर प्रदेशों में रची गई अथवा रची जा रही कविता है तो दूसरी ओर देश के बाहर प्रवासी और भारतवंशी कवियों के द्वारा सम्भव कविता है। रूप और शैलियों की दृष्टि से भी देखें तो हिन्दी कविता को समृद्ध पाएँगे। यहाँ काव्य नाटक और लम्बी कविताएँ भी हैं और ग़ज़ल, गीत और छन्दोबद्ध रचनाएँ भी खूब लिखी जा रही हैं। लक्ष्मीशंकर वाजपेयी अच्छा लिख रहे हॆं । नरेश शांडिल्य की अच्छी गज़लों का संग्रह ‘मैं सदियों की प्यास’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। पिछले दिनों वाणी प्रकाशन से प्रकाशित काव्य-नाटक ‘खण्ड-खण्ड अग्नि’ ऒर किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित ’गेहूं घर आया हॆ’ काफ़ी चर्चित रहे है। दलित ऒर स्त्री कविता अपनी-अपनी तरह उपस्थिति दर्ज करा चुकी हॆं । कविता आज विविधरंगी ऒर विलक्षण हॆ । कवि केदारनाथ सिंह ने किसी संदर्भ में लिखा था - इस समय सड़क पर/ कोई भी किसी का/ समकालीन नहीं हॆ . . . । ऊपर लिखे का यह अर्थ नहीं हॆ कि इस दॊर की कविता केवल सामूहिक रूप में ही अपना वॆशिष्ट्य अर्जित कर सकी हॆ । कुछ ऎसे कवि ज़रूर हॆं जो काफ़ी हद तक या तो अपना-अपना वॆशिष्ट्य पा चुके हॆं या उसे पाने के लिए प्रयत्नशील हॆं । यहां मॆं ऎसी कविताओं के बारे में कुछ नहीं कहना चाहूंगा जो काव्यगत नवीनता के नाम पर कोरा अभ्यास मात्र होती हॆं । थोड़े शब्दों में पकड़ने की कोशिश की जाए तो समकालीन कविता सक्षम, एवं सकारात्मक दृष्टि से संपन्न कविता हॆ जिसने एक ऒर नकारात्मकता या निषेध से मुक्ति दिलाई हॆ तो दूसरी ओर गहरी मानवीय संवेदना से कविता को जागृत रहकर समृद्ध किया हॆ । अपनी भूमि को सांस्कृतिक मूल्यों, स्थानीयता, देसीपन ऒर लोकधर्मिता, स्थितियों की गहरी पहचान, अधिक यथार्थ, ठोस ऒर प्रामाणिक चरित्र, मानवीय सत्ता ऒर आत्मीय संबधों-रिश्तों की गरमाहट से लहलहा दिया हॆ । मुख्यधारा की राजनीतिपरक समकालीन कविताओं पर भी दृष्टि डाले तो पाऎंगे कि ये कविताएं नारेबाजी से तो दूर हॆं ही, नारेनुमा तक नहीं हॆं । ये तो गहरी संवेदनाओं से युक्त, भाषा ऒर कलात्मक क्षमताओं से भरपूर एवं संयमित हॆं । यहां काव्य-मुद्राओं एवं चमत्कारों के लिए कोई स्थान नहीं हॆ । इन कविताओं ने सहजता का वरण किया हॆ । प्रेम की कविताओं में भी ललक ऒर जिज्ञासा हॆ । रोमांटिक भावुकता के स्थान पर आत्मीय लगाव हॆ । वस्तुत: यह कविता अकविता के निषेधवाद से तो कोसों दूर आगे की कविता हॆ ही - लगभग उसकी प्रतिद्वन्दी जॆसी - धूमिल की लटकेबाजी ऒर रेहटरिक को भी छोड़कर चली हॆ । हां प्रभाव इनका ज़रूर धीरे धीर गया हॆ । समकालीन कविता की एक महिमामय उपल्ब्धि त्रिलोचन की कविता को , इसके परिदृश्य में सशक्त पहचान मिलना भी हॆ । अकविता के अंतिम संकलन ’निषेध’ के बाद अलग से उभर कर आने वाली कविता को रेखांकित करने के अनेक प्रयास भी हुए । इन्हीं प्रयासों में से एक था त्रिलोचन जी की प्रेरणा से दिविक रमेश के द्वारा संपादित 1981 में प्रकाशित कविता-संग्रह ’निषेध के बाद’ जिसके 13 कवियों में मेरे सहित अवधेश कुमार, तेजी ग्रोवर, राजेश जोशी, राजकुमार कुम्भज, चन्द्रकांत देवताले, सोमदत्त, श्याम विमल ऒर अब्दुल बिस्मिल्लाह सम्मिलित थे । कविताओं पर सुधीश पचॊरी ने टिप्पणी लिखी थी । संकलन त्रिलोचन जी की 64वीं वर्षगांठ पर उन्हीं को समर्पित हॆ । हां मानबहादुर सिंह, गोरख पाण्डेय ऒर ज्योत्सना मिलन जॆसे कवियों की भी कविताओं को सम्मिलित किए बिना समकालीन कविता का परिदृश्य अधूरा ही रहेगा । देश की भूमि पर, विशेष रूप से हिन्दी अंचल में ही देखें तो एक साथ कई पीढ़ियां काव्य रचना में तल्लीन दिखाई देती हैं। कुंवर नारायण, रामदरश मिश्र, कैलाश वाजपेयी, माणिक बच्छावत, गंगा प्रसाद विमल, सुनीता जॆन आदि सक्रिय हैं तो अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे, भगवत रावत, नन्दकिशोर आचार्य, चन्द्रकांत देवताले, अरुण कमल, विश्वरंजन, मंगलेश डबराल आदि के साथ अन्य दो कनिष्ठ और नई पीढ़ियों के भी कितने ही कवि हिन्दी कविता को भरपूर योगदान दे रहे हैं। हिन्दी में अशोक सिंह द्वारा अवतरित ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’, वाली संताल आदिवासी निर्मला पुतुल और ‘क्या तो समय’ वाले अरूण देव इधर के कवि हैं और दोनों ही 1972 के जन्मे हैं। कुछ और कवियों में बोधिसत्व, हेमन्त कुकरेती, प्रताप राव कदम, पंकज राग, हरे प्रसाद उपाध्याय, उमाशंकर चॊधरी, दिनेश कुमार शुक्ल, सूरजपाल चॊहान, सुरंजन, विमल कुमार, दुर्गाप्रसाद गुप्त, प्रताप सहगल, लालित्य ललित आदि कवि भी ध्यान खींचते हैं। हिन्दीतर सूची बहुत लंबी हो सकती हॆ । यहां आए नाम सहसा आए हॆं । सोच-समझकर नहीं ।अत: छूट गए सभी समर्थ कवि अपने-अपने को यहां सम्मिलित माने । बात थोड़े उदाहरणॊं से भी आगे बढ़ाई जा सकती हॆ ।एक कवि हैं बद्रीनारायण। युवा प्रतिभाओं में बद्रीनारायण का नाम अग्रिम पंक्ति में है। उनका कविता संग्रह ‘शब्द पदीयम्’ उनका दूसरा कविता-संग्रह है। निःसन्देह ये कविताएँ उनकी आगे की कविताएँ हैं और अधिक परिपक्व हैं। बद्री नारायण उन कवियों में से हैं जो लोक से ताकत लेते हैं। वे कथनों को मुहावरी जामा पहनाने में समर्थ हैं। यह सामर्थ्य भाषा को मोम बना देने वाली ताकत से आता है जो बद्री में हैः
चिड़िया और हिरणी के बारे में सोचना
अन्ततः शिकारी के बारे में सोचना है
अथवा
मैं कटी लकड़ी हूँ
जो खोजती है पेड़ों को

अशोक वाजपेयी ने कितनी ही खूबसूरत प्रेम कविताएँ दी हैं। अशोक जी सच्चे मायनों में प्रयोगशील कवि कहे जा सकते हैं। भाषा के साथ भी वे बहुत बार सार्थक प्रयोग करने से नहीं चूकते। उनके एक संग्रह ‘इबादत से गिरी मात्राएँ’ में एक-एक पंक्ति की 30 कविताएँ हैं जो कवि का भाषा पर विलक्षण अधिकार सिद्ध करती हैं। उनकी कविताएँ स्वयं कवि की अपनी कविता-परंपरा को ही नहीं बल्कि हिंदी कविता को समृद्ध करने में समर्थ हैं। एक कविता है ‘सरनाम सिंह की मृत्यु पर’। यह एक अद्वितीय कविता है। मनुष्यता के बेहतरीन रूप को यह कविता इस तरह फोकस में लाती है कि मनुष्यता का उदघोष करने वाली सैंकड़ों कविताओं पर भारी पड़ जाती है। एक अंश है:

पर तुम्हारी मृत्यु के दो दिनों बाद यह सौभाग्य है कि हम जीवित हैं,
लेकिन यह सच है कि तुम्हारे मरने में कुछ हमारा भी मर गया,
और यह क्या था हम जीते जी कभी नहीं जान पाएँगे-
हम तुम्हें भूलेंगे ताकि हमें अपना कुछ मरना याद न आए, सरनाम।

विष्णु खरे अकेले और अनूठे कवि हैं। उनके यहाँ आवेश या उत्तेजनापूर्ण विषयों पर भी कमाल की धैर्यवान और ठंडी-ठंडी ठहरी हुई प्रौढ़ शैली मिलती है। जरा भी हड़बड़ी नहीं। अपनी राह पर अपनी धुन में जाता हुआ एक यात्री-लेकिन पूरे माहौल के प्रति सचेत। शायद इसीलिए कवि की कविता अपना एक सहज साँचा बनाती है और अपने असर का एक खास मिजाज तैयार करती है - झटकाभर देकर फुस नहीं हो जाती। एक कविता है ‘पुनरवतरण’। इस कविता में यीशु के बहाने, आब्लीक शैली में जिस प्रकार शांति, सद्भाव, मानव-प्रेम आदि चाहनेवालों को, सता-विचारकों द्वारा घरविहीन बना दिए जाने की विडंबना को व्यक्त किया गया है यह समझ के स्तर पर गहरी छाप छोड़ता है। कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं:

हालाँकि इस धरती पर हमें तुम्हारी जरूरत है यीशु
हालाँकि हम तुम्हारा वचन याद करते हैं और तुम्हारी सख्त जरूरत है
लेकिन मैं वह जगह सोच नहीं पाता जहाँ तुम अवतरित होगे
और सुरक्षित रह सको।

रामदरश जी उन गिने चुने लेखकों में से एक हैं जिन्होंने कहानी क्या, उपन्यास क्या, संस्मरण क्या, जीवनी क्या और कविता क्या, न जाने कितनी ही विधाओं में बहुत अधिक लिखा है। अच्छी बात यह है कि अधिकता ने उनके स्तर को अधिक आघात नहीं पहुंचाया है। उनकी कविताएं बहुत अपनी और अपने परिवेशानुभवों को समेटे हुए सहज हैं और गहरे अर्थ बोध से संयुक्त हैं। कहीं भी बनावटीपन नहीं। कवि की स्मृति में अपना गाँव-गवाहंड सदा बसा है। और उनकी कविताओं को वहाँ से बहुत ताकत मिलती है। ‘कोयले और चूल्हे’ का यह अंश भीतर तक छू जाता हैः

‘आसान दिनों में
अभिजात हँसी हँसता हुआ गैस का चूल्हा
हमारे साथ चलता रहता है
लेकिन जब जाड़े के मुश्किल दिन आते हैं
तब आँगन के कोने में उपेक्षित उदास-सा पड़ा
कोयले का चूल्हा जाग जाता है हमारी आँखों में।’

भगवत रावत एक समर्थ कवि हैं भले ही आलोचकों की निगाह में उतने नहीं चढ़ सके हैं। चुनी हुई या निर्वाचित कविताओं के द्वारा ऐसे पाठक, जो पूरे साहित्य को पढ़ने का समय नहीं निकाल पाते, कवि की उत्कृष्ट देन से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। स्वयं कवि की भी अपनी काव्य-यात्रा की उपलब्धियों का पता चलता है। मानवीय चेतना से भरपूर भगवत रावत की कविताओं में से एक कविता का अंश हैः
सच पूछो तो
इतने से कामों के लिए आया था पृथ्वी पर
और भागता रहा यहाँ से वहाँ।

हिन्दीतर प्रदेशों में भी हिन्दी कविता काफ़ी फल-फूल रही है, भले उसकी ओर अपेक्षित ध्यान देने की ज़रूरत बनी हुई है। अरविंदाक्षन, पद्मजा घोरपड़े, प्रतिभा मुदिलियार, क्षमा कौल जैसे अनेक कवि-कवयित्रियां हैं जिन्होंने अच्छी कविताएँ लिखी हैं। बाहर रह रहे प्रवासी एवं भारत के मूलवासी भारतीयों में आज अनेक हिन्दी साहित्य सृजन में न केवल संलग्न हैं बल्कि अच्छा लिख रहे हैं और उनके लेखन को सहज ही लेखन की केन्द्रीय धारा में सम्मिलित किया जा सकता है। तेजेन्द्र शर्मा, दिव्या माथुर, डॉ कृष्ण कुमार , प्रो. आदेश, उषा राजे सक्सेना, सुषम बेदी, डॉ. गौतम सचदेव, अनिल जनविजय, डॉ. पुस्पिता, निखिल कौशिक, हेमराज सुन्दर, डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव, पद्मेश गुप्त, सुधा ओम ढींगरा (यहां भी अब एक लंबीसूची हॆ ) आदि अनेक कवियों के नाम गिनाए जा सकते हैं।

यदि कहूँ कि बावजूद निराशा भरे अनेक स्वरों के और बावजूद पाठकीय उपेक्षाओं की मार से उपजे रूदन के, समकालीन हिन्दी कविता का श्रेष्ठ विश्व की किसी भी श्रेष्ठ कविता से कमतर नहीं है, न ही कलात्मक विशद अनुभवों की दृष्टि से और न ही विविध एवं सहज सशक्त अभिव्यक्ति कौशल की दृष्टि से । तो ऐसे वचन को अतिशयोक्ति मानने वालों के पास प्रायः कविता से इतर ही तर्क हुआ करते हैं। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि प्रतिवर्ष सैंकड़ों कविता संग्रह प्रकाशित होते हैं और कितनी ही पत्र-पत्रिकाओं में एक बड़ी संख्या में कविताएँ छपती हैं। इतनी बड़ी संख्या को एक साथ अध्ययन के दायरे में लाना असंभव है। उनकी हम तक या हमारी उन तक संपूर्ण यात्रा निस्संदेह कठिन है। इसीलिए मुख्यतः बात प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण कवियों की कृतियों तक ही सीमित रह जाती है। तो भी युवा कवियों की पीढ़ी के पास अवसरों की कमी नहीं हॆ । माना कि परिवेश में अड़ंगेबाजी कम नहीं हैं। निःसंदेह पत्र-पत्रिकाओं, प्रकाशकों एवं संपादकों की भरमार के बावजूद। हिन्दी कविता में आज तीन प्रकार के कवि हैं -- एक वे जो ‘जाने’ जाते हैं। दूसरे वे जो ‘माने’ जाते हैं और तीसरे वे जो ‘जाने-माने’ जाते हैं। सबसे सौभाग्यशाली कवि दिखने में तो तीसरी श्रेणी के कवि हैं लेकिन असल में हैं वे दूसरी श्रेणी वाले कवि ही, क्योंकि ‘माने’ की श्रेणी में आने के बाद ‘जाने-माने’ की श्रेणी में उनका प्रस्थान आसान हो जाता है। दूसरी श्रेणी में वे कवि होते हैं जिनकी ओर लाड़-प्यार वाला ध्यान, कुछ प्रभावशाली आलोचक, केन्द्रित करते हैं। प्रायः इन्हें ही संस्थाओं के फल-फूल प्राप्ति का सौभाग्य प्राप्त होता है। बड़े प्रकाशकों के पिछ्छलग्गूपन का आस्वाद भी इन्हें ही मयस्सर होता है। पत्र-पत्रिकाओं की विशिष्ट शोभा भी इन्हीं से बढ़ायी जाती है। पाठयक्रमों में भी ये ही अवलोकित होते हैं। ये ही वे होते हैं जिन्हें अन्य समर्थ कवियों की कुंठा का कारण बनाने के भी भरपूर प्रयत्न चलते रहते हैं। इत्यादि, इत्यादि। ऐसे परिवेश की पहुंच अपनी स्वदेशी धरती पर फल-फूल रहों के साथ, बाहर की धरती तक भी होती है। मुख्यधारा में वहाँ के रचनाकारों का प्रवेश भी प्रायः इसी परिवेश पर निर्भर करता है। हाँ, इतना अवश्य है कि पहली श्रेणी के कवियों में से कुछ, और वे बहुत कम कुछ होते हैं, जल्दी ही ऐसे परिवेश के चक्रव्यूह को तोड़ने में समर्थ भी पाए जाते हैं। फिर भी, फिर भी, हिन्दी कविता के शिखर, जैसा प्रारम्भ में कहा था, सशक्त और ऊँचे हैं। और इसे संभव करने वाले उपर्युक्त तीनों ही श्रेणियों के कवियों में उपलब्ध हैं।

सबसे बड़ी बात यह है कि इस समय की कविता पहले की कविता वाली नारेबाजी, बड़बोलेपन, शोर और उत्तेजना के अतिरेक, सबको कोसों दूर छोड़ आयी है, जॆसा कि पहले भी कहा जा चुका हॆ । सीमित दायरे उसे पसन्द नहीं हैं चाहे वे कथ्य के हों या अभिव्यक्ति के। सूक्ष्म से सूक्ष्म, निजी से निजी और स्थानीयता की महक से भरे अनुभव भी आज की कविता का कथन हैं और विशाल से विशाल तथा व्यापक से व्यापक वैश्विक अनुभव भी आज की कविता से अछूता नहीं है। दृष्टि भी आज के कवि की एकांगी या एक दिशा गामी नहीं है बल्कि वह सच्चे मायने में प्रगतिशील है और संतुलित भी। प्रेम हो या राजनीति, ठेठ आदिवासी और ग्रामीण जीवन हो या कस्बाई और महानगरीय, रसोई हो या पांचसितारा होटल, सम्पन्न हो या दलित, आक्रामक हो या ठग कोई भी उसके अनुभव के दायरे से बचा नहीं है। आतंकवाद ऒर सम्प्रदायवाद तक अपने सबसे घिनॊने रूप के साथ अत्यंत प्रामिणक अनूभूतियों ऒर अनुभवों के साथ समकालीन कविता में मॊजूद हॆं ।अपने समय के समाज और देश की सम्पूर्ण धड़कन इस समय की कविता में उपस्थित हैं, वह भी अपने सम्पूर्ण रूप और विविध गति में। सोच और मार (वार) का एक अद्वितीय रास्ता इस कविता के पास है। इसके लिए उसके पास अपनी तरह के अभिव्यक्ति-औजार भी हैं। लोक (अर्थात् लोकजीवन, लोकभाषा, लोककथाएँ आदि), मिथक आदि से ताकत लेने में उसे गुरेज नहीं है। वह प्रहार करती है लेकिन सार्थक एवं सकारात्मक। सृजनात्मकता में आज की कविता का अटूट विश्वास है अतः वह निषेध और ध्वंस को छोड़ कर चलती है। वह प्रकृति में होने वाले उन छोटे-छोटे, महत्वहीन समझे जाने वाले व्यापारों को सामने लाकर अपनी इस दृष्टि का परिचय भी देती है और उसी राह समाज को चलाने की अपेक्षा भी करती है:

जब चोंच में दबा हो तिनका
तो उससे ज़्यादा खूबसूरत
कोई पक्षी नहीं होता।
(दिविक रमेश)


पक्षी की चोंच में तिनके के दबा होना सृजन और निर्माण की समझ को सामने लाता है। आज के कवि का मुख्य स्वर है ही विध्वंस और मृत्यु के खिलाफ। बाबरी मस्जिद का संदर्भ हो या, 11 सितम्बर अमेरिका का, गुजरात का हो या इराक युद्ध का, या फिर उत्तर प्रदेश की निठारी का, सब उसे बेचैन करते हैं। दिव्या माथुर के संग्रह का ही शीर्षक है 11 सितम्बर। सच तो यह है कि समय के दबाव से जन्मी मनुष्य की जितनी बेचैनियाँ और दबाव हो सकते हैं सब आज की कविता में प्रमुखता से मौजूद हैं। राजनीति की विसंगतियों के, बहुत ही ठहरे हुए तरीके से, आज की कविता परखचे उड़ाने में सक्षम हैं। दो अंश देखिएः
देश हमारा कितना प्यारा
बुश की आँखों का तारा
हम ही क्यों अमरीका जाएँ
अमरीका को भारत लाएँ
(मनमोहन, जिल्लत की रोटी)

हम अणु युग की ताकत का दुख नहीं चाहते
धरती पर विस्फोट नहीं चाहते
हम थोड़ी सी धरती और थोड़ा सा आकाश चाहते हैं
हम धरती का प्यार चाहते हैं
हम तितली और फूलों का प्यार चाहते हैं।
(पंकज चतुर्वेदी, एक ही चेहरा)
इस कविता ने संबंधों की खोती चली गई ‘आत्मीयता’ की वापसी का सफल प्रयत्न भी किया है। माँ, पिता, बहन, भाई, बेटियां, मित्र आदि पर केन्द्रित संभवतः सबसे अधिक कविताएँ इसी दौर ने संभव की हैं। साथ ही, यह भी कि इसी समय में स्त्री और दलित पर केन्द्रित विशिष्ट विमर्शात्मक कविताएँ भी उपलब्ध हुई हैं। प्रवासी कवियों में एक कवि हैं - अनिल जनविजय। उनकी कविताओं का संग्रह है -- राम जी भला करें। कितनी ही कविताओं में कवि का स्त्री-विमर्श मौजूद हैः पुरूष की/सबसे बड़ी/ताकत है/स्त्री। कवि की अभिव्यक्ति काफ़ी सहज और मौजमस्ती वाली है। बानगी देखिएः
मृत्यु -- मृत्यु ने
आलिंगन में बाँधा
और चूमा मुझे कई बार
पर एक दफ़ा भी
उसने मुझसे
किया न सच्चा प्यार।
कविताओं में मौजूद एक भाषागत लय भी आकर्षित करती है।

इसी प्रकार नीलेश रघुवंशी एक चर्चित कवयित्री हैं। अपनी प्रारम्भिक कविताओं से ही वे चर्चा में आ गयी थीं। उन्होंने अपनी कविताओं का अपनापन अर्जित कर लिया है। इनका एक संग्रह है ‘पानी की स्वाद’। स्त्री जगत के इतने सच्चे और टटके अनुभव कम ही कवयित्रियों में मिलते हैं जितने नीलेश के यहाँ। इनकी कविताओं की बड़ी ताकत यह है कि ये प्रचलित और चर्चित हिन्दी कविताओं में खो नहीं जाती। एक कविता है - ढेर सारे काम। यह एक दुर्लभ कविता है --
क्या तुम मार्च के अंत या अप्रैल के शुरू में आओगे?
अब तो ईष्र्या होने लगी है तुमसे

ढ़ेरों काम याद आ रहे हैं इन दिनों
तुम्हारे लिए कपड़े, मालिश की व्यवस्था
एक आया ढूँढ़नी है अभी से, ताकि जब आफिस जाऊँ तो वह तुम्हें अपनी सी लगे
गर्भवती स्त्री और शिशुपालन जैसी किताबें पढ़ती हूँ इन दिनों
ढ़ेर सारे नाम खोजती फिरती हूँ
हर दिन दूध वाले की जान खाती हूँ
दिन-भर इन्हीं चकल्लसों में उलझी रहती हूँ
फिर भी काम हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे।

हिंदी की जिन गिनी-चुनी कवयित्रियों ने पिछले कुछ वर्षों की सशक्त हिंदी कविता को संभव किया है उनमें कात्यायनी का नाम अग्रणी है। ‘जादू नहीं कविता’ इनका यद्यपि तीसरा संग्रह है लेकिन इसमें उनकी 1987 से 1997 के बीच लिखी गई वे कविताएँ हैं जो पिछले दो संग्रहों में शामिल नहीं हो सकी थीं। इस कवयित्री के आदर्श पाब्लो नेरूदा, नाज़िम हिकमत जैसे कवि हैं और इनकी प्रगतिशील दृष्टि सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन की प्रक्रिया में आस्था रखती है। इसलिए यथास्थिति के प्रति एक विद्रोह इनकी कविताओं में प्रायः मिलता है। कविताओं में जहाँ स्त्री सुलभ स्त्री-पीड़ा है तो उत्पीड़ित मनुष्य का दुःख और उसका संघर्ष भी है। इनमें हर भ्रम का पर्दाफ़ाश करते हुए सच तक पहुँचने की कोशिश और समझ है।
स्मृति स्वप्न नहीं
आशाएँ भ्रम नहीं
कविता जादू नहीं
सिर्फ कवि हम नहीं।
इस कवयित्री का कविता-कैनवास भी काफ़ी विस्तृत है। आलोचकों, पुरस्कारों, बड़े कवियों आदि से संबद्ध कुछ दिलचस्प कविताएँ भी यहाँ हैं:
बड़े कवि लगातार सोचते हैं
और वे सोचते हैं
कि सिर्फ वे ही सोचते हैं
या कि जो वे सोचते हैं
वह सिर्फ वे ही सोचते हैं।
वे लगातार सोचते हैं
और सोचना उन्हें अकेला कर देता है।

एक छोटी-सी घटना या कि एक छोट-सा स्मृति खंड अनामिका की कविता में एक वैचारिक मनःस्थिति का प्रेरक होकर आता है। ये कविताएँ भीतर से बाहर और निजता से समाज की ओर फैलती हैं। संग्रह की कुछ अच्छी कविताएँ स्त्री और बच्चे पर केंद्रित हैं। ‘ऋषिका’ कविता का एक अंश उद्धृत हैः--
माँ हूं मैं, मेरे भरोसे ही
बीमार पड़ता है चाँद !
जाओ, अब दूध पिलाऊँगी मैं,
सोओ कि इसे सुलाऊँगी मैं
उफ, करवट फेरने की जगह करो
मत खींचा-तानी बेवजह करो।
अनामिका के पास दृश्य-बंधों को सजीव करने वाली भाषा है, बिंबधर्मिता पर इनकी अच्छी पकड़ है। जाड़ा और संबंध ऐसी कविताएँ हैं, जहाँ व्यक्ति की यातना भाषा के भीतर से ऐसे रिस-रिस कर आती है जैसे आम की गुठली को देर तक चूसने पर भी स्वाद आता रहता है। भाषा की यह गुठली को देर तक चूसने पर भी स्वाद आता रहता है। भाषा की यह विशिष्टता अनामिका की अपनी विशिष्टता है।

इसके अतिरिक्त आज हिदी में स्त्री केन्द्रित कविताओं के साथ-साथ दलित केंद्रित भी अनेक ऐसी कविताएँ इस दौर में उपलब्ध हैं, जिन्हें हिन्दी कविता को मौलिक योगदान कहा जा सकता है। हालांकि यह विचारणिय हॆ कि क्या इन कविताओं ऒर तथाकथित इन से बाहर की कविताओं के झगड़ों को बढ़ाया जाए या हिन्दी कविता की एक विविधरंगी मुख्य धारा को खोजा जाए । खॆर । आज दलित कविता भरत की प्रय: सभी मुख्य भाषाओं में लिखी जा रही हॆ । मराठी में दलित कविता के मन्द-मन्द स्वर 1965-67 के आसपास प्रारम्भ हो गए थे जबकि आज वह समकालीन मराठी-कविता का अत्यंत महात्त्वपूर्ण हिस्सा हॆ । दलित कवियों में ऎसे कवि भी हॆं जो मार्क्स में आस्था रखते हॆं । ऎसे कवियों में बदले की सी गालीगलॊच के स्थान पर कुप्रवृतियों ऒर सामाजि-आर्थिक शोषकों के दमन ऒर उनकी चालाकियों पर तीखे प्रहार अधिक हॆं । मराठी दलित कविता में दलित कविता से आशय हॆ दलित कवियों द्वारा लिखी गयी कविता अर्थात अस्पृश्यता, समाजिक शोषण, जातिवाद ऒर अन्याय के खिलाफ़ विद्रोह ।मराठी दलित कविता की अनुवाद के माध्यम से अपनी पुस्तक ’रक्त में जलते हुए अनगिनत सूर्य’ (1982) के द्वारा हिन्दी जगत को कदाचित पहली झलक दिखाने वाले कवि दिनकर सोनवलकर के शब्दों में -" आगे चलकर दलित कविता दो दिशाओं में विकसित होने लगी- एक, अम्बेडकर, जिस पर बुद्ध के यथार्थवादी मानवतावाद का प्रभाव हॆ ऒर दूसरी, मार्क्सवादी जो समाज के आर्थिक विश्लेषण से प्रेरित हॆ । ....विद्रोह (दलित कविता) इसमें भी हॆ लेकिन वह फ़ेशनेबिल, सुविधाभोगी, बुद्धिजीवियों का शगल नहीं । जनवाद इसमें भी हॆ लेकिन वह पार्टी-पीड़ित नहीं हॆ ऒर न ही साहित्य में प्रतिष्ठित होने की एक आसान सीढ़ी । दलित कविता की ताकत हॆ ज़िन्दगी के कड़ुवे अनुभव, कवियों के आंसू, खून, पसीने ऒर उनके गुस्से से लिखी गयीं रचनाएं । उनका नाता दलितों के यथार्थ से हॆ । अपने अनुभवों से वह गहरे से जुड़ी हुई हॆ मसलन मां (आई) का वर्णन इसमे भी हॆ, लेकिन वह वात्सल्य, प्रेम, लाड़-प्यार लुटाने वाली मां नहीं हॆ; क्योंकि ऎसी असंख्य माताएं आज भी हॆं, जो रद्दी कागज़, लकड़ी, बोतले या लोहे के टुकड़े बीन-बीन कर अपना ऒर बच्चों का पेट पाल रही हॆं । ..... अम्बेडकरवादी कविता मार्क्सवाद के विरोध में कतई नहीं हॆ । उसके कथ्य निखालिस ’देसी’ हॆं ऒर संदर्भ भारतीय ।’ बहरहाल बात यदि हिदी दलित कविता की की जाए तो आज सुशीला टाक्भॊरें, सूरजपाल चैहान, कावेरी, ओमप्रकाश वाल्मीकि, डॉ जय प्रकाश कर्दम, मोहन्दास नॆमिशराय, सुदेश तन्वर, सूरज बडत्या, मुकेश मानस आदि कितने ही कवि हॆं जो इसे आवाज दे रहे हॆं । मलखान सिंह की एक कविता ’एक पूरी उम्र’ की निम्न पंक्तियों का मर्म भीतर तक हिला जाता हॆ :
यकीन मानिए
इस आदमखोर गांव में
मुझे डर लगता हॆ ।
लगता हॆ कि अभी बस अभी
ठुकुराइसी मॆंड़ चीखेगी
मॆं अध्सॊंच ही
खेत से उठ जाऊंगा
कि अभी बस अभी
हवेली घुड़केगी,
मॆं बेगारी में पकड़ा जाऊंगा ।

समकालीन हिन्दी कविता में अवसाद और चिन्ता के स्वर बहुत मिलते हैं जो उनके विरुद्ध खड़े होने की मानसिकता तॆयार करते हॆं- त्रिलोचनी कविता की तरह ।

ज्ञानेन्द्रपति की कुछ बेहतरीन कविताएँ राजनीतिक क्रूरताओं और आत्म व्यंग्य के कठिन स्वरों का दस्तावेज हैं। उनकी कविताओं में संबंध के प्रति आत्मीय भाव भी पूरे विवेक के साथ अभी जमा हुआ है। उनकी कविताओं में ‘देशज’ का सौन्दर्य देखते ही बनता है। स्थानीयता या देसीपन समकालीन कविता का एक ऎसा विशिष्ट गुण हॆ जिसके रहते आज हर कव एक दूसरे का समकालीन भी कहा जा सकता हे ऒर एक दूसरे से अलग भी । मानबहादुर सिंह के यहां अवध का सहज रंग मिलता हॆ तो विजेन्द्र के यहां राजस्थान का । खुद मेरी कविताओं के एक विशिष्ट गुण के रूप में कवि केदार नाथ सिंह ने मेरी कविताओं में सहज ही उपस्थित हरियाणवी ऒर हरियाणे को माना हॆ । असल में लोक (लोक कथाएं, मुहावरे, गीत इत्यादि) से आज की कविता न केवल अपनी अनुभव सम्पदा को ऒर समृद्ध करती हॆ बल्कि कलागत क्षमताओं के लिए भी लोक का बड़े स्रोत के रूप में उपयोग करती हॆ जो मेरी निगाह में एक सही ऒर महत्त्वपूर्ण रास्ता हॆ ।नवीनतम पीढ़ी के रचनाकारों को इस ओर विचार करना चाहिए । एक कवि हॆ आलोकधन्वा । इनकी कविताओं से भी सीखा जा सकता हॆ ।

चलते-चलते चार-पांच कवियों का और जिक्र करना चाहूँगा। एक हैं मॉरिशिश के हेमराज सुन्दर जिनकी कविताओं के संग्रह का नाम है - ‘अस्वीकृति में उठे हाथ’, दूसरे हैं सुन्दर चंद ठाकुर जिनका कविता-संग्रह है, ‘किसी रंग की छाया, तीसरे हैं, डॉ. कृष्ण कुमार जिनके चार कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं , चॊथे हैं केरल के अरविंदाक्षन जिनके संग्रह का नाम है - ‘घोड़ा’ऒर पांचवे हॆं -विश्वरंजन जिनकी कविताओं से मेरा परिचय अपेक्षाकृत नया हॆ । उनकी अच्छी कविताओं के दूसर संग्रह का शीर्षक हॆ :’आती हॆ बहुत अंदर से आवाज’ ।

सोमदत्त बखौरी की पीढ़ी के बाद, अभिमन्यु अनत के शब्दों में, ‘हेमराज सुन्दर ने - अपने समय के नवोदित कवियों में कविता के नए तकाज़े की पहल की है।’ वस्तुतः इनकी कविताओं में आक्रोश तो है लेकिन मात्र उत्तेजना एवं कुंठा नहीं। कुछ पंक्तियाँ हैं --
एक है सूर्य एक है चन्द्रमा
धरती-गगन एक है
परी तालाब से सागर तक फैला
सारा मॉरिशस एक है।

सुन्दरचन्द ठाकुर एक सशक्त कवि हैं जिनके पास अपना एक भाषा-मुहावरा है। कुछ ही पंक्तियाँ देखें:
मेरी नींद में सपने खत्म नहीं होते
मेरी आँख में उम्मीद अटकी रहती है
मेरे पाँव में लिपटी रहती हैं यात्राएँ
मेरे हाथ कभी खाली नहीं रहते।
(मैं आदमी हूँ)

स्पष्ट है कि ये पंक्तियाँ एक बहु वांछनीय परिवेश की ओर तो इंगित करती ही हैं, आज समेत किसी भी समय के किसी भी ‘विमर्श’ को स्वर देने में भी समर्थ हैं। कुछ और पंक्तियाँ देखें:

‘हत्यारा खून से लिख रहा है प्रार्थना
मंच पर खड़ा है मसखरा
----
कविता की तरह थी यहाँ एक स्त्री
उसकी चुप्पी दिनों दिन बढ़ती ही जाती थी
----
समारोह में बंटते थे प्रशस्ति-पत्र - पुरस्कार
कविताओं में बढ़ता जाता था व्यापार।
----
उसके ऊपर एक पंखा
उसकी नींद की रखवाली करता घूमता रहता है।

दृश्य से जा चुकी वह चिड़िया
अभी बची हुई है वहाँ
उसके पंजों के नीचे दबी घास
खुल रही है धीरे-धीरे
वातावरण में
उसकी कूक की अनुपस्थिति मौजूद है।
स्त्री को थकान लगती थी और नींद आती थी
पुरूष उससे एक कप चाय की फरमाइश करता था।

कृष्ण कुमार के यहाँ ऊँचे मूल्यों के स्खलन की चिन्ता को लेकर बहुत ही अच्छी और गंभीर काव्याभिव्यक्तियाँ हैं। वे तीखे सवाल उठाती हैं। उनके पास रूढ़ि भेदक दृष्टि है। ऊपर से लग सकता है उनके यहाँ अध्यात्म ही अध्यात्म है लेकिन गहरे में सामाजिक विसंगतियों, मूल्य-स्खलन आदि का व्यंग्यपरक एवं संवेदनात्मक परिदृश्य मौजूद है।

अरविंदाक्षन की कविताओं की मूल चिन्ता पृथ्वी के सौन्दर्य को विनाश से बचाने की है। धरती को नष्ट करने वाले धूमकेतुओं से कवि सावधान करना चाहता है।

विश्वरंजन एक समर्थ कवि हॆं । चाल धीमी सही पर कदम पुख्ता हॆं । उनके पास एक दृष्टि-मंत्र भी हॆ :
जब सबकी हो जाती हॆ ज़मीन/ सामुहिक हो जाता हॆ मंत्र
यह कवि बहुत गहरे तक चालाकियों ऒर दर्दों की पहचान रखता हॆ लेकिन इनके यहां विद्रोह ’अफसोस’ ऒर ’आक्रोश’ के रूप में अधिक हे:
बच्चे जवान होने से पहले ही/ मार दिए जाएंगे इस बाहरी दुनिया में
बाज़ार दॆत्य बन नाचेगा/ ऒर मांगेगा रक्त/ आसमान में छींट उड़ेगे खून के/
ऒर उड़ेगी गर्दो-गुबार ।

क्या सचमुच समझ पा रहे हॆं हम
नज़फगढ़ या
उस जॆसे तमाम
शहर बन रहे गावों का दर्द ऒर
बाज़ार का रेंगता-सा खूनी पंजा ?

ऒर ऎसा सब देख-समझ कर कवि अपने अन्दर उतरने लगता हॆ । एक कविता हॆ, ’श्रीनगर की सड़कें ऒर दूर दिल्ली में जा बसे कुछ लोग’ जो सपनों को बचाए रखने में विश्वास जगाती हॆ ।’ अब बचपन के दिन कहां’ जॆसी कविताएं इसलिए मजबूत हॆं क्योंकि इन्होंने अपना शिल्प खुद तलाशा हॆ । अनेक ऎसी कविताएं हॆं जो हांट करती हॆं क्योंकि उनमें बहुत ही भयावह स्थितियों के मार्मिक चित्र हॆ । विस्तार भय के बावजूद एक बहुत ही अच्छी कविता ’मेहमान’ का इसलिए जिक्र करना चाहूंगा क्योंकि इस छोटी सी कविता में घर-परिवार की पूरी देसीयता ऒर संस्कृति बड़ी क्रिस्पी रूप में व्यक्त हुई हॆ ऒर वह प्रभावशाली हॆ । इसमें हमारी मध्यवर्गीय मनोवृति की एक सच्ची छवि हॆ :

जब नहीं आता हे मेहमान
घर में कब्रिस्तान का फॆलाव होता हॆ
आज भी नहीं आया कोई मेहमान घर में
घर में कब्रिस्तान का सन्नाटा हॆ ।

अंत की ओर आते-आते यहां मॆं एक मुद्दा उठाना चाहता हूं हालांकि यह बहुत नया भी नहीं हॆ । । विशेष रूप से आज के युवा कवियों के समक्ष । आज दलित विमर्श हॆ, स्त्री विमर्श हॆ ऒर आदिवासी विमर्श भी हो सकता हॆ । सबके अपने-अपने सॊन्दर्य-शास्त्र भी बन चले हॆं । फिर भी जिस मुद्दे को यहां उठाने वाला हूं वह ऎसा हॆ जिसका वास्ता सबसे पड़ सकता हॆ । व्यापक रूप में प्राय: सब कलाओं से । अत: मेरी निगाह में महात्त्वपूर्ण हॆ । बात युं शुरु की जा सकती हॆ कि कलाकार ( जिसमें कवि भी सम्मिलित हॆ ) ऒर समाज के रिश्ते को लेकर प्राय: दो दृष्टिकोण मिलते हॆं । एक यह कि कलाकार एक विशिष्ट व्यक्ति होता हॆ । वह जो कुछ भी रचता हॆ वह ईश्वर से मिली अपनी प्रतिभा के के बल पर ही रचता हॆ । वह पॆदा ही मॊलिक प्रतिभा लेकर होता हे । ऎसी दृष्टिवाले लोग कलाकार की निष्ठा खुद कलाकार ऒर उसकी कला तक ही सीमित मानते हॆं । ऎसी स्थिति में उनकी धारणा हॆ कि कलाकार की दुनिया में किसी को भी दख़ल देने का कोई अधिकार नहीं होता । अत: उनके लिए सामाजिक मुद्दा कोई मुद्दा ही नहीं होता ।तब वह कलाकार एक ऎसी आधुनिकता को जीता हॆ जो ’व्यक्ति’ पर किसी प्रकार के अंकुश या रोक का विरोध करती हॆ । उसकी मानसिकता ’मुझे समाज से क्या लेना-देना’ वाली होती हॆ । समाज पर वह अहसान ही करता नज़र आता हॆ । समाज का उस पर कोई अहसान नहीं होता । दू्सरा यह कि कलाकार अन्तत: समाज ही की देन हॆ । वह समाज निरपेक्ष हो ही नहीं सकता । समाज से संबंध की हर सोच से उसका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष लेना-देना होता हॆ । वह समाज के प्रति प्रतिबद्ध होता हॆ जिसके अभाव में वह महत्त्वपूर्ण ऒर मूल्यवान कला या रचना दे ही नहीं सकता । अत: वह समाज के प्रति उत्तरदायी ऒर कृतज्ञ होता हॆ । समाज के हित में वह हमेशा अपने विवेक को जागृत रखना चाहता हॆ।

इन दो दृष्टिकोणों के आधार में मूल अन्तर कदाचित कला-कर्म की प्रकृति को लेकर हॆ । कलाकर्म को आत्मनिष्ठ मानने वाले उसे प्राकृत कर्म मानते हॆं जबकि उसे सामाजिक मानने वाले एक चेतन कर्म मानते हॆं । चेतन कर्म में अपने ल्क्ष्यों के प्रति कलाकार जागरूक रहता हॆ । वह अर्जित किए हुए व्यक्तित्व की सॄजन-क्षमाताओं से लिखता हॆ । उसकी कला एक ऎसा रूप अर्जित करती हॆ जो दूसरों की मानसिकता में प्रवेश कर उसे प्रभावित करती हॆ, उसे दूसरों से जोड़ती हॆ । इस तरह कलाकार की सामाजिक प्रतिबद्धता दूसरे की सामाजिक प्रतिबद्धता बन जाती हॆ । दूसरी ओर आत्मनिष्ठ कलाकार अपनी निजता को ही रचता रहता हॆ । अपनी मॊलिकता के नाम पर अजूबा भी बनने का खतरा उठाता हॆ ।

अब सवाल यह हॆ कि जब समाज स्वयं परिवर्तन्शील हॆ, जब उसके मूल्य ही स्थिर नहीं हॆं, जब दुनिया में अनेक सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाएं हॆं, नए समाज की अनेक अवधारणाएं हॆं तो कलाकार कॆसे उसके प्रति प्रतिबद्ध होकर स्थायी या शश्वत मूल्यों की कला दे सकता हॆ । ऒर यह भी तो हो सकता हे कि जिस कला को एक कलाकार समाज के हित में मान रहा हॆ, वह समाज को अपने हित में ही न लगे । ऒर यह भी कि इस विविध रंगी समाज के किस रंग के प्रति कलाकार प्रतिबद्ध हो ।

ये उलझाव अपनी जगह सही हो सकते हॆं तो ण्भी मॆं इन्हें सामाजिक प्रतिबद्धता की राह में बड़ी रुकावट नहीं मानता । मोटे तॊर पर हर कलाकार अपने सम्य के योग्य चिन्तन की तस्वीर पेश किया करता हॆ । उसी के सहारे वह दूसरे लोगों को उस चिन्तन को परखने ऒर अपनाने के लिए प्रेरित भी करता हॆ।सच्ची कला जनता के दु:ख-सुख की पहचान ही नहीं कराती बल्कि विकल्प के रूप में एक नयी योग्य दुनिया की खोज के लिए प्रेरित भी किया करती हॆ । ऎसा प्रयत्न उन रचनाकारों का भी रहा हॆ जिन्होंने साहित्य का उद्देश्य ’स्वान्त: सुखाय घोषित किया हॆ ।’स्वन्त: सुखाय’ की बात करके वस्तुत: कलाकार उन बाह्य प्रभावों के प्रलोभनों के नकार की बात करता हॆ जो उसे उसके सच्चे विवेकशील रास्ते से हटा कर सत्ता या व्यवस्था का चाटूकार या पिच्छ्लग्गू बनने की राह पर धकलेने का प्रयत्न किया करते हॆं । उसे इस्तेमाल की वस्तु में बदलने की कोशिश किया करते हॆं । जिनके रहते वह अपनी बात कहने तक को स्वतन्त्र नही रह पाता ।

यह भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि कला का समाज से कोई यांत्रिक संबंध नहीं होता हांलाकि कला ऒर समाज के विकास का परस्पर सबंध गहरा होता हॆ ।मुक्तिबोध के अनुसार, ’मानव-चेतना, वस्तुत: मानव-संबंधों से निर्मित तथा उससे उद्गत चेतना हॆ । ये मानव-संबंध समाज के विकास के साथ परिवर्तित होते रहते हॆं, तथा समाज की विशेष स्थितियों की उनमें विशेषताएं प्रकट होती रहती हॆं । विशेषता संयुक्त ये मानव-संबंध, मानव-चेतना की मूलभूत नींवें हॆं, जिनके आधार पर कला, दर्शन, धर्म तथा साहित्य की सृष्टि होती हॆ । इन्हीं मानव-संबंधों की अवस्था-विशेष के अनुसार मानव की विश्व-दृष्टि भी बनती हॆ । निश्चय ही उसकी यह दृष्ट उसकी चेतना का ही अंग हॆ ।....चेतना कोई व्यक्तिगत वस्तु नहीं होती, उसके वस्तु-तत्व भी सामाजिक होते हॆं । ऎसे समय में जबकि मानव-विरोधी शक्तियां पूर ज़ोरों पर हॆं, बाज़ार हावी होता चला जा रहा हॆ ऒर कला को धीरे-धीरे निष्क्रिय ऒर निष्प्राण बना देने की साज़िशें चल रही हॆं , रचनाकार या कलाकार को इन मानव-विरोधी ताकतों के प्रति अतिरिक्त रूप से सजग होना पड़ेगा । लेकिन रचनात्मक चुनॊतियों का सामना करते हुए । प्रतिबद्ध होना किसी कलाकार के सही दिशा या सोच की ओर होना तो होता हॆ लेकिन कलाकार की कला के उत्कृष्ट होने की वह गारंटी नहीं होता । इसीलिए अपनी कला की उत्कृष्टता के लिए कला की कलात्मक अपेक्षाओं अर्थात क्षमताओं के प्रति उसे उदासीन नहीं होना होता । अत: दलित-विमर्श हो या स्त्री-विमर्श; आदिवासी -विमर्श हो या गरीब-विमर्श ये कला में कोरे नारे या दिखावे नहीं हो सकते । ये कविता य किसी भी कला-रूप मे फ्रेम में जड़ाऊ मात्र नहीं होने चाहिए , अन्यथा रचना या कला दो कॊड़ी की बन कर रह जाएगी भले ही बात या विचार कितना ही ग्राह्य क्यों न हो । मेरा तो ऎसा ही मानना हॆ ।

अंत में यह तो कहा ही जा सकता है कि हिन्दी कविता निरन्तर गतिशील है और एक से एक शिखर संभव करने को लालायित भी। बावजूद गद्य की चुनौतियों के। उसे सामने लाने में आज तो कितने ही ‘वैब जाल’ भी सशक्त भूमिका निभा रहे हैं। हर जागरूक पाठक और रचनाकार इन वैबजालों से आज परिचित है। इनके माध्यम से हिन्दी कविता पूरे विश्व के हिन्दी रचनाकारों और पाठकों को एक साथ जोड़ने की महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। अनुभूति, अभिव्यक्ति, सृजन गाथा, गर्भनाल और हिन्दी नेस्ट (बोलोजी) आदि अत्यंत महत्वपूर्ण हिंदी वेब जाल हैं। और अन्त में कवि त्रिलोचन के शब्दों में ‘हिन्दी कविता उनकी कविता है जिनकी सांसों में आराम नहीं था।’

बी-295, सेक्टर-20
नोएडा-201301

1. हाल ही में एक और महत्वपूर्ण वेब जाल ‘साहित्य कुंज’ से भी परिचय हुआ है।

-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------